भरत प्रसाद की लंबी कविता 'माई की दुनिया'

 

भरत प्रसाद 



मां दुनिया का सबसे प्यारा और न्यारा रिश्ता है। यह स्त्रीत्व को सही मायनों में उसका वास्तविक अर्थ प्रदान करता है। दुनिया का शायद ही कोई कवि होगा जिसने मां पर कविताएं न लिखी हों। मां स्वयं में ही एक महाकाव्य होती है जिससे कविताओं के तमाम सोते फूटते रहते हैं। भरत प्रसाद ने मां पर एक लम्बी कविता लिखी है। आज पहली बार का 12वां स्थापना दिवस भी है। आज के इस महत्त्वपूर्ण दिन पर आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भरत प्रसाद की कविता 'माई की दुनिया'।


            

माई की दुनिया

(मां के अस्तित्व  को समर्पित) 


भरत प्रसाद            



एक 


मेरे रोवाँ-रोवाँ दर्ज है

तुम्हारी मौन ममता की वर्णमाला

कौर उठाया हूँ जब-जब

टाइम बेटाइम चूल्हे से लड़ता

तुम्हारा पसीनाया चेहरा नाच गया है

समूचे शरीर में।

तुम्हारे लिए कलम उठाते ही

समुद्र भर असमर्थता भर उठती है

अक्षर किस रौशनी का नाम हैं

रोज-रोज डांट-डपट में बरसती

तुम्हारी चिंता-फिकिर से जाना।

तुम्हारे बगैर एक पल भी न जी पाने की जिद्द

अब कहाँ खो गयी?

कहाँ विलुप्त हो गयीं ?

तुम्हारे सिवा कोई ईश्वर-फिश्वर

न मानने वाली आंखें।

आखिर मिट क्यों गयी?

हर माई में अपनी माई पा लेने की भूख।

पा लेना चाहता हूँ

बचपन का गदबद हृदय

ताकि बेतरह पुकार सकूं

आकाश-पाताल के बीच नाचती हुई

एक और पृथ्वी।

लौटा लेना चाहता हूं

तुमसे बिछुड़ कर न जाने क्यों रोना

जो तुम्हारे दुलार की बारिश के बगैर

बंद ही न होती थी

वापस जाना चाहता हूँ-

तुम्हारे आंसुओं में उम्मीद बन कर खिलने।



दो 


कई कई शरीर में बंटा हुआ था

माई का शरीर

पिता के शरीर में ढाल से मजबूत कुछ

दीदी की हुलास में हूबहू उमंग

भाइयों के भीतर चट्टान से इंच भर बढ़ कर

अइया की आंखों में बरसती मोहमाया

चिंताओं की तीखी पछुआ बहती थी

टेढ़ी-मेढ़ी चुनौतियों की लू चलती थी

छोटे-मोटे सपने भी

आंख-मिचौली करते थे माई से

दुश्वारियों से कैसे चट्ट दोस्ती कर लेती

आज तक रहस्य है।

माई को अपनों से घाव

सबसे लाइलाज मिलते थे

तिरस्कार के मारक तीर चुभते रहते थे अक्सर

हमेशा तनी रहतीं, विरोध की तलवारें

उपहास सहने से पैरों-कांटों का रिश्ता था

इनकी-उनकी, न जाने किस-किसकी

चोट सह कर, खुद में ढह कर

छिपे सैनिक की तरह जीना

माई से बढ़कर नहीं जाना।

फैलता ही जा रहा

माई को न जान पाने का रहस्य

समझ गहराती जा रही

माई को न समझ पाने की

माई की चुप्पी प्रतीक्षित महाकाव्य है

उसकी हर अलौकिक हंसी

जीवन के निचाट में खिला हुआ

खांटी, अनगढ़ फूल।



तीन 


माई के कंठ से फूटे गीत

भर उठे हैं, अनहद नाद जैसे

बचपन की प्यासी घाटी में

शिरा-शिरा में मोह की औचक लहर

उठा देते हैं आज भी

बो गये हैं आत्मा में

अविरल आंसुओं के बीज।

गाते हुए माई का कंठ

न जाने किस भाव के मारे 

कांपने लगता था

जैसे लहलह गोला 

दहकता हुआ

चेहरे की भाषा गीत का अर्थ पीछे छोड़ देती

निगाहें कैद पक्षी की तरह

आकाश के लिए फड़फड़ा उठतीं

माई गीत गाती

या रत्ती-रत्ती औरतपन रोती

किन शब्दों में बयां करुं?

हृदय उतना आयतनदार ही नहीं

संभाल पाऊं माई के कंठ से फूटे

भावातीत भाव

आज भी टपटप चूता है

माई का धरती भर ऋण

चित्त के अतल में निरंतर

माई की विकल गुहार

फिर-फिर बच्चा बना देती है-आज भी।






चार 

        

 मां बनते ही औरत

 कोई और धातु हो जाती है

 जमा हो जाता है रग-रग में

हद से ज्यादा लोहा

हद से ज्यादा पानी

हद से ज्यादा चट्टानें

निर्मलतम अहक की मिसाल है

माई का हृदय।

गलती से भी मां को आंकने की गलती

मत करना

उसके गूढ़ हृदय में छिपी हैं

अज्ञात,अनछुई लिपियाँ

नहीं पढ़ी जा सकीं आजतक

भीतर दबी है कोई अनजानी भाषा

 मां की आत्मा पर लिखी हुई

जिसे पढ़ पाना  संभव नहीं 

सृष्टि की  माया की तरह।

किसी भी गहराई में उतर जाना

माईपन में उतरने से ज्यादा आसान है

सारी ऊंचाइयां बौनी हो जाती हैं

माई का स्पर्श पा लेने के बाद

किसी भी त्याग का वजन

माई के आंसुओं से बहुत हल्का है

माटी की सोंधी गंध का फैलाव

मां के एहसास के आगे कुछ भी नहीं।

मां के लिए मां हुए बगैर

मां को जान पाना मुमकिन ही नहीं।

मां सिर्फ़ एक शब्द नहीं

न ही केवल ध्वनि है

 सिर्फ़ एहसास भी नहीं 

रिश्तों की चौहद्दी में

मां को बांधने की नादानी

स्वप्न में भी मत करना।

 जीते जी हद से ज्यादा मिट जाने की कला

यकीनन है-माई!



पांच    

           

किताबें फर्राटेदार पढ़ जाना

अपराध से कम न था माई के लिए

कहती-हड़बड़-तड़बड़ बांचने से

झुरा जाते हैं शब्द,मर जाते हैं भाव

बिना रुके-थमे पढ़ जाना

सरासर अपमान है-अक्षरों का।

शब्दों को हिक्क भर निहारती थी माई

शब्दों को शब्द कहना अज्ञानता थी उसके लिए।

मन ही मन शब्दों से

न जाने किस भाषा में बतियाती

अर्थ से बहुत वजनी थे एक-एक शब्द

पांच लाइनें पढ़ जाना

पांच नदियाँ डूबकर पार करना था,

पूरी किताब पढ़ जाने की हिम्मत

माई चाहकर भी न जुट पायी

न जाने किस मोड़ पर 

भीतर जमे अश्रुमेघ बरस पड़ें।

मुंह से बोलते समय

रोवाँ-रोवाँ बज उठते थे शब्द।

किताबों से पेश आने का सलीका

धुर चौकीदार से बढ़ कर था

वक्त की क्या मजाल

जो जम जाय,धूल-धक्कड़ की शक्ल में

माई के रहते हुए।

पन्नों पर हाथ फेरती

मानो पांव छू लिया हो

साक्षात विचारों की आत्मा का।

किताबें बिना पढ़े ही

ज्ञान के बारे में माई का अंतर्ज्ञान

सदैव अज्ञात ही रहा हमसे।



छ :         


हमारी बेचैनियों के पीछे ढाल बन कर

सदैव छिपा रहा

माई का चिंताकुल चेहरा,

हमारी विफलताओं के आगे

माई अदबदा कर खड़ी हो गयी

मायूसी पनाह मांगती थी

अनुराग से लबरेज़

माई की पनीली आंखों के सामने।

हृदय पर जमी हुई

काली से काली उदासियाँ धो देने वाला

मां से बढ़कर है कौन?

भाग खड़ी हुई बड़ी से बड़ी स्वार्थपरता

माई के कद से जब जब सामना हुआ

मिट्टी के अबूझ धैर्य में

पाता हूँ माई की खबर

हर छाया मां की आहट देती है

टूट टूटकर पानी का बरसना

जैसे आकाश भर फैलकर

कोई मां रोती हो सदियों से

पृथ्वी पर जीवन भरने के लिए।

धूप का खिलना कहाँ संभव हुआ?

माई के दिनरात जले बगैर

किताबें मां बन जाती हैं

शब्द-शब्द हृदय से छूते ही

दिशाएं भी अर्थ खो बैठती हैं

माई की ममहा पुकार के बगैर!!





सात 

      

सांस-सांस में धधक उठती है कृतज्ञता

जी करता एक और सृष्टि की घोषणा करूँ

हर अस्तित्व का मूलमंत्र है ममता

कितना बड़ा भ्रम था-

कण-कण में मां की जगह

ईश्वर को घोषित करना।

कौन भरता है अन्न-अन्न में स्वाद

कौन देता हो बीज को

आकाश-पाताल एक करने की हिम्मत

दरख्तों में लबालब महाप्राण

कौन कस देता है?

मां से अलग हूबहू मां जैसा माईपन

नाच रहा है, हर तरफ

जाहिर होता है अक्सर

बहनों के अकारण दुलार में

आदतन दीदी की डांट-फटकार में

भाईयों की सख्त नसीहतों में

पिता की खांटी नाराजगी

माईपन के तानेबाने से बुनी होती है।

पता लगाओ!

तुम्हारे अंधकार की तन्हा रोशनी

कोई मां तो नहीं?

तुम्हारी मंजिलों की नींव में

किसी मां की पीठ तो नहीं दबी है?

मां से रिक्त होते ही

निगाहों में नदी का सूखा क्यों पड़ जाता है?

लटपट एहसास बन कर

बजता रहता है निरंतर माई का वजूद

अनगढ़ ममत्व की धारा

उठती, गिरती बहती है

कोने, कोने, कोने।

खिली रहती है चित्त में

सुबह जैसी तृप्ति

मां के आस पास रहते हुए!



आठ 

   

चट्टानी झरने जैसी 

माई की झर-झर हंसी हंस पाना

सबके वश का नहीं,

जिसमें छिपा लेती है

न जाने कितनी अहक की परतें

दबे ही रहते हैं, जिसमें

पुराने-धुराने घावों के जीवित कांटे

माई की हंसी में छिप जाता है

मात खाए अरमानों का समुद्र

माई की तरह हंस पाना

माई की सारी उदासियाँ जीए बगैर

संभव नहीं।

पके अनाज की चमक की तरह,

एकांत छाया की मिठास जैसी,

हृदय को जिंदा रखने के लिए जरूरी,

आत्मा की कठिन मैल धो देने वाली,

किसी भी स्वाद से ज्यादा स्वादिष्ट होती है

माई की सीधी-सपाट हंसी।

सारे सांसारिक प्रतीक बौने हैं

हंसती हुई माई के कद के आगे

इतनी निर्छल हंसी

कौन हंस सकता है?

सिर्फ़ मां को छोड़कर।

नाकाफी है शब्दों का आयतन

माई की हंसी के अर्थ समटने के लिए।


नौ :                  

चेहरे की खुशी

और आंखों में पानी के बीच

कोई अनजाना रिश्ता था,

हंसते-हंसते आंसूं छलक जाना,

रूलाई के बाद हंसी-खुशी में लौट आना

मां के अंतिम दिनों तक देखा।

जब भी रोती मां

जुबान तो जुबान

धीरज भी हार मान जाता

बेलगाम मचलती हुई बाढ़ के आगे

चेहरे की भाव-भंगिमा

आंसुओं में घुल-मिलकर बह चलती

सब्र की सीमाएं तोड़ते हुए।

रहस्य ही रह गया

माई कब अपने लिए रोती

कब अपनों के लिए।

माई का रोता हुआ चेहरा सह पाना

कल्पना से बाहर था

आंखों से आंसूं कहाँ?

कठिन संघर्ष झरते थे,दुश्मन दिनों के

आत्मा के कोने-कोने में  जमे हुए।

टूट-टूटकर बरसते थे

सूखे पत्तों जैसे सपने।

रोते वक्त माई छिपा लेती थी खुद को

सौंप देती थी शरीर

फैली धरती के आंचल में।

रोने के क्षण अनोखी गंध उठती थी

माई के शरीर से

जैसे पुरानी चट्टान टूटने के बाद

चट्टान के हृदय से फूटती है।

जिसका अनजाना सा असर काफी था

हमारे खोखले पौरुष को

खंड-खंड गला देने के लिए।





दस   

              

कुबूल करता हूँ, तुम्हें खो कर खो दिया

अपनी आत्मा का आइना

खिसक गयी है आखिरी नेह की जमीन

सदा के लिए

तुमसे बिछुड़ने के बाद

खोजता फिरता हूँ खुद को

तुम कहीं नहीं हो

पर शरीर का कौन सा कोना बचा है?

तुम्हारी ममता के निरंतर निनाद से।

तुम्हारी मृत्यु के बाद

खाली रह गयी जगह

पुकारती है आज भी 

तुम्हारा फिर जिंदा हो जाना।

मेरा अकेलापन महकता है

तुम्हारी मौजूदगी की कल्पना से

मौन में अनगिनत फूल

तुम्हारी यादों के खिलते हैं

निर्ध्वनि अक्सर चू पड़ती हो

मेरी नींद के अतल में।

गहराता ही जा रहा भीतर

तुम्हारी चुप्पियों का शोकगीत

उठता ही जा रहा पर्दा आंखों से

मां होने को जीए बगैर

मां को जान पाना नामुमकिन है, असंभव

मां को समझ लेना

सृष्टि की आत्मा हासिल कर लेना है।


ग्यारह 

         

थिरक उठता हूँ बेतरह

इसलिए नहीं कि पैदा हुआ

इसलिए कि मेरी धड़कनों ने जीया

माई जैसा संगीत।

तुम्हारा अंश होने का एहसास

करबद्ध रहने का ज्वार उठा देता है

सिर से पांव के बीच।

किन शब्दों में कहूँ कि मां होना

मोह के असंभव शिखर को पा लेना है

तुम्हारी निराकार माया से

बंधा-जकड़ा हूँ इस कदर

कि अंतिम सांस निकलेगी

तुम्हें सुमिर लेने के बाद ही।

पा लेना चाहता हूँ फिर से बचपन

लौटना चाहता हूँ बेमतलब के विलाप में

लोटना चाहता हूँ फिर-फिर

भूली-बिसरी धूल-माटी में

फिर करना चाहता हूँ बच्चों जैसी गलतियाँ

पुकारता हूँ अपनी एक-एक नासमझी

आएं, छा जाएं, बरस पड़ें हृदय में

छीन ले मेरे यौवन का एक-एक रंग

जिससे पा जाऊं अपनी जड़ों की आत्मा

दुनिया जिसे मां कह कर पुकारती है।।


         ~~~~~~~~~~~~~~

 

     

{ फरवरी – मई, 2023 ई. }


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)



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मोबाइल - 9774125265

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