असमिया के चर्चित कवि रंजीत दत्ता की कविताएं
रंजीत दत्ता |
किसी भी मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता होती है उसका घर। अपने घर पर वह सुकून महसूस करता है। घर से उसकी अनुभूतियां जुड़ी होती हैं। घर से उसके सपने और उम्मीदें जुड़ी होती हैं। वह काम के लिए घर से बाहर निकलता है और फिर लौट आता है सुकून के कुछ पलों के लिए अपने घर। घर एक तरह से उसकी छोटी सी दुनिया हो जाती है। हालांकि आदमी जानता है कि एक दिन उसे बीत जाना है। और तब यह घर बेगाना हो जाएगा। फिर भी घर तो घर ही होता है। कवि कुंवर नारायण की एक कविता है 'घर रहेंगे'। कविता इस प्रकार है : 'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे/ समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे/ अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम/ एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं असमिया के चर्चित कवि रंजीत दत्ता की कविताएं। इन कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया है पंखुरी सिन्हा ने।
रंजीत दत्ता की कविताएं
(चर्चित असमिया कवि)
हिन्दी अनुवाद : पंखुरी सिन्हा
घर
सजाया गया सावधानीपूर्वक
एक घर
एक पागल चाहत
खुशगवार रहन के लिए
बन्द सुरक्षित
एक बार और दोबारा
हर कोना, हर चप्पा
सुसज्जित भली प्रकार
सपने और हल्की नींद के
कितने क्षण, इधर-उधर
लेटे, बिखरे, अकेले !
गुज़रते हैं ख्याल
बालू के किलों सी महत्वकान्क्षाओं
ने चुरा लिया है इतना समय!
गायब हो गया, कितना प्यार
कितना स्नेह! एक खुराफ़ात भरी
मुस्कुराहट, मुस्कुराती है ज़िन्दगी !
दाँत बजते हैं एक दूसरे पर!
आगे चलना, टुकड़े टुकड़े में
इस तरफ़ और उस तरफ!
क्या दीवारो की ओर दर किनार
प्रेम, फूल की तरह खिला
अभिव्यक्त, आ बैठेगा
बैठक खाने में?
खुशी की मरीचिका को ढूँढते
बलुई ज़िन्दगी के रेगिस्तान
खोए उन्हीं नश्वर महलों की
तलाश में, और खत्म ज़िन्दगी!
महसूसो हर क्षण को
ज़िन्दगी को इस तरह
कि वह घर है तुम्हारा!
सजाओ दोनो को
प्यार, एहतियात और खुशी से!
रखा
एक ताला खोला आज मैने
वह जिसकी खो गई थी चाभियाँ
जंग लगी और पुरानी!
उस ताले को संजो कर रखा था
मेरे पिता ने! दादा जी की लकड़ी की
आल्मारी, उस बड़े ताले का घर थी!
क्यों नहीं सोचा कभी पिता ने
उस आल्मारी को खोलने के
बारे में! किसी को दिया तक
नहीं, ताले में बन्द वह बक्सा
हमें रखा गया सुरक्षित
और हमारे सीनों में बन्द रहे
हमारे नाजुक सपने!
कुछ खुशखबरियों ने इशारा किया
पास बुलाया, तलब किया उस
बक्से का भी! मुस्कराये पिता
देखकर मेरे हृदय की बन्द खिड़कियाँ!
ज़िंदगी की आराम देह व्यवस्थाओं
की योजनाएं छाई थी दिलो दिमाग पर,
जुनून और पागलपन की तरह!
बाधित करती मेरी सोच की सही राहें!
गरीबी की कडवाहट से निकलने का ख्याल हावी हरदम!
अपनी हर नज़र से खुशी
एक लहर की तरह गुज़रती थी
मेरे भीतर! गुज़र गए पिता!
आज दो दिन हुए!
खो गया दर्द का कोई पिंजरा
उस बन्द ताले के अंदर!
तोड़ दिया वह ताला!
आह! क्या है यह?
खुशी के भाव, जड़ी भूत
हुए, सदा के लिए!
देखते हुए मुझे अवाक
वैसे ही जैसे थी
पिता की दृष्टि शून्य
उस पार चले जाने से पहले!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स युवा चित्रकार मनोज कचंगल की है।)
सम्पर्क
मोबाइल : 09508936173
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंरंजीत दत्ता जी बहुत अच्छी कविताओं का पंखुरी सिन्हा जी ने अनुवाद किया है,,, बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत कविताएं।
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