हाईवे फिल्म की श्रीकान्त दुबे द्वारा की गयी समीक्षा
हाल में ही रिलीज हुई फिल्म 'हाईवे' अपने नए कथ्य और प्रयोग के चलते और हिंदी फिल्मों से अलग दिखाई पड़ी है और चर्चा के केन्द्र में रही है. इस फिल्म की तह में जाने का एक प्रयास किया है युवा कवि-कहानीकार श्रीकान्त दुबे ने. तो आईए श्रीकान्त के इस आलेख के साथ-साथ हम भी कुछ देर के लिए हाईवे पर चलने का लुत्फ़ उठाते हैं.
श्रीकान्त दुबे
अर्जेंटीनी मूल, बेल्जियम में पैदाइश और
निर्वासित होकर फ़्रांस में रहे स्पैनिश भाषा के लेखक खूलियो कोर्तासार अपने सबसे
चर्चित उपन्यास ‘रायुएला’, जिसे हिन्दी रूपांतरण में (जमीन पर खींची लकीरों के बीच
कंकड़ के चपटे टुकड़े फेंक कूद-कूद कर खेले जाने वाले खेल) ‘ती ती..था’ का नाम दिया जा सकता है,
को पढने के कुल चार तरीके सुझाते हैं. पहला तरीका परंपरागत, यानी
शुरू से आरम्भ कर अध्यायवार अंत तक पढ़ते जाने का. दूसरा तरीका, पहले अध्याय से
शुरू कर 56वें अध्याय तक पढ़ना, बाकी छोड़ देना. तीसरा, किताब के आरम्भ में लेखक
द्वारा सुझाए गए अध्यायों के (अनियमित) क्रम में, किसी ख़ास अध्याय के बाद बीच के
अनेक अध्याय छोड़ते हुए किसी दूरस्थ अध्याय पर चले जाते हुए. और चौथा तथा आखिरी
तरीका पाठक को अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अध्याय
को कहीं से भी पढ़ लेने का.
इम्तियाज़ अली की
फिल्म ‘हाईवे’ देखते हुए इस उपन्यास की याद आ जाना स्वाभाविक था, क्यूंकि कोर्तासार
के सुझाए तरीकों की ही तर्ज पर इस फिल्म को देखने के कुल तीन तरीके हो सकते हैं.
तथा तीनों में से कोई एक अपनाते हुए इसे एक मुकम्मल फिल्म करार दिया जा सकता है. पहले तरीके की मानें, तो फिल्म के बीच इंटरमिशन
का सन्देश दिखते ही फिल्म को पूरी मान कर बाहर आ जाएँ, एक पूरी और सार्थक फिल्म
देख लेने जैसा ही महसूस करेंगे. दूसरा तरीका आजमाते हुए, आपको आलिया भट्ट के बाद
फिल्म के दूसरे सशक्त अभिनेता रणदीप हुडा के किरदार के अंत, यानी फिल्म के
कमर्शियल तरीके से ख़त्म होने के तकरीबन 15 मिनट पहले ही देखने का
प्रक्रम बंद कर देना होगा. और तीसरे एवं अंतिम तरीके में आप इसे, ठहर कर, अंत तक देखें, जो आपको एक ठीक-ठाक
कमर्शियल के पूरेपन जैसा आस्वाद देगी. यह एक अलग बहस हो सकती है कि फिल्म को तीनों
में से किस प्रकार से देखना ‘हाईवे’ को एक बेहतर फिल्म करार देता है, वैसे मेरी
व्यक्तिगत राय में पहले प्रकार, यानी सिर्फ इंटरमिशन तक देखा जाना इसे अपेक्षाकृत अधिक
सार्थक, सटीक और सधी हुई फिल्म साबित करता है.
इम्तियाज़ अली ने
इससे पहले की फिल्मों में भी कथानक भर से बाहर जाते हुए चरित्रों को स्वतन्त्र रूप
से विकसने के भरपूर मौके दिए हैं, जिससे उनकी फिल्मों को एक गति मिलती है और वे न
जाने कितना कुछ कहती हुई भागती सी दिखती हैं. फिल्म रॉकस्टार तथा उसके प्रमुख
किरदार ‘जनार्दन’ उर्फ़ ‘जोर्डन’ को इसके लिए याद किया जा सकता है. हाईवे, लेकिन,
इस क्रम में शीर्ष पर ठहरती है. वीरा त्रिपाठी के किरदार में आलिया भट्ट पहली ही
झलक से परफेक्शन के करीब दिखने लगती है. अनुभवी कलाकार रणदीप हुडा भी महावीर भाटी
के किरदार में एक्सीलेंट करते हैं, लेकिन अभिनय के लिहाज से आलिया के सामने थोडा
फीका पड़ता नजर आते हैं.
खैर, फिल्म की
शुरुआत किसी डाक्यूमेंट्री के अंदाज़ में होती है, कैमरा उत्तर भारत के भूगोल में
डूबता-उतराता, हिलता-डुलता आखिरकार शादी की तैयारियों में व्यस्त एक घर के के
बंदोबस्त तक आता है. घर लुटियंस दिल्ली, यानी चाणक्यपुरी, या महारानी या मोती बाग़
जैसे किसी पॉश इलाके में बसे किसी रईस का. और घर के पिछले दरवाजे से काली पुशाक
में निकल कर भागती वीरा
त्रिपाठी. जिसे जल्द ही जोड़ा पहन शादी के मंडप में उतरना है. वीरा का इस तरह भागना
किसी और के नहीं बल्कि उसके अपने ही मंगेतर विनय के साथ होता है. वे मात्र पंद्रह
मिनट में लौट आने के करार के साथ हाईवे तक जाते हैं. इस तरह मात्र पंद्रह मिनट के
लिए भागना, खुद वीरा के शब्दों में कहें तो ‘थोड़ी देर खुले में रहने’ के लिए होता
है. वह कहती है, ‘आई वांट टू ब्रीद. ये रस्म रिवाज, आइये जी, नमस्ते जी, घाघरा,
झुमका, नथनी. प्लीज़ चलो यहाँ से. थोड़ी देर इस घर से दूर रहते हैं, खुले में.’
ज़ाहिरी तौर पर वीरा
और विनय जैसों की रिहाइश का इलाका ही दिल्ली में सबसे ज्यादा खुली हवा, ताज़ा
ऑक्सीजन और प्रति घर सबसे ज्यादा हरियाली का हिस्सेदार होता है. ऐसे में वीरा के
घुटन की कल्पना आधुनिक अभिजात्य के ग्लैमर से रचित ‘छद्म’ मालूम होता है. तथा ‘आइये
जी, नमस्ते जी...’ आदि से होने वाली ऊब भी क्षणिक ही लगती है और फिल्म के विकास के
लिए जरूरी उपक्रम भर प्रतीत होती है. बहरहाल, फिल्म आगे बढ़ती है और काफी देर तक
ऐसा कुछ भी नहीं होता जो राम गोपाल वर्मा की ‘रोड’ देख चुके चेतस दर्शकों के लिए
‘हाईवे’ नामक फिल्म के लिहाज से अप्रत्याशित हो. मतलब वही, नायिका का गाडी से निकल
कर बाहर आना, गैंगवार के बीच फंसना और फिर अपहृत हो जाना आदि. इस बीच वीरा के भावी
पति विनय का अकर्मण्य सा ‘मैंने कहा था ना, मैंने कहा था ना..’ भर बोलते रह जाना
भी यथार्थ की तस्वीर की तरह दिखती है.
चार-चार अपहर्ताओं
द्वारा एक वैन में ठूस कर ले जाई जाती वीरा पर प्रतिरोध की कोशिश के बदले सिर्फ
आक्रोश से लैश पुरुष (रणदीप हुडा) के चंद थप्पड़ बरसते हैं, और यहाँ तक उसे छेड़-छाड़
या बलात्कार जैसी चीज़ का सामना नहीं करना पड़ता है. हालाँकि, फिल्म के इस हिस्से
में दिखाए परिवेश तथा अपराध के साथ साथ मर्दानेपन के आवेश में चूर पुरुषों को देख
यह एक स्वाभाविक सी चीज़ लगती है. लेकिन आगे चल कर इसके पीछे फिल्मकार का मंतव्य स्पष्ट
हो जाता है. यहाँ अपराध को किसी भी तरह से जायज ठहराने की कोशिश नहीं की जा रही
है, लेकिन यह फिल्म की मार्फ़त आये इस सन्देश पर गौर किया जाना चाहिए कि बलात्कार
और छेड़-छाड़ जैसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए बदनाम निम्न वर्ग मौक़ा मिलने पर,
निरपवाद, ऐसा ही करेगा, यह जरूरी नहीं. ज़ाहिर है, अपहरण के वक़्त वीरा और विनय के
हाव-भाव, महंगी गाड़ी आदि देख अपहर्ताओं को इस बात का भान भी हो जाता है कि शायद
उन्होंने गलती की. जल्द ही पता चलता है कि लड़की किसी ‘मानिक त्रिपाठी’ की बेटी है,
पुलिस, मिलिटरी, बी.एस.एफ. सारे जिसकी जेब में रहते हैं. इस तरह से वीरा अपहर्ताओं
के गले की हड्डी बन जाती है, महावीर भाटी (रणदीप हुडा) यहाँ अपवाद बनता है और इस
कृत्य को अकेले दम पर त्रिपाठी खानदान से फिरौती वसूल करने के मुकाम तक ले जाना
चाहता है. वह वीरा को उठा कर पहले अजमेर, फिर राजस्थान के सीमावर्ती किसी गाँव में
ले जाता है. यहाँ तक वीरा के ऊपर यातना का दौर चलता रहता है. वीरा किसी तरह से
भागने की कोशिश करती है और पकड़ी जाती है. अपहर्ता आश्वस्त हैं कि भाग कर जहां भी जाएगी,
लौट कर यहीं आना होगा. वहीं अब तक महावीर भी यह चाहने लगा है कि किसी तरह इससे
पीछा छूटे. वीरा सबके सामने से जाती है, भागती, थक कर गिरती, उठती, फिर से भागती,
चलती...और अंत में लौट कर वापस अपहर्ताओं के पास आ जाती हुई. ‘जैसे उड़ी जहाज को
पंछी पुनि जहाज को आवे’ की तरह, दूर-दूर के विस्तृत बियाबान में कहीं भी कोई
सहारा-ठिकाना न पाते हुए. ‘सॉरी’ बोलती हुई.
यहाँ से कहानी एक
मोड़ लेती है. वीरा के प्रताड़ना और यातना का दौर लगभग ख़त्म होता है, और उस पर ललचाई
सी नजर रखने वाला एक अपहर्ता गौरव उर्फ़ गोरू भी वीरा के साथ जबरदस्ती करते हुए
पकडे जाने के बाद मुखबिरी के वास्ते शहर की तरफ भागते हुए परिदृश्य से चला जाता
है.
यह बात महावीर को भी
पता है कि वह वीरा को साथ रख कर कहीं भी चंद रोज से ज्यादा सुरक्षित नहीं है, और
किसी की मुखबिरी से सिर्फ इतना ही फर्क पड़ने वाला है कि जहां दो चार रोज और रुक
सकते थे, वहां से अब चंद घंटों में कूच कर जाओ. यूं, महावीर और वीरा के साथ ट्रक
के कंडक्टर के रूप एक और शख्स आड़ू होता है और तीनो चल निकलते हैं. इस तरह
भागते-फिरते रहने की तुलना ‘डिस्कवरी चैनल’ से कर कुछ दर्शक ‘हाईवे’ को ‘डिस्कवरी’
वाली फिल्म का नाम दे रहे हैं. लेकिन डिस्कवरी वाले तत्व के बावजूद फिल्म में
भरपूर मात्रा में ‘फिल्मपन’ बचा रहता है, मुद्दा यह है कि आप देखना क्या चाहते हैं
और सोचना कितना चाहते हैं! अज्ञात दूरी वाले सफ़र के दौरान वीरा धीरे धीरे महावीर
की घुड़कियों का बराबरी से जवाब देना शुरू कर खुद के लिए माहौल को सहने लायक बना
लेती है तथा महावीर और आड़ू की सहयात्री की हैसियत ले लेती है. इस क्रम में एक जगह
रूक कर वीरा अपने आप से पूछती है, ‘वीरा, तू कैसी है?’ जवाब में खुद ही बोलती है,
‘सोच कर बताती हूं’. खुद के लिए ही सोचने की मोहलत माँगना इस बात का प्रमाण है कि
वीरा इन अजनबी चेहरों और अजीब तरीके से जीने वालों की गिरफ्त से बच कर वापस लौट
जाने के यत्न भर से आगे बढ़ किसी और मनःस्थिति तक भी पहुँच रही है. और ‘तू कैसी है’
का ज़वाब सीधे सीधे ‘मत पूछो कि कैसी हूं’ जैसे हताशा से उपजे वाक्य के साथ नहीं
देती.
गाड़ी पंजाब की सीमा
में घुसती हैं और नाके पर पुलिस मिलती है. वीरा के पास भरपूर मौका होता है कि वो
यहाँ से पुलिस के साथ हो ले और सुरक्षित घर लौटे. लेकिन वह ऐसा नहीं करती और ट्रक
की तलाशी के दौरान अन्दर ही छिपी रह जाती है. वीरा ऐसा क्यों करती है, इसके ज़वाब
स्वरुप आता है अगला दृश्य, जहाँ पर आगे से सफ़र के लिए रोटी पानी ले लेना होता है.
वीरा एक कहानी
सुनाती है, ‘मैं नौ साल की थी. घर में. वो इम्पोर्टेड चॉकलेट्स लाते थे. मेरे
अंकल. मुझे गोद में बिठा कर प्यार करते थे. और अकेले में, बाथरूम के अन्दर फिर गोद
में बिठाते थे. और प्यार करते थे. चीखती थी मैं, मगर वो मेरा मुंह बंद कर देते थे,
ऐसे... ताकि मेरी चीख बाहर न निकले. बहुत दर्द होता था. श्श्श्श. बस बस बस. हो
गया. मेरी गुडिया. बेस्ट लडकी है तू दुनिया की. सबसे ब्यूटीफुल. वे फिर आते थे. बार...बार
आते थे. अन्दर चीखती थी मैं. श्श्श्श....श्श्श्श... किसी से कहना मत. एक दिन मैंने
मम्मी को बोल दिया. बताया उन्हें. मम्मी ने कहा, ‘श्श्श्श...श्श्श्श... किसी से
कहना नहीं...’ मैंने किसी से नहीं कहा. उसके बाद वो सब बंद हो गया.’
इस दृश्य के साथ
कलेजे में एक गहरी चीर लग जाती है. आँखों के आगे अनंत तक अँधेरा छा जाता है, जिसके
पार से दसियों चेहरे दिखने लगते हैं. हमारी अजीज़, दुलारी और जिगर का टुकड़ा लड़कियों
के चेहरे. जिनमें से किसी के भी भीतर जज्ब हुआ हो सकता है कोई ऐसा ही, या इससे भी
अधिक लिजलिजा सच. शायद किन्हीं सहेलियों और जैविक रूप से करीबी तथा किसी भी लड़की
की पहली, और समूची दुनिया छान कर वापस आ जाने के बाद फिर से मिल जाने वाली आखिरी दोस्त
‘माँ’ ने भी ‘इज्जत’ और ‘सामाजिक प्रतिष्ठाओं’ के न जाने कितने टन के भार तले दबे
हुए किसी और के सामने ‘मुह न खोलने’ के सुझाव देकर वीरा की ही तरह उन्हें भी पृथ्वी
ही नहीं, बल्कि आकाशगंगाओं सरीखे विस्तृत बियाबान के बीच धुर अकेला छोड़ दिया होगा.
यूं, शोषण का क्रम बदस्तूर चलता रहा होगा, शोषक को अपना अत्याचार कायम रखने का
हौसला देता हुआ. इस तरह, आप और उन अजीज़ चेहरों के बीच का अनंत अँधेरा ऐसे न जाने
कितने सच अपने भीतर भरे रहता है, जिसे उजागर करने के लिए चाहे हजारो हजार
ट्यूबलाइट्स जला ली जायं, कोई फायदा नहीं.
ठीक इसी बिंदु पर,
जबकि एक ओर आपको आस-पास की हरेक स्त्री घनघोर तरीके से असुरक्षित और असहाय लगती
है, ऐसे कुकृत्यों के लिहाज से, समूची पुरुष जाति शक के दायरे में आ कर कटघरे में
खड़ी दिखने लगती है. क्या पता आपका सबसे करीबी दोस्त, भाई या रिश्तेदार ही आपकी
आँखों के तारे जैसी किसी ऐसी ही दुलारी का अपराधी हो. अपराध का तत्व किसी में भी
हो सकता है, फर्क होता है तो अपराध को अंजाम देने के बाद ओढ़े सफ़ेद लिबास के
स्थायित्व से. जो (अपराधी) जितना अधिक शातिर, वो अपराधी होने के आरोप से उतना ही
दूर, यानी समाज की नजर में सभ्य, सेंसिबल, नोबल और हो सकता है फेमिनिस्ट भी.
वीरा आगे कहती है, “फिर
भी वो आते थे. मेरे लिए चॉकलेट्स लेकर. आज भी आते हैं. मैं उनकी गोद में बैठती
हूं, वो मुझे प्यार करते हैं... मैं हंसती हूं... मेरी गुडिया... सबसे ब्यूटीफुल...!
जानवर साले. तमीज़, तहज़ीब, नमस्ते करो. पाँव छुओ इनके. हर तरफ वो ही हैं. उनके बीच
रहना है. हँसना है. दोस्ती करनी है. प्यार करना है.” गहन है यह अंध कारा!
चाहे घर-परिवार का
विश्वसनीय समझा जाने वाला कोई शख्स हो या नाके पर खड़ी पुलिस, इस तरह के किसी भी
सिस्टम जनित चैनल से अधिक विश्वास एक धुर अपराधी पर होना स्वाभाविक लगता है. वीरा
महावीर से कहती है, ‘जहाँ से तुम मुझे ले आये, मैं वहां वापस नहीं जाना चाहती.
जहां भी ले जा रहे हो, वहां पहुंचना नहीं चाहती. पर ये रास्ता... ये बहुत अच्छा
है. मैं चाहती हूँ कि यह कभी ख़त्म ही न हो.
विषय, कथानक, आलिया
भट्ट का अल्ल्हड़ अभिनय और इन सबके साथ निर्देशक के ट्रीटमेंट के बीच जो बात अब तक
भूली रही, वो हर जगह अपनी जबरदस्त मौजूदगी के साथ आता ए आर रहमान का पार्श्व संगीत
और इरशाद कामिल के बोल. रहमान को ‘अच्छा’ या ‘बहुत अच्छा’ कहना ‘सूरज’ को एक बार
फिर से ‘सूरज’ कह देने जैसा होगा, जबकि इरशाद कामिल इस
दफे ग़ज़ब की तैयारी के साथ उतरे हुए मिलते हैं. हालाँकि दिल्ली, हरियाणे, राजस्थान
के बाद हिमाचल और कश्मीर तक के फिल्माए जाने के बीच से पंजाब के लगभग अनुपस्थित
रहने के कारण कुछ गीतों का पंजाबी में होना किसी-किसी को असंगत लग सकता है, लेकिन
आज के समय में इनमें से सभी प्रदेशों के जनमानस में पंजाबी गीतों की पैठ और समझ
जिस तरह बढ़ रही है, भले ही वो मीका सिंह और यो यो हन्नी सिंह की बदौलत क्यों न हो,
पंजाबी में लिखे इरशाद के गीत कहीं से भी अतिरिक्त नहीं लगते.
वो फिर से आगे बढ़ते
हैं, ‘पटाका गुड्डी हो...’ गीत के इस बोल के तर्ज पर: ‘मैंने तो तेरे, तेरे उत्थे छड्डया
डोरया’...और दर्शन के पहले (अथवा मेरे पसंद के) प्रकार से फिल्म यहाँ ख़त्म होती
है. यानी इंटरमिशन. लेकिन निर्देशक, फिल्म के नाम पर एक समुचित अंत के प्रतीक्षा
करने वाले दर्शक, तथा कमर्शियल बालीवुडिया की तरह तीन घंटे अनुशासन आदि के
मद्देनज़र, पिक्चर अभी भी बाकी रहती है.
महावीर की अकड़ू डांट
डपट वीरा पर पूरी तरह से बेअसर होने लगती है, और वह उसके चट्टान सरीखे महसूस होते
दिल के सबसे कोमल हिस्से छूने लग जाती है. ‘सुहा साहा..’ के सुन्दर गीत की धुन के
सहारे उसके माँ की याद दिलाते हुए. इस मुकाम तक आकर वीरा, महावीर और आड़ू के साथ को
जीने लग चुकी होती है. जी जा रही चीज़ भले ही महज़ एक सफ़र क्यों न हो, लेकिन जिन्दगी
से लबरेज़. वे पहाड़ों पर चढ़ने लगे होते हैं जब वीरा आड़ू से बोल सीडी की दूकान से अंगरेजी
गाने का कैसेट मंगाती है, जिसे बजा कर दोनों नाचने लगते हैं. आड़ू इसके बाद विदा
लेता है और आगे के सफ़र में वीरा के साथ महावीर भर बचता है. महावीर भी वीरा को
पुलिस के हवाले कर छुटकारा पा लेना चाहता है. लेकिन वीरा कि जिद पक्की है. एक नहीं
तो हज़ार नहीं. उसे वापस नहीं लौटना. महावीर को भान हो जाता है कि वीरा का साथ अगर
नहीं छोड़ा तो वो बस थोड़े ही वक़्त का मेहमान होगा. वह किसी तरह से वीरा से छुटकारा
ले चंडीगढ़ वापसी के लिए बस स्टैंड पहुँचता है. और वीरा वहां पहले से मौजूद. महावीर
बेबस हो जाता है, जिधर मौत बिलकुल साफ़ साफ़ झलक रही होती है, जिन्दगी भी दरअसल उसे
उसे उधर ही दिखती है. चाहे जितनी सी मिले. वीरा के साथ, उसी के खयालों वाली, खरगोश
के बालों सी मुलायम सौ ग्राम जिन्दगी. वीरा उससे पूछती है की अब आगे क्या? उसके
आगे महावीर भी वीरा बन जाता है. जो सोच वीरा को आनी थी, महावीर पहले ही से उसके
लिए तैयार मिलता है. वो चाहे बस की छत पर बैठ पहाड़ों से बचते मिलते चले जाना हो,
दूर दिख रही चोटी तक जा पाने की तमन्ना हो, या फिर किसी ऐसे ही पहाड़ में छोटा सा
घर. वीरा का अपना घर, जिसमें वो चूल्हा फूंके और महावीर भेड़ चराने जाया करे. यहाँ
तक आते आते भीतर से मोम हो चुके महावीर का चट्टान वीरा के सपनों के घर में घुसते
ही चूर-चूर हो जाता है. वो फूट-फूट कर बिखरता है और वीरा उसे सहेजती जाती है. इस
तरह एक जीवन पूरा होता है.
सुबह होती है और
आर्मी की मदद से महावीर को ढेर कर दिया जाता है. शुरू से ले कर यहाँ तक आते हुए एक
और फिल्म ख़त्म होती है. इस मुकाम पर आकर नागेश कुकुनूर की फिल्म ‘डोर’ के अंत की
याद आती है, जिसमें राजस्थान के रूढ़िवादी परिवेश में जीने (तिल-तिल कर मरने) को
मजबूर नायिका (आयशा टाकिया) कश्मीर से आयी, उसके पति के कथित हत्यारे की पत्नी
(गुल पनाग) को ही रुढ़िग्रस्त सामाजिकता के जेल से बाहर निकल पाने का जरिया पाती
है. यूं, अंतिम दृश्य में ट्रेन के साथ विदा हो रही गुल पनाग का पीछा कर, वह खुद
भी ट्रेन में चढ़ जाती है. आगे का जीवन जितना ही अनिश्चित रहता है, उसमें उतनी ही
संभावनाएं छोड़ती हुई फ़िल्म एक ‘ओपन एंडेड’ अंत देती है. हाईवे भी, अगर इतने पर
ख़त्म हो जाती, तो बेहतर होता.
इसके बाद का हिस्सा फिल्म
में अलग से जोड़ा हुआ सा लगता है, क्यूंकि उसमें न तो महावीर होता है और न ही वीरा.
वीरा का जो हिस्सा अंकल की गोद में बैठा करने के बाद मरने से बच गया था, वो महावीर
के अंत के साथ ख़त्म हो जाता है. शेष मिनटों में उसकी शरीर पागल और बीमार साबित की
जाती हुई फिर से ‘अपने’ कहे जाने वाले उन्हीं भेड़ियों लोमड़ियों के बीच पेश होती
है. वह उस आततायी अंकल की कलई खोलती है और कहती है कि वह जा चुकी है, और वापस नहीं
आ सकती. बचे खुचे वजूद को समेट वो वापस चली जाती है, पहाड़ों में. शुरू लेकर अंत तक
चली, इस तरह से ‘हाईवे’ नाम की तीसरी फिल्म भी ख़त्म होती है. किस्सा गया वन में,
पर सोचिएगा जरूर अपने मन में.
श्रीकांत दुबे
बी-59/
जी-2,
दिलशाद कॉलोनी,
दिल्ली- 110095
मोबाईल -08744004463
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