रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'इक बंगला बने न्यारा'





आमतौर पर एक मध्यमवर्गीय परिवार का सपना होता है कि उसका अपना कोई आशियाना हो। इसके लिए वह सपने देखता है। योजनाएं बनाता है। और हर संभव कोशिश करता है। आज जब लाखों लोग बेघर हैं वैसे में सचमुच घर का होना एक नेमत की तरह है। बशीर बद्र की पंक्ति याद आ रही है 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में...'। हर महीने के तीसरे रविवार को हम पहली बार पर रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी कड़ी में इस बार 'इक बंगला बने न्यारा' शीर्षक से अपने जीवन के पन्नों को पलटने की कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'इक बंगला बने न्यारा'।



इक बंगला बने न्यारा 


रुचि बहुगुणा उनियाल 


सपनों का घर बनाने की इच्छा हरेक व्यक्ति की होती है, मैं भी इस चाहना से अछूती नहीं रही कभी। 

 

      

बड़ी लंबी प्रतीक्षा के बाद ज़मीन का एक टुकड़ा अपने इस सपनों के घर को बनाने के लिए ख़रीद पाए हम लोग। ज़मीन की रजिस्ट्री व बाक़ी काग़ज़ी कार्यवाही पूरी हो जाने के बाद जब घर बनाने की चर्चाएँ हम पति-पत्नी बच्चों के सामने करने लगे तो एक रोज़ बेटा चहकता हुआ बोला, 'ममा नये घर में कितने कमरे होंगे मैं बताऊँ?' 


उसके उल्लसित हो ऐसा कहने पर हम दोनों पति-पत्नी समवेत स्वर में ठहाका मार कर हंस पड़े क्योंकि उसे अपने घर में सब आने-जाने वाले लोगों के लिए अलग-अगल बेडरूम बनवाने की इच्छा थी। 


वो बोला 'ममा मेरे कमरे में चॉकलेट की दीवार बनवाना और मेरे जितने भी टेडीबियर हैं उनके लिए अलग से एक अलमारी भी चाहिए'। 

      

उसके हिसाब से कमरे में साज-सज्जा के लिए टॉफियों के झूमर लगने चाहिए और उसकी प्लेइंग कार्स की पार्किंग भी रूम में ही होनी चाहिए थी। इस बात पर जहाँ मैं हंसी वहीं मेरा मन अपने बचपन की ओर भाग चला क्योंकि अस्सी के दशक में किसी भी मध्यमवर्गी परिवार के सदस्यों को ऐसा सोचना कि अलग कमरा हो और उसकी सजावट अपने हिसाब से हो यह सोच सपने जैसी बात होती थी।


हालांकि मेरे दादा जी समाज के एक बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे चूंकि उन्होंने अपने गाँव और समाज के ग़रीब तबके के लिए बहुत से जन कल्याणकारी कार्य करवाए थे जिनमें से डिस्ट्रिक्ट देहरादून के हमारे गाँव रामनगर डांडा और ग्रामसभा तलाई के खेतों की सिंचाई व्यवस्था के लिए नहर निर्माण और इलाके की पेयजलापूर्ति के लिए पाइपलाइन बिछवाना उस समय के महत्वपूर्ण कार्य थे। इसी समाजसेवी जज़्बे के लिए उन्हें अंग्रेज़ी सरकार द्वारा सहयोग और सम्मान दोनों मिलते रहे। इसी प्रतिष्ठा के चलते उस जमाने में मसूरी लाइब्रेरी में उनका चित्र लगवाया गया था जो कि आज भी वहाँ मौजूद है और हमें गर्व से भर देता है।


पेयजल, सिंचाई और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ एक मनुष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण  हैं यह मेरे दादाजी स्वर्गीय श्री भीमदत्त बहुगुणा जी जानते थे इसीलिए उन्होंने उस समय ग्राम भोगपुर में इंटर कॉलेज भोगपुर की नींव रख कर इलाके की शिक्षा व्यवस्था में एक मील का पत्थर जोड़ा उनकी इस समाजसेवा को कालांतर में मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री रामेश्वर प्रसाद बहुगुणा जी ने अपनी ज़मीन से एक बीघा ज़मीन ग्राम रामनगर डांडा में स्कूल के लिए दान करके क़ायम रखा और साथ ही अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षा का क्या महत्व है यह संदेश भी देकर अपने जीवन की सार्थकता बढ़ाई और हमें गर्व करने का अवसर भी प्रदान किया। 



हमारा घर बहुत बड़ा नहीं था जैसे सामान्य मध्यमवर्गीय घर होते हैं ठीक वैसा ही कुछ दो कमरों और एक बंद लंबे चौड़े बरामदे का घर जिसके साथ ही लगा हुआ एक काफी बड़ा रसोईघर जहाँ खाना बनने के अलावा हम तीनों भाई बहनों की हजारों खट्टी-मीठी शैतानियाँ और यादें भी पकती थीं! 


      

यूँ तो मुझे हमारा घर पूरा ही बहुत पसंद था लेकिन फिर कोई _कोई कोना आपको अपना अधिक प्रिय होता है न बस ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी था! 



एक तो बंद बरामदे की एक खिड़की जिस पर बैठने के लिए काफी जगह थी मुझे बहुत प्रिय थी क्योंकि वहाँ से बाहर का नज़ारा आराम से देखने मिलता था और वो घर के बीचोंबीच थी तो ना जाने क्यों मुझे शंहशाहों वाली फीलिंग आती थी उसपर बैठकर! 


दूसरा हमारे घर का पूजा वाला कमरा जिसमें पूजा होती थी मुझे बहुत ही अधिक प्रिय था उसमें पहुँचते ही मन को बड़ा सूकून सा लगता था। 



जब मैं हाईस्कूल में थी तो ये सन् 1999 की बात है उस समय उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड अलग नहीं थे बल्कि पूरा एक ही प्रदेश था। इस तरह से प्रदेश का माध्यमिक शिक्षा परिषद का परीक्षाफल भी संयुक्त रूप से आता था, तो हुआ यूँ कि मैं बहुत डरी हुई थी कारण कि मैं दिन में कभी भी पढ़ती थी नहीं सो माँ पापा को लगता था कि रुचि पास तो क्या ही होगी हाईस्कूल में, 

पर फिर भी परीक्षा तो देनी थी सो दी ही! 

मार्च के अंत में परीक्षा शुरू हुई और आधे अप्रैल माह तक समाप्त। 



उसके बाद गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू, जहाँ एक ओर सब बच्चे दिन भर खेलते, कूदते, फांदते रहते, मैं डरी-डरी अपने कमरे के कोने में बैठी रहती! माँ की हजारों गालियां खाती कि उनके साथ कुछ काम नहीं करती बस बैठी रहती है और बाकी सबको लगता कि मैं गर्मी के कारण से बाहर नहीं आ रही पर मेरा मन और मेरे कमरे का वो कोना जानता था कि मैं क्या सोचती थी और वो ही अकेला राज़दार था मेरे डर का! 


         

परीक्षाफल आया जून में और उस वक्त जो अनुक्रमांक होते थे वो भी लाखों की संख्या में होते थे मेरा हाईस्कूल परीक्षा का अनुक्रमांक 387707  था! 


सोते जागते वो ही ध्यान में रहता और मैं  बुदबुदाती रहती थी उसे! शायद मेरे साथ - साथ मेरे वाले कोने की दीवार को भी वो नंबर याद हो गया था! 





अब आया परीक्षा परिणाम घोषित होने का दिन! उन दिनों परीक्षाफल आजकल की तरह इंटरनेट पर नहीं देखा जाता था कि कुछ ही मिनटों में पूरे प्रदेश का परीक्षा परिणाम देख लो और बात खत्म! इंटरनेट का प्रचलन था पर बहुत ही कम केवल साइबर कैफे तक, तो परिणाम आता था अखबार में जो कि अक्सर शाम के वक्त या फिर रात तक पहुँचता था! 



दिन भर में कितनी बार हड़बड़ा कर उकड़ू बैठ गयी थी पलंग पर कह नहीं सकती, क्योंकि एक तो अखबार में आना था परिणाम सबके सामने और ऊपर से मैं साइंस साइड की विद्यार्थी! 

         

खैर जो होना था वो हुआ और मेरी इस हड़बड़ाहट को बाकी लोगों ने देखा कि नहीं कहना जरा मुश्किल है पर वो कोना जहाँ मेरा पलंग था बार-बार मुझे देख रहा था और मुझे लगता था कि दीवारें मेरी हड़बड़ी देखकर मुस्कुरा भी रहीं थीं! 


"और मत पढ़ सबके सामने! अगर फेल हुई तो सफाई में क्या कहेगी?, कि मैं रात को पढ़ती थी?, लोग हंसेंगे तुझपे!",, 


जैसे दीवारों ने मुझे ताना मारा! 

तुर्रा ये कि मैं ट्यूशन भी कभी गयी नहीं थी बाकी बच्चों की तरह! मैं घबराहट के मारे दिन का खाना भी नहीं खा पायी! हमारे घर में माँ की एक काले रंग की गाय थी जो मुझे बहुत प्यारी थी। शाम के वक्त कम्मो की गौशाला में गयी वो बाहर ही बंधी हुई थी, उसकी पीठ सहलायी और रोने लगी घबराहट के मारे! कोई नहीं था आसपास जो मुझे देख सके सब अपने आप में मस्त, कि अचानक ऊपर वाली सड़क पर शोर सुनाई दिया!,

 "रिजल्ट आ गया, रिजल्ट आ गया!", 

मैं सर पर पैर रख कर अंदर भागी और सीधा अपने कोने में दुबक कर बैठ गयी! 



इतनी देर में परीक्षाफल का अखबार हाथों में लिए दो लड़के बाइक से हमारे घर के बाहर फर्श पर आ पहुँचे! सब लोग घिर गए क्योंकि पूरे खानदान में ताऊजी चाचाजी की लड़कियों में मैं अकेली लड़की थी जिसकी साइंस साइड थी और पूरे गाँव में दूसरी! लिहाजा सबको बड़ी उत्सुकता थी मेरा परीक्षाफल जानने की, क्योंकि ट्यूशन कभी गयी नहीं और दिन में कभी किसी के सामने पढ़ती ही नहीं थी! 

  

          

आँगन से बड़ा भाई अंदर आया,

 "बता अपना रोल नंबर!", 

मैं __चुप्प्प्प्प्!, 

"अरे बता न"! 

छोटा भाई आया और उसने दीवार पर लगी अलमारी जहाँ मेरी किताबें रहती थीं, वहां से मेरा एडमिट कार्ड निकाल लिया और उछलकर चिल्लाते हुए बाहर भागा, 

"मुझे मिल गया इसका एडमिट कार्ड!" 


मुझे काटो तो खून नहीं! डर के मारे ऐसा लगा कि पूरे शरीर पर बर्फ गिर गयी है! और इतनी भरी जून की झुलसती गर्मी में भी मैं डर से ठंडी पड़ गयी! चुपचाप उसी कोने में बैठी रही कि इतने में बाहर से माँ की हुलसती हुई आवाज कानों में पड़ी

" रुचा तू तो पास हो गयी! "

कानों को विश्वास नहीं हुआ कि तभी माँ के साथ पापा भी आ गये, 

"अरे बेटा तू तो फर्स्ट डिविजन में पास हुई है रुचा!",

 मेरी आँखों में आँसू और मुँह पे ताला! बाहर आँगन में पूरा गाँव इकठ्ठा हो रखा था! 

    

कुछ शुभचिंतक भी थे जिन्हें बिल्कुल भी यकीन नहीं था कि मैं पास हो ही जाऊँगी! और इसी चक्कर में वो बार-बार अखबार हाथों में ले कर देख रहे थे कि मैं कहीं वाकई पास तो नहीं हो गयी! 


   

अब बड़ा भाई मुझे बांह से पकड़कर बाहर ले गया, शर्म और खुशी दोनों साथ में, बोलने की गुंजाइश बिल्कुल खत्म! 



सब मुझे प्यार कर रहे थे लेकिन मैं मन ही मन भगवान को धन्यवाद दे रही थी और जब रात को खाना बना तो मैं अब भी खुशी से कुछ खा नहीं पायी! 

      


माँ ने मीठे में सेंवियां बनायी और मुझे प्यार से खिलायी आखिर उनकी इच्छा से ही मैंने साइंस साइड ली थी और यूपी बोर्ड से प्रथम श्रेणी में पास भी की थी! 


रात को खाना खाते वक्त वो रसोईघर जहाँ हम खूब शैतानी करते थे हमारी हंसी से और भी अधिक सुंदर लग रहा था! सोने कमरे में आयी तो पलंग पर आते ही नज़र दीवार पर पड़ी मेरी खुशी से उस दीवार का रंग आज दोगुना चमक रहा था! 


    

इसके बाद ग्यारहवीं बारहवीं करने के बाद बीएससी के लिए दाखिला मिला एमकेपी कॉलेज में और अच्छे नंबर आने के कारण सरलता से साइंस मिल गयी अब मैं रहने लगी अपने ताऊजी के साथ इंदिरा नगर देहरादून! 



वहाँ जो कमरा था उसमें मेरा स्टडी टेबल और कुर्सी के साथ साथ पूरा कमरा जैसे मेरे कॉलेज से घर आने का इंतजार किया करता था! जैसे ही मैं लौटती ऐसा लगता कि कमरा मेरे आने से चहकने लगा है! देर रात तक पढ़ने की आदत थी तो मेरे ताऊजी व ताईजी बहुत खुश होते थे। 



जब कॉलेज से आती तो ताई जी मेरे कमरे में आ जाती थीं फिर उनकी मेरी थोड़ी देर तक खूब बातें होती थीं, और इस दौरान मेरा कमरा हमारी बातों और हंसी के ठहाकों का गवाह बनता था! मेरे लिए ताईजी अपने हाथों से कई तरह की चीजें बनाती थीं और बड़े स्नेह से मुझे खिलाती भी थीं! कभी-कभी हमारे घर का नौकर छोटू (जिसका केवल नाम ही छोटू था शरीर और उम्र में भी वयस्क लड़का था वो) भी मेरे लिए कुछ बनाता था जो वो दीदी-दीदी करके मेरे कमरे में ही ला कर देता था! 



कमरे के पीछे था दूसरा आँगन और किचन गॉर्डन जहाँ मेरी ताई जी कभी कुछ सब्जी और बेलें लगाती रहती थीं और वहाँ काफी आम के पेड़ भी थे पीछे की ओर लेकिन मुझे पीछे वाला आँगन शाम के वक्त अपने ताऊ जी और ताई जी के साथ बैडमिंटन खेलने की जगह होने की वजह से बहुत पसंद था! ताऊ जी फौज से लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से सेवानिवृत्त होने के कारण बहुत अनुशासनप्रिय थे उनके दो बेटे हैं और दोनों फौज में कर्नल के पद पर कार्यरत हैं तो बेटियां न होने से सारा लाड़-प्यार मुझ पर ही बरसता था जो कि अभी भी कायम है! 

    


कॉलेज के दौरान ही शादी का रिश्ता आया और मैं मिली अपने भावी पति से! दिन था 13 अप्रैल 2003. हम दोनों को एकांत में बातचीत के लिए कहा गया ताकि एक दूसरे को समझ सकें और कमरा चुना गया मेरा वाला ही! रिश्ते का श्रेय भी मेरे ताऊ जी और ताईजी को ही जाता है उन्हें लड़का पसंद था और घर भी। 

उस कमरे में आए तो मुझे लगा कि कमरा हमें देख कर जैसे मद्धिम हंसी से दमक रहा हो! 



जब मेरे ससुराल वाले सब जन रिश्ता तय होने के बाद चले गए तो मैं वापस कमरे में आयी और पहली बार एहसास हुआ कि यह कमरा छूटने वाला है! 



लड़कियों के लिए कितना सहज समझा जाता है न कि वो एक घर से दूसरे घर जा कर बस सकती हैं और उन्हें कोई तकलीफ़ भी नहीं, जबकि ऐसा नहीं है, होता तो ऐसा है कि जीवन में सबसे अधिक मूल्यवान समय बचपन से ले कर जवानी आने तक का होता है और उस समय की यादें जो कि किसी भी लड़की को त्याग कर अन्य कहीं भी बसना सबसे कठिनतम कार्य होता है फिर भी वो ऐसा करती हैं और अपने सामाजिक कर्तव्य का निर्वहन भली प्रकार से करती हैं। 

    


शादी हुई 21 जून 2003 को और मैं आ कर बस गयी एक नयी दुनिया में नये लोगों के साथ जिनमें से कि पति और सास-श्वसुर जी के अलावा अन्य सभी मेरे लिए उतने ही अनजान थे जितना कोई भी बाहरी व्यक्ति, फिर भी सामंजस्य स्थापित करने का मैं भरपूर प्रयास कर रही थी! 



यहाँ भी मेरा कमरा था जिसे मैं अपने पति के साथ बाँट रही थी! लेकिन चूंकि पति बहुत ही सज्जन मनुष्य हैं तो उन्हें मेरी अभिरूचियों का पूरा पता भी था और ध्यान भी अतः मेरी किताबों को एक अलमारी में रखवा दिया उन्होंने और मेरी पढ़ाई पुनः दो महीने में प्रारंभ हो गयी। 




   

ससुराल में जाने अनजाने कई बार ऐसी परिस्थितियां भी आती हैं जब लड़की को उनका कोई साझेदार नहीं मिलता! परन्तु मेरे पास थीं मेरी किताबें, मेरी डायरियाँ, और मेरा कमरा जो मेरे हर सुख दुःख के साझेदार थे। पतिदेव के भी पहले उन्हें मेरे हर क्रियाकलाप व सुख-दुःख का पता होता था।

  


पढ़ते-पढ़ते ग्रेजुएट हो गयी फिर पोस्ट ग्रेजुएट! पति ने वर्ष 2007 में मुझे फार्मेसी करने के लिए देहरादून भेजा वापस अपने मायके की धरती पर! लेकिन अब मुझे छः महीने हॉस्टल के कमरे में रहना पड़ा! जिसे एक और लड़की के साथ साझा करना था लेकिन फिर भी मेरा कोना सुरक्षित और आरक्षित दोनों ही था! 

   


हॉस्टल की जिंदगी भी बहुत ही दिलचस्प थी! सुबह नहा कर फ्रेश होती सब लड़कियां और नाश्ते के लिए कैंटीन में मिलती फिर कॉलेज जाती थीं! 

        


उस कमरे से बाहर निकल कर देखो तो पीछे का जंगल दिखाई देता था और मुझे और क्या चाहिए था भला! मैं जब भी कुछ सोचती तो कमरे के बाहर निकल कर जंगल देखने लगती थी और अंदर आ कर जो भी सोचा हो उसे शब्दों में उतारती और डायरी में सुरक्षित रख लेती थी! 


छः महीने बाद मेरे पति ने मेरे स्वास्थ्य कारणों से कमरा बाहर किराए पर लिया और मैं राजपुर रोड जाखन में उस कमरे में रहने लगी! मकान मालिक एक बुजुर्ग पंजाबी दम्पति थे दो जन और उनके मकान में पीछे वाला कमरा मेरा मैं देर रात तक जागकर पढ़ती लिखती थी लेकिन उन्होंने कभी भी ध्यान नहीं दिया कारण कि मेरा कमरा पीछे की ओर था जहाँ उन्हें रात के समय में आना नहीं पड़ता था! 



उस कमरे की दीवारों और खिड़की दरवाजे तक को सारे दवाओं के नाम याद हो गये थे शायद मेरे साथ ही! दवाओं के साइड इफेक्ट, एडवर्स इफेक्ट, ड्रग्स का मेटाबॉलिज्म् आदि सब जोर जोर से पढ़ती थी तो सड़क मार्ग से लगा होने के कारण आने जाने वाले भी कमरे की ओर देखते हुए जाते थे! 

एक रात मैं आदतन पढ़ रही थी तकरीबन साढ़े बारह बजे होंगे! 



मकान मालिक श्री सैनी जी स्वंय बाहर आए किसी काम से तो उनकी नज़र मेरे कमरे की खिड़की पर पड़ी और उन्हें लगा कि मैं रात को लाइट बंद करना भूल गयी हूँ! अपनी बात को पुख्ता करने के लिए वे भीतर जाने के लगभग दो घंटे बाद पुनः बाहर आए और मेरे कमरे की खिड़की की ओर झांका मैं अब भी पढ़ रही थी तो जाहिर सी बात थी कि कमरे में रौशनी हो रही थी! 



वे अंदर जा कर सो गये और सुबह मेरे कॉलेज जाते वक्त मुझे रोक कर कहने लगे कि 

"मिसेज उनियाल आप कल रात को लाइट बंद करना भूल गयी थी शायद" 

तरीका अच्छा था उनके कहने का परन्तु अंदाजा गलत क्योंकि मैं तो पढ़ रही थी! मैं बोली

" अंकल मैं रात को पढ़ती हूँ इसलिए ही लाइट खुली थी" 

"मिसेज उनियाल रात को तकरीबन ढाई बजे देखा था और तब भी आपकी लाइट जली हुई थी "

अंकल मैं रात साढ़े चार बजे तक पढ़ती रही और दो घंटे सोई हूँ इसीलिए लाइट जली हुई थी "! 

एक जोरदार ठहाका लगाकर वो बोले 

" मिसेज उनियाल आप तो टॉप करेंगी जरूर" 



मैं उन्हें प्रणाम करके कॉलेज के लिए निकल गयी और परीक्षाफल आया तो 80% अंकों के साथ मैंने फार्मेसी की परीक्षा उत्तीर्ण की थी शायद सैनी अंकल की बात ईश्वर ने भी सुन ली थी! 

    


वर्ष 2009 में घर (ससुराल) वापसी की और सामाजिक नियमों के अनुसार हमें एकल परिवार बनाने का आदेश सास-श्वसुर जी ने दिया! अब दूसरा घर जहाँ मेरा शयनकक्ष और दूसरा ड्राइंगरूम भी और मेरी किताबों का आशियाना भी है! शयन कक्ष में मात्र सोने का उपक्रम होता है मेरे लिए और जिस कमरे में मेरी किताबें हैं वो कक्ष मुझे सबसे अधिक प्रिय है अभी कुछ दिन पहले ही घर में रंग रोगन करवाया तो जब अपने प्रिय कक्ष से सामान बाहर कर रही थी तो लगा कि मेरी आत्मा को किसी ने शरीर से विलग कर दिया है और जब कक्ष में रंग रोगन समाप्त हुआ और सामान वापस रखा गया तो लगा कि कमरे में प्राणवायु फिर से प्रवाहित होने लगी है! शयन कक्ष में बच्चों के साथ उनकी जननी होती है और दूसरे कक्ष में एक सतत अध्ययनरत छात्रा! शयनकक्ष में बच्चों की नटखट हरकतें खूब मन से जीती हूँ और किताबों के साथ खुद को! 


 

मेरे लिये कमरा मात्र चाहरदीवारी नहीं है बल्कि मेरे सुख_दुःख का साक्षी है न जाने कितनी ही बार जब कोई बात मेरे ह्रदय को चुभ जाती है तो फूट फूटकर रोने के लिए और अपने मन का भार उतारने के लिए मैं अपनी क़िताबों, डायरियों और कमरे का सहारा लेती हूँ जिसे वो बखूबी पूरा करते हैं।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कभी विजेंद्र जी की है।)

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