शंख घोष का साक्षात्कार एवम उनकी कविताएँ, हिन्दी अनुवाद : निशान्त
शंख घोष |
सुविख्यात बांग्ला कवि, आलोचक, शिक्षाविद् और पद्मभूषण शंख घोष का बीते 21 अप्रैल 2021 को देहावसान हो गया। 89 वर्ष के घोष कुछ समय पूर्व ही जीवनघाती कोविड-19 से संक्रमित हो गए थे।
घोष को आमतौर पर रवींद्र नाथ टैगोर पर गहरी समझ के लिए पहचाना जाता है। उनकी कृति 'आदिम लतागुल्ममय' और 'मूर्ख बड़ो समाजिक नय' ने उन्हें पाठकों में विशिष्ट पहचान दिलाई। 'बाबरेर प्रार्थना' के लिए 1977 में उन्हें साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला था। 2011 में पद्मभूषण और 2016 में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी दिया गया। उन्हें सरस्वती सम्मान भी दिया गया था।
6, फरवरी 1932 में चांदपुरा (मौजूदा बांग्लादेश) के मनिंद्र कुमार घोष के घर जन्मे चित्तप्रिय घोष ने अपना नाम शंख घोष रखा। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से बांग्ला में स्नातक और कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। फिर जादवपुर विश्वविद्यालय से जुड़े और 1992 में वहीं से सेवानिवृत्त हुए। पांच दशक की साहित्य सेवा की वजह से उन्हें शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय, बिनॉय मजूमदार और उत्पल कुमार के साथ 'आधुनिक बांग्ला साहित्य के पांडवों' में गिना जाता था।
शंख घोष जीवनानंद दास के बाद श्रेष्ठ बंगला कवियों में गिने जाते हैं। घोष ने कई वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय, आयोवा विश्वविद्यालय और विश्व भारती में अध्यापन कार्य भी किया था।
पहली बार की तरफ से शंख घोष को नमन करते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं शंख घोष का एक साक्षात्कार और उनकी कविताएँ। पहली बार के लिए घोष की कविताओं का मूल बांग्ला से अनुवाद किया है हिन्दी के चर्चित कवि निशान्त ने।
शंख घोष का साक्षात्कार
संघर्ष से ही कविता संजीवनी शक्ति ग्रहण करती है : शंख घोष
बांग्ला के यशस्वी कवि संपादक अमरेंद्र चक्रवर्ती ने सत्तर के दशक में एक लघु पत्रिका 'कविता परिचय' के बारह अंक निकाले थे। बारहवाँ अंक प्रश्नोत्तर अंक था। कविता लिखने को ले कर इसमें कुछ प्रश्न थे। वे प्रश्न आज भी उतने ही जरूरी प्रश्न हैं। शंख घोष का दिया हुआ उत्तर भी उतना ही महत्त्वपूर्ण। इसलिए उसे जस का तस अनुवाद करके यहां दिया जा रहा है। मूल बांग्ला से इसे अनुदित किया है हिन्दी के चर्चित कवि निशान्त ने।
प्रश्न 1 : आज कविता लिखते समय हमारे देश की तीव्र राजनैतिक तीक्ष्णता और तीव्र सामाजिक अस्थिरता आपके काव्य लेखन को प्रभावित करती है? यदि हाँ तो कैसे?
उत्तर : सामाजिक अस्थिरता का बोध तो कविता की मज्जा में ही निहित रहता है। आज देखता हूँ, वह कभी-कभी कविता के शरीर में भी दिखलाई पड़ता है। नहीं जानता, शायद इसे ही समय का प्रभाव कहते हो पर मैं इतना शारीरिक चिन्ह कविता में नहीं देखना चाहता।
प्रश्न 2 : अत्यधिक राजनैतिक सचेतनता की वजह से वर्तमान काव्य परिदृश्य में (बांग्ला) क्या उदासीनता आई है? या क्या कविता ही समाज से कटती जा रही है? बांग्ला समाज/ पाठक के मानस पर बांग्ला कविता का प्रभाव कैसा पड़ रहा है, इस विषय पर आपकी क्या राय है?
उत्तर : समाज मानस? आप किसे बांग्ला समाज या पाठक मानते हैं? बांग्ला का क्या एक ही समाज है? एक ही मन है?
अंग्रेजी के एक कोश में लिखा हुआ है - इस देश का कृषक या किसान रवींद्र नाथ के गीतों को गाते-गाते खुले हुए खेत में धान काटते हैं। डब्ल्यू. बी. यीट्स भी ‘गीतांजलि’ की भूमिका में इसी तरह के स्वप्न की परिकल्पना करते हैं। अलीक परिकल्पना, अलीक किसान। जबकि सच कुछ और ही है। अभी उसी दिन सैलून में बाल बनवाते हुए देखा - रेडियो पर रामप्रसादी (मां काली की भक्ति से भरे हुए गीत जिसके रचनाकार हैं रामप्रसाद) सुन रहे थे कुछ लोग। लेकिन उद्घोषक ने जैसे ही कहा आइए अब सुनते हैं रवीन्द्र संगीत। वैसे ही एक ने उठ कर रेडियो का कान मरोड़ दिया। ऐसा ही आज होना था।
छिन्न हो रहे इस समाज को पकड़ने का आयोजन कविता से आज स्थगित हो गया है।
शुरुआती दिनों से ही कविता एक छोटे समाज की वस्तु है। थोड़े से लोग ही उसे पढ़ते हैं। आज उसमें कुछ नई उदासीनता आई हो, ऐसी कोई बात नहीं है।
प्रश्न 3 : कविता में आप जिस भाषा में बात करते हैं, उसके साथ बोलचाल की भाषा में कोई विरोध आप देख पाते हैं क्या? या कभी अनुभव किया है क्या? कविता की भाषा की दैनिक जीवन या बोलचाल की भाषा के समक्ष रखने के क्या आप हिमायती हैं? या आप मानते हैं कि कविता की अपनी निज भाषा होनी चाहिए? साधारण या आम पाठक जो यह आरोप लगाते हैं कि कविता की भाषा आम लोगों की भाषा नहीं है, इस आरोप को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर : नदी का पानी घड़े में भर देने के बाद क्या वह नदी का ही पानी बना रहता है? नदी क्या उसे अपना बोल कर पहचान पाती है? आधार बदलने से अधिरचना बदल जाती है।
बोलचाल की भाषा और कविता की भाषा में यदि कोई भिन्नता ना हो तो फिर कविता लिखने की जरूरत ही क्या है? बोलचाल की भाषा और कविता की भाषा यदि एकदम ही अलग हो तब भी कविता लिखने की क्या जरूरत है? दोनों के बीच यह भिन्नता- अभिन्नता का द्वन्द्व मिल कर ही कविता की भाषा का निर्माण करते हैं। इसे ही मैं कविता की भाषा कहता हूँ। नदी के जल की तरह, साधारण व्यक्ति फिर उसे नदी के रूप में पहचान नहीं पाता जबकि वह उसका ही एक अंग है।
प्रश्न 4 : जनसाधारण के जीवन की समस्या को ले कर या समसामयिक प्रसंग को ले कर कविता लिखने से क्या वह वृहत्तर समाज को अपनी तरफ ज्यादा आकृष्ट कर पाएगी? आपकी क्या राय है?
उत्तर : कविता तो जीवन की समस्या को ले कर ही लिखी जाती है। यह अलग बात है कि लिखने के क्रम में उससे कहीं- कहीं वह ध्वनित नहीं हो पाता। सीधे-सीधे विषय को उठा कर कविता लिख देने या उसे कविता में पिरो देने से कविता की तरफ ज्यादा पाठक आकृष्ट होंगे, ऐसी आशा मुझे कम दिखती है।
प्रश्न 5 : आज का समय कविता लिखने के लिए अनुकूल है या प्रतिकूल आप क्या सोचते हैं?
उत्तर : कोई भी समय कविता लिखने के पक्ष में प्रतिकूल समय नहीं है। और यदि ऐसा दिखाई दे कि चारो तरफ कविता लिखने से उसमें और ज्यादा बाधा आएगी तो वही सही समय होता है कविता लिखने का। समय के साथ इस संघर्ष से ही कविता अपने लिए संजीवनी शक्ति अर्जित करती है। इस संजीवनी शक्ति के सहारे ही वह फिर से खिल उठती है। खिल उठता है कवि।
लेकिन यदि मैं (एक कवि) यह कार्य नहीं कर पाता तो इससे मेरी अक्षमता का बोध होता है। इसमें समय को कोई दोष नहीं दिया जा सकता।
शंख घोष की कविताएँ
न्याय अन्याय नहीं जानता
तीन राउंड गोली चलती है
तेईस लोग मारे जाते हैं
लोग इतने नीच हो गए हैं!
स्कूल के लड़के जो चौखटे पर ही मारे गए
सच में वे समाज विरोधी थे।
उधर देखो धुला हुआ तुलसीपत्ता है
उलट भी नहीं पाया खाने के लिए
भुनी हुई मछली असहाय पड़ी है आत्मरक्षा के अलावा कुछ भी नहीं जानती गोलियां
दार्शनिक आंखें सिर्फ आकाश के तारों को देखती रहती हैं।
पुलिस कभी भी अन्याय नहीं करती जब तक है वह हमारी पुलिस।
तुम किस पार्टी में हो
कोई दौड़ते हुए आ कर बस का हैंडल पकड़ना चाहे, आगे पूछो - तुम किस पार्टी में हो ?
भूखे मुंह में ग्रास डालने के पहले पूछो - तुम किस पार्टी में हो ?
पुलिस की गोली से भीड़ में मरे हुए व्यक्ति को उठाने से पहले पूछो उसकी पार्टी ?
तुम्हारे दोनों हाथों में खून लगा है किंतु पूछो किस हाथ में रंग लगा है किस हाथ में नहीं
सुरंग में हाथों में मशाल लिए इसे उसे इसे देखो किसके चेहरे पर निशान बना है, किसके चेहरे पर नहीं
कौन सा काम है, कौन सी बात है, इतनी बड़ी बात नहीं है, पहले पूछो - तुम किस पार्टी में हो?
कौन मरा है भिलाई में कौन दौड़ रहा है छत्तीसगढ़ के गांवों की तरफ
किसका सर है कितना कीमती झमाझम झमाझम नाच होगा किस रास्ते पर कौन सा रास्ता होगा और ज्यादा द्रुतगामी विचार देने से पहले जान लो पूछ लो प्रश्न - तुम किस पार्टी में हो?
आत्मघाती फ़ासी से लाश उतार कर उसके कानों में पूछो - तुम किस पार्टी में हो?
रात को सोने से पहले, प्रेम करने से पहले, पूछो - किस पार्टी में, तुम किस पार्टी में हो?
लाइन
लाइन में था पिताजी
एक क्षण के लिए छिटक गया
फिर खोज ही नहीं पाया अपने को
बड़ी मुश्किल में पड़ा हूँ
यह मेरा ही टिन का कनस्तर है?
मेरा ही?
यह वाला आपका?
सब हो गए हैं मिल कर एक
तो मैं कहाँ हूँ!
ये क्या हो रहा है?
हटिए, हटिए ना!
अरे, हम लोग अलग हैं क्या?
देख रहे हैं तो सब एक साथ
एक ही रस्सी में बँधे हैं कनस्तर
रुकिए तो!
हे भाई, कौन हो तुम?
मैं? हूँ।
हूँ हूँ क्या, हटो।
विरोध? ना ना...बाप- कोई विरोध नहीं।
चुपचाप लौट जाऊंगा घर
खाली टिन बजाते हुए
आग ही कहीं नहीं है-
फिर क्या होगा किरासन तेल ले कर।
समझना
अचानक यदि कोई मूर्ख बन जाए तो
वह स्वयं समझ नहीं पाता।
यदि समझता तो समझदार कहलाता।
इसलिए, तुम जो मूर्ख नहीं हो
किस तरह समझे
जरा बतलाओ तो?
बेलेघाटा वाली गली
जो देखता हूँ सब चमत्कार है
धड़ पर है सर
चौरास्ते पर चित्त पड़ा है
फटे हुए दरी के कथरी पर
आँख नहीं कान नहीं
हाथ नहीं पांव नहीं
एक पैसा दो पैसा फेके जाने पर
उसे उठा उठा खाओ
पीठ के नीचे ईटों का बिस्तर
सीने पर त्रिशूल
आकाश है चिक्कन
नदी है रजस्वला
हुक्म होने से खोल सकता हूँ
सीने की कई हड्डी
कह सकता हूँ - बजो वंशी
अपने मन से बजो
इसके अलावा
सारी बातें कैसे बोलूं
बाहर हैं लेनिन भीतर हैं शिव
यह बेलेघाटा वाली गली।
निशान्त |
Dr.Bijay kumar shaw. (nishant)
Dept.of hindi,
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dist. Paschim bardhman.
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सुंदर प्रस्तुति
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