विजय गौड़ की कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ'

 

विजय गौड़



जाति-भेद, नस्ल-भेद के साथ साथ सांप्रदायिकता आज के दुनिया की गम्भीर समस्याओं में से एक है। इसकी बुनावट कुछ इस अंदाज में होती है कि हमें खुद यह पता ही नहीं चलता कि हम किस समय जातिवादी, नस्लीय या फिर सांप्रदायिक हो जाते हैं। क्या यह सम्भव है कि हम एक मनुष्य के तौर पर नजर आएं। इसके लिए हमें अपने जातीय, नस्लीय या सांप्रदायिक पहचान को खत्म करना होगा। यह आसान नहीं होता। कई बार बेहद विनम्र नजर आने वाला व्यक्ति भी जातीय या सांप्रदायिक तौर पर अक्सर ही निर्मम दिखाई पड़ता है। जब हम अपने धर्म का गुणगान और बखान कर रहे होते हैं तो दूसरी तरफ हम अपने लोगों को दूसरे धर्मों के प्रति कट्टर भी बना रहे होते हैं। अक्सर धार्मिक नेता यह चिन्ता व्यक्त करते हुए नजर आते हैं कि अमुक धर्म खतरे में है। विजय गौड़ ने अपनी कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ' में सलीके से इस समस्या की पड़ताल की है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय गौड़ की कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ'।



डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ

विजय गौड़



मां होती तो अभी अरण्डी के पत्तों को घुटनों और कुहनियों में बांध देती। घावों पर गेंदे की पत्तियों का रस निचोड़ देती। मां के पास हारी-बीमारी के ऐसे ढेरों नुस्खे थे। मसलन, पेट दर्द हो तो अजावाईन और काला नमक हल्के गुन-गुने पानी के साथ निगल लो। लू लग गयी हो तो प्याज खा लो। दाँत में दर्द हो तो लोंग दबा लो। चोट-फटाक लग गयी हो तो घाव पर गेंदे का रस निचोड़ कर घाव को हवा में सूखने दो। गुम चोट हो और सूजन हो गयी हो तो हल्दी-तेल गरम कर बांध दो, या अरण्डी के पत्ते को तवे पर सेक कर फूले हुए हिस्से पर बांध लो। साथ में दूध में हल्दी मिला कर पी जाओ। बच्चा उल्टी कर रहा हो तो चूल्हे की राख चटा दो।मां की दवाएं ऐसी असरदार होतीं कि छोटी-मोटी बीमारी या चोट-फटाक में तुरन्त आराम दे देतीं।    



मां की दवा यदि अभी मिल जाये तो निश्चित ही जोड़ों का दर्द तो मैं लगभग भूल ही जाऊँ लेकिन मन के भीतर बैठ चुकी चोटों से मां की दवाएं ऊबार देंगीं, ऐसा नहीं कह सकती। नृशंसता और पाश्विकता से भरे आक्रमणों ने मेरे मन के भीतर जो घाव भर दिये हैं उनसे स्वस्थ होना, शायद संभव नहीं। मन्दिर और मस्जिद के जिद्दीपन ने तर्को के परे जा कर हिंसा का जो माहौल पैदा किया उस सबने, मेरी जैसी न जाने कितनों के भीतर न भूली जा सकने वाली ऐसी ढेरों चोटें छोड़ दी हैं। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी और सुनी गयी ऐसी नृशंस घटनाओं पर मैं कभी इतनी आहत न हुई। धर्म के ठेकेदारों द्वारा खड़ी की गयी बलवाइयों की फौज का शिकार एक दिन मैं भी हो जाऊँगी, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे भीतर जो घावों से रिसता खून है उसको, कोई योग की दुकान खोल कर बैठा महात्मा रोक सकता है क्या? अनुलोम-विलोम, कपालभाति और हास्य की हद तक शरीर को उल्टा सीध मोड़ने की प्रक्रियायें क्या मेरे मन के भीतर बैठ चुकी चोटों से मुझे राहत दिला सकते हैं? डाक्टर श्रीपत, जो मेरी ही तरह, कहीं बलवाइयों के बीच फंस गया और अपनी जान गंवा बैठा, उसकी मौत का कारण मैं ही हूँ - यही है मेरे भीतर की चोट। इस गहरे आघात से लगी चोट के कारण उठते दर्द से क्या कोई निजात दिला सकता है?              


आप किसी डाक्टर का नाम बता सकते हैं? 


मैं जिस डाक्टर को जानती हूँ, उनका नाम जेड. ए. अंसारी, होम्योपैथ है। उनके नाम के पीछे लगा यह होम्योपैथ क्या है, इसके बारे में मुझे बहुत पहले कुछ भी नहीं मालूम था। यदि उस समय तक आप मुझसे पूछते कि क्या मैं उन्हें जानती हूँ तब शायद होता कि मैं कहती कि नाम से तो परिचित हूँ पर जानती हूँ..., यह ठीक से नहीं कह सकती। यह अलग बात है कि अभी भी पूरी तरह से कहाँ जान पायी हूँ। किसी को जानना, उसके नाम को जान लेना या उससे परिचय मात्र हो जाना ही तो नहीं है न। मेरे ख्याल से, किसी को जानने का मतलब होता है, उसके सोचने, समझने और उसके देखने के ढंग से परिचित होना। इस बात का इल्म मुझे उस दिन ठीक तरह से हुआ जब मैंने उस व्यक्ति के बारे में जाना, जिसकी मौत के लिए मैं भी जिम्मेदार हूँ। वह भी एक डाक्टर था। यह बात मुझे उस वक्त पता लगी जब मैं अस्पताल में बेहोश पहुँचा दी गयी और डाक्टर के प्रयासों से अपने होश में लौटने में कामयाब हो सकी। दहशत और आगजनी की ढेरों घटनायें घट चुकी थीं। अस्पताल में अफरातफरी का माहौल था। कर्फ्यू हट चुका था। हिंसा और हत्या का खेल, खेल चुका शहर गुम हो गये अपने आत्मीयों की खोज करता हुआ अस्पतालों के चक्कर लगा रहा था। गहमा-गहमी और अफरा-तफरी कैसी है, होश में आ जाने पर यह जानने और समझने के लिए मैं अपने बेड से उठ कर उस ओर को गयी जहां लोगों की आवाजें शोर बन कर गूंज रही थीं। अपने आत्मीयों को खोजने वालों के चेहरे पर भय, आशंका और चिन्ता की लकीरें एमरजेन्सी वार्ड के अन्दर घुस जाना चाहती थीं, जहाँ हिंसा के बेहद अमानवीय आक्रमण को झेल चुके लोग जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे। उनके इलाजों में जुटे डाक्टर, नर्स और वार्ड ब्वाय से ले कर हर व्यक्ति के हाथ अप्रत्याशित गति से घायलों का इलाज कर रहे थे। कहीं कोई किसी के घावों को टाँकें मार कर उन पर मल्हम पट्टी कर रहा था। कहीं, हर पहुँचते हुए घायलों के घावों से बह चुके रक्त से सने उनके चेहरों को साफ किया जा रहा था। ताकि उनकी शिनाख्त की जा सके। रक्त से सने चेहरे को पहचानना आसान नहीं। स्ट्रैचर उठाये वार्ड ब्वाय कॉरिडोर में पहुँचती गाड़ियों से घायलों को उठा-उठा कर बेड पर लेटाते जा रहे थे। अंगों की हरकतों से बेजान और लगभग मुत्यु की तस्वीर में जकड़े घायलों की उपस्थिति दहशत भर रही थी। अपने प्रिय की खोज और घायलों में उनके होने की आंशका, ऐसा माहौल रच रही थी कि धक्का दे कर आगे निकलने और घायल को पहचानने के लिए हर कोई मजबूर था। 



उसी वक्त जिस घायल को वार्ड ब्वायज ने उतार कर स्ट्रैचर पर रखा, उसका पूरा शरीर रक्त से सना था। रक्त में लिपट कर सिर के बाल एकदम सख्त हो गये थे। कुछ गालों तक ढुलक आये रक्त ने उसकी दाढ़ी को भी उतना ही कड़ा बना दिया था। ऐसा लगता था जैसे किसी वजनदार हथियार से उसके सिर पर चोट की गयी है। उसका शरीर एक दम बेजान था। बदन किसी भी ओर लुढ़क जाने के लिए स्वतंत्र। ऐसे रक्त में सने, बेजान व्यक्ति को मैंने अपनी जिन्दगी में इससे पहले कभी नहीं देखा था। यूं उसके चेहरे को पहचानना इतना आसान नहीं था पर भीड़ के बीच किसी का तेज स्वर फूटा था- ‘‘डाक्टर श्रीपत।’’ ढेरों गर्दनें उचक-उचक कर उस लाशनुमा घायल को देखने को उतावली हो उठीं। स्ट्रैचर पर उतारते ही किसी घायल को पहचान लेने की यह शायद पहली ही आवाज थी। वरना उस समय तक पहुँचाये गये सभी घायल, अनाम ही रहे। जिनकी हालत देख कर लोग द्रवित तो हुए पर उस तरह का जुड़ाव जैसा उस पहचान लिये गये घायल व्यक्ति को देख कर हर किसी को हुआ, वैसा पहले नहीं दिखा। हर कोई डाक्टर श्रीपत को देख लेना चाहता था। कौन है, कहाँ का है, क्या हालत है- ऐसी तमाम उत्सुकता हर एक को बेचैन किये दे रही थी-



डाक्टर श्रीपत, गैस्टोलॉजिस्ट! वही जिनका अपना नर्सिंग होम है। 


एलोपैथी डाक्टर है?


गैस्टोलॉजिस्ट क्या आयुर्वेदिक होगा ?


डाक्टर श्रीपत के बारे में यह प्रारम्भिक जानकारी शोर के रूप में सुनायी दी। 


एकबारगी ऐसा लगा जैसे मैं भी डाक्टर श्रीपत को पहचानती हूँ। पर डाक्टर जेड. ए. अंसारी के अलावा मेरा तो कभी किसी अन्य डाक्टर से वास्ता ही नहीं पड़ा। फिर डाक्टर श्रीपत! गैस्टोलॉजिस्ट को मैं कैसे जान सकती थी। 



एलोपैथी और होम्योपैथी के अन्तर को उस वक्त तक मैं थोड़ा-थोड़ा जानने लगी थी। जब छोटी थी तो मेरे लिए तो कोई भी डाक्टर सिर्फ डाक्टर ही था। वह तो बहुत बाद में, किसी आप जैसे जानकार ने, मेरा ज्ञानवर्द्धन किया कि ऐलोपैथी और होम्योपैथी, रोग निवारण की दो बिल्कुल भिन्न पद्धतियां हैं। होम्योपैथी और ऐलोपैथी की बहस में मैं आपसे अभी नहीं उलझना चाहती। हो सकता है आप भी होम्योपैथी को अवैज्ञानिक ही ठहरायें। फिर उसे विज्ञान साबित कर सकने का तर्क तो मेरे पास भी नहीं है। डाक्टर जेड. ए. अंसारी से पूछे गये ऐसे ही सवाल के जवाब को, जिससे मैं भी कभी संतुष्ट नहीं हो पायी तो आपके सामने कैसे रख दूं।



हो सकता है उस दिन डाक्टर जेड. ए. अंसारी किसी व्यक्ति से पहले ही ऐसी बहस में उलझ चुके हों। मैं अपनी गर्दन के पीछे, बालों के नीचे, बार-बार उग आने वाले फोड़े को लेकर परेशान थी, जिसमें से पतला किन्तु चमकीला लाल रक्त, उसको दबाने पर, निकलता रहता था। लगातार टीसता दर्द मुझे चिड़चिड़ा बना चुका था। फोड़े को नोंच कर जड़ समेत उखाड़ दूं- ऐसी इच्छा हर वक्त फोड़े को दबाते रहने के लिए मजबूर करती रहती थी और दबाने पर निकलता पतला, चमकीला लाल रक्त राहत देता था। दवा के वास्ते जब मैं डाक्टर साहब के पास पहुॅची तो मेरा हाल-चाल पूछने की बजाय उन्होंने मुझ पर सीधे वार-सा किया- 



‘‘आप भी होम्योपैथी को अवैज्ञानिक मानती हैं न?’’



मैं हड़बड़ा गयी। हालांकि उस रोज तक मुझे होम्योपैथी और किसी भी अन्य पैथी में क्या अन्तर है, इसकी कतई जानकारी नहीं थी, जैसा मैं पहले भी बता चुकी हूँ। मैं कुछ भी समझ नहीं पायी कि डाक्टर साहब ने मेरे सामने ऐसा सवाल क्यों दागा। मैंने कभी उनसे सीधे ऐसे किसी विषय पर कोई बातचीत नहीं की थी तो फिर मुझसे, वो भी उखड़े हुए मूड़ में, उन्होंने ऐसा सवाल क्यों किया? संभवतः मेरी कोई अप्रिय बात उनके भीतर ठहरी हुई थी जो उन्हें अपनी दवा देने की पद्धति पर शक करने वाली लगती रही हो। किसी एक रोज वे मुझसे, मेरे इस रोग की तह में जाने के लिए, कुछ ऐसी जानकारी मांग रहे थे, जिसे मेरे जैसी सभ्य घर की स्त्री किसी भी पर-पुरुष के सामने उद्घाटित करना कतई उचित न मान सकती है। बल्कि ऐसे सवाल अकेली स्त्री से पूछने वाले किसी पर-पुरुष को शक की निगाह से ही देखेगी। मध्यवर्गीय शालीनता के बावजूद, उस वक्त मैं थोड़ा कड़े शब्दों में पेश आयी थी। मुझे लगा कि शायद वही बात उनके भीतर ठहर गयी हो। मेरा इस तरह पेश आना शायद उन्हें उचित न लगा हो, पर उनके बेतुके सवाल पर मैं संयत नहीं रह पायी थी। मेरा सोचना था, मेरी गर्दन के पीछे उगने वाले फोड़े का मेरे मन के भीतर उठने वाले विचारों या मेरी किन्हीं अन्य इच्छाओं से क्या लेना देना? या उनके वे सवाल जो सीधे मेरी मां और मेरे पिता के आपसी संबंधों की पड़ताल करने वाले थे, मुझे फोड़े से स्वस्थ कराने में कैसे सहायक हो सकते हैं? मां, पिता के आपसी संबंध मेरे भीतर अतीत की गांठ बन कर भी ठहरे हुए हों, तो भी गर्दन के पीछे उगने वाले फोड़ों से उसका कोई लेना देना नहीं है, डाक्टर मुझे इमोशनली ब्लैकमेल करने की चाह रखता है, यही सोच मैं थोड़ा और तीखी हुई थी। डाक्टर अंसारी मेरी प्रतिक्रिया पर सकपका गये थे। मुझसे आँख मिला कर फिर कोई सवाल पूछने की जुर्रत उन्होंने नहीं समझी। चुपचाप एक डिब्बी में सुगर बॉल डाल कर उन पर दवा की आवश्यक मात्रा छिड़क, डिब्बी को हिलाया और मुझे पकड़ा दिया। उसके बाद फिर कभी ऐसा नहीं हुआ कि डाक्टर अंसारी ने मुझसे कोई ऐसा सवाल सीधे पूछा हो। उस घटना के बाद जब कभी मैं दवा के लिए गयी और उन्होंने मुझसे कोई सवाल पूछा तो मुझे हमेशा उसमें वही शरारत नजर आयी। मसलन, पिछली कई रातों से, जब सोते हुए अचानक मैं नींद के टूटने पर उठ जाती हूँ तो उस वक्त मेरे मन में क्या भाव रहते हैं? नींद टूटने से पहले मैंने क्या कोई सपना देखा होता है? या नींद का इस तरह टूटना मैं कब से महसूस कर रही हूँ? या घर पर जिस वक्त मैं अकेली होती हूँ , मेरा मन किस चीज के लिए मचल रहा होता है? अखबारों में छपी कौन-सी खबर पढ़ने की मुझे सबसे ज्यादा उत्सुकता रहती है? टीवी पर देखे जाने वाले कौन-कौन से सीरियल मुझे ज्यादा अच्छे लगते हैं? ऐसे ढेरों सवाल थे, जिन्हें समय बे-समय दवा देने से पहले, या दे चुकने के बाद भी वे मुझसे पूछते ही रहते। लेकिन उनके आचरण के बारे में मेरे पास कहीं से भी कोई ऐसी सूचना नहीं थी कि उनके सवालों के अन्य अर्थ निकाले जायें। बस, उन बेतुके सवालों के जवाब मैंने कभी भी ठीक से नहीं दिये। ऐसे सवालों को सुन-सुन कर मैं उकता चुकी थी और उन पर इस बिना के साथ कि अजीब तरह का सनकपन है जो उन्हें ऐसे सवालों को पूछने के लिए उकसाता रहता है, मैं बहुत ही सीमित जवाब देती रही। 





‘‘जानती हो आखिर इसी वैज्ञानिक पद्धति के मूल सिद्धांतों पर आज का विकसित चिकित्साशास्त्र वैक्सीनेशन कार्यक्रमों को लागू कर रहा है। आज सारी दुनिया मानने लगी है कि यदि किसी गम्भीर रोग को दुनिया से मिटाना है तो सम-चिकित्सा ही एक मात्रा सही पद्धति है। इसीलिए किसी रोग के समूल विलोपिकरण के वास्ते दवाओं की खुराकों को एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी नियमित किया है। तो भी आप लागों की निगाह में यह अवैज्ञानिक कैसे रह गयी, कभी सोचा इस पर?’’ और डाक्टर अंसारी ने होम्योपैथी के उद्भव से ले कर आज तक के विकास की गति में आये विभिन्न मोड़ों को सिलसिलेवार रखना शुरु किया। बाजारवाद के उस सिद्धान्त की चीरफाड़ करते हुए, जो तत्काल मुनाफे की व्यवस्था का हिमायती है, होम्योपैथी के अवैज्ञानिक रह जाने के कारणों पर एक अच्छा खासा लेक्चर मुझे पिला दिया।



‘ई' होम्योपैथी की ईजाद डाक्टर हैनिमेन ने की। जानती हो उस समय तक का विज्ञान न तो रदरफोर्ड के एल्युमिनियम की पत्तर पर अल्फा, बीटा, गामा किरणों की भेदन क्षमता से वाकिफ था और न ही बाद में प्रतिपादित हुए ऊर्जा के सूत्र ई इजीकल्टू एम सी स्क्वेयर का अनुमान लगा पाया था। उस वक्त हैनिमेन ने दवा को शक्तिकृत कर सम-चिकित्सा सिद्धान्त की स्थापना की। शक्तिकृत दवा किसी रोग के निवारण में किस तरह से कारगर है, इसकी स्पष्ट व्याख्या करने के लिए जो वैज्ञानिक विकास होना चाहिए था, उस पर से अभी पर्दा पूरी तरह से उठा ही नहीं था। और बाद के दौर में जब उसे संभव बनाया जा सकता था तब तक स्थापित हो चुकी मुनाफे की बाजार व्यवस्था के षडयंत्रों के तहत होम्योपैथी पीर-फकीर और ओझाओं की गिरफ्त में फंस चुकी थी। नये से नये रूप रचती मुनाफे की व्यवस्था ने न सिर्फ विज्ञान के विकास में बाधा पहुँचायी बल्कि ऐसे विभ्रम को भी खड़ा किया कि आप जैसे तमाम लोगों को भी हमारी पद्धति पर शक करने का आधर मिला।’’



उस दिन मुझे डाक्टर अंसारी की सनकपन का वह राज कुछ-कुछ समझ आया था और डाक्टर अंसारी के प्रति ही नहीं किसी भी घटना के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदलने लगा। ऊपर से दिखायी देती बीमारियां कैसे मन के भीतर बैठी हुई कुंठा, निराशा, हताशा और सोच-समझ के परिणाम हैं, मैं उन्हें समझने का प्रयास करने लगी और बेतुके से लगते डाक्टर अंसारी के सवालों को उनकी रोग निर्धारण पद्धति और उसके आधार पर सम चिकित्सा सिद्धान्त का रहस्य कुछ-कुछ समझने लगी।   



स्ट्रैचर पर लेटा वह मरणासन्न व्यक्ति मेरी स्मृति में दहशत के रुप में दर्ज है। जिसको पहचानने में मैं उस वक्त कोई चूक नहीं कर सकती थी। रास्ते की वीरानी और माहौल में फैली दहशत के कारण, भीतर बैठे अपने डर की वजह से, मैंने उससे खुद ही मांगी गयी सहायता को उस वक्त नकार दिया था, जब उसने मेरे इशारे पर रुक कर कार का दरवाजा खोला। उसके चेहरे पर उगी उस खास तरह की दाढ़ी को देखते ही, जो बलवाइयों के प्रहार से निकले खून के कारण बाद में ऐंठ गयी थी, मैंने उसे ऐसे खास धर्म का मान लिया था जिनके प्रतीक को ढहाया जा चुका था। ऐसे में वह एक हिन्दू महिला के साथ क्या बर्ताव कर सकता है! रोंगटे खड़ी कर देने वाली सुनी गयी ढेरों खबरों के ताने-बाने ने मुझे कार के भीतर घुसने की बजाय सड़क से लगते खेतों में दौड़ जाने को मजबूर किया।  



वैसे, किसी भी धर्म को ले कर मेरे भीतर कभी कोई आग्रह-दुराग्रह नहीं रहा। बल्कि धर्म के नाम पर हिंसा को फैलाने वालों तक को मैं मनुष्यता के विरोधी के रुप में ही मानती रही हूँ। यह संस्कारों में पायी गयी धर्मनिरपेक्षता है, जिसे मैंने बहुत छोटे से ही मां-पिता और घर परिवार के ही नहीं, अन्य कई सहृदय लोगों से जाना था। मेरे वे प्रेरणास्रोत जो कभी न तो हिंसक हुए और न वैसे अमानवीय विचार को फैलाने वाले के प्रति जिन्होंने अपनी आस्थायें प्रकट की, यानी उनकी शिक्षाओं ने हमेशा मेरे भीतर सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव जिन्दा रखा। तमाम सामाजिक गतिविधियां, मन्दिर-गुरुद्वारों के भण्डारे, सरस्वती, काली पूजा के आयोजन, सभी के बीच, जहां तक हुआ, मैं पूरे उत्साह के साथ उपस्थित रही। बल्कि बाज दफा तो मैंने इस बात को भी नजरअंदाज किया कि कार्यक्रमों की कमान तक किनके हाथों में है। जबकि आप भी जानते होंगे कि ज्यादातर वे ही लोग, हिंसा जिनकी नसों में कूट-कूट कर भरी होती है, ऐसे कार्यक्रमों के ठेकेदार बने फिरते हैं। मेरे लिए तो ऐसी सारी गतिविधियों में शामिल होना, उनमें उमड़ पड़ते समुदाय के साथ अपने को जोड़ने के खातिर ही रहा। जान सकते हैं कि कुल मिला कर अपनेे भीतर के हिन्दूपन को मैं हमेशा सुरक्षित रखती रही हूँ, जो बेशक कभी हिंसक नहीं रहा। फिर मेरे नाम, जाति और मेरे पहनावे के ढेरों चिह्नों से जानने वालों ने हमेशा मुझे हिन्दू ही माना। इतर धर्म वालों ने भी।  



आप सच जानिये ऐसे माहौल में खुद मेरे भीतर का हिन्दूपन भी, जब धर्म के नाम पर खून की नदियां बह रही थीं, अपने को किसी मुसलिम व्यक्ति से लिफ्ट लेने की छूट नहीं दे रहा था। एक मुसलमान की गाड़ी में आखिर मैं कैसे सुरक्षित हो पाऊँगी! वह भी ऐसे में, जब आगे का रास्ता भी बस्तियों के घनेपन के कारण वहां रहने वालों के धर्म के रूप में मेरे भीतर दर्ज था। यह ठीक बात है कि कर्फ्यू उठ चुका था। पर कब दोबारा लग जाये इस बात की कोई गारंटी तो नहीं दे सकता था। लिहाजा, ऐसे में एक अनजान मुसलिम व्यक्ति के साथ साथ जाना तो दूर मैं एक क्षण को भी उसके पास नहीं रुक सकती थी। दौड़ते हांफते न जाने किस दिशा में निकल गयी, मुझे इसका कतई ध्यान नहीं। स्मृतियों पर जोर दे कर भी याद करना चाहूँ तो याद नहीं कर पा रही हूँ। सिर्फ इतना याद है कि वहाँ से गुजर रहे बलवाइयों के बीच मैं घिर चुकी थी और उसके बाद क्या हुआ उसे बताना भी चाहूँ तो उसके कोई मायने नहीं। गनीमत है कि जिन्दा हूँ। जबकि उस डाक्टर को देख कर, कोई उसके सांसों के बचे होने की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था। घायलों का इलाज कर रहे डाक्टरों ने भी नब्ज देखते ही उसकी लाश मोर्चरी में भेज दी थी। 





जिस वक्त कार के दरवाजे को बिजली की गति से धकियाते हुए, बिना एक भी क्षण गंवायें, यह मान कर कि सामने खड़ा मुसलमान मुझ अकेली को शायद जिन्दा न छोड़े, मैंने उल्टा भागना शुरु किया, डाक्टर श्रीपत को कैसा लगा होगा, बता नहीं सकती! हो सकता है वे मेरी मनोदशा को भाँप चुके हों और ऐसे में अपना पूरा परिचय देने की कतई गुंजाइश न देख कार में बैठ कर आगे निकल जाना ही उन्होंने उचित समझा हो। या, यह भी तो हो सकता है कि उन्हें मेरी अक्ल पर तरस आया हो, जो एक व्यक्ति को उसके रुप, रंग और पहनावे से पहचानने वाली थी। खैर, जो कुछ भी रहा हो, पर यह सच है कि मैं भागती चली गयी और मुझे लगता रहा कि कोई लगातार मेरा पीछा कर रहा है। लेकिन ये शायद मेरा भ्रम ही था। क्योंकि जिस वक्त मैं बलवाइयों के बीच घिरी, मैंने देखा कि वे मेरे पीछे से नहीं आ रहे थे बल्कि मैं ही उनके पीछे दौड़ती चली जा रही थी। दूर से उनके न तो चेहरे दिखायी दे रहे थे और न ही उनका धर्म। सच कहूँ  तो उनके बहुत निकट पहुॅच जाने पर भी मैं उन्हें उनके धर्म से पहचान ही नहीं पायी। मैं तो बदहवास-सी बस दौड़ती चली जा रही थी उनकी ओर, यह मान कर कि शायद मेरे अपने धर्म के लोग ही हैं, जो मुझे पीछा करते एक मुसलमान से बचा लेंगे। 



उनके पीछे दौड़ते हुए यदि आप उस वक्त मुझे देख रहे होते तो हुजूम के पीछे छूट गया कोई अकेला बलवाई मान रहे होते, जो दौड़ कर जल्द से अपने काफिले में शामिल हो जाना चाहता था। उनके कंठ से निकलते हिंसक स्वर भी मुझे आतंकित करने वाले नहीं थे। क्योंकि उस वक्त मैं उन्हें अपना हितैषी ही मान रही थी। उनके हाथों में लहराते रक्त से सने हथियार मुझे अपनी रक्षा में उठे दिखायी दे रहे थे। हो सकता है उस वक्त पीछे से कोई चिल्लाया हो-


रुक जाओ। रुक जाओ।


पीछे से उठती किसी भी ध्वनि को मैं खतरे के सिवा और कुछ नहीं समझ सकती थी। आगे मेरे वीर-बांकुरों का स्वर-नाद जय घोष के रूप में गूँज रहा था।   



उस वक्त मेरे शरीर में इतनी ताकत और दौड़ सकने का वो कौशल न जाने कहाँ से आया। ऊबड़-खाबड़ खेतों और कहीं कच्ची-भुरभुरी सतह पर मैं बिना लड़खड़ाये दौड़ती रही। हो सकता है मेरी इस एकाएक कार्यवाही पर डाक्टर श्रीपत थोड़ा चौकें हों। सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव यदि उनके भीतर भी मेरी तरह ही मौजूद रहा होगा तो तय है कि एकबारगी वे ठिठके भी होंगे और कुछ देर वहाँ खड़े हो कर हिंसक बना दिये गये माहौल के प्रति गुस्सा और नफरत जरूर जाहिर किया होगा। एक असहाय, खौफजदा स्त्री का इस तरह भागना देख कर सामान्य नहीं रह पाये हों, यह भी मुमकिन है। घटी हुई घटना ने गाड़ी चलाते हुए भी उनको बेचैन तो जरूर ही किया होगा।  



मालूम नहीं मेरी इस हरकत पर डाक्टर श्रीपत ने क्या सोचा होगा। लेकिन अपने को खंगालती हूँ तो इस सवाल से तो मुझे टकराना ही पड़ता है कि आखिर मैंने जिस वक्त डाक्टर श्रीपत के चेहरे पर उनके धर्म को पढ़ना चाहा, उस वक्त क्या मैंने खुद ही अपने को एक विशेष धर्म से आबद्ध नहीं कर लिया था? डाक्टर श्रीपत ने भी मेरे चेहरे पर ऐसा ही कुछ पढ़ा हो, यह तो नहीं बता सकती, पर यह सच है कि गाड़ी जब दूर ही थी और मैंने हाथ दिया तो उन्होंने उसकी गति को कम करना शुरु कर दिया था। क्या माहौल में फैली दहशत से वे बेखौफ थे! यह कोई तर्क नहीं कि मुझे स्त्री जान मुझसे डरने की उन्होंने कोई जरूरत नहीं समझी। उनको मुसलमान मानते वक्त मैने खुद को हिन्दू नहीं मान लिया था, ऐसा मैं मान ही नहीं सकती। आखिर रास्ते के सूनेपन से भयभीत हो कर ही मैंने हाथ दे कर उनकी गाड़ी को रोका था। सोचती हूँ - यदि वे एक मुसलमान के घर में पैदा होने के बावजूद भी धर्म पर आस्था नहीं रखने वाले होते तो भी मेरे भीतर का हिन्दू तो उन्हें फिर भी मुसलमान मानने को मजबूर ही था। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरे भीतर हिंसा की आग नहीं धधक रही थी। हिंसा की आग हाथों में ले कर घूमने वालों के लिए तो मैं भी उनकी नैतिक ताकत ही थी। 



बलवाइयों के बीच घिरी हुई मैं अपनी देह को संभालती या अपनी जान बचाती। उनके रक्त सने हथियार न जाने कितनी देहों के आर-पार उतर जाने के लिए अपनी धार को पैना किये हुए थे। मुझ निहत्थी से निपटने के लिए उनके कसरती बदन ही काफी थे, जो मेरी देह को दोहरा किये दे रहे थे। मेरी आंखों के आगे तारे नाचने लगे थे। अचेतावस्था में पहुँची हुई मैं उसे कैसे पहचान सकती थी जो मेरे बचाव में बलवाइयों से उलझा हो शायद। सिर्फ एक चीख ही मुझे सुनायी दी थी। उसके बाद क्या हुआ कुछ याद नहीं। 



आज जबकि एक लम्बा अर्सा बीत चुका है, सोचती हूँ- यदि मैं उस वक्त डाक्टर श्रीपत के साथ गाड़ी में बैठ गयी होती तो इस तरह से बलवाइयों की हवस का शिकार मुझेे न होना पड़ता। यह भी संभव होता कि डाक्टर श्रीपत के साथ होते हुए हम दोनों उस रास्ते पर उतर जाते जहाँ से सही सलामत बच निकलना शायद संभव होता। शायद डाक्टर श्रीपत उस रास्ते से अनजान रहे हो जहां बलवाईयों के न होने की संभावना हो सकती थी, वरना बलवाईयों के हमले से वे बच निकल गये होते और उनके साथ मैं भी। काश, उस वक्त यदि मैंने चेहरे पर उगी दाढ़ी को आधार बना कर डाक्टर श्रीपत को विधर्मी न माना होता तो मतलब ही नहीं था कि उनकी गाड़ी में बैठ कर मैं अपना रास्ता तय न करती। साम्प्रदायिक हिंसा को प्रश्रय देता मेरा धर्मिक अहिंसकपन क्या खुद को इस बात से मुक्त कर सकता है कि मेरे भीतर भी साम्प्रदायिकता मौजूद नहीं? बेशक उसका रूप हिंसक न हो। 



भीतर दबा रोग हमारे अवचेतन में मौजूद विचारों के कारण है और उसी के आधार पर दवा का निर्धारण और उसकी उचित शक्ति ही हमें रोग मुक्त कर सकती है, डा.जेड. ए. अंसारी का यह तर्क अब कुछ-कुछ समझ आने लगा है। डाक्टर अंसारी के वे बेतुके सवाल जो मेरी गर्दन के पीछे उग आये फोड़े से मुझे मुक्त करने के लिए पूछे जाते थे, उन्हें क्या अब भी निरर्थक और फालतू माना जा सकता है?



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


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