कुमार वीरेन्द्र का आलेख 'पतियाइए कि रेणु इलाहाबाद में रहे थे'
इलाहाबाद कभी हिन्दी साहित्य की राजधानी हुआ करता था। इलाहाबाद की स्वीकृति के बिना बड़ा से बड़ा लेखक भी अधूरापन महसूस करता था। विख्यात लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का रचनात्मक सम्बन्ध भी इलाहाबाद से रहा है। युवा आलोचक कुमार वीरेन्द्र ने बड़ी तफसील से इस सम्बन्ध को अपने इस शोधपरक आलेख में उजागर किया है। पहली बार की तरफ से रेणु शताब्दी वर्ष के सिलसिले में आयोजित आज की विशेष प्रस्तुति में पेश है कुमार वीरेन्द्र का आलेख 'पतियाइए कि रेणु इलाहाबाद में रहे थे।'
पतियाइए कि रेणु इलाहाबाद में रहे थे
कुमार वीरेन्द्र
कुछ लोग कुछ दिनों के लिए कुछ जगहों पर कुछ-कुछ ऐसे रहते-बसते हैं कि वे जगहें और उनका बहुत कुछ उन प्रवासियों को बेचौन किए रहती हैं। यह बेचैनी जीवन भर अंदर-अंदर धधकती-भभकती रहती है। चैन पाने की जद्दोजहद के बीच व्यक्ति उस जगह को बार-बार याद करता है, उसे उद्धृत करता है, उसे दुहराता है, उसे पुनः पुनः जीता है।
और जो इलाहाबाद (प्रयाग) में रह गया और रह कर कहीं और चला गया, समझिए वह मुक्त हो ही नहीं सकता। इलाहाबाद रगों में प्रवेश कर जाता है, पोर-पोर में धँस-बस जाता है। और अगर वह कलमकार-रचनाकार हो तो समझिए उसकी लेखनी की धारपूर्ण-त्वरा में इलाहाबाद की स्याही सिर चढ़ कर बोलती रहती है या बोलती रहेगी। बोले क्यों नहीं, देश में यह इकलौता शहर है जहाँ गंगा-यमुना एक साथ बह सकती है, एक ही व्यक्ति एक ही समय में गरम-नरम दीख सकता है, यहां एक ही साथ दोस्ती और दुश्मनी दोनों संभव है, ठठा कर हँसना और गुस्से में हो कर गाल फुलाना दोनों क्रियाएं यहाँ एक साथ संभव है। ‘स्मार्ट सिटी प्रयागराज, बनने की प्रक्रिया में यह नगर ‘आधुनिक’ होना चाह रहा है और ‘आत्मीयता’ और ‘सक्रियता’ छोड़ नहीं पा रहा है।
यही कारण है कि कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु का नाम इलाहाबाद की दोनों सूचियों में है। वे ‘परिमल’ वालों की सूची में भी थे और ‘प्रगतिशील’ खेमे के लेखकों की सूची में भी। एशियाई लेखकों का जो सम्मेलन दिल्ली में दिसंबर 1956 में हुआ था उसमें परिमलियों और प्रगतिशीलों का दल अलग-अलग गया था। भले ही रेणु ने यात्रा (प्रयाग से दिल्ली तक की) उपेन्द्र नाथ अश्क के साथ की थी, पर उनका नाम दोनों दलों की सूची में था। अज्ञेय ने दिल्ली में उनसे साथ रुकने का आग्रह किया था। ‘परिमल’ ने सन् 1957 में इलाहाबाद में ‘लेखक और राज्य’ विषयक जो तीन दिवसीय (3-5 मई 1957) बड़ा राष्ट्रीय सेमिनार किया था, उसमें रेणु उपस्थित थे। इस सेमिनार का सभापतित्व तारा शंकर बनर्जी और उद्घाटन सुन्दरम् ने किया था। रेणु ‘परिमल’ के सदस्य कभी नहीं रहे, उसके सदस्यों से निकटता भले ही रही हो। 4 मई 1957 को सायं के सत्र में ‘लेखक और आयोजन’ विषय पर हुए विचार-विनिमय में उन्होंने भाग लिया था, इस सत्र का सभापतित्व शिवराम कारंथ ने और विषय प्रवर्तन दयाकृष्ण ने किया था, राम स्वरूप चतुर्वेदी ने विवरण प्रस्तुत किया था। यह परिगोष्ठी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ‘विजयनगरम् हाल’ में संपन्न हुई थी।
रेणु ने उपर्युक्त संगोष्ठी में लेखकों के वर्ग बताए थे। बकौल रेणु साहित्य की बात मेरी समझ में नहीं आती-वैसे तो मैं योजना के पक्ष में हूँ। लेखकों के कई वर्ग मैंने किए हैं। कुछ लोग लिखते भी हैं और राजनीति में भाग भी लेते हैं और पार्टी के राज्य के पक्ष में बोलते हैं। दूसरे लेखक विरोधी दल के हैं और उनका फर्ज़ विरोध करना है। तीसरे ऐसे भी हो सकते हैं जो यह कहें कि सारी बात तो ठीक है लेकिन इसमें चर्चा सम्बन्धी कोई बात नहीं है। इनसे अलग लोग भी हो सकते हैं जिनमें रोजमर्रा का सवाल भी इन चीजों से हल हो सकता है।’
रेणु ने अपना मत स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘जो छटपटाहट मैंने महसूस की उसे व्यक्त किया। इस तरह लेखकों का एक ऐसा भी वर्ग हो सकता है जिनमें बचपन से ही इसकी बड़ी गहरी छाप हो, उसे उगलना चाहता हो। जाहिर है कि जिसके दिल में ऐसी लगन होगी उनके मन में यह कुंठा भी कभी नहीं रहेगी कि उसकी रचना को यह समझ लिया जाए कि वह सरकारी प्रोत्साहन के लिए, पुरस्कार के लिए कोशिश कर रहा है। उसकी सच्ची चीज को लोग परखने लगेंगे।’ हालांकि उस संगोष्ठी में मौजूद धर्मवीर भारती इससे असहमत थे।
रेणु सब मिला कर करीब डेढ़ साल प्रयाग-प्रवास के बाद पटना लौट गए, पर ताउम्र यहाँ से स्नेह-प्रेम बनाए रखते हुए रस और ताकत ग्रहण करते रहे।
मशहूर शख़्सीयत उपेन्द्रनाथ अश्क ने इलाहाबाद से सन् 1955 में ‘संकेत’ नामक वृहद् संकलन निकाला, जिसमें रेणु का रिपोर्ताज ‘एकलव्य के नोट्स’ छपा। ‘एकलव्य के नोट्स’ के कई अंश रेणु ने ‘परती परिकथा’ में सम्मिलित किए। मसलन- ‘परानपुर बहुत पुराना गाँव है। ...1880 में मि. बुकानन ने अपनी रिपोर्ट में इस गाँव के बारे में लिखा है- इस इलाके के लोग परानपुर को सारे अचल का प्राण कहते हैं।’ ... ‘सेमल का बाग आज भी है। हर पाँच-सात साल के बाद नई पौध। सात साल पहले एक दियासलाई कम्पनी का ठेकेदार आया और सेमल जिसके फल को गिलहरी भी न खाए, जिसकी लकड़ी से कोई मुर्दा भी न जलाए-शीशम के दर बिकने लगा। लेकिन, इसी को कहते हैं तकदीर का खेल। सेमलबनी के ज़मींदार के अधपगले एम. ए. पास पुत्र ने साफ जवाब दे दिया-एक पेड़ भी नहीं बेचूँगा। साठ हजार रुपये की आखिरी डाक दे कर कम्पनी का ठेकेदार चला गया। ... अब हाय-हाय करने से क्या होता है? ज़मींदारी खत्म हो गई। सेमलबनी पर सरकार का कब्जा हो गया है। सरकार जो चाहे करे। सुना है अब हाईकोर्ट में अर्जी दी है- ‘सेमल के गाछ का सर्वनाश न किया जाए।’ ...‘पागल आदमी को कौन समझाए?’ ...‘बौण्डोरी! बौण्डोरी! सर्वे का काम शुरू हो गया है। अमीनों की फौज उतरी है। बौण्डोरी अर्थात् बाउण्ड्री। सर्वे की पहली मंज़िल। अमीनों के साथ ही गाँव में नए शब्द आए हैं सर्वे से सम्बन्धित! बच्चा-बच्चा बोलता है, मतलब समझता है। ...जिले-भर के किसानों और भूमिहीनों में महाभारत मचा हुआ है। ...छै महीने में ही गाँव का बच्चा-बच्चा पक्की गवाही देना सीख गया है। छै महीने में ही गाँव एकदम बदल गया है। बाप-बेटे में, भाई-भाई में अपने हक को ले कर ऐसी लड़ाई कभी नहीं हुईं अजीब-अजीब घटनाएँ घटने लगीं।’
‘एकलव्य के नोट्स’ के जिन अंशों को रेणु ने ‘परती-परिकथा’ में शामिल किया है, उनमें एक गाँव में हो रहे नए परिवर्तनों की बेहद बारीक झलक मिलती है। ‘परती-परिकथा’ के लेखन की शुरुआत तो रेणु ने पटना से की, लेकिन इसका तीन-चौथाई हिस्सा उन्होंने इलाहाबाद में रह कर लिखा। राजकमल प्रकाशन के ओम प्रकाश जी के आग्रह पर रेणु इलाहाबाद आए और लूकरगंज मुहल्ले में किराए का एक मकान ले कर रहने लगे। बकौल रेणु-‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के एक साल बाद ‘परती-परिकथा’ लिखने के लिए पटना छोड़ कर इलाहाबाद चला गया। साल-भर तक किताब की लिखाई और छपाई होती रही।’ (देखिए पृ. 123, रेणु रचनावली-5) हालांकि ‘परती-परिकथा’ पूरा करने के लिए वे इलाहाबाद से बनारस चले गए। बनारस में इसे उन्होंने पूरा किया और वहीं ‘सन्मति मुद्रणालय’ से मुद्रित भी कराया। सितम्बर, 1957 में राजकमल ने इसे प्रकाशित किया। राजकमल प्रकाशन के तत्कालीन डायरेक्टर ओम प्रकाश ने ‘परती-परिकथा’ का प्रकाशन समारोह पहले दिल्ली और फिर पटना में अभूतपूर्व रीति से कराया। दिल्ली में यह सब सम्मानपूर्वक सम्पन्न हो गया। किन्तु, पटना के लिए जब तारीख़ तय होने लगी तो रेणु ने ओम प्रकाश से हार्दिक अनुरोध तथा अनुनय किया- ‘दिल्ली में प्रकाशन-समारोह हो गया। अब फिर, क्या? ...इलाहाबाद की तरह पटना को भी छोड़ दीजिए, कृपा कर। लेकिन ओम प्रकाश जी ने पटना में समारोह किया और ‘परती: परिकथा’ की पहली प्रति खरीद कर रेणु से हस्ताक्षर करवाने वाले पहले व्यक्ति औरंगाबाद के कथाकार कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ बने। इस अवसर पर इलाहाबाद से कमलेश्वर और दिनेश ग्रोवर भी उपस्थित थे।
‘परती: परिकथा’ में रेणु इलाहाबाद के निराला और उनकी ‘राम की शक्तिपूजा’ को अत्यंत आदर के साथ विन्यस्त करते हैं, उनकी आँखों को, दाढ़ी को फोकस करते हैं, देखिए- ‘शाम को टहल कर लौटा जितेन्द्र नाथ। कमरे में पैर रखते ही स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति के पास लटकी निराला जी की तस्वीर पर नजर गई! ...‘‘यह किसने किया है? मेरे कमरे में कोई आया था? ...तस्वीर किसने लटकाई है यहाँ?’’
ताजमनी पर्दे के इस पार चली आई, कमरे में। जितेन्द्र की आश्चर्यचकित मुद्रा देखकर अप्रतिभ हुई- ‘मैंने!’
‘‘तुमने? सच?’’ जितेन्द्र नाथ मुस्करा कर बैठ गया। बोला- ‘‘लाइब्रेरी वाले कमरे से क्यों उतार लाई?’’ ताजमनी चुप रही। जित्तन ने कहा- ‘‘तुमने अच्छा किया है। लेकिन मुझे कारण नहीं बताओगी? यों ही, वों ही नहीं। साफ-साफ। और भी दो दाढ़ी वाले थे, उन्हें क्यों नहीं...?’’
...‘‘यों ही! मैंने देखा...आंखें! देखिए न, सामी जी की आँखों से मिलती हैं न? मैंने समझा..मुझे लगा-यह भी माँ तारा का बेटा है, कोई! ...कौन हैं!’’
‘‘माँ तारा का बेटा? शाक्त?’’ जितेन्द्र नाथ हँसा ठठा कर- ‘‘ताजू! तुमने सही किया है, ठीक समझा है। ...ज़रा, बैठ जाओ ताज्! मैं सुनाता हूँ।’’ ताजमनी बैठ गई पास पड़े मोढ़े पर। जितेन्द्र नाथ अपने बिछावन के पास रखे सेल्फ में कोई किताब ढूँढ़ने लगा। इरावती आई- ‘‘ताज दी! आज जरूर कोई खास बात है तुम्हारी पाठशाला में। सूपकार गोबिन्दो आज मगन होकर गा रहा है- रामौलखन सीता...।’’ ताजमनी हँसी- ‘‘हाँ, आज आपको यहीं पत्तल जूठा करना होगा।’’
जितेन्द्र ने कहा-‘‘सुनो इरावती! निराला जी के मुँह से मैंने पहली बार सुनी थी-राम की शक्ति-पूजा!’’
इरावती अपनी कुरसी खींच कर ताजमनी के पास ले गई। धीरे से बोली- ‘‘आज क्या बात है ताज दी?’’ ताजमनी ने उठ कर धूप-बत्ती जला दी। जितेन्द्र ने कथा-प्रसंग बता कर शुरू किया। ...पद्य-पाठ शुरू हुआ। धूप की सुगन्ध कमरे में छा गई-पूजा पर बैठा है राम!...
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा अम...।
है अमा निशा, उगलता गगन घन अन्धका-आ-आ-र,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चा-आ-आ-र,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशा-आ-आल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा-आ फिर फिर सं-श-य
रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय...
पुण्य कथावाचन का पवित्र वातावरण प्रस्तुत हो गया कमरे में!
...होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन...!
तू-उ-उ-उ-उ! ताजमनी शंख पूफँकने लगी, ताखे से उठा कर!
...कह महाशक्ति राम के वदन में हुई ली-ई-न!’
ये जो जितेन्द्र है, उसने निराला के मुँह से ‘राम की शक्ति-पूजा’ कब और कहाँ सुनी थी, यह बात न तो जितेन्द्र बताता है न बतौर कथाकार रेणु। संभव है रेणु ने इलाहाबाद में रहते हुए निराला के मुँह से स्वयं ही ‘राम की शक्ति-पूजा’ सुनी हो और काव्य-पाठ सुनते हुए वे निराला की बड़ी-रोबिली आँखों से रू-ब-रू हुए हों। फिर इस प्रसंग को उपन्यास में उद्धृत करते हुए रेणु लिखते हैं- ‘स्नेह, प्रेम, माया-ममता आदि की मधुर धारणाएँ भी परिवर्तन की प्रचण्ड गति के आघात से विकृत हो गई हैं।’ इस पंक्ति को निराला के इस पंक्ति के आलोक में देखने से मर्म का उद्घाटन हो सकता है-
‘स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय।’
यह अकारण नहीं है कि निराला की तस्वीर को रेणु ने लाइब्रेरी से ताजमनी से उठवा कर ज़िन्दगी के कमरे में रखवा दिया, खास से आम जगह पर रखवा दिया। दो-दो महिलाओं के सामने निराला का परिचय और उनकी कविता का पाठ कराया।
रेणु ने ‘परती: परिकथा’ में एक पात्र का तो नाम ही रख दिया है- ‘प्रयागचन्द’। रेणु लिखते हैं- ‘प्रयागचन्द आजकल पुस्तकालय का सेक्रेटरी हुआ है। ...प्रयागचन्द भूमिहार-युवक-संघ का भी मन्त्राी है। उसने संघ के सदस्यों को आवश्यक बैठक की सूचना दी। आज ही बधाई का प्रस्ताव पास कर के भेजना है ...प्रयाग भी वाममार्गी हो गया, क्या! भूमिहार युवक सभा के सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट सदस्यों ने सुवंश लाल की बहादुरी की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव में एक स्थान पर ‘पूँजीवादी समाज की रूढ़िवादी रीढ़ पर प्रहार कर’ पंक्ति जोड़ने के लिए जोर दिया।
इस उपन्यास में रेणु ने इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘चाँद’ को भी परानपुर पुस्तकालय में उपलब्ध दिखाया है और इसके ‘फाँसी अंक’ (नवम्बर, 1928) की जब्ती के खिलाफ आक्रोश भी। देखिए ‘परती-परिकथा’ का यह अंश-‘भिम्मल मामा पठनागार के एक कोने में बैठ कर किसी बासी मासिक पत्रिका में डूबे रहते हैं। ...मामा दैनिक अथवा साप्ताहिक पत्रिका नहीं पढ़ते। बासी मासिक पत्रिका ही पढ़ते हैं। उपन्यास नहीं पढ़ते, क्योंकि उपन्यास की सही परिभाषा आज तक किसी ने नहीं सुझाई है। और किसी बात को बगैर परिभाषा के गाँव में चलाना चाहे कोई, चला ले। लेकिन भिम्मल मामा अपने सामने उसको नहीं चलने देंगे। ‘‘धूल किसी अन्य के अक्षिगोलकों में झोंकना! ‘प्रताप’ से ‘सैनिक’ और ‘मतवाला’ से ‘हिन्दू पंच’ कण्ठगत है अभी भी। हिन्दूपंच का बलिदान अंक और चाँद का फाँसी अंक जब जब्त हुआ तो मैंने ललकार कर कहा था- कर लो जप्त! परवाह नहीं। दोनों अंक हैं मेरे कण्ठ में!’’ मतलब जब्ती के खिलाफ प्रतिकार-भाव। ऐसा मिजाज इलाहाबाद से या इलाहाबाद से निकले ‘चाँद’ को पढ़ कर बनना स्वाभाविक है, आश्चर्यजनक नहीं। परानपुर की राजनीतिक चेतना को जगाने में इलाहाबाद की साहित्यिक पत्रकारिता को स्वीकारने में रेणु को तनिक संकोच नहीं है। ‘चाँद’ पत्रिका (फाँसी अंक) की अपने घर में मौजूदगी को भी रेणु अत्यंत दिलचस्प अंदाज़ में बयां करते हैं। ‘सतीनाथ-स्मरणे’ शीर्षक से सतीनाथ भादुड़ी पर लिखे संस्मरण में रेणु फारबिसगंज के दरोगा को ‘बुरबक’ बनाने की कहानी लिखते-कहते हैं- ‘1931-32 की घटना! अचानक एक दिन हमारे थाने के दरोगा साहब ने तीन-चार लाल पगड़ी वाले कांस्टेबिल तथा चौकीदारों को साथ में लेकर हमारे घर का घेराव किया था- ‘‘आप लोगों के घर में ‘चाँद’ मासिक पत्रिका का फाँसी अंक और ‘हिन्दू पंच’ का बलिदान अंक है। ...खाना-तलाशी होगा।’ बैठकखाना की ‘रैक’ में रखी हुई किताबों, पत्र-पत्रिकाओं की खाना-तलाशी शुरू हुई। मैं पिताजी की बिछावन पर तकिया के पास रखा हुआ लाल खद्दर से बँधा हुआ ‘बस्ता’ काँख में लेकर बैठकखाना से निकल रहा था कि दारोगा जी ने धमकी दी ‘‘ऐ लड़के! बगल में क्या ले कर जा रहा है? ...कहाँ जा रहा है? इधर आओ...।’’ मैंने कहा-‘‘मेरे किताब...हमारा स्कूल की घण्टी हो गया। ...पढ़ने जाते हैं।’’ काँख में बस्ता ले कर मैं चला गया। दारोगा साहब को कुछ नहीं मिला। बोल कर चले गए, ‘‘अगर होगा तो थाना आ कर जमा कर दीजिएगा। नहीं तो पकड़े जाने से जेल एवं जुर्माना...।’’
उल्लेखनीय है कि सिर्फ ‘चाँद’ और ‘हिन्दू पंच’ ही नहीं, बस्ते में एक और बैन (प्रतिबन्धित) किताब थी, सुन्दर लाल की लिखी हुई- ‘भारत में अंग्रेजी राज’...। यह पुस्तक भी इलाहाबाद के ‘चाँद प्रेस लिमिटेड’ से ही छपी थी और शासन द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थी, ‘चाँद कार्यालय’ पर छापेमारी भी हुई थी और किताब की जब्ती के साथ जुर्माना भी लगाया गया था। रेणु की वैचारिकी को निर्मित करने में इलाहाबाद से निकली इस किताब की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।
रेणु नेहरू की चर्चा भी तिथि-सहित करते हैं, इस (परती : परिकथा) उपन्यास में। इलाहाबाद से निकल कर देश की राजनीति में अपना मुकाम हासिल करने वाले पंडित नेहरू का जिक्र उपन्यास में यूँ आया है- ‘पण्डित नेहरू तीन बार पदार्पण कर चुके हैं इस गाँव में। लाहौर कांग्रेस के बाद पहली बार, दूसरी बार 1936 में चुनाव के दौरे पर और पिछले साल कोसी प्रोजेक्ट देखने आए थे जब।’ परानपुर में पंडित नेहरू के तीन बार पदार्पण के बावजूद रेणु यह लिखना नहीं भूलते कि ‘पिछले आम चुनावों में सालिड वोट कांग्रेस को नहीं मिला, इसलिए इस बार सालिड वोट प्राप्त करने के लिए हर पार्टी की शाखा प्रत्येक मास अपनी बैठक में महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास करती है।’
इलाहाबाद में रह रहे उपेन्द्र नाथ अश्क ने ‘संकेत’ में रेणु को उचित स्थान देते हुए उनके रिपोर्ताज ‘एकलव्य के नोट्स’ को प्रकाशित किया, लेकिन रेणु की रचनाशीलता को हीन भाव से न देखकर अश्क ने आलोचनात्मक नजरिए से देखा-परखा। ‘आलोचना’ पत्रिका के 15वें अंक (अप्रैल 1955) में ‘मैला आँचल’ को अश्क इसी नजरिए से देखते हैं- ‘उपन्यास में कोई त्रुटि न हो, ऐसी बात नहीं...पहली त्रुटि तो उपन्यास का एक बैठक में न पढ़ा जा सकना ही है ...अंत रेणु ने सुखद कर दिया पर यदि प्रशांत न आते और तब भी माँ का स्नेह बना रहता और पिता के क्रोध के बावजूद वह अपनी बेटी को दूसरे से स्नेह करने और शादी करने में मदद देती, तो आधुनिक नारी की एक प्रमुख समस्या का हल कर देते...।’
फिर भी अश्क के प्रति रेणु के मन में आदर-भाव की कमी कभी नहीं हुई। 01 जुलाई, 1955 को पटना से रेणु अश्क को पत्र लिखते हैं- ‘कल शाम को भाई नागार्जुन के साथ ‘आलोचना’ में प्रकाशित ‘मूल्यांकन’ पढ़ा। पढ़ रहे थे नागार्जुन ही! ...मैं क्या कहूँ? धन्यवाद देता हूँ भगवान को। इसी तरह ‘दोखगुन’ बताते जाइएगा तो दूसरे ‘टेस्ट मैच’ में सेंचुरी तो बना ही लूँगा।’ और उन्होंने अश्क पर जुलाई, 1960 की ‘नई कहानियाँ’ में एक संस्मरणात्मक स्केच लिखा और उनकी खूब प्रशंसा की। अश्क की कहानियों-कविताओं पर गाँव-समाज में उन्होंने चर्चा भी कराई। रेणु लिखते हैं- ‘उपेन्द्र नाथ अश्क’ का नाम हमारे गाँव वालों ने पहली बार भिम्मल मामा के मुँह से सुना था- अज उपिन्दर नाथ अशक!’ भिम्मल मामा ‘परती: परिकथा’ में सारे परानपुर के मामा हैं। ग्रामवासी योगी हैं। साठा हैं भिम्मल मामा, किन्तु पाठा नहीं हैं। इसलिए नई पीढ़ी से नहीं पटती है। भिम्मल मामा परानपुर पुस्तकालय के पठनागार के एक कोने में बैठकर किसी बासी मासिक पत्रिका में डूबे रहते हैं। रेणु ने ‘अश्क’ पर लिखते हुए उन्हीं भिम्मल मामा के मुँह से कहलाया है कि ‘क्यों नहीं आएगी उर्दू पत्रिका? यदि कोई मेम्बर अज उपिन्दरनाथ अशक का अपफसाना पढ़ना चाहे तो कहाँ पढ़ेगा? ...जब मेरा लेखक कविता, कहानी, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रा-विवरण, व्यक्तिगत निबंध, आलोचना-प्रत्यालोचना सब कुछ लिखता है, तो दूसरे लेखकों की चीज़ क्यों पढ़ें ...इतना प्यारा नाम है किसी भाषा के लेखकों का?’ रेणु लिखते हैं- ‘1953-54 में दूसरी बार पटना में ही अश्क जी का दर्शन प्राप्त हुआ। वीरेन्द्र के साथ आए और पाँच मिनट ठहरे, मेरे डेरे पर। किन्तु पाँच ही मिनट में स्वास्थ्य, साहित्य और संसार के सभी प्रश्नों को हँसी-ठहाके में उड़ा कर चले गए।’ रेणु आगे लिखते हैं- ‘अश्क-परिवार के साथ दिल्ली जा रहा हूँ और सारी बातें याद आ रही हैं, सिलसिलेवार। कौशल्या भाभी अपने पति-पुत्र को रह-रह कर मीठी झिड़की देती हैं- नीलाभ बेटे, खिड़कियों को मत खोलो! ...मेरा सौभाग्य कि इतने बड़े लेखक के साथ यात्रा कर रहा हूँ।’ संस्मरणात्मक स्केच का यह अंश देखिए- ‘प्रयाग में ही एक नवोदित कवि के मुँह से अश्क-निन्दा सुन कर मैंने उनसे विनयपूर्वक कहा था- कल्पना कीजिए अश्क जी प्रयाग छोड़ कर और कहीं जा बसे हैं।’ रेणु जी यह तो नहीं बताते हैं कि प्रयाग के उस नवोदित कवि का नाम-काम क्या था, पर यह जरूर बताते हैं कि ‘नवोदित कवि ने मुस्करा कर आँखें मूँद लीं। फिर ठठा कर हँस पड़ा-बड़ा फीका हो जाएगा यहाँ (प्रयाग) का साहित्यिक समाज!’
दिल्ली में हुए एशियाई लेखक सम्मेलन में शामिल होने रेणु प्रयाग से ही उपेन्द्र नाथ अश्क के साथ दिल्ली गए थे। इस सम्मेलन में जाने के लिए रेणु इतने उत्साहित थे कि पूर्णिया से चार दिनों में ही प्रयाग लौट गए थे। हालांकि सम्मेलन में हुए हंगामे के कारण वे दुःखी और निराश थे। इसी सम्मेलन में यशपाल से उनकी पहली मुलाकात हुई थी। मई, 1960 की ‘नई कहानियाँ’ में रेणु ने ‘यशपाल’ पर लिखते हुए इन बातों का तो जिक्र किया ही, इलाहाबाद के लेखकों की वैचारिक भिन्नता को भी संकेतित-रेखांकित किया है। रेणु तब राजनीति से अलग-विलग हो चुके थे, पर राजनीतिक चर्चा और राजनीति के मूल्यों से अलग न थे। वे लिखते हैं- ‘राजनीति से अलग-विलग होने के बाद, करीब तीन-चार वर्षों के बाद, एक महासम्मेलन में सम्मिलित होने का सुअवसर मिला। ...हम उस समय प्रयाग जा कर रहने लगे थे। ...दासानुदास को लगा, महासम्मेलन के होते-होते बहुत सारे अहम सवाल पेश होंगे और अंततः यह सम्मेलन हो कर भी नहीं होगा। नहीं तो प्रयाग से पूर्णिया सिर्फ चार दिन के लिए नहीं जाता। घर पहुँचा ही था कि लतिका जी का टेलिग्राम मिला, ‘दिल्ली जाना है, शीघ्र लौटो।’ ...शीघ्र लौट कर सुना, एशियाई लेखक-सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों में मेरा नाम भी है। प्रयाग से दो लिस्ट भेजी गई है, मेरा नाम दोनों लिस्टों में है ...अर्थात् दोनों लिस्ट ...अर्थात् दोनों दल के लोग सम्मेलन में जाएंगे। ...सबसे बड़ी खुशी की बात यह थी कि सम्मेलन दोनों दलों की राजी-खुशी से हो रहा था। ...पहली बार दिल्ली जा रहा हूँ! प्रथम दर्शन! इलाहाबाद स्टेशन पर मुझे एक बार फिर उस किसान-सम्मेलन की याद आई। ...यशपाल जी मिलेंगे ...आयेंगे? पता नहीं। ...नाम दोनों लिस्टों में है। अच्छा है। बुरा है! है तो है! ...दिल्ली करीब होती जा रही है, क्रमशः। ...‘परिमल’ सदल-बल इसी गाड़ी से जा रहा है। ..हम अश्क-परिवार के साथ सफर कर रहे हैं ...पता नहीं, अश्क जी का नाम दोनों लिस्टों में है या एक ही में? दोनों लिस्टों में होना चाहिए इनको भी।’ सम्मेलन का जिक्र जिस अंदाज में रेणु ने किया है, उससे ज्ञात होता है कि वहाँ भी इलाहाबाद हावी रहा, विवरण देखिए-‘भारतीय लेखकों की सभा प्रमुख हाल में शुरू हो गई! प्रयाग का दूसरा दल आ पहुँचा है। ...हाल में एक ओर श्री भैरव प्रसाद गुप्त की बोली गूँज रही थी। दूसरी ओर से लक्ष्मी नारायण लाल कोई तीखा जवाब दे रहे थे, हाथ चमका कर।’ ‘नई कहानियाँ’ के जून, 1960 के अंक में ‘अज्ञेय’ से जुड़ी स्मृतियों को रचते हुए रेणु ने इलाहाबाद के एक गुट की उपर्युक्त सम्मेलन में सहभागिता को लेकर यह राज खोला है- ‘अज्ञेय जी प्रयाग आए थे। इसके बाद ही दूसरा दल, जो अब तक तटस्थ और उदास था, सम्मेलन में उत्साहपूर्वक सम्मिलित होने की तैयारी करने लगा। ...लिस्ट तैयार हुआ।’
इस दूसरे दल के बारे में केशव चंद्र वर्मा ‘परिमल: स्मृतियाँ और दस्तावेज’ में लिखते हैं कि ‘एशियाई लेखक सम्मेलन में अज्ञेय के सहयोग से हिन्दी साहित्य का प्रतिनिधित्व किया गया जिसमें भारती, साही, लाल, लक्ष्मी कांत, जगदीश गुप्त और मैं स्वयं सम्मिलित था।’ केशव चंद्र वर्मा ने पुस्तक में सविस्तार बताया है कि परिमल ने उपर्युक्त सम्मेलन में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया और हिंदी की ओर से परिमल के सदस्यों ने अपने विचारों को प्रस्तुत किया। एशियाई लेखक सम्मेलन के विभिन्न आयोगों में परिमल के सदस्यों ने सक्रिय भाग लिया और वाद-विवाद में उन अंगों की पूर्ति की जो इस सम्मेलन में प्रायः उपेक्षित सी थी पर होने के अभाव में दबे पड़े थे।
हालांकि रेणु की मानें तो सम्मेलन में वह सब कुछ हुआ, जो नहीं होना था। इलाहाबाद के दोनों गुट वहीं भिड़ गए। यहाँ तक कि जैनेन्द्र को भी न बोलने दिया गया। ‘नई कहानियाँ’ के अगस्त 1960 के अंक में रेणु ने ‘जैनेन्द्र’ पर लिखे अपने रेखाचित्र में इस बात का जिक्र किया है - ‘पहली बार जैनेन्द्र जी को उस समय देखा, जब वह विज्ञान-भवन के मंच से कुछ कहना चाहने के लिए माइक में कुछ बोल रहे थे। देखा, हिन्दी के लेखकों का सम्मिलित क्रोध सबसे प्रथम जैनेन्द्र पर ही बरसा।’ रेणु एक अन्य स्थल पर (उपर जिक्र है) बता चुके हैं कि सर्वाधिक क्रोध में इलाहाबाद से गए एक दल के भैरव प्रसाद गुप्त और दूसरे दल के लक्ष्मी नारायण लाल थे।
रेणु जैनेन्द्र को भी याद करते हैं तो इलाहाबाद को नहीं छोड़ते- ‘जब कभी दिल्ली जाता हूँ, इलाहाबाद के बाद ही मेरे डिब्बे में एक अदृश्य व्यक्ति आ कर बैठ जाता है। इटावा स्टेशन पर सजग बैठ कर मुझसे पूछता है, ‘‘कहाँ जाएंगे बाबू?’’ वह बार-बार कहता है, उसे टुण्डला उतरना है। टुण्डला स्टेशन पर वह उतर जाता है और मैं हर यात्रा में टुण्डला स्टेशन पर भीड़ में एक भीता-चकिता स्त्री का मुँह खोजता हूँ। कभी कोई वैसी स्त्री नहीं मिलती, तो जैनेन्द्र को नहीं कोसता।’
इसी तरह ‘मुक्तकंठ’ (संस्थापक शंकर दयाल सिंह) 1975-76 के अंकों में ‘कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ पर जो संस्मरण रेणु ने लिखा, उसमें इलाहाबाद के दिनेश ग्रोवर की चर्चा उन्होंने रस ले-ले कर की। एक बानगी देखिए - ‘दूसरे दिन दोपहर को हम कामता बाबू के आर-ब्लाक स्थित फ्लैट में पहुँचे। ओम प्रकाश जी (राजकमल प्रकाशन) सुबह की गाड़ी से इलाहाबाद लौट गए थे। उनके बदले में उनके भानजे श्री दिनेश (अब लोकभारती, इलाहाबाद से संबद्ध) हमारे साथ थे। ...मेहमान और मेजबान मिला कर हम सिर्फ सात व्यक्ति थे। इतने ही लोगों के लिए भोजन बनाने के लिए प्रिंस होटल के प्रसिद्ध ‘बावर्ची’ माइकेल को और परोसने के लिए बेयरा गिरजा को बुलाया गया था। लंच में कितने कोर्स थे, याद नहीं। किन्तु, एक ‘आइटेम’ सदा याद रहने वाला था- प्रिंस की ‘बंगाली-डेलिकेसी’ -मलाईकारी : नारियल के दूध में रोहू मछली के टुकड़े डाल कर बनाई जाती है। दिनेश जी ने दो टुकड़े चख कर कहा- ‘‘मैंने समझा था कि कोई मीठी चीज है। यह तो कोई सब्जी मालूम...।’’ कामता बाबू भोजन करते हुए बोले-‘‘सब्जी नहीं। मछली है, रेहू मछली। और लीजिए ...गिरजा! बाबू को मलाईकरी...।’’
‘‘मछली?’’- शाकाहारी दिनेश के चेहरे का रंग उड़ गया- ‘‘अरे? यह मलाईकरी मछली थी? मैं तो विशुद्ध शाकाहारी हूँ।’’
‘‘ओ-हो-ओ...’’ - कामता बाबू चिंतित हुए- ‘‘तब तो...क्यों गिरजा? वेजिटेरियन कुछ है?...मैंने तो समझा था कि एक ओम प्रकाश जी वेजिटेरियन थे- सो हैं नहीं तो बाकी जो हैं सब...। गिरजा? कुछ नहीं हैं? अरे ‘छेना पायस’ हैं न? वही ले आओ-रोटी के साथ खाएंगे।’’
जब छेना पायस आया तो दिनेश जी बोले- ‘‘इसका भी रंग-रूप तो वैसा ही लगता है...।’’
भोजन के बाद मैंने दिनेश जी से पूछा- ‘‘अच्छा, अब बतलाइए कि स्वाद कैसा था-मलाईकरी का? अच्छा लगा न...?’’
इस पर कामता बाबू खिलखिला कर हँस पड़े। बोले- ‘‘अब आप क्यों बेचारे को...।’’
रोचक यह कि यह सब कुछ हुआ ‘राजा निरबंसिया’ के लेखक कमलेश्वर की उपस्थिति में। बकौल रेणु ‘उस दिन दोपहर को इलाहाबाद से कमलेश्वर भी आ गए थे।’
रेणु ने ‘ज्योत्सना’ के अक्टूबर, 1959 अंक में ‘एक स्मृति: एक पत्र’ शीर्षक से संस्मरणात्मक-व्यंग्यात्मक पत्र लिखा, उस पर लिखा ‘आदरणीय’ और नीचे लिखा ‘आपका दासानुदास!’ रेणु ने इसमें ‘श्वान-विरोधियों’ की खूब खबर ली है और ‘श्वान-प्रेमियों’ की भूरि-भूरि प्रशंसा। रेणु ने दिनकर का नाम तो नहीं लिया, लेकिन ‘दूध-वस्त्र’ पाने वाले श्वानों के प्रति आक्रोश प्रकट करने के कारण उनकी कविता को ‘घृणावादी’ कविता कह कर संबोधित किया है। और इलाहाबाद के निराला और अश्क के ‘श्वान-प्रेम’ की उन्होंने जम कर तारीफ की है। ‘कुत्ते’ पर कविता लिखने के कारण रेणु इलाहाबाद के जिस कवि-लेखक से ज्यादा प्रभावित हुए हैं, वे हैं - लक्ष्मी कांत वर्मा। और लक्ष्मी कांत वर्मा की कविता के बहाने इलाहाबाद नगरपालिका की ‘कुत्ता-पकड़-गाड़ी’ का दृश्य-चित्र रेणु के शब्दों में देखिए- ‘नए कवियों में श्रीमान लक्ष्मी कांत वर्मा की एक कविता, बस, यही समझिए कि सैकड़ों राम के सैकड़ों कुत्तों से परीशान नगरी का एक जीवंत रूप आँक दिया है- लक्ष्मी कांत वर्मा साहब ने। ...इलाहाबाद में चातुर्मास व्यतीत करने के बाद ही उस कविता का सही मूल्य आँका जा सकता है। चार महीने में एक दिन-किसी-न-किसी दिन-प्रयाग की किसी सड़क पर एक ऐसी गाड़ी देखेंगे, नहीं-नहीं, सुनेंगे- क्योंकि उस गाड़ी के चलने की आवाज़ को सुनते ही सभी राम के कुत्ते भाग-भाग कर अली-गली में छिपने लगते हैं। उस पिंजड़ानुमा झड़झड़ाती-हड़बड़ाती गाड़ी के पास आने पर आप देखेंगे कि उसमें एकाध दर्जन राम के कुत्ते, बगैर पट्टा-चमोटी वाले, सभी किस्म के मरियल कुत्ते, संतों की सूरत बना कर बैठे हैं। घाव से जरजर, क्षत-विक्षत ...गाड़ी की कर्कश झड़झड़ाहट ... (अब इसको वही शब्द (आवाज) चित्र के रूप में कौन पेश करे? करने पर, कुछ जन कान बंद कर कोसने लगते हैं)।’
अब इस संदर्भ में रेणु का अनुमान और दावा देखिए - ‘मेरा अनुमान है (हल्का, दावा भी!) कि प्रयाग को छोड़ कर, ऐसी अद्भुत ‘कुत्ता-पकड़-गाड़ी’ और किसी नगर की नगरपालिका के पास नहीं होगी।’
फिर लक्ष्मी कांत वर्मा की कविता का ‘हैंग ओवर’ देखिए- ‘श्रीमान लक्ष्मी कांत वर्मा की उस कविता को पढ़ने के पहले मैंने वह गाड़ी देखी थी या बाद में, यह याद नहीं। किंतु, आज भी जब-जब उस कविता को पढ़ता हूँ- कुत्ता गाड़ी की झड़झड़ाहट के साथ पकड़े जाने वाले अभागे कुत्तों की चीख-कराह और पकड़नेवाले की क्रूर किलकिलाहट- सब कुछ स्पष्ट सुनता हूँ। ...बहुत देर तक सिर्फ इलायची चबाने का मन करता है।’
इसी निबंधात्मक पत्र में रेणु ने अपने प्रिय श्वान ‘सिप्पी’ की सुंदरता, स्वभाव और कुल-खानदान की चर्चा करते-करते इलाहाबादी साहित्यिकों से उसके लगाव-विलगाव की दिलचस्प दास्तान कही है- ‘प्रयाग में एक वर्ष रहा। वहाँ तीन-तीन अखिल भारतीय सम्मेलन हुए, साहित्यिकों के! ...पंत जी ने बहुत मीठे शब्दों में, उसकी देह पर, हाथ फेरते हुए कहा था - मित्र हूँ, तुम्हारा! समझे, सिप्पी! ...मशहूर (बदनाम!) मितभाषी अज्ञेय को, सिप्पी से घंटों बातें करते, देखा-सुना गया। बेनीपुरी जी कहीं भी मिलते तो सबसे पहले पूछते- तुम्हारा मीत कैसा है? भैरव प्रसाद गुप्त जी पर, न जाने क्यों टूटता था सिप्पी, उस तरह नाराज हो कर- समझ नहीं सका। डंडा हाथ में ले कर तो अन्य लेखकगण भी आते थे। और भैरव जी हमसे मिलने वाले हर मित्र को सावधान करना नहीं भूलते थे-उनका कुत्ता बदमाश है। जरा सँभल के जाइएगा! - श्वान के रूप में उस आदमी को जिसने नहीं पहचाना, वह वह...क्या कहूँ- उसे?’
अब यह पता लगाने वाली बात है कि भैरव प्रसाद गुप्त रेणु को कैसे देखते थे और रेणु भैरव प्रसाद गुप्त को कैसे?
सिप्पी की मृत्यु के तीन-चार मास बाद रेणु स्मरण करते हैं कि ‘सिप्पी ने काशीधाम में गंगा-स्नान किया था। प्रयाग में त्रिवेणी-संगम पर नहाया था। निराला-दर्शन किया था।’
‘धर्मयुग’ के 1 नवम्बर, 1964 के अंक में रेणु ने आत्म-परिचय देने के लिए ‘पांडुलेख’ लिखा था, इसमें उन्होंने इलाहाबाद प्रवास के दौरान अपने पहले प्रेम का भावपूर्ण स्मरण किया है। बनारस में रेणु जिस लड़की के पीछे एकतरपफा दीवाने थे, वह इलाहाबाद में अपने पति बच्चों के साथ अकस्मात मिल गई, भावों के उत्थान-पतन को रेणु रोक नहीं पाए। बनारस का शेष-संवाद उन्होंने इलाहाबाद में पूरा किया। संवाद के लिए जो साहस बनारस न दे सका था, इलाहाबाद ने दिया।
रेणु लिखते हैं- ‘वह रोज आती, अपनी माँ के साथ!... साल-भर तक मैं पागल होकर उसके पीछे-पीछे चलता रहा- गोदौलिया, विश्वनाथ गली, बाँस पफाटक, जहाँ-जहाँ वह जाती- मैं साथ रहता। आँखें चार होते ही उसका चेहरा लाल हो जाता। मेरी कनपटी गर्म हो जाती, कलेजे की धड़कन बढ़ जाती। किंतु मुँह से कभी कुछ नहीं निकला। साहस ही नहीं हुआ कभी। एक बार, मिठाई की दुकान में वह मुझसे कुछ कहते-कहते रुक गई- ‘सुनून...।’ बस इतना ही। एक दिन वह खो गईं फिर नहीं मिली।’
वह मिली, पर बनारस में नहीं, इलाहाबाद में। किस जगह पर-वृत्तांत रेणु से ही सुनिए- ‘1958...इलाहाबाद! मुहल्ला लूकरगंज में- हमारे घर के सामने खुले मैदान में- फुटबाल मैच से ले कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन तक होते थे। उस बार, सरस्वती पूजा के दिन सुबह उठ कर हम संगम नहाने गए। निराला जी का दर्शन किया- आशीर्वाद और फूल ले कर प्रसन्नचित लौटा। ...महान दिवस! लौट कर देखा, सामने मैदान में- पूजा-मंडप में पुष्पांजलि देने वाले नर-नारियों की भीड़ लगी है। मैं भी पुष्पांजलि देने लगा। बंगाली पुरोहित चिल्ला रहे थे- ‘बस, एइबारे शेष। आर अंजलि होबे ना।’
‘देखा, एक महिला अपने पंचवर्षीय बालक का हाथ जकड़े पुरोहित जी से कह रही थी- ‘एर हाते खड़ी...’ पीली धोती और सफेद कुर्ता पहने, हाथ में स्लेट लिए उस बालक को देख कर मुझे अपने बचपन की याद आई! ...इसी तरह हाथ में स्लेट और खल्ली ले कर मैंने भी ‘ओनामासीधं’ (उफँ नमः सिद्ध) लिखा था।’ ...‘भद्र महिला से आँखें चार हुईं। मैंने पहचान लिया। भद्र महिला के चेहरे पर तरह-तरह के भाव आए-गए। अपने स्वामी से कुछ कहा, उसने। फिर, मेरे पास आकर बोली- ‘चिनी-चिनी मने होच्छे।’
‘मैंने कहा, ‘‘ना!... मुझे आप नहीं पहचानतीं ...अवश्य आमि चिनी आपना के। आपनि-?’’
‘‘आपनि बेनारसेर छेले?’’
‘‘किछुदिन छिलाम।’’
‘भीड़ से एक किशोरी कन्या निकल आई- ‘‘माँ। आज के रात्रो रामेर सुमति देखानो होवे, एइखाने!’’
‘मैं आवाक् खड़ा उस बालिका को देखता रहा। मैं काशी के दशाश्वमेध घाट पर चला गया- न जाने कब!’
‘पुरोहित जी ने प्रारंभ किया- ‘बोलिए... शुरू कीजिए- उफँ भद्रकाल्ये नमोनित्य सरस्वत्ये नमोनमः वेद-वेदांत-वेदांग-विद्यास्थाने...।’
‘ध्यान करते समय मानसपट पर वही किशोरी कन्या की मूर्ति अंकित हो गई।’ इस कन्या की मूर्ति, जो कि 1958 में रेणु के मानसपट पर अंकित हुई, उस कन्या की मूर्ति से भिन्न है जो 1966 या 1943 में ‘फातिमादि’ के रूप में रेणु के मानसपट पर अंकित हुई थी। वह ‘फातिमादि’ जिसे आज़ादी के बाद बलवाइयों ने ज़मीन पर पटक कर घसीटा था और जिसके चेहरे पर एसिड की शीशी उड़ेल दी थी। रेणु ‘जलवा’ कहानी (अगस्त, 1966) के अंत में लिखते हैं-‘फातिमादि को कभी इस तरह देखूँगा, इसकी कल्पना भी नहीं की थी हमने।’ ऐसी कल्पना रेणु के साथ अन्य संवेदनशील लोग भी नहीं कर सकते क्योंकि इसी फातिमादि के साथ रेणु सन् 1943 में इलाहाबाद जैसे नगर में आए थे, भ्रमण-पर्यटन के लिए नहीं, क्रांतिकारी कार्यक्रमों के लिए अलख जगाने। रेणु ‘जलवा’ में बताते हैं-
‘...और 1943 में पाँच महीने तक दिन-रात उनके साथ रहना पड़ा। बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद और गोरखपुर की गलियों में, ‘आज़ाद दस्ता’ के क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को ले कर अलख जगाने वाली फातिमादि की तस्वीरें आँखों के आगे आती हैं, एक-एक कर।’
‘अगिनखोर’ कहानी (धर्मयुग, नवम्बर, 1972) के एक पात्र ‘सूतपुत्र’ की जवानी तब आई, जब उसका बचपन इलाहाबाद जैसे शहरों में बीता। सूर्यनाथ के पूछने पर सूतपुत्र बतलाता है- ‘होली फेमिली हास्पिटल से यतीमखाना, वहाँ से टाँटी झरिया, कलकत्ता, जबलपुर, इलाहाबाद आदि जगहों में मेरा बचपन बीता और जवानी आई। पढ़ाई-लिखाई जो हुई, बुरी नहीं हुई।’
‘तीर्थोदक’ (1958) कहानी में लल्लू की माँ काशी की गंगा के समक्ष प्रयाग को लालसा-मनोकामना पूर्ण करने के लिए याद करती है। कहानी का यह अंश देखिए- ‘दशाश्वमेध घाट (काशी) पहली सीढ़ी पर खड़ी हो कर लल्लू की माँ ने गंगा जी को प्रणाम किया। ...लल्लू की माँ सभी की ओर से प्रार्थना कर रही है। जो नहीं आए हैं, जो नहीं आ सके! ...परयाग जी, विन्ध्याचल जी, अयोध्या जी, मथुरा, वृन्दावन ...लालसा पूरन करो। ...सभी का भला हो।’ रेणु मन की शांति और तन की शीतलता के लिए भी प्रयाग का स्मरण करते मिलते हैं, ‘समय की शिला पर : सिलाव का खाजा’ शीर्षक रिपोर्ताज़ में रेणु राजगीर यात्रा के दौरान महिला-सहयात्री के अव्यावहारिक व्यवहारों से खिन्न हो कर पलुस्कर के गीत का स्मरण करते हैं- ‘चलो रे मन, गंगा-यमुना तीर’... गंगा-यमुना निर्मल पानी, शीतल होत शरीर। चलो रे मन...।’ अब के इलाहाबाद (प्रयागराज) वासी तो संगम-क्षेत्र में उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र की ओर से आयोजित ‘चलो मन गंगा-यमुना तीर’ में प्रत्येक माघ मेले में सचमुच पहुँच कर गायन का आनंद लेते हैं।
‘तव शुभ नामे’ (सारिका, जुलाई, 1971) कहानी में बतौर लेखक रेणु प्रयाग के आधार पर दिशा का अनुभव करते मिलते हैं- ‘यहाँ आ कर (कटिहार जंक्शन) मैं दिशाहारा-सा हो जाता हूँ, अर्थात् पूरब-पच्छिम, उत्तर-दक्षिण के बदले कामरूप-कमिच्छा की ओर, काशी-प्रयाग की ओर और गंगा की ओर के रूप में दिशाओं का अनुभव करता हूँ।’ इतना ही नहीं, कटिहार जंक्शन लौटते भी हैं तो इलाहाबाद से वापसी का जिक्र करना रेणु नहीं भूलते, इसी कहानी का यह अंश देखिए- ‘सम्भव है, कटिहार जंक्शन से मेरा यह लगाव भी वैसा ही रोग हो, नहीं तो क्यों इस तरह बेदार हो कर दौड़ा आता हूँ? काशी, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता आदि से लौटते समय, दूर से ही कटिहार स्टेशन का टावर देख कर लगता था, कटिहार जंक्शन सिर ऊचा किए, मुस्कुराता हुआ हमें देख रहा है।’
रेणु की कुछ कहानियाँ तो इलाहाबाद की पत्रिकाओं में ही पहले-पहल प्रकाशित हुईं। उनमें प्रमुख है-‘ रसप्रिया’ (‘निकष’, सं. धर्मवीर भारती, 1955 में), ‘लाल पान की बेगम’ (‘कहानी’, जनवरी 1957), ‘आत्मसाक्षी’ (‘माया’, सं. मार्कण्डेय, जनवरी 1965), ‘रोमांस शून्य प्रेमकथा की भूमिका’ (‘नयी कहानियाँ’, प्रेमकथा विशेषांक, दिसम्बर 1963), ‘एक आदिम रात्रि की महक’ (‘नयी कहानियाँ’, नवम्बर 1964) तथा ‘विकट संकट’ (‘नयी कहानियाँ’, सितम्बर, 1965)।
रेणु अपने रिपोर्ताज़, टिप्पणी, स्केच, संस्मरण आदि में इलाहाबाद के धर्मवीर भारती को तरह-तरह से याद करते हैं, उल्लिखित करते हैं। उनमें से कुछ प्रसंगों की चर्चा करने की इजाजत चाहूँगा। रेणु का एक प्रसिद्ध रिपोर्ताज़ है ‘समय की शिला पर : सिलाव का खाजा’ (‘धर्मयुग’ के 15, 22 और 29 जुलाई, 1962 के अंकों में प्रकाशित)। इसमें वे भारती का उल्लेख वायदा कर मुकर जाने वाले व्यक्ति के रूप में करते हैं- ‘अंधायुग’ के लेखक ने लिखा-राजगीर जाने के लिए ही आऊगा। वे भी नहीं आए।’
महत्त्वपूर्ण यह है कि धर्मवीर भारती रेणु की रचनात्मक प्रतिभा से प्रभावित थे और उन्होंने रेणु के ‘परिवर्तन’ उपन्यास-अंश को ‘निकष’ (सं. धर्मवीर भारती, लक्ष्मी कांत वर्मा) के दूसरे अंक, 1956 में प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इसके पूर्व भारती ने ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद रेणु की जबर्दस्त प्रशंसा की थी। इस बात का जिक्र स्वयं रेणु ने उपेन्द्र नाथ मण्डल को 24 जनवरी 1955 को लिखे पत्र में किया है। रेणु लिखते हैं- ‘...मुझे देखो न! दुख और सुख दोनों की खबरें रोज आती हैं? पारिवारिक समस्याओं तथा अन्य दुख-संकट की कथा सुन कर दिल बैठने लगता है तो दिल्ली अथवा इलाहाबाद वगैरह से उपन्यास की सपफलता पर बधाइयाँ आ रही हैं। ...डा. धर्मवीर भारती- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने लिखा है- ‘‘मिथिला की भूमि ने दूसरा विद्यापति पैदा किया, जिसके ‘गद्य’...।’ दिलचस्प है कि भारती और लक्ष्मी कांत वर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘निकष’ और उपेन्द्र नाथ अश्क द्वारा निकाले गए ‘संकेत’ को रेणु साथ-साथ रखना चाहते थे। उन्होंने रामानंद सिंह ‘वीरान’ को हजारीबाग से (18 जून 1956) चिट्ठी लिख कर जल्दी से ‘संकेत’ और ‘निकष’ रजिस्टर्ड डाक से भेजने का आग्रह किया और लिखा कि-‘संकेत’ और ‘निकष’ की आवश्यकता डेग-डेग पर अनुभव कर रहा हूँ।’ इस संदर्भ में भारत यायावर ने (रचनावली के पाँचवें भाग में पृ. 549 पर) टीप दी है कि ‘संकेत’ में ‘एकलव्य के नोट्स’ प्रकाशित हुआ था एवं ‘निकष’ में ‘परिवर्तन’-‘परती: परिकथा’ के प्रारम्भ में जिससे कुछ अंश जोड़ने के लिए उन्होंने हजारीबाग में इन्हें मंगवाया था।’ उपर्युक्त पत्र उन्हीं ‘वीरान’ जी को संबोधित है, जिनको 25 अगस्त, 1958 को प्रयाग से पत्र लिख कर रेणु ने ‘वीरान’ उपनाम पर आपत्ति की थी- ‘वीरान’ मैं जानबूझ कर नहीं पुकारता। ...तुम्हारे जैसे हरे-भरे (शायद, लाल भी! क्योंकि हरा पान दाँत पर पीस जाने के बाद रंग लाता है!!) युवक को वीरान कहते मन हिचकता है। इन मायूस नामों की परंपरा को तोड़ना होगा। भग्न-हृदय, दर्दे ...वगैरह नाम अब नहीं सुहाते।’
रेणु का एक निबंध है ‘पतिआते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है’, जनवरी, 1962 की ‘सारिका’ में आंचलिकता पर आयोजित एक परिचर्चा के तहत प्रकाशित हुआ था। इसमें एक पाठक द्वारा पत्र दे कर पूछे गए इस प्रश्न के जवाब के क्रम में कि- ‘आप उपन्यास-लेखक हैं या आंचलिक उपन्यास लेखक?’ रेणु ने धर्मवीर भारती का जिक्र किया है। रेणु लिखते हैं- ‘आंचलिक उपन्यास का लेबल चिपकाते समय मुझे आंचलिक उपन्यास की इतनी विस्तृत परिभाषा भी नहीं मालूम थी। बाद में, आलोचनाओं को पढ़ कर मैंने परिभाषा सीखी है। क्षमा करें, इस संदर्भ में मुझे एक चुटकुला याद आ रहा है- बुरी तरह। सुनाया था प्रयाग के काफी-हाउस में डा. धर्मवीर भारती जी ने। चुटकुला है : साहित्यिक गुरु ने शिष्य से पूछा, ‘‘वत्स, उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं?’’ शिष्य ने हकलाते हुए प्रश्नोत्तर देना प्रारंभ किया, ‘‘जी, गुरु जी, धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक... और... और आंचलिक।’’ गुरु ने कहा, ‘‘मूर्ख! एक नाम तो तुमने छोड़ दिया- धारावाहिक उपन्यास कहाँ गया?’’ चुटकुला सुन कर मैं जी खोल कर हँसा था। आज भी हँसता हूँ। लेकिन, इतने दिनों बाद अब उनसे एक प्रश्न पूछना आवश्यक समझता हूँ: ‘‘डाक्टर साहब! ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद तुरंत ही ‘आलोचना’ (विशेषांक) के संपादकीय में आपने ‘आंचलिक उपन्यास’ नाम का अनुमोदन किया था, सो क्यों? आपने इस वर्गीकरण को सही क्यों माना?’’ और परिभाषा की बात? अच्छा, यदि कोई कहे कि बिना एक पंक्ति लोकगीत और लोककथा के भी आंचलिक उपन्यास लिखे जा सकते हैं, यहाँ तक कि आंचलिक अथवा स्थानीय शब्दों के सहारे के बिना भी यथार्थ वातावरण और परिवेश की सृष्टि की जा सकती है, तब? जानता हूँ आपका जवाब। आप कहिएगा- हाँ, कोई लिखकर दिखला दे तो हम यह भी मान लेंगे। तब तो सब कुछ उस ‘कोई’ की शक्ति के उपर ही निर्भर करता है, किंतु उस ‘कोई’ की व्यक्तिगत दुर्बलताओं को भी हम परिभाषा मान लें, यह अन्याय है!’
रेणु ने धर्मवीर भारती और अन्य साहित्यकारों के पत्र को सुरक्षित रखने के लिए ‘भाई बिरजू बाबू’ को औराही-हिंगना से पत्र लिखा था- ‘अज्ञेय जी का एक पत्र पटने के पते पर आया हुआ था। आपको भेज रहा हूँ। ऐसे सभी पत्र मैं आपके जिम्मे लगा दूँगा- सुरक्षित रहेगा। अज्ञेय के एक दर्जन से अधिक पत्र होंगे। अन्य साहित्यकारों के (पंत, महादेवी, बच्चन, भारत भूषण, सर्वेश्वर, रघुवीर, भारती, साही आदि के) भी पत्र हैं- बहुत खो भी गए हैं।’
इलाहाबाद से पटना लौट कर 3 नवम्बर, 1955 को रेणु ने मधुकर गंगाधर को लिखा- ‘राजकमल वालों का मेहमान था, किन्तु उनके यहाँ 9 दिनों में सिर्फ एक ही शाम ‘जीमन-जूठन हुआ।... लंच, डीनर, टी, बिफे (Buffet) या बफेट अथवा बफा- जो भी कहते हों!’ इसी पत्र में रेणु यह उल्लेख करते हैं कि ‘मैला आँचल’ की लोगों ने सराहना की और उसके लेखक होने के नाते अतिरिक्त सम्मान दिया। पत्र का यह अंश देखिए- ‘जिस दिन पहुँचा, उसी दिन ‘डाक एडिसन’ में प्रयाग के सभी पत्रों ने सूचना प्रसारित की... ‘मैला आँचल’ के लेखक ...इत्यादि। दूसरे दिन सुबह से ही राजकमल वालों के घर वाले टेलिफोन पर और बैठक-खाने में प्रयाग के साहित्य-सेवियों की आवाजें आने लगीं। उसी दिन शाम में राजकमल वालों ने एक विशाल चाय-पार्टी का आयोजन किया था। रात्रि-भोज श्री भगवत शरण उपाध्याय के यहाँ।’
उपर्युक्त पत्र में रेणु आगे लिखते हैं- ‘चाय-पार्टी में करीब दो सौ निमंत्रित ‘लेडीज एण्ड जेण्टलमैन’ थे। सर्वश्री वासुदेव शरण अग्रवाल ने तुम्हारे भैया की तारीफ शुरू की और पूरे पन्द्रह मिनटों तक बोलते रहे। भगवत शरण उपाध्याय जी का नम्बर दूसरा था। बोले-जीवन में पहली बार मेरा मोहभंग हुआ। किसी किताब को एक ही बैठक में समाप्त कर फिर तुरंत प्रथम पृष्ठ से शुरू करना...। डा. भारती, गंगा प्रसाद पाण्डेय, प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि ने भी काफी तारीफ की। दूसरे दिन बड़े-बड़े ‘हेड लाइन’ लगाकर पत्रों ने भगवतशरण उपाध्याय के कथन को छापा- Portyal Better than Premehand...etc... मुझे लगा, मुझे पिटवाने की व्यवस्था तो नहीं हो रही? तुम्हारी याद आती थी, इसलिए कि घरेलू चिकारी में हम दोनों बातें कर परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहते।’
असल में रेणु ने ‘पिटवाने’ या ‘निपटने’ जैसे अखाड़ची शब्दों का प्रयोग इसलिए भी किया कि वे इलाहाबाद को ‘अखाड़ा’ मानते थे, साहित्य का अखाड़ा। इसी पत्र का यह अंश देखिए- ‘प्रयाग हिन्दी-साहित्यकारों का अखाड़ा समझा जाता है-नए तथा पुराने लेखकों का विशाल झुण्डवास करता है यहाँ। इनकी अलग-अलग छोटी-बड़ी संस्थाएँ हैं-परिमल, साहित्यिकी, झंकार, पराग, मिलन आदि-आदि।’ अभिप्राय यह कि वैचारिक बहस और टकराहटों का केन्द्र रहा है इलाहाबाद, किसी अखाड़े से कम नहीं। लेकिन रेणु क्या लिखते हैं, देखिए- ‘सबों को आश्चर्य हुआ कि बिना यह पूछे कि अमुक संस्था या व्यक्ति किस राजनैतिक दल का है, रेणु जी सबों के यहाँ मुक्त हृदय से गए, गोष्ठियों में भाग लिया...। आने के दिन सरस्वती प्रेस (श्रीपत राय) के यहाँ जमावड़ा था- प्रोग्रेसिवों (कम्युनिस्ट पार्टी वाले) ने कहा- रेणु जी की कृति तथा उनके प्रयाग आगमन के बाद हम यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि ऐसे साहित्य की रचना संभव है, ज से सभी दल वाले एक स्वर से स्वीकार करें...।’
रेणु और ‘मैला आँचल’ से जुड़ी खबरें तत्कालीन ‘अमृत बाजार पत्रिका, लीडर, भारत, अमृत पत्रिका’ आदि में प्रमुखता से छपीं। लेकिन इलाहाबाद के एक पत्रकार ने प्रेस कांफ्रेस में आखिर पूछ ही लिया कि ‘आंचलिक साहित्य क्यों?’ रेणु ने जो उत्तर दिया, उसका जिक्र उन्होंने उपर्युक्त पत्र में इस प्रकार किया है-‘यह अंचल-विशेष पर निर्भर है। पूर्णिया के विभिन्न हिस्सों पर बंगला में कम-से-कम चार उपन्यास लिखे जा चुके हैं, दर्जनों कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। साहित्यिक प्रगति की बात मैंने सबसे पहले की अनूप जी, सुधांशु जी के बाद बंगला-हिन्दी के लेखकों की तालिका दी और तुम्हारे नाम पर जरा जोर दे कर कहा- और लगता है, हमारी मिट्टी में अवश्य कुछ विशेषता है।’ असल में मधुकर गंगाधर की कविताओं को भारती जी ने ‘निकष-2’ में छापा था और कहानी ‘कहानियाँ’ पत्रिका में छपी थीं।
जिस प्रकार ‘हंस’ में एक लेखक ने ‘स्नोवा बार्नो’ छद्म नाम से सरस कहानियाँ लिखीं और लोगों ने रस ले-ले कर उन कहानियों को पढ़ा और गप्पें की, प्रशंसा के पुल बाँधे, राजेन्द्र यादव ने ‘प्रमोट’ किया और पाठकों आलोचकों ने ‘शैनी-अशेष’ पर संदेह जाहिर किया, उसी तरह रेणु ने गौरा देवी, एम. ए. के छद्म नाम से लेखन किया और लोगों ने संदेह किया तो उन्होंने पुष्टि के लिए गवाह भारती जी और महादेवी जी को बनाया। रेणु ने औराही-हिंगना से 23 दिसंबर 1955 को मधुकर गंगाधर को लिखा- ‘लतिका जी, मधु (सुधीर की बहन), अरूणा हाल्दार, शिप्रा जी आदि के बीच जो महिला अपने को गौरा जी कह रही थी, उसे मैंने अकेले ही तो नहीं देखा था? प्रयाग में भारती जी आदि से मिली। भारती जी ने उनके सम्बन्ध में एक पत्र लिखा भी है। ...और आजकल अपनी बुरी रचना को भी लोग दूसरे के नाम से प्रकाशित करवाना नहीं चाहते - उनका तो ‘साहित्यकार’ में धारावाहिक लेख प्रकाशित हो रहा है।’ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘साहित्यकार’ पत्रिका (संपादक-महादेवी वर्मा) में प्रकाशित गौरा देवी के लेख अब तक किसी को प्राप्त नहीं हो सके हैं। रचनावली संपादक भारत यायावर को तो ‘साहित्यकार’ पत्रिका का कोई अंक देखने-भर को भी नहीं मिला, ऐसा उन्होंने बताया है। इस आलेख के लेखक के नाते मैंने भी स्थानीय पुस्तकालयों में खोजबीन की, पर ‘साहित्यकार’ पत्रिका न मिली। पता नहीं, रेणु के पास उपलब्ध प्रतियाँ कहाँ मिलेगी? रहस्य है।
इसके पहले यानी 01 जुलाई, 1955 को ही रेणु ने उपेन्द्र नाथ अश्क को पत्र भेज कर लिख दिया था कि ‘प्रयाग आने की बात बहुत दिनों से सोच रहा हूँ। ...प्रयाग के बंधुओं के दर्शन की लालसा बड़ी तीव्र हो रही है। भारती जी, कांता जी, शरद आदि को हमारा प्यार या नमस्कार!’ इसी पत्र में रेणु ने पटना के साहित्यकारों पर टिप्पणी की थी कि ‘यहाँ के साहित्यिक बंधुओं के बारे में मैं कुछ नहीं बता सकूँगा। आप तो जानते ही हैं कि पटने में रह कर भी मैं पटने से बाहर रहता हूँ।’
29 अक्टूबर, 1955 को रेणु, कमलेश्वर को पत्र लिख कर भी प्रयाग की याद आने की चर्चा करते हैं, लिखते हैं- ‘क्या हाल है प्यारे? अपना जी बड़ा ‘बेहाल’ है बुखार के मारे। मार्कण्डेय जी को मेरा प्रणाम देंगे। प्रयाग की याद आ रही है।’ इसी पत्र में रेणु ने कमलेश्वर से प्रकाश चंद्र गुप्त और शमशेर बहादुर सिंह का पता मांगा तथा मार्कण्डेय जी के पते की पुष्टि के लिए कहा - ‘मार्कण्डेय जी का पता तो मिंटो रोड ही है न!’ तब मार्कण्डेय जी ‘कहानियाँ’ निकाल रहे थे। रेणु इसी पत्र में कमलेश्वर को याद दिलाते हैं- ‘आपको याद हो, मैंने कहा था- मेरे एक मित्र ‘कहानियाँ’ निकाल रहे हैं। चीज अच्छी निकल रही है। यदि एकाध कहानी उन्हें दें तो उनका तथा हमारा बड़ा उपकार हो।’ रेणु कमलेश्वर से पूछते हैं- ‘दे सकेंगे?’
‘मैला आँचल’ छपने के बाद मुकदमे हुए, ‘एकलव्य के नोट्स’ प्रकाशित होने के बाद गाँव के लोग बहुत नाराज हो गए। कोर्ट, कचहरी का चक्कर लगाने के कारण रेणु को इलाहाबाद आने में देर हो रही थी, इलाहाबाद में मकान-किराया भी बाकी था। इन सभी मामलों को रेखांकित करते हुए रेणु औराही-हिंगना से 22 अक्टूबर, 1956 को वाचस्पति पाठक के नाम पत्र लिखते हैं- ‘भगवान बचावें, मुकदमा दिलचस्प है, इसलिए मेरी तारीख के दिन कचहरी में भीड़ लग जाती है ...मेरे गाँव के पास एक सज्जन हैं- (जिनके बारे में आपको बता चुका हूँ।) उन्होंने ‘मैला-आँचल’ के तहसीलदार को अपनी तस्वीर समझ लिया है। मूरख आदमी है, पुराना मुकदमेबाज है। संभवतः उसने अपने वकील से पहले भी सलाह ली होगी। अब तक वे चुप रहे। ‘संकेत’ में प्रकाशित रिपोर्ताज़ का नाटकवाला अंश- एक गाँव की सच्ची घटना है। ‘दलित वर्ग’ के लोगों ने समझ लिया, उनकी खिल्ली उड़ाई गई है। ...29-30 तक मैं प्रयाग की सेवा में पहुँच रहा हूँ। कानून और कचहरी, सो भी सब-डिविजनल कोर्ट, बहुत अच्छी जगह है, तीन-चार कहानियाँ, अच्छी कहानियाँ मिल गई हैं। ...श्री मालवीय जी वाले घर का क्या हुआ? यदि वे इस महीने भर का पैसा लेना चाहते हैं तो उन्हें दे दूँगा। ...भाई जितेंद्र जी की याद सदा आती है। इस तरह फँसा हुआ हूँ कि बेकार बैठा रहता हूँ। एक पत्र भी नहीं लिख पाता हूँ, फिर भी भारती भाई जी आदि से भेंट हो तो मुकदमेबाज मित्र रेणु का सादर नमस्कार दे देंगे।’
जब-जब इलाहाबाद का प्रसंग छिड़ता है रेणु के घर में तो लतिका जी कमलेश्वर को सदैव याद करती है। कमलेश्वर को पत्र में 6 मार्च 1970 को रेणु पटना से लिखते हैं- ‘लतिका जी आपको हमेशा याद करती हैं, यानी जब-जब इलाहाबाद का कोई ऐसा प्रसंग छिड़ता है।’
इलाहाबाद के कण-कण से रेणु वाकिफ थे। यही कारण है कि पटना से बम्बई की ‘एक फिल्मी यात्रा’ वे करते हैं तो इलाहाबाद के बारे में राय देते हैं- ‘इलाहाबाद तक की धरती जानी-पहचानी हुई है। सो, खिड़की से बाहर, दूर तक नजर दौड़ाने के बदले आधी रात से उचटी हुई नींद से समझौता किया जा सकता है।’
और ‘तीसरी कसम को जानबूझ कर फेल किया गया था’ शीर्षक निबंध में कमलेश्वर और मार्कण्डेय का उल्लेख प्रश्नपरक तरीके से करते हैं- ‘छोटे-छोटे समझौते कर लेखक भी अपनी स्थिति कमजोर बना लेते हैं। बंबई आते हुए मैंने जगह-जगह ‘आँधी’ के होर्डिंग देखे। उन पर लिखा हुआ था ‘रिटन ऐंड डाइरेक्टेड बाई गुलजार।’ क्यों भाई कमलेश्वर, कहानी तो तुम्हारी है न? गुलजार लेखक कैसे हो गए? और वे तो तुम्हारे मित्र हैं। कल ‘रेणु’ के साथ भी यही व्यवहार होगा। मार्कण्डेय आएंगें तो या और कोई साहित्यिक आएगा तो उसके साथ भी यही सलूक होगा।’
वैसे भी रेणु की नज़र में मार्कण्डेय ‘घबराने’ वाले संपादक या कथाकार थे। 19 अप्रैल, 1970 को ‘धर्मयुग’ (सं. डा. धर्मवीर भारती) में राबिन शा पुष्प को रेणु ने बताया कि ‘लास्ट मोमेंट’ जैसी मेरी आदत है। उपन्यास लिखूँगा। मगर नामकरण नहीं किया जाएगा। मैटर प्रेस में चला जाएगा, तब कुछ नाम सोचूँगा। कहानियों के साथ भी यही स्थिति है। कभी-कभी तो लिपफापफा खोलकर नाम बदलता हूँ। ‘आदिम रात्रि की महक’ के कई नाम सोचे। ‘आदिम गंध’। ‘महक की महक’ फिर सोचा, चलो सीधा-सा नाम रख दो, ‘करमा की कहानी’। लेकिन नहाते समय फिर ख्याल आया, ‘आदिम रात्रि की महक’ और फिर लिफाफा खोल कर यही नाम दे दिया। ‘नयी कहानियाँ’ में आई थी यह कहानी। कमलेश्वर तो काफी छूट देता है। मगर मार्कण्डेय घबरा गया। ‘माया’ का विशेषांक निकाल रहा था। एक कहानी जल्दी-जल्दी में भेज दी थी। फिर सोचा, यह बात साफ नहीं हुई है। एक पोस्टकार्ड गिराया, ‘‘फेयर करते समय ये पंक्तियाँ छूट गई हैं, जोड़ लो।’’ दूसरे दिन फिर लगा कि इतना और जुड़ना चाहिए। फिर कार्ड गिराया। तब मार्कण्डेय का पत्र मिला- बस-बस, अब कहानी प्रेस में दे रहा हूँ अब नहीं।’
1969 के मध्य दिसंबर में रेणु अपने गाँव में ही बीमार पड़ गए। पेट में दर्द की शिकायत थी, हालत अच्छी न थी। औराही-हिंगना से फारबिसगंज और फारबिसगंज से पटना लाए गए। मिनट-मिनट पर हिचकी आने लगी। 15 दिसंबर को पटना पहुँचे। हाल जानने के लिए इलाहाबाद से भी फोन पहुँचे। बकौल रेणु ‘दूसरे दिन ही डाक्टर अभय पहुँचे। अपने ही इलाके के हैं। मुझसे दो साल सीनियर। वे उठा कर अस्पताल ले आए। अब यहीं से डबल अटैक प्रारम्भ हुआ। इलाहाबाद से फोन। भोला शास्त्री का पफोन ...ट्रिन...ट्रिन...और डाक्टर अभय कहते- ‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। एक पाँव कब्र में डाल कर तो आया है। हम खींच रहे हैं। देखिए...।’’
इलाहाबाद वालों से लगाव-प्रभाव का ही परिणाम है कि रेणु ‘मैला आँचल’ नाम पन्त जी की कविता से लेते हैं-
‘भारतमाता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामला
धूल भरा मैला-सा आँचल
नैनों में गंगा-यमुना जल मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी।’
‘मैला आँचल’ और ‘परती : परिकथा’ पर जो शुरूआती प्रतिक्रियाएँ आईं, उनमें से एक प्रोफेसर दुर्गानंद सिन्हा की भी थी। प्रो. दुर्गानंद सिन्हा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के प्रथम अध्यक्ष थे। जिस समय उन्होंने रेणु की दोनों किताबें पढ़ी थीं, उस समय वे खड़गपुर में समाज विज्ञान और मानविकी के अध्यक्ष थे। उन्होंने ‘मास साइकोलाजी और बिहेवियर’ आदि के अध्ययन के लिए इन दोनों उपन्यासों को संपूर्ण भारतीय भाषाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण बताया था। बकौल रेणु ‘दुर्गानंद जी तीन बार पढ़ चुके हैं दोनों किताब।’ रेणु ने यह बात भागलपुर के विष्णु किशोर बेचन जी को पटना से 27 जून, 1958 को पत्र लिख कर बताई थी। कमोबेश ऐसी ही टिप्पणी नर्मदेश्वर जी ने की थी। रेणु ने 10 पफरवरी, 1954 को किसी ‘भाई जी’ के नाम खत में पटना से लिखा कि ‘नर्मदेश्वर जी ने बहैसियत सोशियोलोजी के हेड आफ दि डिपार्टमेंट लिखा है- ‘‘किताब समाज विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी है।’’ रेणु के मुताबिक नर्मदेश्वर जी ने यह उस फोल्डर में लिखा था, जो ‘मैला आँचल’ के संदर्भ में राजकमल प्रकाशन से छपा था। इसी पत्र में रेणु लिखते हैं-‘राजकमल प्रकाशन ने सोल एजेंसी स्वीकार कर ली है। वह हमें वही कमीशन देगे, जो ‘बलचनमा’ पर दिया है। और 30 प्रतिशत कीमत पहले ही चुका देंगे। राजकमल एक तगड़ी प्रकाशन संस्था है। सारे भारत में उसकी पहुँच है। ‘प्रकाशन समाचार’ निकाल कर वह अपनी किताबों का जोरदार वैज्ञानिक प्रचार भी करता है। ‘आलोचना’ त्रैमासिक उसी की है और हिंदी का एक बेजोड़ पत्र समझा जाता है। फोल्डर छापने के लिए कुछ लोगों की राय का संग्रह कर लिया है: बतौर Review के। नागार्जुन, नलिन विलोचन शर्मा, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, नर्मदेश्वर प्रसाद, अनूप आदि की राय मिल चुकी है।’
ऐसा नहीं है कि रेणु ने राजकमल प्रकाशन की केवल प्रशंसा ही की है, रोष भी प्रकट किया है और आनंद भी लिया है। अब यही देखिए 13 नवंबर, 1963 को पटना से राजेन्द्र यादव को क्या लिखते हैं- ‘अब परीशानियों से परीशान नहीं होता। आनंद ले रहा हूँ। हाँ, ओंप्रकाशजी के गले उतर पाए अथवा गले में अटक जाय- मेरी बला से। आप ‘ठुमरी’ से निर्भय तीन कहानियाँ निकाल लें। पिछले साल से ही ‘ठुमरी’ को ‘आउट आफ प्रिंट’ कर के मेरी रायल्टी को कम करने का प्रयास उनका सफल हुआ- यही क्या कम है।’
इलाहाबाद स्थित मित्रा प्रकाशन प्राइवेट लि. की मशहूर पत्रिका ‘माया’ में कहानी प्रकाशित होने के बाद समय पर पारिश्रमिक न मिलने पर भी रेणु ने आलोक मित्रा को पत्र लिख कर नाराजगी प्रकट की थी। पत्र का एक अंश देखिए- ‘माया में भारत-1965’ विशेषांक में मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई थी। इसका पारिश्रमिक मुझे अभी तक नहीं मिला। किंतु, एक इस सिलसिले में जो दिलचस्प अनुभव हुए हैं, वे अभूतपूर्व तो अवश्य हैं। ...बार-बार पत्र लिखने पर भी महीनों कोई उत्तर नहीं फिर, चार महीने के बाद एक हिसाब मिला के एक पत्र कि शीघ्र ही पारिश्रमिक की राशि भेजी जा रही है- फिर सन्नाटा। फिर रिमाइन्डर, तब आया एक चेक- जिस पर तारीख नहीं। उसे सादर निवेदन के साथ लौटाया तो अब तक कोई जवाब नहीं। ...मैं नहीं जानता कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है।’ रेणु ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा- ‘आपकी प्रकाशन संस्था तो बहुत ही प्रतिष्ठित है। फिर ऐसा क्यों?’ और फिर उन्होंने आग्रह किया कि ‘कृपया मेरा पारिश्रमिक भिजवाने की व्यवस्था करें।’
रेणु निराला से बेहद प्रभावित थे। इलाहाबाद-प्रवास के दौरान ‘निराला-दर्शन’ की चर्चा उन्होंने की है, यहाँ तक कि उन्होंने अपने प्यारे कुत्ते ‘सिप्पी’ के निराला-दर्शन’ का भी उन्होंने जिक्र किया है। रेणु का एक पात्र तो बाकायदा ‘राम की शक्ति पूजा’ का पाठ करता मिलता है। रेणु का एक रिपोर्ताज़ है ‘पुरानी कहानी ‘ नया पाठ’, ‘धर्मयुग’, 8 नवंबर, 1964 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसमें भी जिक्र आता है कि एक पागल निराला की लिखी पंक्ति को बार-बार दुहराता है। इस रिपोर्ताज़ का समापन करते हुए रेणु लिखते हैं- ‘इलाके का ‘पढुवा पागल’ आजकल ‘निराला’ की एक ही पंक्ति को बार-बार दुहराता है- ‘मिट्टी का ढेला शकरपारा हुआ।’ यह वही ‘पढुआ’ पागल है जो कोसी की बाढ़ को देखकर शुरू में नागार्जुन की कविता की आवृत्ति कर रहा था- ‘ता-ता थैया, ता-ता थैया, नाचो-नाचो कोसी मैया...।’
निराला और नागार्जुन की पंक्तियों को उतराही-गाँव के एकमात्रा ‘पढुआ-पागल’ के मुंह से गवा कर रेणु ने व्यवस्था पर तंज किया है। इस रिपोर्ताज़ के (1964 के) बीस साल पहले (1944 में) निराला ने इन पंक्तियों के माध्यम से व्यवस्था पर व्यंग्य किया था। हालांकि इन बीस वर्षों में यानी निराला से रेणु तक आते-आते ‘सेंधों का ढेला’ ‘मिट्टी का ढेला’ हो जाता है। निराला ने ‘हंस’ मासिक (बनारस) के जनवरी-फरवरी, 1944 के अंक में दस पंक्तियों में दो-दो पंक्तियों के फुटकर दोहे की शक्ल में एक कविता लिखी थी ‘पाँचक’। व्यवस्था पर व्यंग्य करने वाली इस कविता (‘नए पत्ते’ में संकलितद्ध की शुरूआत ही इन पंक्तियों से हुई है-
‘दीठ बँधी, अँधेरा उजाला हुआ
सेंधों का ढेला, शकरपाला हुआ।’
और कविता का समापन इन पंक्तियों के साथ-
‘माल हाट में है और भाव नहीं।
जैसे लड़ने को खड़े, दाव नहीं।’
समकालीन कवि ज्ञानेन्द्रपति को भी निराला की ये पंक्तियाँ बार-बार याद आती है। ज्ञानेन्द्रपति ने तो अपनी कविता का शीर्षक दे दिया-
‘याद आई निराला की कविता-पंक्ति’ (‘गंगातट’ संग्रह में संकलित)। बीरू मल्लाह-बिछिया-अँगूठी को देख-देख कर
ज्ञानेन्द्रपति निराला की इन पंक्तियों को पूरी कविता में कम-से-कम तीन बार उद्घृत
करते हैं-
‘‘दीठ बँधी, अँधेरा उजाला हुआ
सेंधों का ढेला, शकरपाला हुआ।’’
रेणु स्वयं तन्मय हो कर निराला को पढ़ते थे। यहाँ तक कि निराला द्वारा किए गए अनुवाद को भी उन्होंने भाव-विभोर हो कर पढ़ा। ‘रस के बस में-चार रात’ रिपोर्ताज़ (अणिमा, सं. शरद देवड़ा, जनवरी-मार्च, 1965, प्रवेशांक में प्रकाशित) का यह अंश देखिए- ‘निराला ने श्री ‘म’ लिखित ‘श्रीरामकृष्णवचनामृत’ का अनुवाद किया है। एक बार, आश्रम में रामकृष्ण जन्मोत्सव के दिन बड़े महाराज स्वामी वीतशोकानंद ने मुझसे कहा- ‘आप ही पाठ करें।’ यद्यपि सुनने वालों में अधिक संख्या बंग-भाषियों की ही थी, पाठ हिन्दी में होना था। जब पाठ समाप्त हुआ तो महाराज, सुनील महाराज तथा स्टुडेंट होम के विद्यार्थियों ने एक स्वर में कहा- ‘अचरज की बात! जरा भी अस्वाभाविक नहीं। रामकृष्ण ने बंगला में ये बातें कही थीं- कभी नहीं मन में उठा।’ रेणु ने निराला द्वारा किए गए अनुवाद-कार्य की प्रशंसा की और लिखा कि ‘निराला ने अनुवाद नहीं किया है- पूजा की है, भाव-विभोर हो कर! तन्मय हो कर।’ रेणु ने नई पीढ़ी को निराला के इस अनुवाद-कार्य से प्रेरणा लेने की सलाह भी दी।
जिस प्रकार निर्मल वर्मा ने रेणु को आदर्श या ‘आइकान’ मान कर लेखन करने की बात स्वीकारी और लिखा कि ‘मैं जिन लोगों को ध्यान में रख कर लिखता था, उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। मैं हमेशा सोचता था, पता नहीं, मेरी यह कहानी, यह लेख, यह उपन्यास पढ़ कर वह क्या सोचेंगे। यह ख्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था।’ उसी प्रकार रेणु प्रेमचंद और निराला को आदर्श या ‘आइकान’ मान कर सामाजिक-राजनीतिक कार्यक्रमों में अपनी सक्रियता और सहभागिता बनाए रखते थे। इसे उन्होंने स्वयं स्वीकारते हुए ‘जन-जागरण में साहित्यकार की भूमिका’ (बिहार आन्दोलन में गिरफ्तार हो कर जेल से लौटने के बाद 1975 की ‘कादम्बिनी’ में प्रकाशित) में लिखा है कि ‘सच कहता हूँ, अगर इस जन-आन्दोलन से अपने को किसी तरह अलग-थलग रख पाने में सपफल हो पाता या तटस्थ हो पाता अथवा मौखिक सहानुभूति प्रकट कर रह जाता तो न प्रेमचन्द ने मुझे माफ किया होता और न निराला ने।’
सामाजिक सक्रियता और समाज-कार्य हेतु दिशा-बोध के लिए रेणु ने इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की भूमिका को भी रेखांकित किया। ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं से दो शब्द’ शीर्षक निबंध में रेणु लिखते हैं- ‘हमारे यहाँ समस्याओं की कुछ कमी नहीं है, और अब समय है कि हम भी अपनी विशेषज्ञता को छोड़कर सच्चे सामाजिक काम करनेवालों को अपनाएं। हिन्दुस्तान में भी कुछ संस्थाएँ हैं, जो ऐसे काम करनेवालों को शिक्षा दे रही हैं, और उनका नम्बर बढ़ता ही जा रहा है। ...बम्बई में सोशल सर्विस लीग और यूनिवर्सिटी सेटिलमेंट, इलाहाबाद की यूनिवर्सिटी और कुछ संस्थाएँ भी छोटे-छोटे ट्रेनिंग-कोर्स चलाती हैं, जहाँ इस काम को करने की शिक्षा दी जाती है।’
रेणु ने हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. राम कुमार वर्मा के नाट्य-लेखन को पहचाना और नाटक के विकास में उनके योगदान को रेखांकित किया। 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. करने के बाद 1941 ई. में आईसीएस में चुने गए और आल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल रहते हुए ‘आल इंडिया रेडियो’ का नाम ‘आकाशवाणी’ करने वाले जगदीशचंद्र माथुर द्वारा नाटक के क्षेत्र में किए गए योगदान को भी रेणु अपनी निगाह में लेते हैं। रेणु की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए- ‘पारसी थिएटर के बाद जो नाटक-लेखक हुए, राधेश्याम हैं, रामकुमार वर्मा भी हैं और जगदीशचंद्र माथुर भी हैं और कौन ऐसा लेखक नहीं होता था जो एकांकी नहीं लिखता था।’ फिर वे इत्मीनान होते हैं ‘अब हर शहर में गतिविधियाँ बढ़ी हैं, रंगमंच हैं।’ (देखिए ‘उलझे हुए रिश्ते सुलझे हुए विचार, पृ. 291, रेणु रचनावली-5)
इलाहाबाद के लोग यदि यह जानना चाहें कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. अमर नाथ झा एक साथ कितने रसगुल्ले खाते थे, तो उन्हें रेणु से कुछ सहायता मिल सकती है। ‘राजकमल-प्रसंग’ में (मासिक ‘पतझर’, सं. नरेन्द्र घायल, जनवीर-1972) रेणु ने इस ओर संकेत किया है- ‘इस बार इतना प्रभावित और प्रसन्न हुआ कि उसको सीधे ‘प्रिंस होटल’ ले जा कर पूछा था- कितने स्पंज रसगुल्ले खा सकते हैं आप? उसने (राजकल चौधरी) असल ‘मैथिलाम ठहाका’ लगा कर जवाब दिया-बीस...पच्चीस...तीस से अधिक नहीं। ...आप चालीस तक खा लेते हैं- सुना है। हरिमोहन झा जी ‘बेड टी’ के साथ डेढ़ सौ तक और सुना है, डाक्टर अमरनाथ झा...।’ अमरनाथ झा जी किस दुकान का रसगुल्ला खाते थे, इसका पता रेणु नहीं देते हैं। भले ही रसगुल्ला सबसे पहले कलकत्ता में बना (न्यायालय कह चुका है), पर रसगुल्ले खाने के सर्वाधिक शौकीन इलाहाबाद (प्रयागराज) में रहते हैं। यह अकारण नहीं है कि ‘शहर’ में दिन-दहाड़े बिकने के बावजूद यहाँ रसगुल्ला ‘देहाती’ है और ‘मुलायमियत’ की सारी हदें पार करने के बावजूद ‘हीरा’ है। आज के कुछ प्रोफेसर और कुछ विद्यार्थी अमरनाथ झा से इस मामले में आगे निकल गए हैं। कुछ तो ऐसे हैं कि जिस दिन व्रत-उपन्यास करते हैं, उस दिन इतने ज्यादा रसगुल्ले चख लेते हैं कि दो दिनों तक अन्न का अन्य पदार्थ नहीं खाते, रसगुल्ले के पाचन-सम्मान में एकाध दिन और उपवास कर लेते हैं, जरूरत पड़ी तो होम्योपैथ की कोई दवा उपर से ले लेते हैं। मेरे मित्र डा. आर. के. झा (रेणु-राजकमल चौधरी के इलाके के) तो रसगुल्ला और पान एक साथ खाते हैं, बाएं गाल में पान दबा कर दर्जनों रसगुल्ले खा लेते हैं, पानी पीने के बाद, फिर दबे पान को चुभलाने लगते हैं, फिर थोड़े नमकीन के साथ चाय पी लेते हैं, फिर पान को बीच मुंह में ला कर उसे कलात्मकता के साथ घुलाते हैं, भौतिकी के ज्ञाता हो कर भी अंदाज साहित्यिक रखते हैं। गनीमत है कि ये रेणु के इलाके में रेणु के गुजरने के बाद आए, वर्ना...।
रेणु ने चुनाव भी लड़ा तो अपने भाषणों में इलाहाबाद के कवियों को उद्धृत किया। रेणु ने सन् 1972 में बिहार विधानसभा का चुनाव निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में फारबिसगंज विधानसभा से लड़ा था। ‘होल टाइम’ साहित्य करने के पहले रेणु राजनीति करते थे, किसान-मजदूरों के बीच थे। किसानों की लड़ाइयाँ उन्होंने लड़ी और वे मजदूर-आंदोलनों में सक्रिय भाग लेते रहे। बावजूद इसके चुनावी वैतरणी में उनकी ‘नाव’ डूब गई। ‘नाव’ उनका चुनाव चिन्ह था। उन्होंने अपने मतदाताओं से अपील की थी कि वे पाव भर चावल और एक वोट दें तथा नारा दिया था-
‘कह दो गाँव-गाँव में, अब के इस चुनाव में
वोट देंगे नाव में, नाव में, नाव में
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर।’
जैसा कि उन्होंने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के भूपेन्द्र अबोध को बताया था (देखिए रेणु रचनावली-4, पृ. 434) - ‘अभी कई जन-सभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पन्त और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-
‘दूध, दूध ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं’ – दिनकर
‘यह दीप अकेला स्नेह भरा’ – अज्ञेय
‘बात बोलेगी, मैं नहीं’ – शमशेर
‘भारत माता ग्रामवासिनी’ – पन्त
‘न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे’ - रघुवीर सहाय।’
रेणु ने राजनीति करने वालों को यह विशिष्ट अंदाज दिया, चुनाव प्रचार का एक तरीका दिया। उन्होंने भूपेन्द्र अबोध को यह भी बताया कि ‘अपने चुनाव-भाषण में मैं रामचरित-मानस की चौपाइयों, दोहों का उद्धरण दूँगा, उन्हीं का सहारा लूँगा (अचरज की बात है कि चुनाव लड़ने के लिए सैकड़ों पंक्तियाँ रामचरित-मानस में पड़ी हुई हैं), कबीर को उद्धृत करूँगा, अमीर-खुसरो की भाषा में बोलूँगा, ग़ालिब और मीर को गाँव की बोली में प्रस्तुत करूँगा और लोगों को उन्हें समझाऊंगा।’ रेणु के बाद चुनाव-प्रचार का यह तरीका कितने लोग सीख-समझ पाए, यह तो बहस का विषय है, लेकिन रेणु का चुनावी भाषण अद्भुत था, जिसमें इलाहाबाद भी छाया हुआ था।
रेणु राजनीति में रहे तो पार्टी में भी रहे और उससे अलग भी। वह इस बात को ले कर बेहद चिंतित थे कि आखिर समाजवादी एकजुट क्यों नहीं रह पाते? बार-बार ‘समाजवाद’ का मंच ही क्यों टूट जाता है? आचार्य कृपलानी, डा. लोहिया, अशोक मेहता, जय प्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव सबकी राहें अलग क्यों हो जाती हैं? ‘धर्मक्षेत्रो कुरूक्षेत्रोः (प्रजा) समाजवाद’ शीर्षक से 31 दिसम्बर, 1965 को उन्होंने एक रपट लिखी, जिसमें इलाहाबाद में ‘समाजवादियों के ‘मंच टूटने’ की घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने ऐसे ही सवाल उठाए। रपट का एक अंश देखिए- ‘सन् 1953 की 29 दिसम्बर को तीसरे पहर इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला इण्टरमीडिएट कालेज के मैदान में जब प्रजा समाजवादी दल का प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन आचार्य कृपलानी की अध्यक्षता में शुरू हुआ, उसके कुछ देर बाद ही सभा-मंच एकाएक टूट गया। एक स्थानीय हिन्दी पत्र ने लिखा-‘‘सौभाग्यवश मंच पर आसीन व्यक्ति, जिनमें आचार्य कृपलानी, श्रीमती सुचेता कृपलानी, आचार्य नरेन्द्रदेव, डा. राम मनोहर लोहिया तथा जय प्रकाश नारायण भी थे, बाल-बाल बच गए। प्रतीत होता है कि मंच को संभालने वाली बल्ली भारी वजन के कारण टूट गई।’’ रेणु पूछते हैं- ‘कांग्रेस मंच पर इससे ‘भारी वजन’ रहता आया है, किन्तु वह टूट-टूट कर भी बचा रहता है। फिर बार-बार ‘समाजवाद’ का मंच ही क्यों टूट जाता है?’ 30 दिसम्बर, 1953 के जिस अंक में प्रयाग के पुराने हिन्दी दैनिक ‘भारत’ ने प्रजा समाजवादी दल के खुले अधिवेशन के समय ही सभा-मंच टूट जाने की खबर छापी थी, उसी में एक व्यंग्य-चित्र भी प्रकाशित किया था जिसमें अशोक मेहता, आचार्य कृपलानी, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और डा. राम मनोहर लोहिया एक साथ ‘प्रयागराज के प्रजा समाजवादी यात्री’ के रूप में अंकित किए गए थे। रेणु अपनी रपट में लिखते हैं- ‘आज इन पाँचों ‘यात्रियों’ में से कोई भी प्रजा समाजवादी दल के खेमे में नहीं है।’
इलाहाबाद की गर्मी अच्छे-बड़ों को पसीने छुड़ा देती है। रेणु भी इससे अछूते नहीं रहे। 98, लूकरगंज, इलाहाबाद से 20 मई, 1957 को श्री अमोघ नारायण झा (लालजी उच्च विद्यालय, रानीगंज, मेरीगंज, पूर्णिया, बिहार) को लिखे पत्र में रेणु ने अन्य बातों के अलावे इलाहाबाद की गर्मी की चर्चा की- ‘गर्मी बहुत है। काम करना मुश्किल हो रहा है। ‘परती : परिकथा’ के प्रकाशित होने के पहले कहीं नहीं जाना है।’ भीषण गर्मी के बावजूद रेणु की रचनात्मक व्यस्तता बरकरार रही- ‘इधर कथा-संग्रह के संपादन में लगा हूँ। फिर एक रिपोर्ताज़ संग्रह भी अगस्त तक प्रकाशक को दे देना चाहता हूँ।’ इसी पत्र में रेणु अमोघ नारायण झा को पठन-पाठन के संबंध में राय देते हैं- ‘संभव है आपने मेरे कहने के पहले ही पढ़ ली हो। ‘प्रतीक-1’, ‘प्रतीक-2’ की फाईल सरस्वती प्रेस से प्राप्त हो सकती है। नई कविता की जन्मभूमि या भावभूमि ‘प्रतीक’ को पृष्ठ मानते हैं लोग। अपने साथ कुछ किताबें मैं लेता आऊंगा। विभिन्न भाषाओं के क्लासिक को पढ़े बिना तृप्ति नहीं मिल सकती।’
असल में रेणु ‘प्रतीक’ पढ़ने की सलाह इसलिए भी देते हैं कि वे अपना जुड़ाव इसके संपादक (खासकर अज्ञेय) से, नई कविता वालों से महसूस करते हैं। अब कोई चाहे तो प्रश्न उठा सकता है, उसी समय इलाहाबाद से ‘नयी कविता’ पत्रिका भी निकल रही थी, इसे पढ़ने की सलाह रेणु ने अमोघ नारायण झा को क्यों नहीं दी? झा जी से उन्होंने कविताएँ मांगी और अपना संबंध नई धारा के विवादी कवियों-संपादकों से जोड़ते हुए उसे प्रकाशित करने का भरोसा दिलाया-‘आप अपनी कविताएँ भेजिए, शीघ्र। एक बात कह देना आवश्यक समझता हूँ: छायावाद और प्रगतिवाद के बाद ‘प्रतीकवाद-प्रयोगवाद अथवा नयी कविता-वाद’ की जो धारा चली है, मेरा संबंध उन्हीं विवादी कवियों से है। एकाध संपादकों से परिचय है, वे भी ऐसी ही कविता प्रकाशित करते हैं। ...मैं जून के अंत में या जुलाई के प्रथम सप्ताह में घर आऊंगा। तब तक ‘परती : परिकथा’ प्रकाशित हो जाएगी। ...‘मैला आँचल’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया है। एशियन राइटर्स कांफ्रेंस में हिन्दी के प्रतिनिधि की हैसियत से गत दिसंबर में सम्मिलित होने का सौभाग्य हुआ। देश-विदेश के लेखकों से परिचय प्राप्त किया ...रूस के वारान्निकोफ ने कहा- तीन बार ‘मैला आँचल’ पढ़ चुका हूँ। मेरीगंज देखने की लालसा है।’
1965 तक आते-आते इलाहाबाद को ले कर रेणु के मत में कई परिवर्तन लक्षित होने लगे। इसकी पहली भनक लोगों को तब मिली या लगी, जब रेणु ने सन् 65 में ‘विगतवार्षिकी’ लिखी, कहने को यह व्यंग्य है। रेणु लिखते हैं- ‘गत वर्ष भी कोई लेखक अपने को प्रकाशक में परिवर्तित नहीं कर सका। जैनेन्द्र, यशपाल, अश्क (अमृत-श्रीपत नहीं!) से शुरू हो कर यह परंपरा मार्कण्डेय तक आ कर रुक गई-सी लगती है। कहानी लिखते-लिखते, अचानक किसी तगड़ी कहानी-पत्रिका के संपादक हो जाने की आशा-आशंका सभी को लगी रही। मगर, कमलेश्वर-मार्कण्डेय और बक्षी के सिवा, इस दिशा में किसी का भाग्योदय नहीं हुआ। ...1954 से 1964 तक राजकमल प्रकाशन ने अपने ही द्वारा कई पालतू लेखकों को ‘परसना-ननग्राटा’ करार दिया है और किन लोगों को राजकमल-विभूषण की उपाधि मिली इसका लेखा-जोखा अब हो जाना चाहिए।’
इसी ‘विगतवार्षिकी’ में रेणु के तेवर देखिए- ‘इतने दिनों के बाद इधर कई वर्षों में लोगों ने यह जानना शुरू किया है कि 1954 से 1957-58 तक बिना मूठ की तलवार ले कर धूरिहीन धरती पर धुरी हीन रथ पर चढ़ कर मैदाने-जंग में धूल उड़ाने के क्या-क्या नतीजे निकले और निकल रहे हैं। इन धर्मधुरंधरों में धर्मवीर भारती ने धर्मयुग के लिए ही अवतार लिया था-यह पहले कौन जानता था। कमलेश्वर ‘नई कहानियाँ’ नई कहानियाँ का ठाकुर नामवर (और) ठाकुर मार्कण्डेय के नाम के लिए संपादन करें- सभी आश्वस्त हैं कि बड़े ठाकुर नामवर छोटे ठाकुर मार्कण्डेय को भीड़ में खोने नहीं देंगे! और भैरव प्रसाद गुप्त को कथाकार बनाए रखें- यह बात अब प्रकाश चंद्र गुप्त के भी बस में नहीं।’
जिस ‘प्रतीक’ को रेणु नई कविता के प्रतिनिधि पृष्ठ कहते नहीं अघाते थे, उसी ‘प्रतीक’ के ‘प्रधान पुरुष’ या कहें कि ‘प्रतीक पुरुष’ (अज्ञेय) को भी अब रेणु कोई रियायत देने के मूड में नहीं है। इसी ‘विगतवार्षिकी’ का अंत करते-करते रेणु क्या कह जाते हैं सो देखिए- ‘देखा? किस तरह चुपचाप, उस आदमी ने अपनी कविता की किताब पर- आँगन के पार द्वार पर अकादमी पुरस्कार पा लिया? देखा? किस तरह (घनाक्षरी और शार्दूल) तार-सप्तक (छप्तक-छप्तक) छापते-छापते आदमी छप्पर पर चढ़ जाता है (और अपना छप्पर फाड़ लेता है।)
सन् 1975 तक आते-आते रेणु इलाहाबाद को अपनी ईमानदारी के लिए आश्वस्त करने लगे। 5 मार्च 1975 को बम्बई से लोकभारती प्रकाशन के दिनेश ग्रोवर के नाम लिखते हैं- ‘भाग-दौड़ के कारण न लिख सका, पर आपका काम चल रहा है। 12 को पवनार में लोकनायक से मिलूँगा। पहले सोचा था, इलाहाबाद रूकूँ, पर अब संभव नहीं दिखता, किन्तु स्टेशन पर भेंट होनी चाहिए।’
फिर 11 फरवरी, 1975 को लोक भारती प्रकाशन के राघो बाबू को लिखते हैं-‘क्या आपको अब भी मुझ पर- मेरी ईमानदारी पर विश्वास (तिल भर भी!) है? ‘लोकनायक’ का विज्ञापन भाई दिनेश जी के मार्फत भेज रहा हूँ। प्रचार आरम्भ कर दें। जून तक (1975) पाण्डुलिपि अवश्य आपकी सेवा में ले कर उपस्थित हो जाऊंगा। कुछ एडवांस भेजें- बातें दिनेश जी से हो गई हैं। ...मुझे रुपये की आवश्यकता गाँव में 15/2/75 को है। अतः T.M.O. से भेजें तो बड़ा उपकार हो। आपका पिछला रुपया डूबा नहीं है। विश्वास करें।’
रेणु ने 1975 में बम्बई के एक लेखक सम्मेलन में ‘टूटते-बिखरते सपनों की दास्तान’ शीर्षक से आत्म-वक्तव्य दिया था, जिसे उनकी मृत्यु के बाद ‘रविवार’ (कलकत्ता) के प्रवेशांक, 28 अगस्त 1977 में आवरण-कथा के रूप में तत्कालीन सम्पादक एम. जे. अकबर ने प्रकाशित किया था, जो कि ‘आत्म-परिचय’ पुस्तक में संकलित है और भारत यायावर ने इसे ‘रेणु रचनावली-खंड-5’ में संगृहीत किया है। ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद रेणु इलाहाबाद आए। क्यों आए, किसने उन्हें कैसे देखा, इस ‘दास्तान’ को रेणु के शब्दों में ही सुनिए-देखिए-समझिए और विचारिए- ‘मैं पटना में था। उन दिनों इलाहाबाद हिन्दी साहित्य की मंडी समझी जाती थी। सभी दिग्गज वहीं विराजमान थे और खतों के जरिए जब मैं लेखा-जोखा देने लगता था, तो मेरा माथा चकराने लगता कि प्रगतिशील साहित्यकार भी मेरी तारीफ कर रहे हैं और अप्रगतिशील भी। मैं समझता था कि बात कहाँ है! मैं लेखन की मंडी में पहुँचा- इलाहाबाद! ‘जैसे कंता घर रहे, वैसे रहे विदेश।’ ...मैं गाँव छोड़ कर के पटना में था, तो पटना छोड़ कर इलाहाबाद चला गया। वह भी यह देखने के लिए कि सारा हिंदुस्तान अपना है या नहीं। ...इलाहाबाद में तब तक प्रगतिशील लेखक संघ खत्म हो चुका था और उसके लोग उसका नाम भी नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उसके बदले में एक नाम चालू किया गया था- ‘साहित्यकार संघ’। भारती जी वगैरह ‘परिमल’ के साथ थे। परिमल वालों ने मुझे बुलाया और वहाँ अंदर-ही-अंदर मेरी घिसाई होने लगी कि देखा जाए, इसके अंदर कितना-सा समाजवाद अभी बाकी है या वह ‘फैलो-ट्रैवलर’ क्यों होने जा रहा है।’ रेणु से सवाल-दर-सवाल पूछे गए। रेणु कहते हैं- ‘मैं गाँव का आदमी और मुझसे प्रोफेसर लोग जब सवाल करें तो मैं क्या जवाब देता? मैं अपने व्यवहार से ही जवाब देता था। मेरी किताब उनके सामने खुली पड़ी थी। मैं उसमें से उदाहरण दे दिया करता था।’ इसके पश्चात् प्रगतिशीलों ने देखना चाहा कि रेणु उनकी सभा में आते हैं या नहीं। बकौल रेणु ‘मैं वहाँ भी गया। फिर उन लोगों ने जँचइया शुरू की कि कितना सा सोशलिज्म इसमें रह गया है। इसने इस ओर कितनी दूर कदम बढ़ाया है। उनको भी कुछ हाथ नहीं लगा। क्योंकि मैं तो सही साहित्य की बात पकड़े हुए था। मतलब, यह कि यहाँ भी वही बात थी कि अपना अगर कोई मुखौटा हो, तो खोलो।’ रेणु के पास कोई मुखौटा था नहीं, सो क्या खोलते! कहते हैं- ‘मैं मुकम्मिल आदमी हूँ, हाथ में मेरी कलम है और मैं लिखता हूँ। अगर प्रेम-कहानियाँ लिखता होता, अगर मेरा पहला उपन्यास प्रेम-उपन्यास होता, तो बात और होती। किताब गवाह है, मैंने बुनियादी सवाल उठाए थे।’
23 नवम्बर, 1975 को ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के ‘सन्नाटा : साहित्य में या शहर में’ स्तम्भ के अंतर्गत ‘अब चीजें लिखी जाएंगी’ शीर्षक अपने वक्तव्य में रेणु कहते हैं- ‘सन् 1958-59 का जमाना बहुत उर्वर था, धूमधाम थी। साहित्यिक परिवेश में होड़ चल रही थी- कमलेश्वर का ‘राजा निरबंसिया’ सामने आ रहा है तो धर्मवीर भारती ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लिख रहे हैं, ‘अश्क’ भी पीछे नहीं है-मगर, अब इलाहाबाद भी जैसे खत्म हो गया। कारण, शायद यही है कि अब लोग प्रतिष्ठित हो गए हैं और अपने ही ‘मेनिफेस्टो’ से अपना ही जूता पोंछने लगे हैं। मुझे लतिका जी की बात ठीक लगती है- ‘जार कोनो काम नेईं से लेखक।’
क्या इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के लोग रेणु के इस मत से सहमत हैं? रेणु के इस मत के बहाने इलाहाबाद को बहस के घेरे में क्या लिया जा सकता है? रेणु की जन्मशती पर तो पतियाइए कि रेणु इलाहाबाद में रहे थे और इलाहाबाद के धुरंधरों की आँखों में आँखें डालकर बतियाए थे, लड़े-भिड़े थे, सवाल-जवाब किए थे।
संदर्भ
1. 1. जलवा, अगिनखोर, तीर्थोदक, तव शुभ नामे (कहानियाँ) - फणीश्वरनाथ रेणु, रेणु रचनावली, खंड-1, सं. भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2012
2. परती-परिकथा (उपन्यास) - रेणु रचनावली, खंड-2
3. एकलव्य के नोट्स (रिपोर्ताज़), समय की शिला पर: सिलाव का खाजा (रिपोर्ताज़), एक फिल्मी यात्रा (रिपोर्ताज़), बीमारों के देश में (राबिन शा पुष्प से बातचीत), पुरानी कहानी: नया पाठ (रिपोर्ताज़), रस के बस में-चार रात (रिपोर्ताज़), बात बोलेगी, मैं नहीं (साक्षात्कार), ‘धर्मक्षेत्रो कुरुक्षेत्रो’: (प्रजा) समाजवाद (रपट) - रेणु रचनावली - खंड 4
4. अश्क (संस्मरणात्मक-स्केच), भादुड़ी जी (स्केच), जब भी कुछ लिखता हूँ उनकी याद आती है (कामता प्रसाद सिंह ‘काम’) (संस्मरण), एक स्मृति: एक पत्र (संस्मरण), पांडुलेख (आत्म-संस्मरण), उपेन्द्र नाथ मंडल के नाम पत्र, भाई बिरजू बाबू के नाम पत्र, मधुकर गंगाधर के नाम पत्र, विष्णु किशोर बेचन के नाम पत्र, किसी ‘भाई जी’ के नाम पत्र, राजेन्द्र यादव के नाम पत्र, सम्पादक-माया के नाम पत्र, अमोघ नारायण झा के नाम पत्र, दिनेश जी (लोकभारती प्रकाशन) के नाम पत्र, राघो बाबू (लोकभारती प्रकाशन) के नाम पत्र, पतिआते हैं तो मानिए आंचलिकता भी एक विधा है (निबंध), ‘तीसरी कसम’ को जानबूझ कर फेल किया गया था (निबंध), जनजागरण में साहित्यकार की भूमिका (निबंध), सामाजिक कार्यकर्ताओं से दो शब्द (निबंध) उलझे हुए रिश्ते सुलझे हुए विचार (निबंध), राजकमल-प्रसंग, विगत वार्षिकी (व्यंग्य), टूटते-बिखरते सपनों की दास्तान (आत्म-संस्मरण) - रेणु रचनावली- खंड-5
5. परिमल: स्मृतियाँ और दस्तावेज, केशव चंद्र वर्मा, प्रदीपन प्रकाशन एकांश की ओर से लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-प्रथम 2003
6. पाँचक, निराला, निराला रचनावली-खंड-2, सं. नंद किशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-1998
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
कुमार वीरेन्द्र |
सम्पर्क:
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
प्रयागराज 211002
मोबाईल - 9955971358
सुन्दर लेख . एक शहर के बहाने किसी लेखक पर एक पूरी चर्चा का खूबसूरत नमूना . दिलचस्प ढंग से लिखा गया है . लेखक को बधाई .
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