सत्य नारायण वर्मा का आलेख 'गाँधी की हत्या का रोमांच'।
महात्मा गाँधी |
महात्मा गाँधी की विडम्बना यह रही कि जीवन भर अहिंसा की वकालत करने के बावजूद उनके जीवन का अन्त हिंसा (यानी हत्या) द्वारा ही हुआ। गाँधी जी के जीवन में उनकी नीतियों से असहमत लोगों ने उनकी हत्या के कम से कम पाँच बार प्रयास किए। नाथूराम गोडसे और उनके सहयोगियों द्वारा गाँधी जी की हत्या के ऐसे तर्क दिए गए जो आज भी आर एस एस और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों द्वारा बार बार दोहराए जाते हैं। हालांकि ऐतिहासिक रूप से तहकीकात करने पर वे तर्क आधारहीन साबित हुए हैं। खैर घृणा और बदले की विचारधारा के लिए तर्क, ज्ञान और इतिहास का कोई मतलब नहीं होता। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सत्य नारायण वर्मा और का आलेख 'गाँधी की हत्या का रोमांच'।
गांधी की हत्या का रोमांच
सत्य नारायण वर्मा
वर्ष 2019 में शहीद दिवस पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में गांधी के चित्र पर किसी संगठन की महिला नेता द्वारा नकली रिवोल्वर से गोली मारने और चित्र के नीचे खून की तस्वीर के साथ गोड़से अमर रहें के नारे सोशल मीडिया पर वायरल हुए। सरकार ने घटना के लिये जिम्मेदार लोगों के ऊपर कार्यवाही की। पांच लोग गिरफ्तार भी किये गए। लेकिन फिर यह खबर आई गयी हो गयी, जैसा आजकल अधिकतर ख़बरों के साथ होता है। कुछ स्थानों पर इस घटना के खिलाफ प्रदर्शन और भाषणबाजी की गयी और इतने तक ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली गई। यह प्रतीकात्मक घटना जनमानस में पल रहे गांधी विरोध का एक उदाहरण या नमूना भर है। इसी तरह का एक उदाहरण पिछली सदी के अंतिम वर्षो में भी देखने को मिला था जब प्रदीप दलवी ने 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' नामक मराठी नाटक लिखा था। इसे लेखक ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दिया था और पक्ष-विपक्ष में खूब बहस, चर्चा-परिचर्चा हुई, लेकिन मूलभूत प्रश्न वहीं बना रहा कि गांधी हिन्दू जनता के विरोधी थे या नहीं। आज प्रश्न यह उनकी हत्या के 70 वर्ष बाद भी हत्या का रोमांच क्यों बना हुआ है? जबकि भारत की सनातन धारा को युग धर्म से जोड़ कर राष्ट्रीय जन आन्दोलन और सत्याग्रही प्रक्रिया को अधिक गतिशील बनाने का श्रेय एक मात्र गांधी को दिया जाता है। क्योंकि गतिशीलता स्वयं एक परिस्थिति होती है इसलिए वहां पूर्णता की खोज उचित नहीं। इस बात पर सभी एकमत हैं कि गांधी जन आंदोलन के पायनियर थे, देखा जाय तो भारत की भौगोलिक अस्मिता को एकीकृत राजनीतिक अस्मिता दिलाने वाले प्रथम व्यक्ति गाँधी ही थे। ये वही व्यक्ति हैं जो एक संस्था बनने का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत कर पाते हैं।
इधर कुछ वर्षों में घटित घटनाओं को देख कर ऐसा लगता है कि मानों गांधी के वध को स्वीकृति मिल रही है। योगा-योग तो ऐसा बना है कि वध निष्ठा की अमानवीय राजनीति करने वाले राष्ट्र जीवन के अधिकारी विद्वान होने का दावा करने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश की परिणति को प्राप्त भारतीय जन-मानस क्या अतीतजीवी होना चाहेगा। यदि नहीं तो उसे ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत हो निशंक भाव से आगे बढ़ना चाहिए। देखा जाय तो इतिहास कभी भी अतीत के सुधार की अपील नहीं करता। मेरे ख़याल से राजनीति को भी यही करना चाहिये। गांधी के उपर अब हमले हों, यह उनके जीवित होने का प्रमाण नहीं तो क्या है? गोडसे के अनुसार "वह एक धार्मिक कृत्य था। जिस प्रकार कंस का वध, शिशुपाल का वध एक धर्मानुरूप कृत्य था, उसी प्रकार गांधी का वध भी धार्मिक कृत्य है।" प्रदीप दलवी के नाटक का भी यही कथ्य है। थोड़ा ध्यान दे कर देखेंगे तो यह धार्मिक कृत्य आदिम व्यवस्था का उदाहरण भी है। कोई भी सभ्य समाज उस समाज और कानून की पुनरावृत्ति नहीं चाहेगा। किसी के बुरे कार्य के लिये दंड की व्यवस्था मनुष्य की चुनी हुई सरकारों ने बनाई हैं। शायद इसी तर्क से गांधी के समर्थक गोडसे से बदला लेने की बात नहीं करते। गांधी स्वयं भी क्षमादान के हिमायती थे। आज के गांधीवादी भी सर झुका कर काम में विश्वास करते हैं। लोग इस मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते है, लेकिन उन्हें विचार की विचार से लड़ाई में विश्वास करना चाहिए। गोडसे ने कोई वैचारिक लड़ाई कहाँ लड़ी थी?
कुछ लोगों को गोडसे द्वारा प्रस्तुत बचाव-नामा एक व्यवस्थित विचार उस समय भी लगता था और आज भी। गांधी की हत्या के बाद गोडसे के पास समय था। उसने इसका उपयोग किया और अपने कृत्य को उचित ठहराने की कोशिश की। कोई भी अपराधी यही करता है, वह अपने बचाव की हर संभव कोशिश करता है, गोडसे ने भी यही किया। उसने जो कारण बताए उसमें गांधी को देश विभाजन कराने और इसे स्वीकार करने को प्रमुख बताया है। पाकिस्तान, जिसने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था, उसे उसके हिस्से के 55 करोड़ भारत सरकार से दिलवाने को दूसरा महत्वपूर्ण कारण बताया। इसे सुन कर कोई भी गांधी के ऊपर भड़क सकता है।
सर्वोदय आंदोलन के वरिष्ठ चिंतक चुनी भाई वैद्य ने गांधी की हत्या के संदर्भ में गढ़े इन तर्कों का जबाब "गांधी की हत्या: क्या सच, क्या झूठ" मे दृढ़ता से दिया है। वे लिखते हैं कि गांधी की हत्या के आठ प्रयास हुए थे। इन प्रयासों में चार उस समय हुए थे जब पाकिस्तान बनने और 55 करोड़ की बात स्वप्न में भी नहीं थी। पहला प्रयास 1934 में हुआ था जब गांधी पूना नगरपालिका द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया, लेकिन वे बच गए। इस घटना में नगरपालिका के मुख्य अधिकारी समेत सात लोग घायल हुए थे। उस समय तक पाकिस्तान ज्यादा से ज्यादा कवि इकबाल और छात्र रहमत की कल्पना में ही था। अतः बहुप्रचारित पाक फैक्टर हमेशा हमले का कारण नहीं था। कुछ संगठनों के कार्यकर्ताओं को गांधी के कार्यक्रम अखरते थे। अंग्रेज़ तो उनके आंदोलनों के लक्ष्य थे ही इसलिए उनकी कूट रचना और बेवजह गिरफ्तारी पर कोई संशय नही था। गांधी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 की जुलाई में हुआ था, उस समय भी पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। नाथूराम छूरा ले कर सामने आ गया था। सतारा जिला बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष भिसारे ने उसके हथियार को छीन लिया था। गांधी ने तुरंत गोडसे को बातचीत के लिए बुलाया, पर वह नहीं गया। तीसरा प्रयास सितंबर 1944 में तब हुआ जब गांधी, जिन्ना से वार्ता करने बम्बई जाने वाले थे। पूना का एक समूह वर्धा गया था। इनमें एक व्यक्ति थत्ते के पास से पुलिस को छूरा मिला। थत्ते का कहना था कि उसने गांधी की गाड़ी को पंचर करने के लिये छूरा रखा था। गांधी के निजी सचिव प्यारे लाल ने लिखा है कि उस दिन डी सी पी का फोन आया था कि प्रदर्शन के समय अनहोनी हो सकती है। पुलिस ने गांधी के निकलने के पहले ही प्रदर्शनकारियों को पकड़ लिया। इस समय भी पाकिस्तान को स्वीकार करने और 55 करोड़ की बात नहीं थी। जून 1946 में एक और प्रयास किया गया था। जिस ट्रेन से गांधी बम्बई से पूना जा रहे थे उसे रास्ते में पत्थर रख कर पलटाने की कोशिश की गयी। ड्राइवर की सावधानी से दुर्घटना टल गई। इस समय भी रुपयों की बात नहीं आई थी, गांधी ने अपनी लाश पर ही विभाजन को स्वीकार करने की बात कही थी। इस घटना के बाद प्रार्थना सभा में गांधी ने कहा- "मैं सात बार इस प्रकार के प्रयासों से बच गया हूँ। मैं इस प्रकार मरने वाला भी नहीं हूँ।" नाथूराम गोडसे ने मराठी पत्र अग्रणी में लिखा था कि "परन्तु जीने कौन देगा" मतलब यह कि उसने हत्या का संकल्प पहले ही कर लिया था। अंतिम प्रयासों के समय ही विभाजन और रुपयों की बात सामने थी। मदन लाल पहवा और नाथूराम गोडसे के अंतिम प्रयास सफल हो गए। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि गांधी की हत्या के तात्कालिक कारण ही नही थे। उन्हें हटाने के प्रयास लंबे समय से चल रहे थे।
नाथूराम गोडसे |
गांधी को दोषी मानने वाले उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के लिए उत्तरदायी कहते हैं। इस आरोप के प्रति उत्तर में चुनी भाई कहते हैं कि- भारत की एकता के प्रति जितना आग्रह दूसरे लोगों का है उतना ही गांधी और उनके समर्थकों का भी। अंतर केवल इस बात को ले कर उस एकता के लिये कौन सा मार्ग अपनाया जाय? दूसरे यह मानते थे कि यह देश उनका है भारतवर्ष और भारत माता उनकी है। मुस्लिम बाहरी हैं, आक्रांता हैं उन्हें दोयम बन कर उनके साथ रहना है। जबकि गांधी का मानना यह था कि बार-बार पराया कहने से परायापन बढ़ेगा। उपर से तुम अपने हो, यह कहना भी एकता के लिये उचित नहीं होगा। इसके लिए सच्चे मन से उन्हें संस्कृति में साझेदार स्वीकार करना होगा, तब जाकर वास्तविक एकता आएगी। समय के साथ घाव बढ़ता है तो ठीक भी होता है। यह हमें तय करना है कि विरोध को बढ़ाना है या फिर उसे घटाना है। हम अपने इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि मुस्लिम पहले आक्रमणकारी नहीं थे। इसके पूर्व के आक्रमणकर्ता यहाँ के समाज और संस्कृति के अंग बन गए। मुस्लिमों के साथ ऐसा नहीं हुआ। उनका धार्मिक दर्शन भारत की उस जनता को आकर्षित करता था जो सामाजिक भेदभाव की शिकार थी। जब मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो गई तब तो सत्तापेक्षी समूह ने उनकी ओर आशा भरी निगाह से देखा और बहुतों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इस सच्चाई से भी मुख नहीं मोड़ा जा सकता कि सत्ताएं जबरन धर्मिक परिवर्तन कराती रही हैं। लेकिन अधिकांश मामलों में इसके पीछे राजनीतिक मंशा होती थी। भारतीय मुस्लिम राज्य कभी भी अपने को थियोक्रेटिक स्टेट घोषित नहीं कर सके। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में जो मुसलमान हैं, वे सभी किसी समय हिन्दू रहे होंगे। बहुत कम लोग अरबी मूल के रहे होंगे, शायद ढूढंने पर भी न मिलें। यदि मिल भी जाएं तो उनके प्रति क्लासिक होने का भाव उत्पन्न होगा, यह हमारा युगीन यथार्थ है।
मुस्लिम समुदाय को अलग पहचान भारतीयों से अधिक अंग्रेज़ो ने दी। अगर ऐसा न होता तो सावरकर, सैयद अहमद और यहां तक कि जिन्ना भी हिन्दू-मुस्लिम को इंद्रधनुष के दो रंग न मानते। 1916 के लखनऊ अधिवेशन में गांधी की कोई विशेष भूमिका नहीं थी। इस अधिवेशन में हिन्दू मुस्लिम एकता का नारा तिलक और जिन्ना ने लगाया। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिये जमीन हिन्दू राजा देते हैं तो जाहिर है कि यहाँ तुष्टिकरण की नीति नहीं थी। गांधी उसी सोच को आगे बढ़ाते हैं कि सभी देशवासी एक है उन्हें मिल कर ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों का विरोध करना चाहिये। आजादी के बाद यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए था कि सारे लोग भारत को अपना देश समझते और विभाजन की किसी भी अवधारणा को अप्रासंगिक मानते। यह कमी बनी रही, इसके लिये गांधी को तो दोषी नहीं मानना चाहिए। हत्या को वाजिब ठहराने के लिये एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि गांधी और कांग्रेस ने विभाजन को बिना विरोध स्वीकार कर लिया कोई अनशन नहीं किया जैसा अक्सर करते रहते थे। यह आरोप भी झूठे और अपरिपक्व सोच पर आधारित है। गांधी अंतिम समय तक दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानते थे। 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग के सम्मेलन में मुहम्मद इकबाल ने कहा था कि-"मैं चाहता हूं कि पंजाब, पश्चिमोत्तर प्रान्त, सिंध एवं बलूचिस्तान एक हो जाएं एवं वे एक राज्य बने। मुझे लगता है कि जहां तक पश्चिमोत्तर भारत का संबंध है वहां तक पश्चिमोत्तर मुस्लिम राज्य चाहे वह ब्रिटिश राज्य के अंदर हो या बाहर, यही मुस्लिमों का आखिरी भाग्य है।" सन 1940 तक मुस्लिम लीग इसे गंभीर बात भी नहीं मान रही थी। कांग्रेस के सत्ताईस माह के दौरान अपनी पीरपुर और शफीपुर रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख नहीं करती कि उसे अलग राज्य चाहिए ही। वह केवल मुस्लिमों पर अत्याचार का विरोध करती है। इन रिपोर्टों में जिन्ना अपने लिये जनाधार खोजते हुए दिखते हैं। लेकिन 1937 में ही अहमदाबाद के हिन्दू महासभा के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए वीर सावरकर कहते हैं- "आज हिंदुस्तान, एक प्राण, एकात्म राष्ट्र हो गया है, यह मानने की भूल करने से अपना काम नही चलेगा। उल्टे इस देश में मुख्यतः हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं इसे स्वीकार कर चलना चाहिए।" स्पष्ट है कि दो राष्ट्र की बात गांधी नहीं कर रहे थे और न ही कांग्रेस। उनके अफ्रीका प्रवास के दौरान प्रार्थना सभाओं में सभी धर्मों के लोग शामिल होते थे। यह क्रम साबरमती में भी जारी था। कौमी एकता पूरे स्वराज आंदोलन का हिस्सा था। जलियांवाला कांड की हथकड़ियां एक हिन्दू और एक सिख या मुस्लिम को बांधती थी। बाद के वर्षों में हिन्दू संगठन आक्रामक हुए मुस्लिम विरोध की जमीन पर। जिन्ना की हताशा दूर हो गयी इस अभियान से। वे वकालत से फिर राजनीति को कॅरियर बनाने में लग गए। उन्हें मुसलमान जनता को गुमराह करने में सफलता भी मिल गयी। अंग्रेज़ इसी अवसर की तलाश में थे। अवर्णनीय खून खराबे के माहौल में उचित अनुचित का परीक्षण असंभव था। वावेल योजना ने लोगों की आकांक्षाओं को हवा दे दी। इस माहौल में गांधी टूट चुके थे। व्यक्ति के रूप में उनका विश्वास डगमगा गया। वे ‘हे-भगवान!, अब मुझे उठा लो' की भाषा बोलने लगे थे। कांग्रेस ने गांधी को छोड़ कर निर्णय लिया- पाकिस्तान बनना अपरिहार्य है तो बने। नेहरू, पटेल और माउंटबेटन ने विभाजन की सहमति बना कर ही गांधी के पास सूचना भेजी। गांधी किसे आधार बना कर लड़ते। जो लोग गांधी को आज विभाजन के लिये दोषी मानते है वे भी तो उनके साथ नहीं खड़े थे। फिर क्या रास्ता बचा था। वे अनशन भी नही कर सके। एक पत्र में उन्होंने उल्लेख किया है "एक व्यक्ति के रूप में मेरा कोई मूल्य नहीं है। जिन लोगो का प्रतिनिधि बन कर मैं बोलता था, वे मुझे छोड़ कर चले गए हैं। उनको मेरी बात जंचती नहीं, उन्हें विभाजन स्वीकार है। मैत्री भाईचारा शांति और प्रेम की अपील से खुश नही है। जब पूरी परिस्थिति ही बदल चुकी है तो मैं किसके समर्थन से अखण्ड भारत और अविभाजित राष्ट्र की लड़ाई लड़ूं।" इन बातों से उनकी मनोदशा का पता चलता है।
मदन लाल पहवा |
55 करोड़ के लिए अनशन की बात भी परिस्थिति में ही देखनी चाहिए। उस समय खान अब्दुल गफ़्फ़ार से मिलने गाँधी पाकिस्तान जाना चाहते थे। अब भी वे दंगो को समाप्त कराने के उद्देश्य से नोआखाली में थे, वे देखना चाहते थे कि जिन्ना अपने वादे पाकिस्तान में पूरा कर रहें हैं। वे कहते हैं- "मैं पाकिस्तान को अपना ही देश मानता हूं, इसलिये मुझे वीजा की जरूरत नहीं होगी।" यह कहने वाले गांधी जागतिक दृष्टि रखते थे। ‘बसुधैव कुटुम्बकम’ की संस्कृति उन्हें प्रिय थी। अंग्रेजों ने देश और संपत्ति दोनों को बॉटने में मध्यस्थता की। गांधी जब दिल्ली वापस आये तो वहां की स्थिति वीभत्स रूप ले चुकी थी। अतः उन्होंने व्यथा और वेदना की गहराई में ही उपवास शुरू कर दिया। इस अवसर पर भी 55 करोड़ उनकी जुबान पर नहीं था। उपवास के संबंध में दिए गए किसी भी बयान में इस मुद्दे का उल्लेख नहीं मिलता। उनका उपवास भारत के हिंदुओं और सिखों तथा पाकिस्तान के मुस्लिमों द्वारा किये गए पाशविक कृत्यों के खिलाफ था। यह अनशन भारत और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक जनता की रक्षा के लिये था। गांधी का अनशन 13 जनवरी से 18 जनवरी तक चला था। सरकार ने तीसरे दिन ही 55 करोड़ देने की घोषणा कर दी, और कहा था कि उसने पहले जो रवैया अपनाया उसके कानूनी और दूसरे कारण थे। जिस दिन गांधी ने अनशन समाप्त किया (18 जनवरी को) उस दिन उनकी तबियत अत्यधिक खराब थी। डॉ राजेन्द्र प्रसाद बिरला भवन में अनशन समाप्त कराने पहुंचे तो उनके कमरे में नेहरू, मौलाना आज़ाद, पाक उच्चायुक्त जाहिद हुसैन, आर एस एस, हिन्दू महासभा, सिख संगठन और दिल्ली के संभ्रांत मुस्लिम, चीफ कमिश्नर आदि मौजूद थे। उन्होंने दिल्ली की स्थिति में सुधार से आश्वस्त हो कर अनशन समाप्त किया। पाकिस्तान में भी इसी तरह की शांति का आग्रह भी पाकिस्तानी प्रतिनिधि से किया था। उनके मन में यह विश्वास था कि एक दिन फिर एकता स्थापित होगी।
अब गोडसे के तर्क को कैसे सही माना जा सकता है कि उसने 55 करोड़ देने के कारण गांधी की हत्या की। गोडसे का दावा तो यह भी था कि गांधी ने मरते समय 'हे! राम’ नहीं बोला था। इतनी छोटी बात भी उसकी चिंता का कारण बन गयी। क्योंकि राम कहने से उनके हिन्दू होने का प्रमाण मिल जाता। आम हिन्दुओं के मन पर गांधी का जो प्रभाव था वह उस समय के कथित हिन्दू नेताओं का नहीं था। उस प्रभाव को समाप्त कर पाना उनके जीते जी संभव नही था, इसलिए उसने उन्हें समाप्त करने का सफल उपाय किया। थोड़ा पीछे जा कर देखे तो लगेगा कि तिलक और सावरकर हिन्दू जागरण का नेतृत्व करना चाह रहे थे। वे जब आजादी के संघर्ष में शामिल हुए तो उन पर राजद्रोह का आरोप लगा। उन्होंने इस आरोप को अस्वीकार किया लेकिन जेल गए। जब गांधी के ऊपर आरोप लगा उन्होंने राजद्रोह स्वीकार किया और जेल गए। यह गांधी और अन्य में बेसिक अंतर था।
गांधी अपने को सनातन हिन्दू कहते थे लेकिन उसमें व्यापक दृष्टि थी। प्रगतिशील दृष्टि से उन्होंने धर्म को देखा था, इसलिये पुणे के हिन्दू उन्हें अराजक मानते थे। गिरमिटिया मजदूर, जकात चौकी की बंदी, चंपारण के किसानों की मुक्ति उनकी प्रारम्भिक सफलताएं थी। जिसमें और नगीने जुड़ते गए। आजादी की लड़ाई सामाजिक आर्थिक और धार्मिक स्तर पर भी लड़ी जानी है। इसका बेहतर उदाहरण गांधी ही प्रस्तुत करते हैं। कट्टर हिन्दू पता नहीं क्यों इस उदार वातावरण को अनुचित मानते थे। यह बात कि वे मुस्लिमों को ज्यादा प्यार करते थे, यह उचित नही हैं। उनके सचिव प्यारे लाल ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'महात्मा गांधी: पूर्णाहुति' में अनेक उदाहरण दिया है। 13 जनवरी को उपवास आरम्भ करने के पहले ‘प्रार्थना सभा’ में यह कहा गया कि- "पाकिस्तान के मुस्लिम पागल हो गए हैं। अधिकांश हिन्दू और सिखों को बाहर निकाल दिया है। अगर भारतीय संघ के हिन्दू भी ऐसा ही करेंगे तो इससे उन्हीं का नाश होगा।-----पाकिस्तान को अपनी ए हरकतें बंद करनी चाहिए।" यह विवरण इस बात का प्रमाण है कि संघ ने उस परिस्थिति का लाभ उठाया और उनकी हत्या को रोमांचक व अनिवार्य बना दिया। सरदार पटेल जिन्हें संघ अपना मानता है, ने गोलवलकर को पत्र लिख कर कहा था कि संघ वालों के विषवमन के कारण ही गांधी की हत्या हुई है। संघ के लोगों ने आनंद मनाया और मिठाई बांटी। आज भी इस त्रुटि का जश्न मनाये जाने का कोई औचित्य कैसे है? जब हम अधिक सभ्य होने का तमगा लेना चाहते हैं। दुनिया के अन्य किसी जन नायक के साथ वहाँ की बहुसंख्यक जनता का व्यवहार हमारे जैसा नहीं है।
सम्पर्क
मो - 8115705206
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