प्रियदर्शन का आलेख 'उनकी नायिकाएं भी जानती हैं विद्रोह करना



मन्नू भण्डारी के साथ प्रियदर्शन


हिन्दी साहित्य का जो वितान आज बना है उसमें मन्नू भंडारी का नाम अग्रणी है। मन्नू जी कभी स्त्रीवादी विमर्श के दायरे में नहीं उलझीं बल्कि जीवन से जुड़ी जीवंत कहानियां लिखती रहीं। ऐसी कहानियाँ जो स्त्री जीवन से जुड़ कर भी सार्वभौमिक आयाम वाली होती हैं। 'कहानी की बात' मार्कण्डेय जी की आलोचना पुस्तक है जिसमें उन्होंने अपने समय के कुछ महत्त्वपूर्ण कहानीकारों पर बेबाक लिखा है। हालांकि इस प्रक्रिया में कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक छूट भी गए। मार्कण्डेय जी को इस बात का अफसोस रहा कि कहानी की बात में वे मन्नू जी का जिक्र नहीं कर पाए जबकि वे एक दमदार रचनाकार रही हैं। वे योजना बनाते रह गए कि अवसर मिलते ही मन्नू जी पर लिखूँगा। अलग बात है कि वह अवसर वक़्त ने उन्हें फिर कभी दिया ही नहीं। बहरहाल आज मन्नू जी का जन्मदिन है। पहलीबार की तरफ से शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए और उनका अभिवादन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रियदर्शन का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। इस आलेख को हमने प्रियदर्शन जी की फेसबुक वॉल से साभार लिया है। आलेख की शुरुआत में हम प्रियदर्शन जी की टिप्पणी भी दे रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं प्रियदर्शन का आलेख 'उनकी नायिकाएं भी जानती हैं विद्रोह करना'।



हिंदी के किसी लेखक से मैं अपनी आत्मीयता का दावा कर सकता था तो वे राजेंद्र यादव थे। पता नहीं, किस संयोग से उस स्नेह-संबंध की विरासत को ‌रचना यादव ने भी संभाले रखा- बेशक संवाद उनसे बहुत कम होता है, लेकिन उनकी वजह से ख़ुद को हंस परिवार का हिस्सा मानने में हिचक नहीं होती। लेकिन मन्नू भंडारी से छिटपुट मुलाकातों के बावजूद कभी खूब बातचीत नहीं हो पाई‌। उन्हें दूर से लेखन के एक प्रकाश स्तंभ की तरह देखता रहा। कुछ समय पहले राकेश रेणु के आग्रह पर  'आजकल' के लिए उन पर एकाग्र यह टिप्पणी लिखी थी। तो आज उनके आधिकारिक जन्मदिन पर उनको प्रणाम करते हुए यह टिप्पणी फिर से लगा रहा हूं। इत्तिफ़ाक़ से एक तस्वीर भी मिल गई है जो एक युवा लेखिका कोमल भारती के कविता संग्रह के लोकार्पण के अवसर पर ली गई थी‌।

प्रियदर्शन



उनकी नायिकाएं भी जानती हैं विद्रोह करना


प्रियदर्शन



क्या मन्नू भंडारी के कथात्मक अवदान की हिंदी आलोचना ने कुछ उपेक्षा की है? यह सवाल या खयाल इसलिए आता है कि पाठकों का भरपूर स्नेह और सम्मान पाने के बावजूद मन्नू भंडारी को हिंदी के साहित्य-संसार से वैसी प्रशस्तियां या वैसे पुरस्कार नहीं मिले जो उनकी समकालीन कृष्णा सोबती को मिले। क़ायदे से देखें तो कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी दोनों आधुनिक हिंदी कथा साहित्य में स्त्री लेखन की पहली प्रतिनिधि लेखिकाएं रहीं। दोनों ने जम कर लिखा। दोनों को पढ़ा भी खूब गया। अस्सी के दशक में कृष्णा सोबती को साहित्य अकादमी सम्मान मिल गया और निधन से कुछ पहले ज्ञानपीठ। बेशक, मन्नू भंडारी को भी कई राज्यों की अकादमियों के सम्मान मिले और व्यास सम्मान भी प्रदान किया गया, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि मन्नू भंडारी के लेखन और जीवन के उत्तरार्ध में हिंदी का समकालीन संसार उनके लेखन से कुछ दूर ही खड़ा रहा। जबकि एक अन्य स्तर पर उनकी लोकप्रियता की स्थिति यह रही कि मन्नू भंडारी की रचनाओं पर नाटक भी हुए और फिल्में भी बनीं। 



इस उपेक्षा या अनदेखी की क्या वजह हो सकती है? ऐसा नहीं कि वे लेखकों के दायरे से बाहर या कम सक्रिय रहीं। नई कहानी आंदोलन के जो तीन सबसे सक्रिय और प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते रहे, उन राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ वे लगभग बराबर की चौथी सदस्य रहीं और कथा-लेखन में उनको बराबरी की टक्कर देती रहीं। राजेंद्र यादव के साथ मिल कर उन्होंने जो उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ लिखा है, उसकी भूमिका में राजेंद्र यादव ने माना है कि मन्नू उनके मुकाबले बहुत सहज कथा-लेखिका हैं, कि राजेंद्र यादव अपना अध्याय लिखने में बहुत सोचते-विचारते और वक़्त लेते थे, लेकिन मन्नू भंडारी सहज भाव से अपना हिस्सा लिखती जाती थीं।


यह सहजता दरअसल मन्नू भंडारी के पूरे लेखन में है। उनके उपन्यास ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ हिंदी की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कृतियों में हैं। यही बात उनकी कुछ कहानियों के बारे में कही जा सकती है। फिर सवाल वहीं लौटता है- समकालीन आलोचना में उनकी चर्चा क्यों नहीं है?



इस सवाल के एकाधिक जवाब हैं। एक संदेह तो यह होता है कि अपने उत्तर काल में राजेंद्र यादव की जीवन संगिनी होने के कुछ नुक़सान उन्हें उठाने पड़े। निस्संदेह लंबे समय तक दोनों के साझे ने एक-दूसरे को बौद्धिक और साहित्यिक स्तर पर समृद्ध किया, लेकिन बाद के- खासकर- आख़िरी कुछ वर्षों में राजेंद्र यादव के कथित विचलनों और उनकी आत्मस्वीकृतियों ने मन्नू भंडारी के मूल कथा लेखन से फोकस हटा कर उन विवादों पर डाल दिया जो उनके बीच पैदा होते रहे। जाने-अनजाने वे तमाम आलोचना-शिविरों से बाहर रह गईं। इसी दौर में उन्हें ‘एक कहानी यह भी’ जैसी किताब लिखनी पड़ी।


दूसरी बात यह थी कि लेखक राजेंद्र यादव पूरी तरह मध्यवर्गीय संवेदना से निकले थे, लेकिन संपादक राजेंद्र यादव ने अपने अंकुरण की ज़मीन कहीं और तलाशी। अचानक वे अस्मिताओं के विमर्श की ओर मुड़ गए- दलित, मुस्लिम, और स्त्री अस्मिता पर केंद्रित उनकी नई वैचारिकता सहसा मध्यवर्गीय लेखन को जैसे अचानक अप्रासंगिक मान बैठी। यहां से हम पाते हैं कि कृष्णा सोबती के मूल्यांकन से लेकर प्रभा खेतान की रचनात्मकता और मैत्रेयी पुष्पा तक के निर्माण में जो एक नया स्त्रीवादी विमर्श हंस के पन्नों पर पैदा होता है और धीरे-धीरे हिंदी के समकालीन संसार का अंग होता चलता है, उससे मन्नू भंडारी चुपचाप बेदखल कर दी जाती हैं।



लेकिन असल बात दरअसल यहीं से पैदा होती है। स्त्री विद्रोह, बगावत या यौन आज़ादी की जो नई बहसें हैं, वहां नए आलोचक कृष्णा सोबती के लेखन को अपने लिए ज़्यादा आकर्षक, उत्तेजक और उपयोगी मानते हैं। निस्संदेह वह है भी। कृष्णा सोबती के बेलौस बाग़ी किरदार हिंदी के स्त्री लेखन को एक नई हलचल से भर देते हैं। उनकी ऊष्मा, उनका जीवट, उनका जुझारूपन, अपनी इच्छाओं को ले कर उनकी मुखर अभिव्यक्ति- यह सब आलोचकों को ज़्यादा आधुनिक और प्रगतिशील लगते हैं। वे बड़ी आसानी से मध्यवर्गीय हदबंदियां तोड़ती है। यह बात सिर्फ कृष्णा सोबती के संदर्भ में सच नहीं है, ऐसी कई लेखिकाएं इस दौरान उभरती हैं जो एक अलग तरह के संवेदनात्मक धरातल से अपनी बात कहती हैं। शायद आर्थिक उदारीकरण के साथ जो नया बना भारतीय समाज है, उसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य की भूख या चेतना इतनी प्रबल है कि स्त्री पहली बार खुल कर अपनी देह को अपनी संपत्ति मानती है और आलोचक उसकी पीठ- उचित ही- थपथपाता है। अचानक इसमें वह स्त्री पीछे छूट जाती है जो अपने मध्यवर्गीय संस्कारों से लड़ती हुई, कुछ उन पर अमल करती हुई, अपनी आर्थिक आज़ादी और सामाजिक बराबरी का रास्ता खोजती रही। 





यहां एक और बात जेहन में आती है। मूलतः मार्क्सवादी वैचारिकी से बनी प्रगतिशील आलोचना अगर मध्यवर्गीयता को- बुर्जुआजी को- एक पतनशील मूल्य मानती रही तो बाज़ारवादी खुलेपन के बीच पैदा हुई संवेदना उसे पिछड़े ज़माने का अनुपयोगी तत्व मानती रही। इसका असर मन्नू भंडारी जैसे उन लेखकों को सबसे ज़्यादा भुगतना पड़ा जिनका कथा लेखन मूलतः इस मध्यवर्गीय दायरे में क़ैद था और जिनको अपनी चर्चा के लिए बहुत रणनीतिक कोशिशें मंज़ूर नहीं थीं। लेकिन हम यह जैसे अब भूलने लगे हैं कि वह मध्यवर्गीय चेतना मूलतः एक आधुनिक मूल्य चेतना थी जिसमें- बेशक, एक शिष्ट-शालीन भाषा में- विद्रोह की चेतना और छटपटाहट दोनों थी और यह उस समय की कहानियों में दिखती भी है।



अगर ध्यान से देखें तो मन्नू भंडारी की बहुत सारी कहानियां ऐसी हैं जो अपनी मध्यवर्गीय बुनावट के बावजूद स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व की कशमकश को दर्ज करती बेहतरीन कहानियां हैं। उनकी जिस मशहूर कहानी “यही सच है” पर रजनीगंधा नाम की फिल्म बनी, वह कहने को बेहद रोमानी अंदाज़ में लिखी गई कहानी है, लेकिन संभवतः पहली बार किसी महिला की कथा में एक ऐसी लड़की हमारे सामने आती है जो दो-दो युवकों के प्रेम के बीच कहीं झूलती हुई सी असमंजस में है। अपने जिस पहले प्रेम से वह धोखा खाती है, वह अचानक प्रगट होकर फिर से अपनी जगह बनाता मालूम होता है। हालांकि अंततः यह लड़की अपने दूसरे प्रेम की ओर ही जाती है, लेकिन यह चुनाव भी उसका है और इस क्रम में जो भावनात्मक दुविधाएं उसके सामने हैं, वे हें, लेकिन कोई नैतिक दुविधा नहीं है। 


दरअसल आज़ादी के बाद के हिंदुस्तान में जो मध्यवर्गीय कामकाजी लड़की घर से निकल कर बाहर की दुनिया देख और उससे तालमेल बिठा रही थी, उसकी कुछ सबसे अच्छी और विश्वसनीय कहानियां मन्नू भंडारी के पास हैं। अपने समय के कई दूसरे लेखकों के मुक़ाबले मन्नू भंडारी इन लड़कियों को परंपरा के संस्कार नहीं दे रही थीं, बल्कि आधुनिक समय के सवालों से उनकी मुठभेड़ करवा रही थीं। दैहिक शुचिता की जिस अवधारणा पर यह पूरा मध्यवर्गीय स्त्री संसार टिका है और जिसको ले कर साहित्य में भी घमासान दिखता रहा है, उसकी भी मन्नू भंडारी बहुत सहजता और खामोशी से धज्जियां उड़ा देती हैं। उनकी लड़की विद्रोह की भाषा नहीं बोलती, लेकिन जो महसूस करती है, वह विद्रोह की चेतना से कम नहीं है और शायद इसलिए ज़्यादा मूल्यवान है कि उसे उसने अपने अनुभव से अर्जित किया है। उनकी एक कहानी है ‘गीत का चुंबन’। नायिका कनिका का एक कवि निखिल से परिचय होता है। परिचय प्रगाढ़ता में बदलता है। यह प्रगाढ़ता कुछ वैसी नज़र आती है जैसी धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ में सुधा और चंदर के बीच की है। लेकिन मन्नू भंडारी गुनाहों के देवताओं की नहीं, एहसासों वाले इंसानों की कहानियां लिख रही हैं। निखिल किसी भावाविष्ट क्षण में कनिका का चुंबन ले लेता है। कनिका बिल्कुल तिलमिला जाती है। उसे थप्पड़ मार देती है। निखिल शर्मिंदा सा लौट जाता है। लेकिन कनिका धीरे-धीरे पाती है कि उस चुंबन की स्मृति उसके भीतर बची हुई है। वह यह भी समझ पाती है कि उसका गुस्सा दरअसल उसके संस्कारों की देन है। वह तय करती है कि निखिल अगली बार आएगा तो वह उससे माफ़ी मांग लेती। निखिल नहीं आता, एक सप्ताह बाद निखिल का पत्र आता है- ‘मुझे अफ़सोस है कि मैंने तुम्हें भी उन साधारण लड़कियों की कोटि में ही समझ लिया, पर तुमने अपने व्यवहार से सचमुच ही बता दिया कि तुम ऐसी-वैसी लड़की नहीं हो। साधारण लड़कियों से भिन्न हो, उनसे उच्च, उनसे श्रेष्ठ।‘



कहानी जहां ख़त्म होती है वहां कनिका गुस्से में उस पत्र को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक रही है- ‘साधारण लड़कियों से श्रेष्ठ, उच्च! बेवकूफ़ कहीं का- वह बुदबुदाई और उन टुकड़ों को झटके के साथ फेंक कर तकिए से मुंह छुपा कर सिसकती रही, सिसकती रही...।“ ज़्यादा कुछ कहे बिना यह कहानी मध्यवर्गीय संस्कारों को अंगूठा दिखाने वाली कहानी है। 



ऐसी और भी कहानियां हैं जिनमें वैवाहिक एकनिष्ठता या ऐसी किसी धारणा को मन्नू भंडारी के किरदार चुनौती देते दिखते हैं। बेशक, वे हमेशा बगावत न करते हों- कृष्णा सोबती के किरदारों को भी हमने कगार से लौटते देखा है- लेकिन उनकी इच्छाएं, उनकी अभिव्यक्तियां, अपने स्वातंत्र्य का उनका आग्रह इन तमाम कहानियों में बहुत मुखर हैं। ‘दीवार बच्चे और बरसात’ नाम की कहानी में मोहल्ले की औरतों में एक महिला को ले कर चर्चा चल रही है जो अपने पति का घर छोड़ कर निकल गई है। सब मानती हैं कि वह दोषी है, चरित्रहीन है, पति की बात नहीं मानती, उसके कई दोस्त हैं. लेकिन इन सबके बीच वह व्यक्तित्व उभरता रहता है जिसमें अपनी शर्तों पर जीने के लिए परिवार छोड़ देने का साहस है। कहानी के अंत में एक दीवार गिरती दिखती है जिसे उसके भीतर उग आई एक नन्ही सी पौध ने कमज़ोर कर दिया था। कहानी जहां ख़त्म होती है, वहां कथावाचक कह रही है- “मैं तो केवल उस नन्ही सी पौध को देख रही थी जिसने इतनी बड़ी दीवार को धड़ाध़ड़ गिरा कर घर मे कोहराम मचा दिया था।‘ 



इसी तरह ‘कील और कसक’ में अपने पति से असंतुष्ट नायिका पेइंग गेस्ट की तरह रहने वाले एक लड़के पर इस तरह मोहित है कि जब उसकी शादी होती है तो वह उसकी पत्नी को लगभग दुश्मन मान लेती है। इन कहानियों में स्त्री की ओर से दिखने वाला प्रेम सिर्फ जज़्बाती या अशरीरी प्रेम नहीं है, उसका एक बहुत स्पष्ट दैहिक आयाम है जिसे ये महिलाएं महसूस करती हैं।



मन्नू भंडारी का कथा संसार विपुल भी है और विषयों के लिहाज से बहुत फैलाव वाला भी- लेकिन यहां इन कुछ कहानियों की चर्चा करने का एक मक़सद है- यह याद दिलाना कि जिन्हें हम मध्यवर्गीय कहानियां कह कर छोड़ दे रहे हैं या भूल जा रहे हैं, वे संभवतः भारतीय समाज में प्रारंभित बगावत की पहली संतानें हैं। ये बहुत जुमलेबाज़ कहानियां नहीं हैं, इनमें आधुनिकता को संदेह से भी देखने की कोशिश है, प्रेम के नाम पर चलने वाले पाखंड का भी यथार्थपरक चित्रण है, लेकिन अंततः यह कहानियां एक बड़ी विरासत का हिस्सा हैं। वे बिल्कुल हमारे आम जीवन से उठाई गई कहानियां हैं।



शायद यह भी एक वजह है कि मन्नू भंडारी को पाठकों का एक बड़ा संसार मिला है। उनकी कहानियों से लोग कहीं ज़्यादा आसानी से खुद को जोड़ते हैं। ‘आपका बंटी’ तो अपनी तरह का क्लासिक है। कहते हैं, कई घर इस उपन्यास की वजह से टूटने से बच गए। इसी तरह ‘महाभोज’ किसी स्त्री द्वारा लिखा गया पहला राजनीतिक उपन्यास है।



पिछले कुछ वर्षों से ख़राब सेहत ने भी मन्नू भंडारी की सक्रियता घटाई है। लेकिन हिंदी साहित्य में उनका जो योगदान है, वह उन्हें शीर्षस्थानीय बनाता है।


(प्रियदर्शन की फेसबुक वॉल से साभार।)

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