जितेंद्र श्रीवास्तव के कविता संग्रह 'सूरज को अंगूठा' पर देवेश पथ सारिया की समीक्षा पृथ्वी की सारी स्त्रियाँ, प्रार्थनाएँ हैं
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जितेन्द्र श्रीवास्तव का हालिया प्रकाशित कविता संग्रह 'सूरज को अंगूठा' चर्चित रहा है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिख भेजी है युवा कवि देवेश पथ सारिया ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जितेन्द्र श्रीवास्तव के कविता संग्रह 'सूरज को अंगूठा' की देवेश पथ सारिया द्वारा लिखी समीक्षा।
पृथ्वी की सारी स्त्रियाँ, प्रार्थनाएँ हैं
देवेश पथ सारिया
सन 2012 में प्रकाशित 'कायांतरण' के बाद 'सूरज को अंगूठा' वरिष्ठ कवि जितेंद्र श्रीवास्तव का हालिया प्रकाशित कविता संग्रह है। इसके अतिरिक्त उनकी कविताओं के कुछ चयन भी इस दौरान प्रकाशित हुए हैं। 'सूरज को अंगूठा' संग्रह की अधिकांश कविताएं पत्रिकाओं एवं ऑनलाइन माध्यमों में प्रकाशित हो कर चर्चित एवं प्रशंसित रही हैं।
जितेंद्र श्रीवास्तव की पुस्तकों के नाम से ही लगता है कि यह कवि मनुष्य एवं प्रकृति के बीच तादात्म्य की संभावना देखता है। "मैं जा रहा हूं दूब की शरण में" जैसी पंक्ति इस बात का सशक्त उदाहरण है। 'पुतलियां' कवि का एक प्रिय शब्द है। पुतलियां निश्चय ही मनुष्य एवं विराट ब्रह्मांड के बीच की योजक कड़ी हैं।
इस कविता संग्रह में मध्यमवर्गीय संस्कार हैं जिनके चलते अपने बड़ों की सीख समय-समय पर कवि को याद आती रहती है। कवि ने अपनी नानी से जूझना सीखा है और अपने पिता से मन को उर्वर बनाने की कला:
"बाबूजी कहते थे
कभी-कभी किसी इच्छा को मारना जरूरी होता है
मन को उर्वर बनाने के लिए"
आसपास बिखरी तमाम बुराई और अव्यवस्था के बावजूद कवि स्वप्नशील है और मानता है कि प्रकृति मनुष्य को सपने देखने की क्षमता से परिपूर्ण बनाए रखेगी। सपने पूरे करने के लिए स्वावलंबी और निरंतर प्रयासरत होना होता है। कवि मानता है कि 'सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं'। कवि अपूर्ण इच्छाओं की इतिश्री न कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा मानता है:
"पूर्ण इच्छाएँ
बस पत्थर हैं मील का
अधूरी इच्छाएँ
सहचर हैं मंजिल की"
यहां पीछे छूट गई चीजों की यादें भी हैं। कवि मानता है कि चीजें भले ही पैसे से आती हैं पर वे पैसा नहीं होती। काग़ज़ के नोटों या सिक्कों से आप चीजों को बदल नहीं सकते। 'किसी सगे की तरह' कविता इस तरह की कविताओं की मूल आत्मा है। चीजों को बरतते रहने से उनसे एक भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है। कबाड़ी को बेच दी गई अलमारी में कवि अपनी बेटियों का बाल संवारना याद करता है। एक खो गई कैंची को अपने किशोरावस्था के दिनों से प्रौढ़ावस्था तक की यात्रा की सहयात्री मानता है।
"इस जीवन में बहुत कम हैं खाली पल
और काम हैं बहुत सारे
लेकिन वह जरूर याद आएगी
कभी-कभी
औचक
यूँ ही"
'तमकुही कोठी का मैदान' कविता में कवि अपनी खो गई साइकिल को भी याद करता है और भूमि माफिया की भेंट चढ़ गए उस मैदान को भी जहां सरकार के विरोध में सर्वहारा एकजुट हो जाता था। कचहरी से संबंधित इस कविता की अंतिम पंक्ति संग्रह की सर्वश्रेष्ठ पंक्तियों में से है और देर तक याद रखी जाएगी:
"अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहाँ कोठियाँ हैं फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है
और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतंत्र में कचहरी
मृगतृष्णा है गरीब की"
जितेंद्र श्रीवास्तव |
खो गई वस्तुएं एक बात है और प्रगतिशीलता के चलते छोड़ दी गई चीज़ें दूसरा विषय। पीछे छोड़ दी गई चीज़ें हमारी होते हुए भी हमारी नहीं रह जाती है। 'गोरखपुर' कविता कवि के सपनों के शहर रहे गोरखपुर के बारे में संवेदना दिखाती है, और यह भी कि बड़े सपनों ने कवि को कहीं और भेज दिया और गोरखपुर पीछे छूट गया। इसी तरह 'खाली मकान हो जाना एक घर का' कविता बताती है कि कवि के पिता का बड़ी हसरत से बनवाया गया घर अब मात्र एक मकान रह गया है। 'खेतों का अस्वीकार' कविता इसी भाव के साथ गांव से पलायन को रेखांकित करती है।
"देवियो-सज्जनो
मालिक बनने को उत्सुक लोगो
आज उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इनकार कर दिया है
जिनके मालिक थे मेरे दादा
उनके बाद मेरे पिता
और उनके बाद मैं हूँ
बिना किसी शक-सुब्हे के"
इन कविताओं में गांव न सिर्फ नॉस्टैल्जिया की तरह है बल्कि गांव के बदलते स्वरूप की भी चर्चा यहां की गई है। कवि के बचपन का सखा जगप्रवेश अब राजनेता बन जाने पर कवि को एक जाति की तरह देखता है। गांव में भौतिक प्रगति भी हुई है, मोटरसाइकिलें आ गई हैं। वहीं लड़ाई झगड़ा, ख़ून खराबा भी वहां पहुंच गया है।
"इन दिनों लोकतंत्र में
गाँव का दक्खिन हो गया है ‘आखिरी आदमी’
पिछली बार पाँच लोग मारे गए थे मेरे गाँव में
प्रधानी के चुनाव में
निकलने नहीं दिया था जबरों ने
दलितों को उनकी बस्ती से
उनके वोट खा गए थे वे
सरकारी योजनाओं की तरह"
समय की शाश्वतता और मनुष्य की नश्वरता के परिप्रेक्ष्य में अपनी उम्र बढ़ने के विषय में चिंतन करता कवि बचपन को कुछ इस तरह याद करता है:
"बचपन चेतना का वह हिस्सा है
जिसे नींद नहीं आती मृत्यु से पहले"
स्त्रियों के बारे में यहां "पृथ्वी की सारी स्त्रियाँ स्त्रियाँ नहीं प्रार्थनाएँ हैं" जैसी अद्भुत पंक्ति है। 'रामदुलारी' स्त्री विमर्श की चर्चित कविता है' जहां 'मर्दमारन' कही जाने वाली रामदुलारी को गांव की स्त्रियां एक नायिका की तरह याद करती हैं। इसी तरह एक कविता में कवि की पत्नी पूछती है कि बराबरी क्या है और कवि के पास कोई जवाब नहीं होता। 'एक नई स्त्री का आत्मकथ्य' कविता में स्त्री स्वर कुछ इस तरह व्यक्त हुआ है:
"मुझे लुभाता है समुद्र का आवेग
लुभाती है हिमालय की ऊँचाई
मैं स्त्री हूँ
प्रकाशित हूँ अपने ही प्रकाश से
हमी से उधार लिया है सूर्य ने अँजुरी भर उजाला"
'संजना तिवारी' कविता एक ऐसी स्त्री के जीवट का आख्यान है जो साहित्य पढ़े जाने की विलुप्तप्राय प्रवृति को बचाने में मुस्तैदी से लगी है:
"प्रेम और घृणा के गणित में पड़े संसार को
ठेंगा दिखाती हुई वे
फुटपाथ पर बेचती हैं
दुनिया का महान साहित्य
और उन पत्रिकाओं को
जिनमें शृंगार, जिम और मुनाफे पर कोई लेख नहीं होता"
"समय रुकता तो पोखर का पानी हो जाता/ तुम रुकतीं तो जीवन आकाश हो जाता" जैसी नायाब पंक्तियों से शुरु हुई 'रुकना' एक प्रेम कविता है। 'तुम्हारे साथ चलते हुए', 'इस गृहस्थी में' और 'शुक्रिया मेरी दोस्त!' दांपत्य जीवन में प्रेम की कविताएं हैं। एक सफल दांपत्य में हर घटक तत्व महत्वपूर्ण होता है और सबसे महत्वपूर्ण होता है साथी:
"दाल का स्वाद अकेले दाल का स्वाद नहीं होता
कुछ हल्दी का होता है कुछ नमक का
कुछ उस पानी का जिसका स्वाद
शब्दों में समा नहीं पाया अब तक
और सबसे अधिक उन हाथों का जो पकाते हैं उसे"
'चुप्पी का समाजशास्त्र' कविता आरंभ में ईश्वर को संबोधित लगती है, पर धीरे-धीरे परतें खुलती हैं और स्पष्ट होता है कि यह मनुष्यता के अनुसंधान की कविता है। 'सरकारों के स्वप्न में', 'जब धर्म ध्वजाएँ लथपथ हैं मासूमों के रक्त से', 'साहब लोग रेनकोट ढूँढ़ रहे हैं', 'किसी ईश्वर से अधिक विराट' और 'वह बहुत डरता है' आदि कविताएं सर्वहारा के दैनिक संघर्ष की कविताएं हैं।
"वह एक साधारण आदमी है
छोटी-सी नौकरी में खुश रहना चाहता है
वह चाहता है बदल जाएँ स्थितियाँ
वह स्वागत करना चाहता है नए उजाले का
लेकिन सरकार की नजर में नहीं आना चाहता
वह बहुत डरता है राजदंड से।"
2013 की उत्तराखंड त्रासदी के संदर्भ में लिखी गई कविता 'घर प्रतीक्षा करेगा', कोरोना काल में मजदूरों के पलायन के समय पुनः प्रासंगिक हो उठी। इस कविता की बीते वर्ष इस संदर्भ में बहुत चर्चा हुई:
"यह सच बार-बार झाँकेगा पुतलियों में
जो समा गए धरती में
जिन्हें पी लिया पानी ने
जो विलीन हो गए धूप और हवा में
वे लौटेंगे कैसे कहाँ से
फिर भी घर उनकी प्रतीक्षा करेगा"
इस कविता संकलन में अभिव्यक्ति के विविध रंग इंद्रधनुष की तरह उपस्थित हैं। भाषा बहुत सहज है। हिंदी के आम पाठक से लेकर गंभीर अध्येता तक सभी के लिए यह पठनीय है।
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किताब का नाम: सूरज को अंगूठा
कवि: जितेंद्र श्रीवास्तव
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 160 रूपए (पेपरबैक)
https://www.amazon.in/Suraj-Ko-Angootha-Jitendra-Srivastava/dp/9389577845/ref=sr_1_1?crid=R93NIQJIBI3C&dchild=1&keywords=jitendra+srivastava&qid=1618853973&sprefix=jitendra+sriva%2Caps%2C422&sr=8-1
भारत का पता :
श्रीमती सरोज शर्मा
माडा योजना हॉस्टल
पोस्ट ऑफिस के पास राजगढ़ (अलवर)
राजस्थान- 301408
मेरा ताइवान का पता :
देवेश पथ सारिया
पोस्ट डाक्टरल फेलो
रूम नं 522, जनरल बिल्डिंग-2
नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी
नं 101, सेक्शन 2, ग्वांग-फु रोड
शिन्चू, ताइवान, 30013
सम्प्रति: ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डाक्टरल शोधार्थी। मूल रूप से राजस्थान के राजगढ़ (अलवर) से सम्बन्ध।
फ़ोन: +886978064930
ईमेल: deveshpath@gmail.com
बहुत सुन्दर
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