अविनाश मिश्र की कविताएँ
युवा कवियों में जिन कुछ कवियों ने अपने शिल्प और अनूठे बिम्ब के बल पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है, उसमें अविनाश मिश्र का नाम प्रमुख है. इसी क्रम में वे उन क्षेत्रों की तरफ भी जाते हैं जो प्रायः वर्जित समझे जाते हैं. 'वर्जित जीवन के उत्तेजक साक्ष्य' जैसी लम्बी कविता (जो कई उपशीर्षकों में विभाजित है) में उनके साहसिक प्रयोग को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. आज हम पहली बार पर इस संभावनाशील कवि की लम्बी कविता के साथ आपसे रू-ब-रू हैं. कविता के साथ-साथ कवि का आत्म-वक्तव्य भी प्रस्तुत है.
अविनाश मिश्र
मैं मूलतः कवि हूं और कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं इस पृथ्वी पर आखिरी कवि हूं। यह स्थिति मुझे एक व्यापक अर्थ में उस
समूह का एक अंश बनाती है, जहां सब कुछ एक लगातार में ‘अंतिम’ हो रहा है। मैं इस
यथार्थ में बहुत कुछ बार-बार नहीं, अंतिम बार कह देना चाहता हूं। मैं अंतिम रूप से
चाहता हूं कि सब अंत एक संभावना में बदल जाएं और सब अंतिम कवि पूर्ववर्तियों
में...। मैं एक कवि के रूप में अकेला रह गया हूं, गलत नहीं हूं तो एक मनुष्य के
रूप में अकेला रह गया हूं— एक साथ नया और प्राचीन। मैं जानता हूं कि मैं जो कहना
चाहता हूं वह कह नहीं पा रहा हूं और मैं यह भी जानता हूं कि मैं जो कहना चाहता हूं
उसे दूसरे कह नहीं पाएंगे।
मैं मूलतः कवि हूं और वर्षों से एक वक्तव्य देना चाहता रहा हूं। मैं एक वक्त से इस वक्तव्य को
काव्य-पंक्तियों की तरह अपने भीतर बुनता आया हूं। मैंने कई वक्तव्यों को पढ़ा और
सुना है और मैं उन सब खामियों से वाकिफ हूं जो मैंने उन्हें पढ़ते और सुनते हुए
अनुभव की हैं।
मैं अपने एकांत को इस वक्तव्य के रियाज से भरा करता हूं। मैं राह चलते-चलते
कुछ बोलने लगता हूं। मेरा आस-पास मुझ पर हंसता है। मैं मूलतः कवि हूं और मैं चाहता
हूं कि लोग मुझ पर ध्यान दें।
मैं इस वक्तव्य में उस जीवन के विरुद्ध जाना चाहता हूं जिसमें आत्मा अनुपस्थित
है। मैं एक आत्मवंचित खालीपन से बाहर आना चाहता हूं। ‘आत्मनस्तु कमाय सर्वं प्रियं
भवति...’ लेकिन मेरी उम्र या कहें मेरी अयोग्यता ने अब तक मुझे उन अवसरों से अलग
बनाए रखा है जिनमें खुद को एक वक्तव्य देने के लिए मुस्तैद करना पड़ता है। मैं मूलतः कवि हूं और मेरी भावनाएं मेरे खिलाफ इस्तेमाल की
जा सकती हैं।
मानसून-दर-मानसून बरसते चले जा रहे हैं और मैं अपनी उम्र, अपनी अयोग्यता और
अपनी काव्य-पंक्तियों के साथ खुद में कहीं गुम होता जा रहा हूं। उदासी एक बासी चीज
है मेरे समय में, जो खबरों की तरह मुझे दी गई है। लेकिन यह खबरों से भी ज्यादा
बासी है। सब कुछ रंगीन और रौशन है, लेकिन मैं उदास हूं और बाकी खबरें जानना चाहता
हूं, लेकिन वे प्रत्येक अंतराल में उत्पादों में बदल जाती हैं। बाकी खबरें कहीं
नहीं हैं। मैं इन दिनों अखबारों पर सो रहा हूं, एक बंद कमरे में पानी पी-पीकर
आईनों से झगड़ता हुआ। मैं घुट रहा हूं, इसलिए खिड़कियां खोल देना चाहता हूं, यह
जानते हुए भी कि अब कुछ भी सुरक्षित नहीं इस समग्र मानचित्र में...।
मैं मूलतः कवि हूं और पुरस्कार नहीं यात्राएं स्वीकार करना चाहता हूं।
यात्राएं ही बचा सकती हैं मुझे। मैं बहुत दूर तक गुम होना चाहता हूं। सर्वत्र प्रताड़ितों
के भोज्य में से एक कौर उठाते हुए मैं जानना चाहता हूं कि सत्ताएं कैसे भेदती हैं
एक व्यक्ति के अंतरतम को। मैं यह भी जानना चाहता हूं कि क्या जल से भी ज्यादा
अर्थवान है कुछ जीवन में और वृक्षों से भी जो सर्वत्र मेरे साथ रहेंगे और धूल से
भी जो मैं कहीं भी चला जाऊं, भूल से भी कभी मुझे मेरे साथियों से जुदा नहीं होने
देगी...।
वर्जित जीवन के
उत्तेजक साक्ष्य
आरंभ से ही आरंभ से अज्ञात
एक विस्मृत कविता की अंतिम पंक्ति की
तरह कुछ था
एक आरंभ और एक भावी अंत के बीच
मूल अर्थ से भटक कर आश्चर्य की तरह की
खुलता
और व्यक्त होते ही व्यर्थ होता
यूं मैं स्मृतिवंचित, रहस्यमुक्त और
निरर्थक हुआ...
मनु अब बीत चुके हैं
इतनी बेसब्र थी मेरी सृष्टि कि बेहद
कम उम्र में ही
मैंने वह सब कर के रद्द कर दिया
जो आज मेरे अग्रजों को आकर्षित करता
है
अब समझ में आता है—
क्यों ये बारिशें मेरे लिए नहीं
बरसतीं
क्यों मुझे छुए बिन गुजर जाता है
मानसून
क्यों इसकी छुअन दर्ज नहीं होती
बड़ी-बड़ी बूंदों के जरिए मेरे
स्पर्शकामी बदन पर
क्यों मैं सबसे किनारा किए हुए
किसी टूटती जलतरंग के सामने
अपना रिमझिम समय याद करता रहता हूं...
वह वर्षा ही रही होगी
उम्र के साथ मेरी आंखों में जिसके
मायने बदलते रहे
...एक भीगी घनेरी रात
खुद की भी नजरों से बच कर
एक दूसरे के लबों को जुठारते हुए
जो प्यास पट रही थी हमारे भीतर
उसकी दरारें हैं अब गले में
तुम्हारा नाम पुकारते हुए
यूं फकीरों की तरह न हर दर से बेआस
होते
जो कुछ और खास होते तो तुम्हारे पास
होते
कांच के पार फुहार निहारते हुए
छातों को अलविदा कहते
बारिश में भीगते रहते
खुल जाती बंदिशें तुम्हारे पहलू में
एक यादगार दिन गुजारते हुए...
फिलहाल समय अब सब कुछ सख्त कर चुका है
एक भी नर्म एहसास अब बाकी नहीं
वर्षा
वह मुझसे इतना प्रेम करता था
कि मुझे अनावृत देखना चाहता था
उसके शरीर पर घाव थे
और रक्त था कि बहता ही जा रहा था
वह जन्म से ही एक प्राचीन युद्ध लड़
रहा था
उसने मुझसे कहा— ‘तुम स्वयं ही अलग कर
दो वह सब कुछ
जो मेरे और तुम्हारे बीच है
आज तक किसी स्त्री ने मेरे लिए ऐसा
नहीं किया’
मैंने कहा— ‘अगर तुम्हारे आंखें न
होतीं
तब भी क्या तुम मुझे इतना ही प्रेम
करते’
उसने कहा— ‘हां’ और आंखें बंद कर लीं
मैंने स्वयं को अनावृत किया और उसमें
तैरने लगी
एक नैसर्गिकता में पार पाना था मुझे
मैं सारी रात भटकती रही
युद्ध में, रक्त में, घाव में...
मनु
वर्षा की कोई संभावना नहीं है
तुम्हारे नगर में
रेनकोट अपनी निरर्थकता में निर्वासित
हैं
और तरलता के सारे स्रोत सूख चुके हैं
बहना स्थितिग्रस्त हो जाने का पर्याय
है
और एक गंदलेपन का सारी नदियों से
अपनापा है
लेकिन मैं नदियों में एक अपनापन पाता
रहा हूं वर्षा
मृत नगरों और व्यर्थ हो चुके इतिहास-सा
अपनापन
जहां मेरे निर्दोष पूर्वज आततायियों
से अंत तक लड़ते रहे
आततायियों में अपनापन नहीं था
वह उनके वंशजों में भी नहीं था
जो नदियों और सभ्यताओं को मलिन करते
रहे
और अब भी रक्तपात का परिदृश्य संभव कर
रहे हैं
लेकिन मैं युद्ध नहीं करूंगा
क्योंकि घृणा में असमर्थ हूं
और प्रेम करते-करते अकेला पड़ गया हूं
तुम्हारे नगर जैसे सारे समय में
मैं थोड़ा-सा विपरीत सुख चाहता हूं
वर्षा
क्या कोई और बंधन हो सकता है
तुम्हारे और मेरे बीच इस घड़ी में
जब तरलता सिर्फ लार में बची है
आनंद सिर्फ देह में
गर्माहट सिर्फ बिस्तरों में
और... क्या कोई और बंधन हो सकता है
तुम्हारे और मेरे बीच वर्षा...
से—
मैं एक पैर से हल्का-सा लंगड़ा कर चलती
हूं
और वह बहुत तेज चलता है
लेकिन ऐसा वह तब करता है जब मेरे साथ
नहीं होता है
ऐसा वह शायद मुझ तक पहुंचने की जल्दी
में करता होगा
मेरे साथ मुझसे बातें करते हुए
वह मेरी रफ्तार के अनुकूल चला करता है
कई जोड़ी अतृप्त आंखें हमें देखा करती
हैं
मेरा एक हाथ उसके हाथ में होता है
और एक हाथ में आधी पढ़ ली गई कोई किताब
होती है
मैं इस तरह क्यों चलती हूं
वह कभी जानने की कोशिश नहीं करता
मुझे उसका साथ बेहतर लगता है
कुछ पुराने पेड़ों और उनकी छांव की तरह
खंडहरों, संग्रहालयों और लाइब्रेरियों
की तरह
मेट्रो स्टेशनों, सिनेमाघरों और
बाजारों में
मैं कुछ और अपाहिज हो जाती हूं
लेकिन जब वह मुझे पुकारता है
तब मैं भागना चाहती हूं
एक विराट हाट से गुजर कर
वह जल्द-ब-जल्द मुझे एक सुनसान जगह पर
ले जाना चाहता है
लेकिन मैं एक पैर से हल्का-सा लंगड़ा
कर चलती हूं
और वह आजकल और भी तेज चलने लगा है...
वर्षांत
एक बरसात बहुत कुछ ध्वस्त कर देती है
मैं खंडहरों की तरफ चलता चला जाता हूं
और वहां देर तक भीगता रहता हूं
एक समय पहले तक
बारिशें मुझे समझ में नहीं आती थीं
मैं समझता था कि गर्मियों के बाद
वे बस यूं ही चली आती हैं
और जब मैं भीग रहा होता हूं
वे सब जगह इस तरह ही बरस रही होती हैं
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है
बाद में मुझे ज्ञात हुआ—
एक समय में सब एक तरह से नहीं भीगते
और कुछ और समय गुजरने पर
मैंने पाया कि बस मैं ही भीगता रहता
हूं
जबकि मेरे आस-पास का सब कुछ
मेरे भीगने से बेखबर रहता है
और यह सब कुछ जब मुझे स्पर्श करता है
तब इस सब कुछ को कहीं भी कुछ भी भीगा
हुआ नहीं लगता है
मेरे अनुमानों से अलग यह एक प्रचलित
यथार्थ है
जहां एक घर है जो मैं छोड़ चुका हूं
एक स्त्री है जो मुझे छोड़ चुकी है
रस्सियां हैं और उन पर फैले हुए गीले
कपड़े हैं
जो धीरे-धीरे सूख रहे हैं
स्त्री काम से लौटकर आ चुकी है
और उन्हें रस्सियों पर से उतार रही है
ओस में नर्म होने से पहले
चढ़ती हुई सर्द रातें हैं
सूर्यास्त से सूर्योदय तक
वर्षा कहीं नहीं है
बस मैं ही भीगता रहता हूं...
मध्य : व्यक्तित्वांतर
यह जगह ‘सेक्स’ का एक धुंधला पड़ चुका
रूपक है
यहां मैं प्राय: उन स्त्रियों के
नजदीक चला आता हूं
जो मुझे कभी प्रेम न दे सकीं
वे मुझे प्रेम देंगी ही
इस तरह की कहीं कोई शर्त नहीं थी
मेरे और उन मध्यस्थों के मध्य
जो एक तंग सड़क के दोनों ओर खड़े हो कर
राहगीरों के चेहरों में वासनाएं तलाशा
करते थे
उनकी बातें बिछुड़ गईं स्थानीयताओं का
पता देती थीं
हालांकि अपनी नई स्थानीयता के प्रति
वे निर्मम थे
इस नई स्थानीयता में वे सब जगह
‘निरोध’ छोड़ते हुए चलते थे
राष्ट्र, धर्म, वर्ण, वर्ग और क्षेत्र
से अलग एक निरोध होना
बेहद सांत्वना देता है एक विस्थापित
व्यक्ति को
राज्य इसलिए सफल होता है
क्योंकि वह व्यक्ति को निरोध में बदल
देता है
‘एक निरोध होना कैसा होता है’
इस अनुभव को खरीदा नहीं जा सकता
इसे बार-बार धुंधले पड़ चुके रूपकों,
प्रेमवंचित स्त्रियों
और विस्थापितों में खोजना और पाना
होता है...
इषा
मैं अब तक बस तुम्हें तुम्हारे नाम से
जानता हूं
मैं कुछ भी नहीं जानता
तुम क्यों इतनी उदास थीं जब पास थीं
बेहद निर्लिप्त, निस्पृह और खुद में
खोईं-सी
जबकि आस-पास असंख्य महत्वाकांक्षाएं
थीं
बेशुमार खुश आंखें, खुश होंठ और खुश
वक्ष थे
तुम क्यों इतनी मुरझाई हुई थीं
जबकि सब तरफ वसंत था...
मैं और जानना चाहता था तुम्हें
तुम्हारे नाम से आगे तुम्हारी उदासी
तक
लेकिन मेरे शब्द मेरी आकांक्षा में
निहित अर्थों को
निरर्थकता तक घसीट कर ले गए
यूं मैं भाषा के विभ्राट से गुजरा
चलती बसों और ट्रेनों के पाएदानों पर
खड़ा
तुम्हारे विषय में सोचते हुए इषा...
मनु पुत्र
समय में अप्राकृतिकता पसर रही थी...
वह यौनांगों के आस-पास भीषण जलन का
समय था
वह विकृत यौन-दृष्टि वाले नए युवकों
के उदय का समय था
वह उभरती हुई कॉलगर्ल्स के बेरोजगार
हो जाने का समय था
वह उत्तेजना के दवाइयों में बदल जाने
का समय था
वह असंख्य बच्चों के साथ दुनिया भर
में फैले अपने बिस्तरों पर
वीर्य से संबंधों की उत्तर-व्याख्या
रचने का समय था
वह ‘सांस्कृतिक-हास्य’ और
‘विमर्श-विलाप’ का समय था
वह उदात्त भावों के विसर्जन का समय था
वह प्रेम में पराजय का समय था
इस समय में वह था और स्वप्न थे
स्वप्नों में उत्तेजनाएं थीं— आए दिन
एक नई देह मांगती हुईं
इस तरह सब स्वप्न आनंद गढ़ते थे
लेकिन सब स्वप्नों से अलग
वास्तविकताओं का एक गर्म एकांत होता है
इसलिए वह भी था— गर्म एकांत
जहां निरंकुश कामाकांक्षाएं
अनियतकालिक दबावों के साथ उभरती थीं
और देखते-देखते सब कुछ देह में बदल
जाता था
वस्तुएं यौन-प्रतीकों में स्थानांतरित
होती थीं
और संध्याएं काल्पनिक संभोगों के लिए
विवश करती थीं
नायिकाएं उरोजों से ढक लेती थीं उसका
देखना
और वह खुद को दीवारों से रगड़ता रहता
था
वह आत्म-मैथुन से ग्रस्त था
और कई बार उसे मित्रों के साथ
आपत्तिजनक स्थितियों में भी देखा गया
था
इस दरमियान अगर उसे लड़कियां मिली
होतीं
यकीनन मोम बन कर पिघल गई होतीं...
इषा अर्थात जिजीविषा
इस क्रूर समय की असभ्य उत्तेजना में
एक ईश्वर उसकी प्रतीक्षा में है
प्रेम... रूप... देह... स्पर्श...
उन्माद... उजास... मुक्ति...
को एकआयामी विस्तार देते हुए
वह भटकती रहती है इस सृष्टि में
वह सब कुछ अपने जैसा चाहती है
अपने जैसे केश... होंठ... गाल...
दंत...
अपने जैसी हंसी... अपने जैसे नख...
अपने जैसा वक्ष… अपने जैसी नाभि...
जांघें... पिंडलियां...
अपने जैसे कूल्हे... अपने जैसे
तलवे...
और अपने जैसा स्पंदन...
वह सब कुछ अपने जैसा चाहती है
बाथ टब में लेटी हुई एक नग्नाकृति...
कोई पुरुष उसका ताप कम नहीं कर
सकता
फेड आउट
देवता भी आए हैं यहां और पवित्र
आत्माएं भी
एक विचित्र अवसाद के अभ्यस्त
सर्वमुखव्याप्त कामनाओं के शाश्वत में
पृथ्वी-सी देह वाली स्त्रियों का रुदन
उन्हें आकर्षित करता रहा है
उनकी योनियां ईश्वर का आवास थीं
इस आवास के आस-पास कुछ बच्चे
खेलते-खेलते गायब हो जाते थे
वे बहुत साधारण वस्तुओं से खेलते थे
कोई भी बच्चा उन वस्तुओं से नहीं खेल
सकता
लगभग परित्यक्त या नष्ट हो गई मानवीय
गरिमा के अनकरीब
बहुत मार्मिक थे उनके खेल और बहुत
मटमैले थे वे
अनगढ़, असुंदर और सर्वहारा
कसाइयों ने उनका सब कुछ उनसे छीन लिया
था
वे बस हड्डियों और पंख भर बचे थे
इस सृष्टि पर मंडराते हुए
उनकी योनियां यातनाओं का प्रज्ज्वलित
वर्तमान थीं
इस वर्तमान में कई अंतराल थे— वर्तमान
से भी ज्यादा विस्तृत
एक अंतराल में एक लड़की बेहद तेज धुन
पर
बेतरह अपने वक्ष और नितंबों को हिलाती
थी
एक लड़की रैम्प पर चलते-चलते टॉपलेस हो
जाती थी
एक लड़की शिश्न का इस्तेमाल टूथ ब्रश
की तरह करती थी
और एक अंतराल में कई लड़कियों के साथ
सामूहिक बलात्कार होते थे
और एक अंतराल में एक राष्ट्र हंसता था
और एक अंतराल में एक राज्यपाल राजभवन
में व्याभिचार रचता था
और एक अंतराल में कई ‘रूपहीन
अनामिकएं’ गिरफ्तार होती थीं—
समय की प्रमुख खबर बनते हुए...
और एक अंतराल में एक भव्य महल से
कई बच्चों के शव बरामद होते थे
तहकीकात आगे बढ़ने पर
एक खंजर और कई और बच्चों के शव बरामद
होते थे
तहकीकात के बाद भी
वहां कई खंजर, कई शव और ढेर सारी
हड्डियां और पंख...
जीवन को वर्जित करते हुए
और एक और अंतराल में
मनु, वर्षा और इषा नेपथ्य से
शब्दवंचित विलाप करते हैं
और मंच पर मौजूद साक्ष्यों पर
धीरे... बहुत धीरे-धीरे अंधेरा उतरता
है...
(सदानीरा से साभार)
(सदानीरा से साभार)
सम्पर्क-
अविनाश मिश्र
'पाखी'
'पाखी'
बी-107, सेक्टर-63,
नोएडा-201301, उत्तर प्रदेश
नोएडा-201301, उत्तर प्रदेश
मो. : 09818791434
अविनाश ,आपकी रचनाएँ बहुत अलग हैं ,और बेबाक भी। ऐसे समय में जब सब एक जैसा ही या फिर मिलता जुलता रच रहे हैं ,आपकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। बधाई !!
जवाब देंहटाएंअविनाश मिश्र की इन कविताओं ने अन्दर तक झकझोरा, ऐसी बेबाकी के साथ समय के नगें सच को कोई साहसी और मौलिक कवि ही लिख सकता है...सुंदर रचनाओं से अवगत कराने के लिये 'पहलीबार' को धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंमानसून-दर-मानसून बरसते चले जा रहे हैं और में अपनी उम्र , अपनी अयोग्ता और अपनी काव्य-पंक्तियों के साथ खुद में कहीं गुम होता जा रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंमनु अब बीत चुके हैं ,वर्षा ,इषा अर्थात जिजीविषा, फेड आउट सभी कविताएं बढ़िया और एक नए रूप में हैं।
नई कविता ने जीवन को न तो एकांगी रूप में देखा।, न केवल महत् रूप में, उसने जीवन को जीवन के रूप में देखा। इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं।
अविनाश जी को फेसबुक पर पढता रहता हूँ |बहुत सारी कविताएँ भी उसी माध्यम से पढ़ीं... यहाँ की कवितायें मुझे खुद को समझने को प्रेरित कर रही है बस इतना कह सकता हूँ | ज्यादा कहने को बाध्य नहीं हूँ क्योंकि जादा समझना, महसूस करना जरूरी है, कहना नहीं .......
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