निर्मला तोंदी की कहानी 'आई एम मी'

 

निर्मला तोंदी

जीवन की खूबसूरती यह होती है कि अनिश्चित होते हुए भी यह अन्ततः एक स्क्रिप्ट की तरह का लगता है। निर्मला तोंदी बातचीत की भाषा में अपनी कहानी गढ़ती और लिखती हैं। 'आई ऐम मी' निर्मला की ऐसी कहानी है जिससे भारतीय सन्दर्भ में स्त्रियों की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। एक स्त्री होने के बावजूद कहानी लिखते हुए वे कहीं भी लाउड नहीं होतीं बल्कि सहजता से वे गहरी बातें कर जाती हैं। यही निर्मला के कहानीकार की खूबसूरती है। निर्मला मूलतः एक कवि हैं। इसलिए उनकी कहानी में काव्यात्मकता का प्रभाव भी स्पष्ट दिखायी पड़ता है। यह काव्यात्मकता कहीं भी उनके कहानीकार को अवरोधित नहीं करता, बल्कि समृद्ध ही करता है। हाल ही में निर्मला तोंदी का कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है 'रिश्तों के शहर' आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं निर्मला तोंदी के इसी कहानी संग्रह की एक कहानी 'आई एम मी'

 


 

 

आई एम मी

 

निर्मला तोंदी

 

 

रविवार का दिन। सात-साढ़े सात बज गए होंगे। मैं आराम से बिस्तर पर पड़ी हूँ। पूरा घर आराम कर रहा है। और दिन सुबह के सात बजे घर में सबसे ज्यादा हल्ला-गुल्ला, चहल-पहल होती है। जिसे हंगामा भी कहा जा सकता है। सभी के पास समय की कमी। घड़ी दौड़ती दिखती है। जितनी भी जल्दी उठ जाओ हड़बड़ी करनी ही पड़ती है। बच्चों का, बच्चों के पापा का नाश्ता, टिफिन सब तैयार करना होता है। रविवार छुट्टी का दिन है। इसका पता सबसे ज्यादा सुबह-सुबह ही चलता है। घड़ी शांति से चल ही होती है और हम भी।

 

फोन की घंटी बजी। मैंने थोड़ा सा हिलने का कष्ट कर के फोन उठाया। बिना नाम वाला नंबर था। मैं बड़बड़ाई- ओह! पक्का रॉग नंबर होगा। या कमर्शियल। बेकार में आलस टूट गया। रविवार को फोन की भी छुट्टी कर देनी चाहिए, कम से कम सुबह-सुबह तो जरूर। फोन में हैलो के जवाब पर झटके से नींद आलस सब उड़ गए। अपने आप को चिकोटी काट कर ही विश्वास दिलाना पड़ा कि मैं जिसे सुन रही हूँ, सचमुच उस तरफ वही है। "शैलजा...! तुम सचमुच?" इससे ज्यादा मेरी आवाज निकली ही नहीं।

 

"अरे भई मैं ही हूँ सच... मुच...। उसका भूत नहीं हूँ। देख आज तेरा नम्बर मिल गया, तुझे ढूंढ़ लिया।"

"लेकिन खोई तो तुम थी।  हम तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाए थे। कहाँ हो? इतने दिन कहाँ थी?"

"भी सवालों के जवाब दूँगी रानी," उसके उस रानी कहने के लहजे ने आश्वस्त किया, यह वही है। आवाज वही थी अब टोन भी वही थी। एकदम शैलजा वाली।

 

"तू मुझे ठीक से बता तू कहाँ थी? कहाँ है? सब कुछ। तेरी मनोज से बात हुई? पिछले रविवार को मिला था, हमने तेरे बारे में कुछ पूछा नहीं, उसने कुछ कहा नहीं।"

"मैं फुर्सत से तुझसे बात करूँगी। यह मेरा नंबर नहीं है, मैं ही फोन करूंगी। मुझे मेरा नंबर किसी को नहीं देना है।

मुझे भी नहीं?

अभी तो नहीं।" यह कह कर उसने फोन काट दिया।

 

 

शैलजा मेरी दोस्त। दोस्ती पुरानी नहीं थी। स्कूल-कॉलेज वाली नहीं। हम एक आर्गेनाइजेश में मिले थे। हमारा ही बनाया हुआ, लेडीज ओर्गेनाइजेशन। कुल पैंतीस लेडीज हैं। सप्ताह में एक बार मिलना, किताबें पढ़ना, मेडिटेशन करना और ट्रिप्स पर जाना। मेरी और उसकी खास दोस्ती एक ट्रिप में ही हुई थी। हमारा ग्रुप घुमक्कड़ ग्रुप था, साल में दो चार बार निकल ही पड़ती थी। कभी दस कभी पंद्रह कभी बीस ही जा पाती। चालीस से साठ साल की उम्र वाली। घर परिवार पतिदेव की दुनिया से दूर अपनी अलग अपनी दुनिया में। डिसीप्लीन के साथ, पूरी आईटिनरी के साथ फिर भी अपनी मौज , अपनी मर्जी की मालिक। इन छुट्टियों के दिन खास अपने दिन होते थे। बचपन के से, किशोर उम्र के से। बंधन-मुक्त, उड़ते से।

 

तीन साल पहले की बात है। हम सिर्फ दस थीं। पहाड़ों की यात्रा। दो इनोबा गाड़ी में हमारी- सवारी चली। सभी से अच्छी दोस्ती थी। दो थोड़ी नई थी। उम्र में चालीस के आसपास। वे जल्दी ही हमसे घुल मिल गई। यात्राओं में वैसे भी नजदीकियां जल्दी ही बन जाती है। मेरी और शैलजा की दोस्ती खास थी। हम इसी चेष्टा में रहते कि हम एक ही गाड़ी में बैठे। रूम पार्टनर तो हम थे ही।

 

हमारी ट्रिप्स का एक फण्डा था। सबसे दोस्ती रखो। इसलिए रुम पार्टनर भी बदली होते रहते थे। एक यात्रा में तीन जगह बदली हुई, तीन होटल में ठहरे तो रुम पार्टनर भी तीन बार बदल जाते। चिट खोल कर पार्टनर बनते। हम यह कहने से कभी नहीं चूकते की , का.....श रियल जिंदगी में भी ऐसा ही होता। और ज़ोर-ज़ोर से खुल कर हँसते। हँसते उन बातों पर, जिनका वास्तव में जीवन से दूर-दूर का संबंध नहीं होता है।

  

गाड़ियों में भी इसी तरह। जो भी मिले सभी खुश। इस बार दो ही गाड़ी थी। नाम नदियों पर थे। गंगा यमुना। मैं चिट उठा कर उसे कहती, देख मैं गंगा नहाने जा रही हूँ, तू जमुना मत पहुँच जाना। और सचमुच वह वही उठा भी लेती। कभी-कभी चीटिंग भी कर लेते। वो भी ठीक है, इतना तो चलता है, चलता है ना? इस बार क्योंकि हम दस ही थे, यह तय हुआ कि रुम पार्टनर बदली नहीं होंगे। मैं और शैलजा साथ-साथ थे।

 

उस दिन यात्रा सुबह आठ बजे शुरु होने वाली थी। सात बजे हम स नाश्ते की टेबल पर मिले। गाड़ियों में सामान लदवाया जा रहा था। पहाड़ों पर ऊनी कपड़ों के चलते सामान कुछ ज्यादा ही हो जाता है और फिर हमारा ग्रुप, लेडीज ग्रुप, थोड़ा फैशन शो भी जरूरी होता है। सुबह के साढ़े सात बज गए थे, हल्का-हल्का अंधेरा। सारे बादल हमारे पास आ गए थे, हमारे साथ पोज दे कर फोटो खिंचवा रहे थे। वहीं पर हाँ वहीं पर हमने खरीदी थी सैल्फी के लिए सैल्फी स्टीक। हम दसों और ढेर सारे चमकीले बादल एक साथ कैमरे में।

शैलजा गाए जा रही थी-

"आज मैं ऊपर आसमां नीचे

आज मैं आगे जमाना है पीछे।"

फिर शुरु हुआ "आज मैं आगे, तुम सब पीछे।" मैंने कहा- "महारानी जी,  हम पीछे हो ना हो, तुम्हारी घड़ी जरूर पीछे छूट गई थी, बाथरूम में पड़ी टिक-टिक कर रही थी , देख मैं ले आयी हूँ।"

 


 

ऐसे ही एक दिन सब कुछ पीछे छूटता जाएगा, रानी! हम क्या-क्या पकड़ेंगे?’’  उसके इस नाटकीय और दार्शनिक अंदाज पर, गुरुदेव की जय हो कहते हुए, सब जोर से हंस पड़े। लेकिन इसके बाद वो पूरे समय चुप-चुप ही रही। सामने ड्राईवर के बगल वाली सीट पर, हमसे अलग-थलग सी, खिड़की के बाहर देखती रही। खिड़की के बाहर हम भी देख रहे थे,  नजरें हट ही नहीं रही थी, लेकिन हमारी बातें चालू थीं। वो चुप थीं। बस एक बा बोली थी - "पहाड़ों पर बहते पानी ने अपनी पगडंडियां बनाई है। सुन ना! जब बरफ पिघलने लगेगी ये सभी सूखी पगडंडियां बहने लगेगी। चारों तरफ झर-झर पानी बहेगा। नीचे बहती पतली सी नदी भर जाएगी। तब उसका बहाव उसका संगीत...कितना सुंदर कितना मधुर होगा। कल्पना कर उस नदी में हम बह रहें हों।

‘’पत्थरीली पिघलती नदी बर्फ का पानी हमारा स्विमिंग पूल, वाह-वाह ऐसी कल्पना सिर्फ तू ही कर सकती है।

हम सब कह पड़े। उसका कोई जवाब नहीं मिला, वो खिड़की के बाहर थी।

 

उस दिन का सफर लंबा था। सात-आठ घंटे तो कम से कम लगने थे। एक मोनोस्टरी में रुकते हुए गले डेस्टीनेशन दूसरे पहाड़ पर पहुँचना था। जहाँ एक सुंदर सी लेक थी। वो हमेशा कहती- मुझे नदी बहुत अच्छी लगती है। पत्थरों पर बहती नदी। अपना रास्ता खुद बनाती है, अपने संगीत अपने बहाव के साथ

 

एक बात बताऊँ जब वो खो गई और मैं लिखने बैठी हूँ तभी पता चल रहा है कि वो मेरे भीतर इतनी सारी है। ब तब दिमाग की, मन की खिड़की से झांकने लगती है। उसने उपन्यास लिखा है, एक लेखिका बन गई है। लेकिन मैं भी अगर उसके बारे में लिखती रही तो लेखिका तो नहीं, हाँ न जाने कितने पन्ने भर दूँगी, एक ग्रंथ। एक दिन सुबह हम तैयार हो रहे थे, मैं अपने ऊपर परफ्यूम छिड़क रही थी, आदत है मेरी। उसने कहा- "उनके पास नकली ले कर जाओगी?"

‘’किनके पास?’’

अरे! असली सुगंध के पास। हम बाग में जा रहे हैं ना। उन्हें तुम्हारी देह की सुगन्ध ज्यादा अच्छी लगेगी। ये नकली वाली ले कर अपने पतिदेव के पास जाना। आहा! इतनी खालिस और दर्शन से ओत-प्रोत बात तेरे ही दिमाग में उपज सकती है, कहते हुए मैंने भी परफ्यूम की बोतल उस पर उढ़ेल दी । दोस्तों के साथ यही तो होता है। होता है ना ...

 

अब जब उसे ढूंढ़ना बंद हो गया है। पतिदेव ने फाइल आराम से क्लोज़ कर दी है, मैं हूँ कि उसकी बातों के मतलब ढूंढ़ती रहती हूँ।

जोरों की ठंड पड़ रही थी। बॉन फायर की अच्छी व्यवस्था थी। पंद्रह बीस टेंट और तेज हवा। बॉन फायर के चारों तरफ हम नाच रहे थे। फिर बैठ गए थे सब चुपचाप। जैसे कि अपने आप को तपा रहे हों। अचानक सुधा ने कहा- "हम इन "मेन" लोगों से शादी क्यों करते हैं? ये हमें कभी समझ नहीं सकते। हम लोग एक दूसरे को कितनी अच्छी तरह समझ लेते हैं।"

 

मैं अचानक कह पड़ी- "हाय! तीन-तीन बच्चे पैदा कर के अब लैसबियन बनने चली...।"

 

‘’अररे ! इसमे लेसबियन की बात कहाँ से आ गयी? तेरी सूई एक ही जगह क्यों अटकी रहती है? तेरी रूम पार्टनर कौन है? मधु? अररे, मधु इससे बच कर रहना। हम सब जोर से हो-हो करके हंस पड़े। यही तो असल जिंदगी के कुछ दिन होते हैं। ऊछलो, कूदो, नाचो, गाओ, खुल कर जोक मारो और फिर खुल कर हंसो। हमारी बातें भी ऐसे ही होती है। लेकिन यह भी सच है, कहाँ- कहाँ का दबा-कुचला कहाँ -कहाँ निकल जाता है फिर मजाक में उड़ा भी दिया जाता है। मजाक-मजाक में बात गंभीर मसलों तक और गंभीर बातें हल्के –फुल्के मज़ाक में पहुंचा दी जाती है जान-बूझ कर।

पहले दिन रात को सोते समय उसने कहा था कि कल मैं पहले नहाऊँगी। "क्यों, क्या कोई खास बात है?"

"हमें सुबह आठ बजे होटल छोड़ देनी है। ये सामने जो झूला है, मैं उस पर झूल कर ही जाऊँगी।"

"जो आज्ञा मेरे आका।"

उस सुबह हम दोनों जल्दी तैयार हो गए। बहुत देर झूले पर बैठे रहे और बहुत सारी फोटो खींची। वही हम दोनों की एक साथ की झूले पर आखिरी फोटो है। झूले पर उसने रात की लिखी कुछ पंक्तियाँ सुनाई –

 

मैं सुनती हूँ

नदी और समुद्र की बातें

जो कभी खत्म ही नहीं होती

हाँ ! मछलियाँ थोड़ा कम बोलती हैं

तो चिड़ियाँ उस कमी को पूरा कर देती है

पेड़ की चुप्पी बहुत बातें करती है

फूलों की सुनना थोड़ा मुश्किल होता है

वे कानाफूसी करते हैं

मुझे लगता है पृथ्वी के कान लगाकर सुनूगी तो ...

 

‘’अर्रे यार तू तो सच- मुच की कवि बन गयी, भाई क्या बात है, वाह-वाह !’’—मैं बीच में ही बोल पड़ी।

तुझे आज पता चला। और तू जो आडी-तिरछी लकीरे खींचती रहती है, मालूम है मुझे, तू घर जा कर कितने कैनवास रँगेगी।” मुझे रंग बहुत अच्छे लगते है, बस कुछ भी रंगना नहीं आता।

‘’तुझे रंगना नहीं आता? मेरी रंगीली! ‘’

‘’तुझे कुछ मालूम नहीं‘’ कहते हुए वह उठ कर चली गयी।

 

इस ट्रिप में सबने नोटिस किया कि हमेशा पेस्टल शेड्स पहनने वाली इस बार चटकीले रंग पहन रही थी। यहां तक कि एक दिन पैंट भी पिंक पहना था। सीमा ने कमेन्ट किया- "हाय एकदम टीन एजर लग रही हो।"

 

"मन गुलाबी होना ही चाहिए।" उसने एक मस्त अदा के साथ जवाब दिया था। “मन के रंगों को कौन पढ़ सकता है जानी ...’’ ये सुधा की आवाज़ थी, उसकी स्टाइल में।

 

वो सामने की सीट पर बैठी थी और हम तीन पीछे। सबसे पहले हनुमान चालीसा, फिर थोड़ा दस-बीस मिनट का मौन और उसके बाद बातों का न खत्म होने वाला सिलसिला। गाना-बजाना, चुटकुले सब कुछ। सोचती हूँ, ये ड्राइवर हमारी बातें सुन कर क्या सोचते होंगे? खैर जब बातें करते हैं तब यह सब कम ही ध्यान में आता है। गाड़ी में दो घंटे बाद मुंह चलने का कार्यक्रम शुरु हुआ। बोलने के साथ खाने वाला। उसे जो भी खाने को देते वो चुपचाप पीछे हाथ करके ले ले रही थी। फिर ढाबे में गरमागरम लंच लिया गया। वहाँ से मोनेस्टरी करीब डेढ़ दो घंटे दूर थी। हमें अब झपकियाँ आ रही थी।

 

मोनेस्टरी के आने पर भी आलस चढ़ा हुआ था। खैर गाड़ी से उतरने पर आलस भाग रहा था। थोड़ी-थोड़ी धूप, थोड़ी-थोड़ी हवा और थोड़ी-थोड़ी ठंड, मौसम में एक जादू एक नशा था। एकदम शांत जगह। चारों तरफ पहाड़ के सिरों पर बरफ की सफेदी और थोड़ी-सी हरियाली। हवा में लहराती रंग-बिरंगी कपड़ों की कतरने और मोनोस्टरी की पेंटिग्स नीचे से ही दिख रही थी। काफी सीढ़ियां थीं। हम फोटो खींचते उस वातावरण को अंदर एकदम भीतर समेटते चुपचाप चढ़ रहे थे। सांस फूल रही थी। वहाँ की शांति भंग करने का मन ही नहीं हो रहा था। सभी अपने आप के साथ थे। "ऊँ मणी पद्मोहन" का जप अंदर हो ही रहा था। मोनेस्टरी में चढ़ना, मेडिटेशन कुछ मिनट का, कैफिटेरिया में रुकना, फिर उतरना इन सबमें करीब दो घंटे लग ही गए। हमें मोनेस्टरी हिमालय की चोटी पर लग रही थी। हम उसपर चढ़ आए थे। विजेता वाली खुशी अंदर हिलोर रही थी।

 


 

हमारी गाइड, ट्रेवेल गाइड नहीं, हम सब की लीडर ने आवाज लगाई- "गर्ल्स चलो, अब और देर नहीं।"

 

वो हमें गर्ल्स ही कहती थी। हमें भी गर्ल्स सुनना अच्छा लगता था। हम गर्ल्स बन भी जाती थी। स्कूल-कॉलेज से जैसे टूर पर जाते हैं, ठीक वैसी ही। सभी बंधनों से मुक्त। उम्र का बंधन भी वहीं होता है जहाँ बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि इस उम्र में यह सब शोभा नहीं देता। यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। तुम अब सास बनने वाली हो... तीन बच्चों की माँ हो, वगैरह-वगैरह

 

हम सब गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि देखा, शैलजा नहीं आई। समय यही तय हुआ था। टायलेट गई होगी। हमने कुछ देर वहीं बैठ कर इंतजार किया। दोनों ड्राइवर घूम कर देख आए। वे हमारा नाम नहीं जानते लेकिन हाँ "वे मेमसाहब" "वोई वाली" ऐसा कह कर ही सबके बारे में एकदम सही-सही बता देते थे। अब हमारी चर्चा शुरु हुई। किसने उसको कब और कहाँ देखा था। किसके साथ थी। सीमा ने कहा - "गाड़ी से उतरते ही मैं टायलेट गई थी। बाईं तरफ यहाँ से थोड़ा नीचे उतर कर है ना। वो मेरे पहले गई थी, जब मैं निकली वो जा चुकी थी।"

 

"थक कर बैठने वाली जीव वो है नहीं कि पीछे रह जाए।"

"फिर भी तबीयत खराब हो ही सकती है।"

"अरे यार! बैठ गई होगी किसी से बात करने।"

"ज्ञान लेने और ज्ञान देने।"

इस तरह बातों के साथ हम ऊपर मोनेस्टरी तक पहुँच गए। वहाँ कोई नहीं था। बीस-पचीस सीढ़ी नीचे मोनेस्टरी का कैफेटेरिया था। जाते समय हम वहाँ रुके थे। वहां से पूरा इलाका, सामने पहाड़, नीचे हरियाली, दिखती है। घुमावदार सड़क टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी सब खाली थी। हमने वहाँ फोटो भी खींची थी। अब हम फोन की फोटो दिखा कर अपनी सखी को ढूँढ़ रहे थे। कैफेटेरिया में फोटो दिखाई, सबने गर्दन हिला दी। ये पहाड़ के लोग कितने अपने आप में कम्पोज होते है। कोई सवाल ही नहीं करते। बस हाँ या ना।

 

हमने मोनेस्टरी का चारों तरफ चक्कर काटा। कोई फायदा नहीं। वहाँ एक दिक्कत थी। फोन का टावर नहीं पकड़ रहा था। हम नीचे उतर आए यह आशा लिए कि अगर ऊपर नहीं है तो गाड़ी के पास होगी ही। दोनों गाड़ी खड़ी थी, चुपचाप अकेली। सब थे वो नहीं थी। अब क्या किया जाए। हमारे ट्रेवल गाइड ने कहा- "आप सब यहीं इंतजार करें। मैं देख कर आता हूँ।"

 

सड़क से नीचे बस्ती दिख रही थी। कुछ छत्ते, कुछ चिमनियाँ। वह भी आधे घंटे बाद खाली हाथ लौट आया। उसने कहा- "गाँव के लोग काम से नहीं लौटे, घर खाली पड़े हैं। दो-चार घरों में बड़ी उम्र वाले मिले। उन्होंने कहा- हम घर के बाहर नहीं निकले। किसी ने किसी को नहीं देखा।"

 

अगर वो बस्ती की तरफ जाती, जो कि बिना बताए अकेले जाना सम्भव नहीं है, फिर भी अगर गई होती तो उन बूजुर्गों से जरूर मिलती। जब कुछ खो जाता है तो हम उसे ऐसी-ऐसी जगह भी ढूंढ़ने लगते हैं जहां मिलने का चांस नहीं होता। फिर भी सब ढूंढते हैं। हम भी चुपचाप तो वहाँ बैठे नहीं रह सकते थे। मोनेस्टरी के ऊपर भी एकदम पहाड़ की चोटी पर घर जैसे कुछ दिख रहे थे। वे मोनेस्टरी वालों के घर थे। हम वहाँ भी पहुंच गए। वे सब एकदम खाली थे। लगता था वहाँ बहुत दिनों से कोई नहीं गया। आधे कच्ची पगडंडी से बस्ती की तरफ। जो पगडंडी इतनी आकर्षक लग रही थी अपनी तरफ बुला रही थी, वो ही एकदम नीरस। शैलजा के साथ वहाँ का आकर्षण वहाँ का सौंदर्य सब खो गया था। हमारी नजरें कुछ भी नहीं देख रही थी। सिर्फ ऊसे देख रही थी जो वहाँ नहीं थी। अब निस्तब्धता डराने लगी थी। हमें कुछ भी नहीं सूझ रहा था। कैफेटेरिया वाला लड़का कैफेटेरिया बंद करके जा रहा था, बोला- "मेमसाहब, अब इस समय के बाद यहाँ कोई नहीं आता।" मन ने कहा - "उसे तो आना है ना, हमारे पास। लेकिन कहाँ से?"

 

हम गाड़ी के पास खड़े अब उनका इंतज़ार कर रहे थे जो पगडंडियों से नीचे की तरफ ढूँढने निकले थे। सारे बादल तराई में जा बैठे थे। नीचे सफ़ेद बादलों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, पगडंडियाँ, घर और जो ढूँढने गए थे, वे भी बादलों में खो गए थे। इतने सारे बादल कोई गड़गड़ाहट नहीं। एकदम शांत। वहाँ का बदला रंग घबडाहट को बड़ा रहा था। नजदीक आने पर ही सब दिखाई दिये, वे भी लौट आए, खाली हाथ। चारों तरफ की टुकड़ियां फिर गाड़ी के पास मिली। आशा लिए कि अब जरूर मिल गई होगी। अंधेरा होने वाला था। इसके पहले ढूंढ़ लेना बहुत जरूरी था। हम तीन बार ऊपर नीचे चक्कर काट आए थे। इतना ऊपर नीचे कैसे घूम पाये हम? मन उद्वेलित था। अपना होश खो बैठे थे। शरीर पर ध्यान गया ही नहीं। हमारे पास एक तिनके का भी सहारा दिखाई नहीं दे रह था, जिसको थामे हम कुछ कर सके।  

 

शाम हो रही थी। वहां शाम बहुत धीरे-धीरे आराम से चल कर आती है। यह सब बात भी वही नोटिस करती और हमें बताती। एक दिन परछाइयाँ दिखा रही थी। देखो, परछाइयाँ पहाड़ों तक के रंग बदल देती है। एक पहाड़ की परछाई दूसरे पर और पहाड़ एकदम बदले-बदले, देख कर लगता ही नहीं कि ये वही पहाड़ है, जिन्हें हमने सुबह देखा था। हम भी कितनी परछाइयों से घिरे होते हैं। अपनी परछाई उनमें घचपच हो कर खो जाती है। आज वो खो गई थी, हम ढूंढ़ रहे थे, पागलों की तरह।

 

अंधेरा घिर रहा था। एक टॉर्च थी। फोन में भी पाँच-दस परसेंट का दम बचा था। सामने घुप्प अंधेरा दिख रहा था। आगे क्या किया जाए। अब वहाँ एक भी टूरिस्ट नहीं था। एक-दो गाड़ियाँ थी वो चली गई थी। हमारी दो गाड़ियाँ और हम नौ। गाइड का कहना था यहाँ रुक कर अब कुछ नहीं किया जा सकता। हमें होटल चलना चाहिए। जो करीबन एक डेढ़ घंटे दूर थी। वहाँ फोन का टावर भी होगा, कोई कार्रवाई भी हो सकेगी। लेकिन हम उसे इस सुनसान वियावान में अकेले छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। एक भयानक डरावना स्वप्न लगता है कि हममें से यहाँ कोई नहीं है और वो अकेली हमें ढूंढ़ रही है।

 

एक गाड़ी गई छह लोग और गाइड को ले कर। एक गाड़ी में हम दुबके बैठे थे। सामने की सीट खाली थी, उसके लिए जो हमें मिल नहीं रही थी। फिर भी कभी भी मिल सकती थी। वैसे एक सच और भी है। आगे अकेले बैठने की हमारे में हिम्मत नहीं बची थी। एक दूसरे से सटे, एक दूसरे को पकड़े, हम एक-दूसरे को थामे बैठे थे चुपचाप। न नीचे धरती थी, न ऊपर आसमान। सिर्फ घुप्प अंधेरा था और थी हमारी साँसों की आवाज़। जो कभी ज़ोर–ज़ोर से तो कभी रुक–रुक कर चल रही थी।

 

अब हमारे पास एक चमत्कार की आशा ही बची थी। दिमाग खाली और सूना था। कोई विचार नहीं आ रहे थे, कोई आइडिया नहीं लगा पा रहे थे। सुन्न दिमाग में सिर्फ एक बिजली सी कौंधती, क्या हुआ होगा? और अब क्या होगा। उत्तर ढूंढ़ने की हिम्मत नहीं बची थी। सवाल जैसे आते वैसे ही लौट जाते। क्योंकि उत्तर इतने भयानक और डरावने हो सकते थे कि हमारे लिए उनसे आँख बंद करना ही एक सहज तरीका बचा था। हम डर भी नहीं रहे थे क्योंकि डर के लिए भी अंदर कुछ हलचल होनी चाहिए। चेतनता चाहिए, संभावनाओं का डर। हम तो सुन्न थे, दिमाग एकदम खाली। शायद पागलों को करेंट का झटका लगाने के बाद दिमाग ऐसे ही सुन्न होता है। आगे की सीट खाली, हम पीछे दुबके हुए एक दूसरे से सटे बैठे रात का अंधेरा ताक रहे थे। ऐसे में रात लंबी नहीं हुई थी, वो भी दम साधे खड़ी थी हमारे सामने, हमारी तरह। एक पत्ते के खड़कने की आवाज डरा भी रही थी, आशा भी जगा रही थी कि वो आई। बंद जीप में हमारी सांसों की आवाज़ फैली थी। डर की आवाज़। टार्च बंद, गाड़ी की लाइट बंद, इतने सारे अंधेरे में आसमान के पास बस मोनेस्ट्री वाली एक रोशनी टिमटिमा रही थी। ठंड की तो क्या बात। खिड़की दरवाजे सब बंद थे। जीने के लिए जितनी ओक्सीजन चाहिए उतना खिड़की का शीशा खुला था। वो काली रात कैसे गुजरी, कुछ कह नहीं सकती, झपकी शायद किसी को भी नहीं आई। आँखें खुली थी, ऊल्लू की तरह। कुछ देख नहीं रही थी। उस अंधेरे को क्या देखती?

 

सुबह होते-होते जीप में वे सब भी हमारी तर ही लटके हुए आ गए, आशा लिए हुए कि रात को जरूर ही मिल गई होगी। फिर भी साथ में दो लोग भी थे, वायरलेस लिए हुए। ढूंढ़ने अब वे ही गए। हम भी बाहर पत्थर पर आ कर बैठ गए। थोड़ी मीठी धूप कुछ ऊर्जा दे रही थी। कैफे का लड़का कॉफी ले आया। हम जब कॉफी पी रहे थे तब हमें महसूस हुकि हमारा गला कितना सूखा था, हमें इसकी कितनी जरूरत थी। वे फिर एक बार ढूंढ़ कर लौट आए। कोई सुराग नहीं मिला। पुलिस स्टेशन में खबर की गई। सुबह के उजाले ने हमारे दिमाग को थोड़ा सा जागाया। हमारे सामने दो बातें थीं। एक शाम को हमें फ्लाइट पकड़नी थी। दूसरा उसके घर पर खबर कर देनी थी। 

 


 

हम होटल आ गए। पेट में भी कुछ डाला गया। उसके पति को खबर करने के लिए पहले अपने आप को तैयार किया गया। पति देव को बात समझ ही नहीं आ रही थी कि वो खो गई। कल से ढूंढ़ रहे हैं और मिली नहीं। उन्हें बहुत ही शांति से सब बातें पूरे विस्तार से बताई गई। उनकी बीवी की बात थी, वे कैसे शांति से सुनते? उनके गले कुछ भी उतर ही नहीं रहा था। उनकी प्रतिक्रिया बहुत ही तेज थी। हमने उनसे कहा कि हमारी आज की वापसी की टिकट है। आप समझ सकते हैं, हमें तो लौटना ही होगा। खोजबीन जारी है लेकिन वो यह मानने को तैयार ही नहीं थे। बार-बार एक ही बात कि आप सब उसके बिना वापस कैसे लौट सकती हैं, उसको ढूँढ़ कर लाना आप सबकी जिम्मेदारी है

 

हाँ, हम मानते हैं कि हमारी जिम्मेदारी बनती हैं लेकिन आप समझ सकते हैं, दस-दस लोगों के टिकट कैंसिल करना और नयी बनवाना सहज नहीं है। यहाँ होटल वाले के पास कमरे भी खाली नहीं है।

"आप आ जाए"

"मैं तो आऊंगा ही। तुरंत आ रहा हूँ । लेकिन जब तक मैं नहीं पहुँचता, आप सब वहीं रहिए।"

 

हमने फोन काट कर तय किया कि दो लोग रह जाते हैं और बाकी सब लौट जाते हैं। मैं और हमारी गाइड वहां रुके। दो फ्लाइट बदली कर के, छह घंटे गाड़ी का सफर करके वो पहुँचे। हमारे पास बताने को कुछ भी नहीं था। हम खाली हाथ। हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। उनके पीछे-पीछे राजधानी से मिलेट्री के छह लोगों की टीम आई। लेकिन कोई सुराग मिला नहीं।

 

उनका गुस्सा और झुंझलाहट बढ़ती जा रहा थी। उनके गुस्से के कारण उनसे जो सहानुभूति होनी चाहिए थी, वो खतम हो रही थी बल्कि उन पर गुस्सा ही आ रहा था। उनके शब्द बड़े ही ओछे लग रहे थे। पहले ही दिन उन्होंने कह दिया - आत्महत्या कर ली होगी? पहाड़ों से प्रेम था, उन्हीं की गोद में समा गयी? इतने भरपूर जीवन को जीने वाली के लिए ऐसी बात हमारे मन में आ भी नहीं सकती थी। कोई भी पति ऐसी बात कैसे बोल सकता है। मैं अंदर ही अंदर बोली – उसके साथ ऐसी क्या नाइंसाफी होती थी कि आत्महत्या करनी पड़े।

 

दूसरे दिन सुबह उठते ही वो फिर अपने रंग में था – अब यहाँ उसे कौन मिल गया? ड्राईवर? होटल में, बाज़ार में?, अरे! हजारों मर्द है उसके लिए। यहाँ भी मिल गया? वहाँ घर पर भी दरवान, लिफ्ट मैन, सब्जी वाला, दूध वाला, धोबी, जमादार सभी से उसका याराना था। मुझे पहले ही समझ लेना था, एक दिन किसी गंजी वाले के साथ जरूर भागेगी। अपनी जात दिखा गयी साली रंडी। देख लो वही हुआ ना?

 

मैं चाह रही थी उसकी बकबक कानों में न जाए। उसका बोलना जारी था। हम पर सीधी उंगली उठा रहा था। इतनी सारी सखा सहेलियों के बीच से कैसे भाग सकती है? किसी न किसी की मिलीभगत जरूर होगी। तुम में से किसी को जरूर खबर होगी। खबर तो लेनी ही होगी।’’ उसकी सांस ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी, मुझे अजगर की  फूंफकार सुन रही थी।

 

“मेरे साथ धोखा नहीं हुआ है, मैं ही अंधा हो गया था। मेरी ही आँखें फूटी थी, जो उसके लक्षण दिखे नहीं। मुझे पहले ही चेत जाना था। मैंने छूट देने की गलती की। अब मनोज बाबू भोगो। साली को घर में बंद रखना था।” वह अपना सिर हमारे सामने ही पीटने लगा था। एक बात तो जरूर थी, अनहोनी घटी थी।

 

“वो क्रेज़ी थी, क्रेज़ी काम, क्रेज़ी बात, क्रेज़ी प्लानिंग, भगवान जाने अब क्या किया होगा उनकी बड़बड़ चालू थी, उसकी बकबक से मुझे चक्कर आने लगता। चुपचाप सुनते रहो। वहाँ कुछ बोलने का तो सवाल ही नहीं था।

 

उनका बड़बड़ाना बढ़ता जा रहा था। मानती हूँ, तकलीफ में आदमी का बैलेंस गड़बड़ा जाता है। फिर भी यह कहना - "अगर चील कौवे खा गए तो बची-खुची हड्डी तो मिलती, इस तरह ढूंढ़ना तो नहीं पड़ता, पागलों की तरह।"

 

अपनी पत्नी के लिए कोई ऐसे कैसे बोल सकता है। उसका यह रूप पहली बार देखने को मिला। कितना शरीफ सदाचारी आदमी दिखता था। हम सभी को अच्छा लगता था मीठी जुबान वाला इंसान। बात करता तो फूल झड़ते, आज वही बम के गोले बरसा रहा था। यह था उसका असली रूप। हे भगवान! यही देखती सुनती आई थी मेरी सहेली। एक दिन उनके साथ किसी तरह रह कर हम लौट आई।

 

अभी भी आज तक हमारे सामने सिर्फ सवाल थे कि क्या हुआ होगा? कहाँ गई? ऐसे कैसे हो सकता है? वगैरह- वगैरह। जिन सवालों के जवाब नहीं होते, उन्हें अटकलों में ढूंढ़ा जाता है। बहुत सारे "शायद" होते हैं। ढेरों अफवाहें। हमारे पास तो एक कतरा कल्पना भी नहीं थी। और आज अचानक उसका फोन...।

 

हमने तो वहाँ पर एक-एक चिड़िया, एक-एक बूंद से पूछा था, कहाँ है वो? आपको अतिश्योक्ति लग रही होगी। चिड़िया से पूछा, पहाड़ से पूछा, हवा से पूछा, पत्ते-पत्ते से पूछा। सोच रहे होंगे पढ़ी-सुनी बातें हैं, जैसे राम सीता को वन में ढूंढ़ते फिरते हैं वैसी बातें कर रही है। जी हाँ! मैंने सचमुच पूछा था, क्योंकि वो वैसी ही थी। अगर कोई पक्षी दूर कहीं चहका हो उसे सुन जाता और हमें छोड़ कर उधर इस तरह पलट जाती जैसे वहाँ  उसका प्रेमी हो और खास आवाज से उसे बुला रहा हो। जो हमें सुनाई भी नहीं देती थी, वो उसके पीछे हमसे दूर चली जाती थी। शायद अंदर की कोई धुन बाहर की किसी धुन से मिल जाती थी।

 

एंजिल जेडकिल छोटी से छोटी बड़ी से बड़ी चीजों को ढूंढ़ने में मेरी सहायता करता है, वो भी उस दिन कुछ नहीं कर पा रहा था। अब समझी उस दिन उसके आर्कअंजिल माइकल, शैमोल्, राफेल ने हमेशा की तरह उसे बचाया होगाजरूर  माइकेल ने अपने बड़े-बड़े पंखों में छुपा लिया होगा। धरती पर हमसब के लिए फरिश्ते हैं, हमें दिखाई नहीं देते हैं तो क्या हुआ, वे हमारी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं, वे हमारी रक्षा करते हैं, अगर हम उनसे कन्नेक्टेड हों तो वे हर घड़ी हर पल हमारे साथ होते हैं। उनकी मौजूदगी की निशानियाँ मिलती रहती हैं। हम उन्हें महसूस कर सकते हैं। वे शैलजा के साथ उसके आगे पीछे अगल-बगल चलते थे।  वो वैसी ही थी। उसके इंट्यूशंस बहुत सच्चे और पक्के होते थे।

 

उस दिन भी नीलम ने कहा था न - "अरे वो तो बादलों में खो जाया करती थी।"

 "वो बादलों में खो जाती थी, हमसे अलग चुपचाप। लेकिन हमें दिखती रहती थी। आज घने बादलों के पहाड़ों में खो गई है। उसे उनसे प्रेम था, लगता है उन्हें भी उससे ज्यादा ही प्रेम हो गया होगा और उसे छुपा लिया है।" प्रकृति से उसका अलग तरह का तालमेल था। चलते-चलते बोल पड़ती- "हम इनके साथ कितने हल्के होने लगते हैं। जैसे पंख लग गए हों।" मैंने कहा था- "जैसे पंख लग गए हो नहीं, तेरे तो निकल ही आए हैं। उड़ती रहती हैं। और उसकी उड़ान इतनी ऊंची इतनी दूर होगी ऐसा मैंने कब सोचा था।"

बादल को देखते ही उसकी आँखों में बारिश चमकने लगती। धरती की तरह पूरी की पूरी हरी-हरी हो जाती। उस दिन भी गहरे बादल फैले थे। उसने कहा था - "आज जोरों की बरसात होगी।"

"हमारे पास छाता है।"

"आज छाते से बड़ी वाली बरसात होगी।"

"फिर भी यहाँ पहाड़ों पर भीगना नहीं है।"

"कोई बात नहीं डियरी! मन तो भीगा-भीगा है और बारिश में और भी भीग जाएगा।"

उसे बारिश, पहाड़ और पेड़ तीनों से बहुत प्रेम था। प्रेम हमसे भी बहुत था। हम अपने दोनों हाथ फैला कर दिखाते इसका हार्ट चक्र इतना बड़ा है। सचमुच कोई भी उससे गले मिलता, उसकी इस एनर्जी का एहसास होता। पहाड़ जैसा कोम हार्ट चक्र

 

मुझे याद आ रही है पिछले साल की बात। हम सब पूना गए थे। दिन में खाना खा कर आराम करने जा ही रहे थे कि जोरों की बारिश शुरू हो गई। हम सब भीगे। भीगते रहे। दो घंटे नाचते रहे। कोई भी बारिश का, सावन का ऐसा गाना नहीं था जो हमने नहीं गाया। सुर में, बेसुर में, गाते जाना था। हम सभी डीजे थे। बारिश थक कर बंद हो गई तब हम रुके, बिना थके। हमारे छोटे-छोटे काटेज थे। बीच में लॉन था। लॉन में नाच कर गा कर कमरे में पहुँचे। दो-तीन मूर्तियाँ ऐसे भी थी, जिन्हें बारिश में नहीं भीगना था। अपने कॉटेज की बालकनी से हमारी फोटो खींच रही थी। उन्हें भीगने से डर लगता है। उन्हें सर्दी लगने का डर होता है। या राम जाने उनकी मिट्टी गल जाती है। मैं कॉटेज में चली गई। शैलजा बाहर ही थी। मैं फ्रैश हो कर कपड़े बदल कर आई, मैडम तभी भी हमारे कमरे में नहीं आई थी। बाहर देखा, झूले पर बैठी आसमान देख रही है। मैंने आवाज लगाई- "क्या बादल ढूंढ़ रही है या जन्तर मन्तर से उन्हें फिर बुला रही है?"

उसने कहा- "आज अब और नहीं, बहुत मस्ती कर लिए।"

"तो अंदर आ, क्या तारे गिन कर ही आएगी?"

"हाँ अब ठीक समझी!" तारे गिन रही हूँ।"

"शाम के पाँच बजे तारे?"

"बहुत आसान है सूरज देवता को थोड़ा सा परे सरका दो और तारे से भरा आकाश तुम्हारा।" उसने झूले पर जोर देते हुए कहा - "आ ना बहुत मजा आ रहा है।"

"नहीं बाबा मुझे नहीं बैठना, तेरे गीले झूले पर। और अब गीले कपड़े में मत रह, आ जा।"

"कपड़े तो सूख गए, मन ही भीगा-भीगा है।"

"कहाँ कपड़े सूख गए। रुक तेरी एक फोटो लेती हूँ। भीगा बदन, चिपके कपड़े। यश चोपड़ा की हीरोइन वाली।" उसने खुश हो कर पोज़ भी दिये । मैंने कहा –‘’ऊहूँ ! 34-24-34 जलन होती है यार तुझे देख कर।”  “माँ नहीं बनी ना” दबा हुआ बाहर छलक गया था।

 

ऐसी ही थी वो। उसमें अलग से कोई खासित नहीं थी। हम जैसी थी, फिर भी हमसे अलग थी। से तो हर कोई एक दूसरे से अलग होता ही है, वो थोड़ी ज्यादा ही अलग थी। बहुत बातूनी, बहुत चुप। मौन उसे बहुत-बहुत पसंद था। कहती मौन से बाहर आने को मन ही नहीं करता और बातें करने लगे तो चुप होने को मन  नहीं करता। एकदम शांत, एकदम चंचल। कभी बहुत जल्दी छोटी सी बात पर इरीटेट हो जाती वरना जल्दी से उसे कोई बात से फर्क ही नहीं पड़ता था। सबके साथ मौज-मस्ती और अपनी अलग दुनिया भी। मुस्कुराती सी, खिलखिलाती सी।

हमसे अलग जा कर बैठ जाती, उसे प्रकृति से बातें जो करनी होती थी। नहीं, नहीं बातें नहीं, उनकी आवाजें सुननी होती थी।‘’ आह! टप की आवाज।‘’ सुन उधर पत्ते से ओस की बूँद टपकी। एक बूंद के टपकने की आवाज़ सुन जाती और कभी-कभी  पास का शोरगुल दूर रहता। मुझे लगता है, वो क्लेयर ओडियन्स है।

वैसे रात को हमारी खूब बातें होती। खाना खा कर कमरे में जाते-जाते एक ही बात होती- "आज जल्दी सोएंगे, सुबह जल्दी उठना है। बातें एकदम नहीं।"

और वो रात बातों में ही कब खत्म हो जाती, पता ही नहीं चलता। क्या बातें होतीं यह भी याद नहीं। बस यह याद है कि दो-चार बार जरूर कहते कि चल सो जाते हैं, सुबह जल्दी उठना है। यात्रा जल्दी शुरू होने वाली है।" वो कहती- "घर जा कर और क्या करना है? सोना ही तो है।" 

 


 

 

रात के अंधेरे में हमारी खूब छनती। मैंने कहा था  "तुम हर समय कहती हो मैं एकदम खाली रहती हूं अकेली-अकेली। सुधा जी को देख पच्चीस सालों से एकदम अकेली रह रही हैं।"

 

"हाँ, पता है या तो एकदम अकेले रहना चाहिए या फिर भरे-भरे। ये जो मध्यम जीवन है वो बोरिंग है। मेरे करने के जो थोड़े बहुत काम होते हैं, वो भी मैं नहीं करती। बस यह सोच सोच कर कि कर लूँगी, कर लूँगी... दिन भर पड़ा है। इस तरह वो थोड़े बहुत मेरे छोटे-छोटे काम भी फैले रहते हैं। मैं करती नहीं। और समय और खाली हो जाता है। और ये जो तू कह रही है चार-चार क्लब की मेम्बर है घूमा कर वहाँ भी वही होता है। चली जाऊँगी... चली जाऊँगी... और करना ही क्या है और दिन खत्म हो जाता है। रात को सोचती हूँ दिन भर कुछ किया ही नहीं। फिर दूसरा दिन वैसा का वैसा। बारिश में जरूर छाता ले कर निकल पड़ती हूँ। गली का एक चक्कर लगा आती हूं। आम और जामुन के पेड़ पर कितने फल गिरे, कितने बचे देख आती हूँ।"

 

दो दिन बाद रात को समय निकाल कर उसने फिर फोन किया। समय निकाल कर जिसके पास अतिरिक्त समय ही समय था। मेरा पहला सवाल- "तो तू कहाँ थी? छुपी हुई थी? कैसे? कितनी प्लानिंग करनी पड़ी होगी ना?"

 

"अरे नहीं! जैसे  आत्महत्या प्लानिंग से नहीं की जा सकती, आवेश में हो जाती है, मेरे से भी यह आवेश में हुआअचानक। जैसे नदी बहती है, आवे में अपना सब कुछ समेटे हुए, मैं भी बह निकली थी अपनी जिंदगी के साथ, अपनी जिंदगी के लिए। जब बाढ़ आती है बांध को भी तोड़ देती है। अपना एक नया रास्ता बनाती हुई बह निकलती है। मैं भी वैसे ही सारे बंधन तोड़ कर समझ ले बह ही निकली थी। मैंने मोनेस्टरी से नीचे देखा, उस समय मैं अकेली थी। मेरे मन ने कहा- "मुझे इसी तराई में रहना है। नीचे जो रह रहे हैं उन सबके साथ, उन सब के बीच, उनकी जैसे। वहाँ बालकनी से शहर के मकान ही मकान दिखते हैं। जंगल से भी घने। यहाँ ऊपर से नीचे थोड़े से घर पहाड़ों की छत्रछाया में।"

 

मैं तुझे क्या बताऊँ, उस समय मुझे लगा, जैसे कि मैं इनकी हूँ और ये सब मेरे अपने। मैं अब इनसे दूर नहीं जा सकती। अंदर से आवाज आई जब ये सब मुझे बुला रहे हैं, तो मेरा ख्याल भी यही रखेंगे। मैं झट-झट नीचे उतरी और चली गयी उनके पास। गांव के लोग मुझे बहुत मानते हैं। उनके बच्चे मेरे बच्चे हैं। उनको पढ़ाना-लिखाना, बाकी सब छोटे-बड़े काम में मैं उनका हिस्सा हूँ। मेरा पूरा दिन उनके साथ निकल जाता है।

 

"तुम्हारा पति मनोज?"

मैंने उन्हें दो महीने बाद ही फोन किया था कि वो मुझे न ढूंढ़े। मुझे पता था कि मेरी खोज बंद हो गई है, फिर भी। मैंने अपनी फिलिंग्स उन्हें बताई। मुझे पता था, वे नहीं समझेंगे। उन्होंने कभी मुझे समझना चाहा ही नहीं। उस दिन भी कह रहे थे - "तुम्हें पढ़ाना है, यहाँ आ जाओ, तुम्हारे लिए एक बड़ा सा स्कूल खोल दूँगा।" मुझे यही नहीं चाहिए। दिखावा सिर्फ दिखावा। बड़ा स्कूल, बड़ा नाम, बड़ा काम। मैंने उनसे कह दिया - "मैं अब यहीं रहूँगी। तुम पहले भी स्वतंत्र थे, अब भी स्वतंत्र हो चाहो तो मेरा पिंडदान कर दो।" वैसे भी मुझे मालूम है, मेरे बिना उनकी कोई भी जरूरतें अधूरी नहीं रहने वाली है।

 

"अच्छा ये बता तू अभी कहाँ है?"

"शहर में।"

"शहर में?"

"हाँ तेरे शहर में नहीं हूँ। अपनी नयी उपन्यास के सिलसिले में आयी हूँ।"

दिल्ली में हूँ”

"नयी उपन्यास? किसकी? कैसी?"

"अरे बाबा मेरी!"

"तूने लिखी है? हाँ, तू लिख सकती है। तू लिख सकती है।" फोन में बात हो रही थी, मेरी गर्दन ज़ोर ज़ोर से हिल रही थी।

"मेरी कुछ बच्चों की किताबें आई हैं। छूक-छुक गाड़ी की सीरीज़, हिन्दी और ईंगलिश में ।

एक उपन्यास भी।" I Am  Me

"क्या? अरे वो तो SHELLIE chemuell ने लिखा है।"

"हाँ वो मैं ...’’

"Oh My God! विश्वास नहीं होता।" मैंने फिर कहा - "हाँ विश्वास तो होता है तू यह कर सकती है। जब सब कुछ छोड़ छाड़ कर जा सकती है तो यह भी कर सकती है।"

"सब छोड़ कर ही अपने को पा सकी हूँ नीरु।"

 

"सुन अब मेरा दूसरी उपन्यास आने वाला है। उसी सिलसिले में राजधानी आई हूँ। मुझे कुछ पैसों की जरूरत है। एक छत चाहिए। बच्चों को धूप, बरसात और ठंड से बचाने के लिए। उनकी पढ़ाई ठीक से हो सके, बस इसलिए। मेरी रोयेल्टी के पैसे आते ही लौटा दूँगी।"

"हाँ- हाँ! वो सब ठीक है। पहले मुझे बता तू कहाँ छुप गई थी। मेरे भीतर सवालों की फूलझड़ी लगी थी। हमने तुझे बहुत ढूंढ़ा। शीलू।"

"सब बताऊँगी लेकिन बाद में। आराम से।"

"तूने हमारे बारे में भी नहीं सोचा?"

"तुम लोगों के बारे में सोचा। लेकिन कुछ दिन बाद। वो पल वो क्षण ऐसे ही थे। तुझे क्या बताऊँ, उस समय केवल दिल की आवाज सुनाई दे रही थी। कहते हैं ना कि दिमाग के ताला लगाओ तभी दिल की सुनी जाती है। उस दिन वही हुआ, लेकिन मुझे ताला लगाना नहीं पड़ा था, पता नहीं कैसे अपने आप लग गया था। दूसरे दिन भी दिल एक ही बात कह रहा था- इन्होंने मुझे बुलाया और मैं खींचती हुई चली आई। मैं कैसे रहूँगी, क्या करूँगी, वह सब सोचना अब मेरा काम नहीं है। यह सब वे ही सोचे जिन्होंने मुझे बुलाया है। यह सब उनकी जिम्मेदारी है। जिनके पास मैं जा रही थी उन पर मेरा पूरा भरोसा था। मैं स्वयं मुक्त थी।"

वो फोन रख देती है। दो तीन चार बार उसकी उपन्यास का नाम दोहराती हूँ ,I AM ME...written by SHELLY CHEMuell… अरे हाँ, अब समझी शैलजा ...शीलु ...शेली और शेमुएल उसका अपना एंजिल।

 

मैं उठ कर ड्रावर से उसकी लाल बड़े से बो वाली कैप, उसकी डायरी औ उसकी किताब "JONATHAN LIVINSTONE SEAGULL" निकालती हूँ। कमरे में आ कर देखती हूँ, पति देव को नींद आ गयी है। टोपी पहन लेती हूँ। मेरी सहेली की टोपी। उस दिन मैंने उसे अपना स्कार्फ पहनाया था। उसकी गहरी नीली शर्ट पर मैंने बड़े-बड़े नीले फूलों वाला पिंक स्कार्फ पहनाया था। उसने मुझे अपनी लाल टोपी। फिर झूले पर गए थे। वही है हमारी आखिरी फोटो। वहाँ होटल से लौटते समय उसकी किताब और डायरी मैंने अपने पास रख ली थीया सच कहूँ चुरा ली थी। उस किताब को हमने कितनी बार मिलजुल कर देखा था उड़ती सीगुल। आसमान समन्दर नापती सीगुल। अपनी मौज में, सभी बंधनों को पीछे छोड़ अपनी मंजिल तय करती अकेली सीगूल। 

 

मेरी सहेली ने भी अपनी उड़ान भरी है जिन्हें वो दीवानगी की हद तक चाहती थी, उनके साथ है। मेरे साथ नहीं है तो क्या हुआ, मैं उसके लिए बहुत खुश हूँ। बहुत... बहुत... बहुत... खुश। 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


 

सम्पर्क
ई-मेल : nirmalatodi10@gmail.com


 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही रोचक
    पढ़ते-पढ़ते खो गए एक अलग ही दुनिया में, यही तो खासियत होती है एक मंझे हुए रचनाकार के लेखन में

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  2. बहुत रोचक।एक सांस में पढ़ डाली मैंने।बधाई।

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