विजय राही से प्रचण्ड प्रवीर की बातचीत

 

विजय राही 



किसी भी व्यक्ति का जीवन स्वयं में एक महाकाव्य या उपन्यास की तरह ही होता है। अगर वह व्यक्ति रचनाकार हो तो वह अपने समय को अपनी रचनाओं या फिर बातचीत में खुल कर अभिव्यक्त करता है। विजय राही हमारे समय के सुपरिचित कवि हैं। उनके पास वह जीवनानुभव है जो प्रायः हरेक संघर्षशील व्यक्ति की गाथा होती है। प्रचण्ड प्रवीर ने इधर कुछ युवा कवियों से बातचीत का एक सिलसिला आरम्भ किया है। पहली कड़ी में उन्होंने कवि कमलजीत चौधरी से बातचीत किया था। इस बार उन्होंने विजय राही से कई मुद्दों पर तफ्सील से बातचीत की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय राही से प्रचण्ड प्रवीर की बातचीत 'बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी।'



बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी


विजय राही से प्रचण्ड प्रवीर की बातचीत



पूर्वज स्मरण


प्रश्न :- हिन्दी साहित्य की उन पाँच कृतियों या रचनाओं का उल्लेख करें जो आपके लिए महत्त्वपूर्ण रही हों।


उत्तर- प्रवीर जी, हिन्दी साहित्य से पाँच पसंदीदा कृतियों को चुनना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा लेकिन फिर भी कोशिश करता हूँ, थोड़ा कम ज़्यादा हो सकता है। कबीर मेरे लिए पहले कवि थे, मैं जिनको पढ़ कर बचपन में रोया करता था। मुझे जिन कृतियों ने सर्वाधिक प्रभावित किया, उनके नाम नीचे लिख रहा हूँ-


१. अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य

२. कबीर ग्रन्थावली

३. गोदान (प्रेमचन्द)

४. शेखर एक जीवनी (अज्ञेय)

५. चाँद का मुँह टेढ़ा है (मुक्तिबोध)

६. मलयज की डायरी






आत्म निवेदन


प्रश्न: अपनी दो रचनाओं का उल्लेख करें जो आप पाठकों को बताना चाहते हैं?


यह आवश्यक नहीं कि आप अपने सर्वश्रेष्ठ का निर्णय करें। आशय यह है कि यदि पाठक आपसे संक्षिप्त रूप में परिचित होना चाहें, इसमें आप उनकी सहायता कीजिए।


उत्तर:- जी, मेरी कोई भी किताब अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। राजकमल प्रकाशन समूह से मेरे पहले कविता संग्रह 'दूर से दिख जाती है बारिश' की ईमेल पर प्रकाशन हेतु स्वीकृति मिल चुकी है। आपका आग्रह था कि हम संवाद करें, किताब तो आती रहेगी। अब में यहाँ कुछेक कविताओं की ही बात करूंगा जो पाठकों को पसंद आई हैं और उनके द्वारा सराही गई हैं। रचनाकार को तो अपनी सारी रचनाएँ ही अच्छी लगती हैं जैसे एक माँ को अपनी सारी संतानें प्रिय होती हैं। लेकिन आपने केवल दो रचनाओं पर ही बात करने को कहा है तो पहले दो कविताओं पर बात करूंगा।


[1] आँधी- यह मेरी शुरुआती कविताओं में से एक है, बल्कि यूँ कहिए कि यह एक पूरी सीरीज है। यहाँ आँधी अभिधा में है तो लक्षणा और व्यंजना में भी है। मेरे द्वारा आँधी सिर्फ अपनी बात कहने का माध्यम-भर है। एक कविता आपको यहाँ पढ़वाना चाहूँगा -


आँधी


आँधी जब आती है

बदल जाता है धरती-आसमान का रंग

बदल जाती है पेड़-पौधों की आवाज़ 

उड़ जाता है सबके चेहरों का नूर 

शरीर के साथ-साथ आत्मा तक

ज़मा हो जाती है ढेर सारी धूल


आँधी जब आती है

कर देती है बहुत कुछ इधर का उधर

आँधी में चला जाता है 

अनवर का कोट राधा के आँगन में 

फिर वहीं फँस कर रह जाता है 

दीवार पर लगे तारों में 

आँधी में ही चला जाता है 

मोहन का रूमाल शबीना की छत पर

उलझ जाता है टीवी के एंटीने में


आँधी में चला जाता है 

कवि का मन कहीं दूर अपने प्रिय के पास

और ठहर जाता है आँधी थम जाने तक

जब वह वापस आता है

तब उसके साथ में आती है कविता


कविताएँ

कवि-मन में चलने वाली आँधी की बेटियाँ हैं


[2] बहन- यह कविता ऐसी कविता है जिसने मुझे व्यापक स्तर पर पहचान दिलाई। मेरे कवि मित्र इसे मेरी प्रतिनिधि कविता मानते हैं। यह मेरे जीवन से जुड़ी कविता तो है साथ ही दुनिया की तमाम बहनें और स्त्रियाँ भी इससे जुड़ जाती हैं और इसके पाठ में हाथ बँटाती हैं। इस कविता पर पुणे यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर डॉ. शशिकला रॉय के बनाए गए पोस्टर को फ़ेसबुक पर लगभग अठारह लाख लोगों द्वारा देखा गया। इसका मराठी, पंजाबी और राजस्थानी में भी अनुवाद हुआ है। आप यह कविता पढ़िए और इसका सुंदर पोस्टर भी देखिए-


बहन


एक घंटे में लहसुन छीलती है

फिर भी छिलके रह जाते हैं

दो घंटे में बर्तन माँजती है

फिर भी गंदे रह जाते हैं

तीन घंटे में रोटी बनाती है

फिर भी जली, कच्ची पक्की

कुएँ से पानी लाती है 

मटकी फोड़ आती है 

जब भी ससुराल आती है 

हर बार दूसरी ढाणी का 

रास्ता पकड़ लेती है


औरतें छेडती हैं तो चुप हो जाती है 

ठसक से नहीं रहती बेमतलब हँसने लगती है 

खाने-पीने की कोई कमी नहीं है 

फिर भी रोती रहती है

"काँई लखण कोनी धारी बहण में"


यह सब

बहन की सास ने कहा मुझसे 

चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए

जब पिछली बार बहन से मिलने गया


मैंने घर आ कर माँ से कहा

बहन पागल हो गई है

सास ने उसको जिन्दा ही मार दिया

कुएँ में पटक दिया तुमने उसे


माँ ने कहा

लूगड़ी के पल्ले से आँखें पोंछते हुए-

"तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो

म्हारी बेटी खूब मौज में है।"






चूँकि मैं राजस्थानी और उर्दू में भी लिखता हूँ, तो एक राजस्थानी कविता जो माड़ भाषा में है- 'थारो ब्याव' और एक ग़ज़ल जो 'हंस' पत्रिका में दो बार जून, 2019 और जनवरी, 2020 में प्रकाशित हुई। दूसरी बार शायद संपादकीय भूल से प्रकाशित हुई होगी, उस बारे में मैंने सोशल मीडिया पर लिखा भी था। इसके बाद मुझे हंस' ने अब तक बिल्कुल नहीं छापा है।। दोनों रचनाएँ मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा-


१. थारो ब्याव 


तू कतरी भोली छ बता

खुद का ब्याव को नौतो देबा आगी


म्ह किस्या आऊँगो थ्हारा ब्याव म

काँई होबेगो जद तू मोकू देखेगी

ब्याव, बरात और लाड़ा कू तो भूल जाबेगी

म्हारी बाथ भर लेगी छाव-छाव म

तू ही बता म्ह किस्या आऊँगो व्हारा ब्याव म



२. गज़ल


शजर की सरपरस्ती माँगता है

परिन्दा एक टहनी माँगता है


उतर कर वो मेरी आँखों के रस्ते

मक़ाने दिल की चाबी माँगता है


मेरे लहजे पे दरिया बोल उठा

कोई ऐसे भी पानी माँगता है


पकड़ लेता है कोई हाथ वरना

गला मेरा तो रस्सी माँगता है


कभी जब वस्ल की होती है बातें

वो मुझसे रात सारी माँगता है


मेरा दिल भी फ़कीरों की तरह है

ये सहराओं से पानी माँगता है


वो जब आनी है तब आयेगी 'राही'

तू क्यों पटरी पे गाडी माँगता है






भौगौलिक सांस्कृतिक विशेषताएँ


प्रश्न:- आप जिन शहरों, ग्रामों, महानगरों में रहे हो आपकी दृष्टि से वहाँ की पाँच प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?


यह समाज विज्ञान का प्रश्न नहीं है। सरस संस्मरणात्मक विवरण से हम सभी लाभान्वित हो सकते हैं।


उत्तर :- जी, मैं पढ़ने-लिखने और नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग कस्बों-शहरों में रहा हूँ। जिनमें लालसोट, दौसा, भानगढ़, जयपुर, चौमहला और दिल्ली प्रमुख हैं। मैं सबके बारे में अलग-अलग बात करना चाहूँगा।



लालसोट -


लालसोट मेरे दिल में बसा है और हमेशा रहेगा। यह मेरे लिए अपने घर के आँगन की तरह है। यहाँ की संस्कृति और बोली-भाषा तथाकथित राजस्थानी से बिल्कुल अलहदा है। इससे मेरी आत्मा इसलिए भी जुड़ी है, क्योंकि बचपन और किशोरपन लालसोट के गाँव बिलौना जो कि मेरा गाँव है, यहाँ गुज़रा है। लालसोट कस्बे का 'हेला ख्याल दंगल' और होली पर होने वाला कवि सम्मेलन में लंबे समय से देखता-सुनता रहा हूँ। हम लोग गाँव से जुगाड़ ट्रेक्टर में बैठ कर आते थे और सारी रात सुनते थे। एक बार मैंने भी कवि सम्मेलन में कविता पढ़ी थी। यहाँ के लोक कवि हजारी लाल ग्रामीण ने हेला ख्याल दंगल को विशेष प्रतिष्ठा दिलाई है। वे आशु कवि होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी रहें। हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला' की तर्ज पर उन्होंने 'धर्मशाला' काव्य लिखा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक भाव बोध लिए हुए है। उनके बड़े बेटे ने मुझे वह पाण्डुलिपि दिखाई थी, जब मैं पिछले महीने लालसोट गया था। अभी गतवर्ष रेख़्ता के हिन्दी उपक्रम 'हिन्दवी' ने हेला ख़्याल दंगल पर डाक्यूमेंट्री भी बनाई है। ब्रज मोहन द्विवेदी ने इस कस्बे को जानने-समझने के लिए 'लालसोट का इतिहास' शीर्षक से एक सुन्दर किताब लिखी है। यह मत्स्य जनपद का माड़ इलाका है और यहाँ माड़ भाषा (स्थानीय राजस्थानी) बोली जाती है। मैंने भी इस भाषा में कविताएँ लिखी हैं और ये कविताएँ हजारी लाल ग्रामीण को समर्पित हैं। अब यहाँ के पद दंगलों में लोक कवि धवले की तो लोक गीतों में सुरेश सोनन्दा की धूम रहती है, इन्हें आप एक क्लिक में गूगल और पर देख सकते हैं।





दौसा- 

यह मेरा गृह जिला है इसलिए भी मुझे ज़्यादा प्यारा है। अरावली पहाड़ियों से घिरा यह कस्बा 'देवनागरी' के नाम से जाना जाता है। संत सुंदर दास जो कि दादू दयाल के प्रिय शिष्य थे, वे दौसा से ही ताल्लुक रखते थे। चाँद बावड़ी, पपलाज माता मंदिर, गेटोलाव तालाब और नीलकंठ मन्दिर यहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। मैंने स्कूल विभाग में नौकरी करते हुए दौसा में काफी वक्त गुज़ारा है। चाहे बी ए हो या बाद में प्रतियोगी पारीक्षाओं की तैयारी हो मैंने अधिकतर पढ़ाई-लिखाई इधर ही की है। यहाँ भी मुझे अच्छे मित्र मिलें जो पढ़ने-लिखने में रुचि रखते हैं। जिनमें अंजीव अंजुम, बाबूलाल शर्मा, राजीव व्यास, अमर दलपुरा, विष्णु शर्मा, शंकर वीरान आदि उल्लेखनीय हैं। कुछ साथी और भी हैं जो यहाँ हर महीने काव्य गोष्ठी का आयोजन करते हैं। संत सुंदर दास जयंती पर यहाँ प्रति वर्ष सुंदर कवि सम्मेलन का आयोजन होता है।




भानगढ़ 

कभी-कभी मुझे ऐसे लगता है मानो यह कस्बा मेरे जैसे उदास लोगों के लिए ही बनाया गया हो। कैलाश मनहर की एक कविता है- " अरे भानगढ़! रहना तुझको सारी उम्र उदास" यह पंक्ति भानगढ़ के साथ मुझ पर भी समान रूप से लागू होती है। हुआ यूँ कि मार्च, 2018 में मेरी शादी हुई थी और शादी के कुछ दिनों बाद कॉलेज शिक्षा में जाने का सपना लिए हुए में जबलपुर परीक्षा देने गया। लौटते वक्त रास्ते में मेरे मकान मालिक का फोन आया, जो खुद भी मेरे साथ स्कूल टीचर था। उसने कहा कि आपके अलवर के लिए किक लगा लगा दिया है। अनचाहे ट्रांसफर को हमारे इधर 'किक लगाना' कहा जाता है। मैं यह बात सुन कर आश्चर्यचकित हुआ। दरअसल एसटी/एससी एक्ट के बदलाव का विरोध करते हुए हमने तहसील कार्यालय में कुछ दिन पहले सरकार के ख़िलाफ़ धरना दिया था तो यह तोहफ़ा मिलना ही था। मेरे साथ जो शिक्षक पदाधिकारी थे उन्होंने तो स्टे ले लिया। मैं नौकरी में नया था, मुझे नेतागिरी आती नहीं थी। मेरे मन में भानगढ़ को ले कर रोमांच भी था तो मैंने ज्वाइन कर लिया। भानगढ़ रोड़ पर एक कमरा किराए पर ले लिया और वहीं रहने लगा। रोज़ दिन स्कूल में गुज़रता और शाम किलें में या किलों की दीवारों पर रात तक बैठना होता। वहाँ सुंदर काव्यात्मक समय गुज़ारा और जो बहुत सृजनात्मक भी रहा। इस किले को ले कर लोक में कई अफ़वाहें हैं कि यह भूतहा किला है, यहाँ रात नहीं गुज़ार सकते। इन सब पर भी गाँव वालों से चर्चा होती, बहसें होती। किले में रात भी गुज़ार कर देखी, तांत्रिक की छतरी पर भी गया। पता नहीं क्यों पर मुझे तांत्रिक से हमदर्दी हुई, पता नहीं क्यों मुझे वह प्रेम का देवता अपना सा लगा। भानगढ़ में कलमकार प्रकाशन, जयपुर के साथ मिल कर हमने एक खूबसूरत साहित्य उत्सव भी करवाया जिसमें डॉ. सत्य नारायण, कृष्ण कल्पित, विनोद भारद्वाज, चरणसिंह पथिक, उमा, जितेन्द्र भाटिया, कैलाश मनहर, निशांत मिश्रा सरीखे साहित्यकार पहुँचे थे। किले के सामने का होटल वाला और किले में काम करने वाला स्टाफ मुझे बहुत सम्मान देता, जैसे ही उनको पता लगा कि मास्साब ने भानगढ़ पर कुछ लिखा है। ऐसा नहीं है कि ये सब बात हवा-हवाई हैं, मैंने 'भानगढ़ डायरी' नाम से एक डायरी संस्मरणनुमा किताब लिखी भी है। ये आने वाले समय में प्रकाशित होगी।





जयपुर 

यह राजस्थान की राजधानी है, लेकिन मेरे लिए यह महत्वपूर्ण और दिल के नजदीक इसलिए है क्योंकि मेरा जिला दौसा पहले जयपुर का ही एक भाग था। अतः मैं अपने आपको जयपुर निवासी भी मानता हूँ। जयपुर अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के लिए दुनिया भर में विख्यात है। यह 'पिंक सिटी' या 'गुलाबी नगरी' के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ रहकर बिहारी जैसे महान रीतिकालीन कवि ने अपना यशस्वी ग्रंथ 'बिहारी सतसई' लिखा। उन्हें एक दोहे के लिए एक अशर्फी मिलती थी। लेकिन दोहे भी ऐसे हैं कि एक दोहा कई दिनों के लिए आपको मदमस्त कर दें। मुझे जयपुर ने कई साहित्यिक मित्र दिए हैं जिनमें डॉ. सत्य नारायण, ईश मधु तलवार, कृष्ण कल्पित, अजन्ता देव, डॉ आर. डी. सैनी, राजाराम भादू, प्रेमचंद गाँधी, लोकेश साहिल, उमा, तस्त्रीम ख़ान, तमन्ना गोयल, रेवंत दान, नितिन यादव, संदीप मील, चित्रा भारद्वाज, अनिता पटेल प्रमुख हैं। ईश मधु तलवार ने मुझे प्रगतिशील लेखक संघ से जोड़ा | उन्होंने राजस्थान में साहित्यिक गतिविधियों पर बहुत काम किया। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बरक्स उन्होंने कृष्ण कल्पित जैसे ऊर्जावान साथियों के साथ मिल कर वरिष्ठ कवि ऋतुराज के सानिध्य में पीएलएफ की शुरुआत की और इसे लगातार कुछ वर्ष तक आयोजित किया। जब वे कोरोना में गुज़र गए तो मुझे जयपुर सूना लगने लगा था, ऐसा लगता जैसे कुछ कमी सी है। कुछ छूट रहा है। यह शहर अब काटने लगा था और फिर मैंने जयपुर छोड़ दिया था। लेकिन जाने वालों को एक दिन भूलना पड़ता है, भले ही बिसरा नहीं पाएँ। लेकिन यह सच्चाई है कि उनके बगैर जयपुर में अब पहले वाली बात नहीं रही, वे रौनकें, वे महफिलें नहीं रहीं। अब यहाँ राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पीएचडी कर रहा हूँ तो वापस इधर रहने लगा हूँ। मेरी पोस्टिंग भी यहीं है तो और नये साथियों से जुड़ाव भी हुआ है। लेकिन स्मृतियों का जयपुर ज़्यादा याद आता है।



ईश मधु तलवार के साथ जयपुर की एक याद, साथ में चरणसिंह पथिक हैं।



चौमहला

चंबल के किनारे पर कितना सुंदर कस्बा है 'चौमहला' जिसको मेरी नौकरी के ज्वाइनिंग लैटर में टाइपिस्ट ने 'चौहमला' लिख दिया था। बाद में भी तमाम सरकारी पत्रों और आदेशों में इसे चौमेला, चौमेहला, चौहमला आदि ग़लत तरीके से ही प्रसारित होते देखा। मैंने दो साल वहाँ कालेज में काम किया लेकिन उसका ठीक से नाम क्या है, मुझे खुद भी कन्फ्यूजन ही रहा और अभी भी है। मालवी बोली और गुजराती संस्कृति का प्रभाव यहाँ के इलाके पर है। यह झाला राजपुतों का वह कस्बा है जो अभी भी मध्य कालीन सामंती भाव बोध में जीवन जी रहा है। लेकिन वहाँ की एक खूबसूरती मैंने यह देखी कि आमजन में सहयोग का भाव बहुत है जो आज से दस साल पहले तक देश के सब ग्रामीण इलाकों में था। जैसे आप अगर पैदल जा रहें हैं तो आपको गाड़ी वाला आदमी गाड़ी रोक कर सम्मान के साथ बिठाकर ले जाएगा। पैसे को ले कर मैंने वहाँ ज़्यादा हाय हाय नहीं देखी, वहाँ लोग अपना जीवन ज़िंदादिली के साथ जीते हैं। एक महत्वपूर्ण बात कि पैसों को ले कर भले ही कोई मारामारी नहीं लेकिन धर्म को लेकर जबरदस्त कट्टरता। चौमहला को छोटी अयोध्या कह सकते हैं और एक साथ ही छोटी काशी भी। अपनी नौकरी में दो साल के दौरान मैंने वहाँ बहुत दोस्त कमाएँ, इतने प्यारे और निश्छल लोग कि अभी भी उनकी याद आती हैं। सच बताऊँ मेरे सबसे ज़्यादा दोस्त चौमहला में ही हैं। बंशीलाल परमार, इमरोज़ ख़ान, कृष्ण मेहरा, नवल मीणा, जितेन्द्र राठौड़, अली अफ़ज़ल, अमित नामा, शीशराम गुर्जर, दौलत मीणा, दिनेश राठौड़, शुभम चौधरी, कालू सिंह, धारासिंह जैसे कई साथी एक साथ याद आ रहे हैं, जिन्होंने वहाँ अकेला महसूस नहीं होने दिया। मुझे इतना विश्वास है कि किसी कारण वश कभी मुझपे चौ हमला हुआ तो चौमहला ही सबसे पहले मुझे याद आएगा।



दिल्ली

दिल्ली में भला किसे अच्छा नहीं लगता। दिल्ली का अपना एक अलग आकर्षण है। मैं कभी दिल्ली में एक सप्ताह से ज़्यादा नहीं रहा लेकिन महीने-दो महीने में आना-जाना लगा रहता है। दिल्ली से जुड़ी एक दिलचस्प बात याद आ रही है, हमारे एक एक वरिष्ठ कथाकार ने एक बार मुझसे कहा था- "भाई! दिल्ली के लिए आपने सुना है कि जो दिल्ली नहीं जाएगा, उसको कोई कवि-लेखक नहीं माना जाएगा। यह सच बात है। मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ।" मुझे इस बात पर देर तक हँसी आई और मैंने यही कहा- "आदरणीय! दिल्ली के बाहर भी साहित्य की दुनिया है। अब सारे मठ नष्ट हो चुके हैं, आप किस मुगालते में हो। अगर मुगालते में रहना हैं तो भले ही रहें। लेकिन मैं आपकी बात ख़ारिज करता हूँ।" दिल्ली में मेरी पसंदीदा जगहों में जेएनयू, इंडिया गेट, लालकिला, इण्डिया इन्टरनेशनल सेंटर, ग़ालिब एकेडमी, लोदी गार्डन, इंस्टीट्यूशन क्लब इत्यादि हैं। मैं प्रगति मैदान में प्रतिवर्ष लगने वाले पुस्तक मेले में जाता रहा हूँ। इस बहाने साथियों से मिलना जुलना हो जाता है। हालाँकि ये अलग बात है कि मैं कुछ किताबें ही ख़रीदने की सोचकर जाता हूँ लेकिन बहुत सारी ख़रीद लाता हूँ। दिल्ली के दोस्त बड़े दिलवाले हैं, जल्दी से आने ही नहीं देते। दिल्ली रहने वाले दोस्तों में आर. चेतन क्रांति, सुरेन्द्र जिन्सी, देवी लाल गोदारा, रचित दीक्षित, अतुल मीना, पद्मनाभ गौत्तम, ज्ञानचंद बागड़ी, आलोक मिश्रा, आमिर हम्ज़ा, मोहन लोदवाड़, शुभम रॉय, सत्यव्रत रजक इत्यादि हैं। रमन हितकारी, अनुराधा गुप्ता जैसे वरिष्ठ साथी भी हैं, जिनसे फ़ोन पर बातचीत होती हैं, लेकिन अभी मुलाक़ात संभव नहीं हुई है, उम्मीद है


आगामी दिल्ली यात्राओं के दौरान होगी। दिल्ली में बस एक ही दिक्कत है 'प्रदुषण', अगर यह न हो तो यह शहर जन्नत है।






आत्म परिवर्तन


प्रश्नः- जीवन में घटी कोई ऐसी घटना बताइए जिसने आपके विचारो पर गहरा प्रभाव डाला।


यहाँ पर सरस व्यक्तिगत अनुभव अपेक्षित है, जिससे आत्म परिष्कार हुआ हो।


उत्तर :- जी, मेरा रुझान बचपन से ही हिन्दी में रहा। मुझे कहानियाँ-


कविताएँ पढ़ने सुनने का शौक रहा। मेरे नाना-नानी, दादी-बुआ और जीजी से जब भी शाम को बात करता, कहानियाँ या गीत सुनाने का आग्रह करता। कक्षा नौ में मुझे एक खजाना 'मानसरोवर' प्रेमचंद की कहानियों का सम्पूर्ण संग्रह मिल गया। यह मेरी सरकारी स्कूल की लाइब्रेरी में था, और मैं यह सब होली-दिवाली और सर्दी-गर्मी की छुट्टियों में पढ़ गया था। उस समय में कितना मेरे समझ आया यह तो पता नहीं लेकिन मुझे अच्छा लगा। संयोग से मुझे स्कूल-कॉलेज में हिन्दी के विद्वान शिक्षक मिले तो मेरा मन हिन्दी में रमने लगा और बाकी विषयों में ऊबने लगा। हिन्दी-उर्दू और लोक शब्दों के प्रति मेरी जिज्ञासा और उनका अर्थ जानने की इच्छा ने मेरा अच्छा शब्दकोश तैयार किया। संत कवि कबीर मेरे पहले कवि थे जिनको मैंने ठीक-ठाक पढ़ा और समझा। बाद में तुलसी, जायसी, सूर, मीरा, बिहारी, घनानंद सहित आधुनिक कवियों को भी पढ़ा। मैंने पहली कविता एम. ए. के दौरान लिख कर अपने प्रोफेसर को दिखाई। उनका रिएक्शन बेहद नकारात्मक था, शायद उनको मेरा कविता लिखना ठीक नहीं लगा। फिर निराश हो कर मैं शायरी की तरफ गया और उर्दू कविता की परम्परा का अध्ययन किया तो पढ़ने के साथ-साथ तुकबंदी भी करने लगा। हालाँकि छंद से मैं तब तक परिचित नहीं था। बाद में उर्दू शायरी में काम किया तो बहर सीखनी पड़ी, बहर एक तरह से हिन्दी के छंद की तरह ही हैं। सात-आठ साल शे'र कहते कहते मैं अब हिन्दी कविता को उपेक्षा से देखने लगा था, लेकिन इलाके के हिन्दी कवियों ऋतुराज, विनोद पदरज, प्रभात, ओम नागर को पढ़ा तो हिन्दी कविता के सौन्दर्य से दोबारा प्रेम हुआ और मेरा लौटने का मन हुआ। बलराम कांवट जैसे कुछेक दोस्त काफी पहले मुझसे हिन्दी कविता लिखने का आग्रह कर चुके थे। लेकिन मैं जब हिन्दी कविता में आया, अपने मन से ही आया। बात यह भी थी कि मैं शायरी में अपने लोक को ठीक से कह नहीं पा रहा था। मुझे बहर और शायरी की उर्दू शब्दावली से दूर अब अपना लोक पुकारने लगा था। राजस्थान कबीर यात्रा, विपश्यना और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ना भी मेरी सृजनात्मकता के पड़ाव रहें। शुरू में काफी बार कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं ने लौटाई लेकिन फिर स्वीकृति मिलने लगी तो उत्साह और बढ़ा। यह सिलसिला ऐसे शुरू हुआ और आज तक चल रहा है। सच कहूँ, तो अब मुझे भी अच्छा लग रहा है।






समकालीन चिन्ताएँ


प्रश्नः- समकाल में आपकी दृष्टि मैं पाँच प्रमुख समस्याएँ कौन सी हैं? और वही समस्याएँ आपकी दृष्टि में प्रमुख क्यूँ है ?


समस्याएँ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि कुछ भी हो सकती हैं। यह सजगता से जुड़ा प्रश्न है।


उत्तरः- जी, वाकई ये समय मनुष्यता के लिए जटिल समय है। आज हम तकनीकी रूप से बहुत आगे बढ़ चुके हैं लेकिन तकनीकी के फ़ायदों के साथ उसके नुकसानों को भी हमको देखना-समझना पड़ेगा और उनका हल निकालना पड़ेगा। मेरी सबसे बड़ी चिन्ता तमाम बुद्धिजीवियों की तरह ग्लोबल वार्मिंग है। यह मनुष्य जीवन के लिए आज सबसे बड़ा संकट है और ज़ाहिर है इसके ज़िम्मेदार हम खुद ही हैं तो कीमत तो चुकानी पड़ेगी। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, जंगलों की कटाई, अंधाधुंध खनन, शहरीकरण आदि इसके मुख्य कारण हैं। इसकी वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है। तटीय क्षेत्र डूब रहें हैं और अगर ऐसा ही होता रहा तो एक दिन धरती जलमग्न हो जाएगी । तटीय क्षेत्रों के डूबने से खाद्य संकट उत्पन्न हो रहा है। प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि देखी गई है। कुल जमा बात ये है कि हमें प्रकृति पर्यावरण का संरक्षण करना होगा वरना एक दिन हम नष्ट हो जाएँगे। युवाल नोवा हरारी की किताब 'इक्कीसवीं सदी के लिए इक्कीस सबक' इस विषय पर महत्वपूर्ण पुस्तक है। यहाँ हम आदिवासी दर्शन से सीख सकते हैं जो जल-जंगल जमीन बचाने की बात करते हैं।


इसके अलावा आर्थिक असमानता भी आज एक महत्वपूर्ण समस्या हैं जो कई समस्याओं को साथ लेकर हमारे सामने मुँह खोले खड़ी है।


आर्थिक असमानता का मतलब है धन और संसाधनों का असमान वितरण। इसके कारण गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी आदि दूसरी कई समस्याएँ उत्पन्न हो रही है। इसको शिक्षा, रोजगार में समान अवसर, कल्याणकारी योजनाओं को लागू कर दूर किया जा सकता है।


सामाजिक असमानता भी आज हमारे सम्मुख एक बड़ी समस्या है, जो एक सुंदर ओर समृद्ध दुनिया के निर्माण में बाधा है। सामाजिक असमानता से तात्पर्य है समाज के विभिन्न समूहों में बढ़ती दूरी और आपस में एक दूसरे के साथ सामजिक स्तर पे भेदभाव करना। हालाँकि इस समस्या के बीज अतीत में हैं; लेकिन आज का पढ़ा-लिखा समाज जब इसको आगे बढ़ाता है तो ये बहुत ही चिंताजनक बात है। मेरी नज़र में यह समस्या इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मनुष्य-मनुष्य में भेद करती है, उसको अपने मूल अधिकारों से दूर करती है और उसके जीवन को कष्टप्रद बनाती है। इसके साथ जातिगत भेदभाव, लैंगिक असमानता, छुआछूत, रंगभेद आदि समस्याएँ भी जुड़ी हुईं हैं। विश्व के अधिकांश देशों में सामाजिक समानता के लिए कानून भी बने हुए है लेकिन धरातल पर इनको लाने के लिए हमको संघर्ष करना पड़ेगा, तब ही यह विश्व आगे बढ़ेगा वरना आप देख ही रहें हैं कि दुनिया के देशों में कई समूह अपने प्रभुत्व के लिए बरसों से आपस में लड़ रहें हैं।


कम्प्यूटर और इंटरनेट के आने से विश्व को बहुत फायदा हुआ है। आज दुनिया दुनिया ग्लोबल विलेज में बदल गई है। तकनीकी के विकास से इंसानी जीवन में आसानियाँ आईं हैं। पहले जो काम पचास लोग करते थे आज वो ही काम दो लो लोग कर देते हैं। लेकिन पिछले सालों में इसके कुछ दुष्प्रभाव भी सामने आए हैं। साइबर अपराधों जैसे हैकिंग, ऑनलाईन धोखाधड़ी, डेटा चोरी, डिजिटल अरेस्ट, मनी फ्रॉड इत्यादि में वृद्धि हुई हैं। ये सब सब व्यक्तिगत के साथ साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है। ये वित्तीय सुरक्षा को भी खतरे में डाल रहा है, हर आदमी सोचता है की कभी भी केवल कोई एक ओटीपी उसका खाता खाली कर सकता है। इन सबसे समाज में नैतिकता और संवेदनशीलता में भी कमी आई है। हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को डिजिटल हाउस अरेस्ट किए जाने का मामला हमने देखा है।


आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी के रूप में एक और ऐसी ही चमत्कारिक चीज़ हाल ही में आई है, यह मानव बुद्धि के सामने एक नई चुनौती है। शोधों से पता चला है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी (AI) आपकी कार्य कुशलता को बढ़ाता है। यह आँकड़ों के विश्लेषण में मदद करता है, और चौबीस घंटे आपको उपलब्ध है। लेकिन इसके फायदे के साथ-साथ गंभीर नुकसान भी हैं। सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि ये रचनात्मकता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता को कम कर देती है और कार्य-कुशलता को प्रभावित करती है। यह बेहद ख़तरनाक बात है कोई चीज़ मनुष्य की रचनात्मकता को सीमित कर दें या ख़त्म कर दें। अतः इन सब चीजों पर हमको सोचने समझने की ज़रूरत है। कोई बुराई नहीं है कि हम तकनीकों का उपयोग करें लेकिन तकनीक के साथ स्मार्ट बनने की ज़रूर भी है। स्मार्ट का मतलब संवेदनहीन होना कतई नहीं है। संवेदनशील बने रहने के लिए साहित्य हमारे जीवन में अमृत का काम करता है और करता रहेगा। साहित्य और तमाम कलाएँ हमको इस तकनीकी युग में मनुष्य के रूप में बचाएँ रखेंगी और इनकी महत्ता कभी कम नहीं होगी।



विजय राही 



विजय राही

कवि परिचय


स्कूली शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल से हुई। स्नातक शिक्षा राजकीय महाविद्यालय, दौसा, राजस्थान से एवं स्नातकोत्तर शिक्षा हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हुई। हिन्दी-उर्दू के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में समानांतर लेखन।


हंस, पाखी, तद्भव, वर्तमान साहित्य, आलोचना, मधुमती, विश्व गाथा, उदिता, अलख, कथारंग, सदानीरा, समकालीन जनमत, कृति बहुमत, कथेसर, किस्सा कोताह, नवकिरण, देशज, साहित्य बीकानेर, परख, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक नवज्योति, डेली न्यूज, सुबह सवेरे, प्रभात खबर, राष्ट्रदूत, रेख़्ता, हिन्दवी, समालोचन, जानकीपुल, अंजस, अथाई, उर्दू प्वाइंट, पोषम पा, इन्द्रधनुष, हिन्दीनामा, कविता कोश, तीखर, पहली बार, लिटरेचर पाइंट, शब्द बिरादरी, दालान आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और वेबसाईट्स पर कविताएँ- ग़ज़लें, आलेख प्रकाशित।


राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर में कविता पाठ। दूरदर्शन राजस्थान एवं आकाशवाणी के जयपुर केन्द्र से कविताओं का प्रसारण। पाखी, जन सरोकार मंच टोंक, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, युवा सृजन संवाद-इलाहाबाद आदि आनलाईन चैनलों पर लाईव कविता पाठ


पुरस्कार -

दैनिक भास्कर प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार (2018)

कलमकार मंच का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार (2019)


सम्प्रति-


राजकीय महाविद्यालय, कानोता, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (हिन्दी) के पद पर कार्यरत



संपर्क  


विजय राही

बिलौना कलॉ, लालसोट, 

दौसा (राजस्थान)

पिनकोड-303503


मोबाइल : +919929475744


ईमेल - vjbilona532@gmail.com



टिप्पणियाँ

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    bars in burlington

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  2. विनीता बाडमेरा

    विजय राही राजस्थान के युवा कवि हैं। उनकी कविताओं में राजस्थान की मिट्टी की सुंगध हैं तो बातों में राजस्थान के अपनेपन की मिठास घुली है। अपने गांव और दोस्तों से प्रेम करने वाले इस युवा कवि को ढ़ेर शुभकामनाएं 🌹

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