प्रचण्ड प्रवीर की लघु कहानी 'जन्नत न बना सकेगा इसे कोई'।



हाल फिलहाल तक यह सामाजिक मान्यता थी कि श्रम से अर्जित धन से जीवन यापन का कोई सानी नहीं। अब यह बीते समय की बात हो गई है। आज के समय की मान्यता हो गई है धन अर्जित करना है माध्यम कोई भी हो। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आज के जमाने में अनैतिक कुछ भी नहीं। लेकिन इस स्वच्छंदता ने जीवन को ही पूरी तरह अराजक बना दिया है। प्रचण्ड प्रवीर ने अपनी कहानी 'जन्नत न बना सकेगा इसे कोई' में इस मुद्दे पर गम्भीर बात की है। प्रवीर की चर्चित पुस्तक श्रृंखला 'कल की बात' सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हैं। 'कल की बात' श्रृंखला में प्रवीर की कई किताबें पहले ही प्रकाशित एवम चर्चित हो चुकी हैं। बहरहाल सी क्रम में यह अप्रकाशित लघुकथा है, जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर की लघु कहानी 'जन्नत न बना सकेगा इसे कोई'।



जन्नत न बना सकेगा इसे कोई



प्रचण्ड प्रवीर



कल की बात है। जैसे ही मैंने बरात के जनवासे में कदम रखा, सामने से सुप्रतीक हँसता-खिलखिलाता नज़र आया। एक दोस्त की शादी में हम दोनों का बहुत सालों बाद मिलना हुआ। सुप्रतीक और दुल्हा दोनों अमरीका से यहाँ शादी करवाने और शादी करने आये थे। फिर क्या था, हसीन शाम में नाश्ता -चाय-समोसा का दौर चलने लगा।

                


सुप्रतीक बहुत दिनों तक जमशेदपुर की बातें याद करता रहा। फिर काबिलियत, फिर नौकरी की मेहनत, फिर धन-दौलत की चर्चा होने लगी। कार्तिक के आते ही साधक, साधन तथा साध्य की इस त्रिपुटी की विवेचना होने लगी। जब तक सोहन नहीं आये थे, महफिल में सुप्रतीक की बात से किसी को असहमति नहीं थी। दबी जबान में हमने कहा कि सोहन आते ही होंगे और इस पर उनका कहना मायने रखेगा। हमारी इसी बात पर कार्तिक ने आपत्ति की। उसने कहा, “सोहन और क्या कहेगा? धन-दौलत किस्मत की बात है या बेईमानी की बात है। मैं बताता हूँ आपको। अभी चार साल पहले जो कॉलेज से लड़का निकला, उसने ऑनलाइन जुआ खेलने का धंधा बनाया। आज 100 करोड़ का मालिक है। कहने को ऑनलाइन गेम ‘स्किल बेस्ड’ (कुशलता पर आधारित) हैं इसलिए कानून की दृष्टि में वह जुए में नहीं गिना जाता। लेकिन सच क्या है? हर दिन 10 लाख गरीब और निम्नवर्ग के लोग उस पर सट्टा लगाते हैं और पैसे बनाते हैं। जिन दो लड़कों ने मिल कर यह कम्पनी खोली, उनमें से एक ने १०० करोड़ का हिस्सा ले कर किनारा कर लिया और अब दिन भर गाँजे के नशे में डूबा रहता है।“

                


सुप्रतीक ने हँसते हुए कहा, “गलत क्या है? पैसा बन गया!”

                

लेकिन उसे क्या मालूम कि तब तक सोहन महफिल में आ चुके थे और उन्होंने ये बातें सुन ली। एक कुरसी खींच कर वह बैठे और कहने लगे, “हम बताते हैं। जुआ, वेश्यावृत्ति, नशाखोरी यह सामाजिक बुराई मानी जाती है। लेकिन सोचिए खतम कैसे होगी?”

                


कार्तिक बोला, “नहीं खत्म हो सकती है।“ इस पर सोहन ने कहा, “कोशिश करते रहना चाहिए लेकिन कई बार...।“ कह कर सोहन कुछ सोच में डूब गए। मैंने टोका, “क्या कई बार...?”

                


सोहन कहने लगे, “एक अजीब सा वाकया है। बताता हूँ आपको। थोड़ा भद्दा लग सकता है। कुछ महीने पहले की बात है। मैं अपने एक दोस्त के डेरे पर बिन बताए पहुँच गया। मेरे कॉलेज का दोस्त था और हमारी गहरी दोस्ती थी। उसकी बीवी मायके गयी हुई थी। मुझे लगा कि रविवार के दिन बैठ के गप्पे मारेंगे। वहाँ जाने के बाद नज़ारा ही कुछ और था। हमारे दोस्त ने एक कॉलगर्ल बुला रखी थी। मुश्किल से बाईस साल की रही होगी। मैंने उससे बातें-वातें की। पूछा कि ये क्यों करती हो? कहने लगी पैसों की किल्लत है। उत्तराखण्ड की थी। दसवीं तक पढ़ी थी। घर में माँ की तबीयत खराब है। बहन को पढ़ाना है। भाई बहुत छोटा है। पिता जी नहीं हैं। इसलिए! मैंने कहा कि तुमने अभी दुनिया ही क्या देखी है? इस दलदल से निकलो। इसमें अगर मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूँ तो मुझे खुशी होगी। कह कर बात आयी-गयी, हो गयी। इसके हफ्ते बाद से उसका फोन आने लगा। सर, माँ की तबीयत बहुत खराब है। कुछ मदद कर दीजिए। उसके दो हफ्ते बाद, कपड़े खरीदने में कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं। कभी घर में खाने को नहीं है। उसने कहा कि सर मैंने वह काम छोड़ दिया है। दसवीं पास होने पर कोई पंद्रह हजार से ज्यादा की नौकरी नहीं देता। उसमें घर कैसे चलेगा? मैंने समझाया कि ज़रूरतें कम करो। लेकिन अगले दो महीने वह जब-तब मुझे फोन करे। इस दरमियान इंसानियत के नाम पर मैंने कुछ बीस-पच्चीस हजार रुपए उसको दिए होंगे। अंत में आजिज़ आ कर उसका फोन उठाना बन्द कर दिया।"


                

सुप्रतीक हँसने लगा, “तुम्हें चूना लगा दिया उसने। ऐसे लोग क्या कभी सुधरते हैं।"

                

सोहन ने उदासी से कहा, “कोशिश करनी चाहिए। क्या पता किसी सच्चे की मदद हो जाए।"

                


सुप्रतीक ने कहा, “तुम्हारा पैसा डूब गया इसलिए खुद को दिलासा दे रहे हो। मैं एक बात बताऊँ। इस पढ़ाई-लिखाई और डिग्री का कोई खास मतलब नहीं है। पहले के जमाने में पढ़ने की किताब नहीं मिलती थी। रात में बिजली की रोशनी नहीं थी। टीचर को खुद कम आता था। मतलब बहुत कम में कुछ हासिल कर लेना मायने रखता था। हमारे पिता जी-दादा जी के समय का दसवीं-बारहवीं का बहुत महत्त्व था। अब क्या है? कोई भी ९९ प्रतिशत ले कर घूम रहा होता है। ऐसे बच्चों में व्यावहारिक ज्ञान बहुत कम होता है। किसी चौदह साल के लड़के को अकेले एक शहर से दूसरे शहर जाने कहो, क्या जा सकेगा?”

                




सोहन ने कहा, “पुराने जमाने का क्या रोना? उस समय के मास्टर्स और रिसर्च का स्तर कुछ भी नहीं था। पहले नौकरी में भी व्यावहारिक ज्ञान काम आता था। फिल्मों में दिखाते थे, कोई सेठ किसी लड़के से कहता था कि नौजवान, मुझे तुम जैसे ईमानदार और मेहनती आदमी की तलाश थी। लेकिन अब ज़माना बदल गया है। कम्प्यूटर के बाद ईमानदारी का ठेका कम्प्यूटर ने लिया है। मेहनत का लेखा-जोखा दफ्तर के स्क्रीन मॉनिटरिंग और सीसीटीवी कैमरे ने ले रखा है। अब उन चीजों की ज़रूरत नहीं रही।"


                

कार्तिक ने टिप्पणी की, “हाँ भाई। जब समाज ने जुआ, वेश्यावृत्ति, नशाखोरी – इन सबको खुले दिल से अपना ही लिया है तो ज़रूरत ही क्या है? मान लिया जाय कि कर्मचारी के मेहनत का फल उसके मालिक को मिलता है, कर्मचारी को नहीं; तो क्या इस कारण से मेहनत करना छोड़ देना चाहिए?”

                


तभी बरात निकलने का शोर हुआ। बरात में नाचते गाते हम सभी विवाह स्थल पर पहुँचे। वरमाला के बाद सोहन ने मुझसे पूछा, “आपने बताया नहीं कि इस समस्या का निदान क्या है?”

                

मैंने कहा, “गीता में लिखा है - दान देना ही कर्त्तव्य है, ऐसा विचार कर के जो दान देश, काल और पात्र के अनुसार दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है। जो दान क्लेशपूर्वक तथा फल का उद्देश्य रख कर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है और जो दान बिना सत्कार किए या तिरस्कारपूर्वक, कुपात्र के लिए दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।"

                

सोहन ने टोका, “मैंने दान नहीं दिया। मदद की।"

                

“शायद आप दान का अर्थ भिक्षा से ले रहे हैं। लेकिन भिक्षा एक प्रकार का दान हो सकता है, हर दान भिक्षा नहीं है। आपने जो दिया वह दान ही था लेकिन था तामसिक दान।"

                

तब तक सुप्रतीक और कार्तिक हाथ में जूस का गिलास लिए पास आ बैठ गए। कार्तिक ने कहा, “बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं यहाँ पर। यह बताइए, काबिलियत, मेहनत और दौलत – इन तीनों के बारे में क्या विचार है?”

                

“बहुत ही साधारण। यहाँ साधक, साधना और साध्य वाली बात है नहीं। क्योंकि मेहनत से धन तो मिलेगा, किन्तु यहाँ धन की कामना अपरिमित धन यानी दौलत की है। मेहनत का फल कार्य का सुचारू सम्पादन है। पारिश्रमिक के रूप में धन का मिलना तो व्यवहार या व्यवसाय है। पेड़ में फल तो लगता है, लेकिन पेड़ कल्पवृक्ष हो जाए, यह क्या बात हुई?"

                


कार्तिक बताने लगा, “मेरा एक दोस्त उसी ऑनलाइन गेम वाली कम्पनी में काम करता है, जिसकी मैं बात कर रहा था। बता रहा था कि एक दिन किसी गाँव से कोई आदमी कम्पनी के दफ्तर बोतल में पेट्रोल भर कर धमक पड़ा। उसके आठ लाख डूब गए थे। उसने कहा कि आत्मदाह कर लूँगा। उसी दिन कम्पनी में  विदेशी निवेशक आये हुए थे। ऐसे में हंगामा होता तो फिर क्या होता? जल्दी से उस ग्रामीण को दो हजार दे कर अगले दिन आने को कहा गया। जाओ, जाओ, कल कुछ करेंगे। अगले दिन ग्रामीण आया। दफ्तर के पास वाले थाने में कम्पनी की सेटिंग थी। पुलिस गाँव वाले को पकड़ कर ले गयी और धमकाया कि तुम्हारी गलती है जो तुमने सट्टे में इतना पैसा लगाया।"

                


“आधुनिक समाज में सट्टे का रोग जो लगा है, वह विश्वव्यापी है। जुए के समर्थन में, वेश्यावृत्ति के समर्थन में और गाँजे के समर्थन में बहुत से बुद्धिजीवी बोलते पाए जाएँगे। उनका तर्क व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ले कर होता है।“ मैंने कहा। सोहन ने पूछा, “समस्या का निदान क्या है?”


                

मैंने कहा, “समस्या के निदान से पहले समस्या की सही पहचान होनी चाहिए। संगीत, कला, साहित्य का पतन ही हमारे पतन की पहली पहचान है। अभी डांस फ्लोर में जो संगीत बज रहा है, बहुतों को अच्छा लगेगा। शायद ही किसी को शोर लगे। लेकिन इसे पसन्द करने वालों में से कोई शायद ही उच्च कोटि का शास्त्रीय संगीत सुन पाएगा। बहुत से कलाविद भी कविता या चित्र में अर्थ होने का विरोध करेंगे, इस आधार पर कि आनन्द की अनुभूति अर्थ से सम्बन्धित नहीं होती। ऐसा कहने वाले अर्थ का मतलब नहीं समझते। बिलकुल वैसे ही जैसे जुए की कम्पनी वाले कर्ज में डूबे अकेले में आत्मदाह कर लेने वाले मूर्ख ग्रामीण की चीखें नहीं सुनेंगे।"

                 


सुप्रतीक ने ठहाका लगाया, “कोई ऐसे नहीं मरने वाला। न तो सट्टा लगाने वाला ग्रामीण मरेगा, न ही वह कॉलगर्ल मरेगी, न ही 100 करोड़ का गँजेड़ी मालिक मरेगा। किसी शायर ने कहा है- जन्नत न बना सकेगा इसे कोई, दुनिया यूँ ही चलती रही है। यूँ ही चलती रहेगी।"

                

ये थी कल की बात !


दिनांक : 29/05/2023


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग विजेन्द्र जी की है।)

टिप्पणियाँ

  1. Taji aur ancchue vishay par aaj ki dunia ki haqeekat bayan karti someshshekhar chandr

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  2. बढ़िया लिखा। समय की नब्ज पर हाथ रखा।

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