विमलेश त्रिपाठी के कविता संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ पर मिथलेश शरण चौबे की समीक्षा



सुपरिचित युवा कवि-कहानीकार विमलेश त्रिपाठी का बोधि प्रकाशन से हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है- ‘एक देश और मरे हुए लोग’. इस संग्रह पर एक समीक्षा लिख भेजी है युवा कवि मिथलेश शरण चौबे ने, तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा – ‘सबसे कम आदमी रह जाने की होड़ के विरुद्ध’


सबसे कम आदमी रह जाने की होड़ के विरुद्ध

मिथलेश शरण चौबे

           एक ऐसे समय में जबकि जनविमुख व दूषित राजनीति की केन्द्रीयता ने जीवन के सारे आयामों को अपनी तरह पतनोन्मुख बनाने की कुत्सित चेष्टा की हो, हाशिए का हिस्सा बना दिए गए साहित्य की सुन्दर-खुरदुरी और फौरी किस्म की कार्यवाहीविहीन भूमि से निरुपायता की आत्ममुग्ध छवि को ध्वस्त कर एक लम्बे विलाप से उबरते हुए, अपने समय व उसमें घटित को प्रश्नांकित करने, सही और गलत का वाजिब फ़र्क जताने और साहित्य की वास्तविक हिस्सेदारी को सघन बनाने के कर्तव्य निर्वहन की दिशा में युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ की कविताएँ असन्दिग्ध प्रमाण हैं| पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके लोगों की कर्तव्यविमुखता के आत्माभियोग से यह संग्रह शुरू होता है जिसे मुक्तिबोध के शब्द स्वर देते हैं-

‘अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज्यादा लिया और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम|’

           पाँच उपशीर्षकों में संयोजित सैतालीस कविताओं में कवि संवेदना का विस्तार मिलता है| ’इस तरह मैं’ खण्ड में शीर्षक कविता के अलावा शेष अपेक्षाकृत छोटी कविताएँ हैं जिनमें अपने परिवेश के प्रति कवि संवेदना की झलक मिलती हैं| खुद कुछ सार्थक नहीं करने वालों से भरी इस दुनिया में बेहतर के लिए अपनी तरह से किंचित यत्नों में लगे मनुष्यों के लिए अवरोध का काम करने वालों के प्रति कवि आत्मसजग है-

‘न चल सको तुम
बेशक न चलो
पर मेरे क़दमों की रफ़्तार
न रोको कोई|’

अपने घर, गाँव, आसपास, वृक्षों आदि से गहरा आत्मीय लगाव भी कविताओं में आत्ममुग्धता से विलग एक ज़रूरी चिन्ता की तरह आता है-

‘पेड़ की जगह
उग आएगी एक शानदार इमारत
मैं देखता खड़ा रहूँगा
घर की अकेली खिड़की से|’

यही चिन्ता अपने लिए और भी जवाबदेह बनाती है अपने परिवेश के प्रति, सच के प्रति और बहुत सारी उन बेमानी चीज़ों से खुद को एक नैतिक मनुष्य की तरह बचा लेने की सार्थक कोशिश के प्रति, जिनके निरर्थक व्यामोह में बहुसंख्यक जन संलग्न हैं-

‘जब कभी कोई पुकारता शिद्दत से
दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद ज़रूरत’,
‘इस तरह मैं आदमी एक
इस कठिन समय का
जिन्दा रहता अपने से इतर
बहुत सारी चीज़ों के बीच
अशेष|’
         ‘बिना नाम की नदियाँ’ उपशीर्षक के अन्तर्गत शामिल सात कविताएँ बहन, माँ, आजी, होस्टल की लड़कियों के जीवन की चुनौतियों, नरम-गर्म अहसासों को प्रतिकृत करती हैं| इन कविताओं में स्त्री संवेदना का अनूठा संस्पर्श मिलता है| बहन व होस्टल की लड़कियों पर केन्द्रित कविता में यह अनूठापन अपनी सहजता व स्त्री जीवन की मार्मिक सच्चाइयों के रूप में व्यक्त होता है| परिवार में लडकियों का होना पढ़े-लिखे व समझदार घोषित किए जाते लोगों के बीच आज भी एक दवाब की तरह मायने रखता है, जबकि भले ही उनकी अपनी आकांक्षाएँ लगभग स्थगित हों-

‘उन्हें अब कुछ भी बनना ना था
एक ऐसे देश और समय में पैदा हुईं थी वे
जहाँ उनके होने से कन्धा झुक जाता था’,

यदि किंचित कामना इन लड़कियों की है भी तो वह स्त्रियों के शाश्वत बन्धन से मुक्ति की ही है-

‘भेजना मुझे तो भेजना मेरे बाबुल
उस लोहार के पास भेजना
जो मेरी सदियों की बेड़ियों को पिघला सके|’

         घर के सुरक्षित दायरे व अनियन्त्रित निगाहों से दूर हास्टल में रहने वाली लड़कियों के जीवन पर, उनकी इस समय की दुबारा न सम्भव रहने वाली स्वतन्त्रता पर, उनके मौलिक जीवन व्यवहार पर और स्वयं को पुनर्रचित करने की जिजीविषा पर ’वे अमराइयों में पहली बार आई बौर हैं’ कहना दरअसल उन्हें निश्छल व प्राकृतिक नजरिये से देखना है| और यही नजरिया उनके कृत्रिम नियंत्रणों से मुक्ति का सार्थक मार्ग भी देख पाता है-

‘उन्हें ज़रूरत उस मृत्यु की
जिसके बाद सचमुच का जीवन शुरू होता है|’

         ‘दुःख-सुख का संगीत’ उपशीर्षक की ग्यारह कविताओं में संगीत की किसी धुन की तरह कवि का स्मृति संसार व स्वप्नलोक फैला हुआ है, वहीं शोक व प्रार्थना जैसे निजी राग भी प्रकट हुए हैं| बेहद जटिल दुनियावी समय में जहाँ हम कठोर भौतिक सच्चाइयों तक सीमित हो चुके हैं, हमारे जीवन में सपनों के होने का मुकम्मल जीवनदायी अर्थ कविता जाहिर करती है –

‘सपने अँधेरे में एक जोड़ी आँख थे’,
’सूखते खेतों में मानसून की पहली बूँद’|

सम्बन्धों के विरल होते समय में कवि  ‘सम्बन्धों को नदी के पानी की तरह बचाना’ जैसी समझाइश भी देना चाहता है| दूसरों को नसीहत देने को तत्पर कविता समय में कविता में आत्मावलोकन की प्रश्नांकित मुद्रा से स्वयं की जाँच-पड़ताल करने का बेहद नैतिक दायित्त्व भी कवि-कर्म की उल्लेखनीयता प्रकट करता है-

‘हमने किया वही आज तक
जिसको दूसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम
हमने ही एक साथ
जी दो जिन्दगियाँ
और इतने बेशर्म हो गए
कि खुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी|’

          रचनात्मकता और कविकर्म के सूक्ष्म आशयों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में टटोलती आठ कविताएँ ‘कविता नहीं’ उपशीर्षक में शामिल हैं| कवि के लिए कविता पूरी उम्र के सन्धान का परिणाम है, यथार्थ का निपट साक्षात्कार करते हुए कुछ विशिष्ट अनुभव बोध को पाने का जरिया है, वीराने में एक प्रार्थना है, आने वाली पीढ़ियों को देने लायक नैतिक जीवन विवेक है| और इन सबके साथ ही कविता प्रतिरोध की वह उर्वर जगह है जहाँ विनम्रता से, चीख से, ललकार से जब जैसी दरकार हो उस तरह से अपने समय की सच्चाई को व्यक्त किया जा सकता है| किसी भी तरह के षड़यंत्र के विरुद्ध कविता की ताकत का भरोसा कवि को है-

‘सुनो,मेरे साथ करोड़ों आवाज़ों की तरंग से
तुम्हारी तिलिस्मी दुनिया की दीवारें काँप रही हैं’ 

 (विमलेश त्रिपाठी)

और शब्दों की दृढता से किसी भी तरह के बेमानी वर्चस्व को नकार देने का रचनात्मक उद्यम भी प्रकट है-

‘और
सबसे
अंत में
लिखूँगा सरकार
और लिखकर
उस पर कालिख पोत दूँगा’|

कविता की आत्मशक्ति की पहचान व उससे गहरी सम्बद्धता कवि में है इसलिए उसे ऐसे दुर्दिनों की कल्पना मात्र भी असह्य लगती है जब कविता उसके पास न हो|

        अंतिम खण्ड में शामिल सभी पाँच लम्बी कविताएँ हैं| लम्बी कविताएँ लिखना कविकर्म के सघन अध्यवसाय से ही सम्भव होता है| इन सभी कविताओं के विषय कवि के व्यापक सामाजिक सरोकारों और गहरी संवेदनशीलता के प्रमाण हैं| निराश हो कर अकर्मण्य बैठे प्रतिरोधविहीन मनुष्य, आत्महत्या करने विवश किसान और उनसे बेखबर तृप्त-सुविधासम्पन्न व व्यर्थ की बहसों में उलझे लोग यदि कवि की चिन्ता का विषय हैं तो शोषित-वंचितों की नियति व याचक भावों पर शोषकों के अट्टहास और इससे निजात पाने की दुष्कर उम्मीद से उपजी बेचैनी कविताओं में विडम्बना के रूप में सामने आती है-

‘क्रांतियाँ जब दम तोड़ देती हैं
जनता जब हार जाती है
बेशर्मी जब देश के माथे पर करती है नृत्य
मैं अकेले घर में बैठकर
देता हूँ गालियाँ इन सबके लिए जिम्मेदार लोगों को|’

        इन कविताओं में ‘एक पागल आदमी की चिट्ठी’ अपने समय की खौफ़नाक सच्चाई के मार्मिक दस्तावेज की तरह है जिसमें एक ऐसे व्यक्ति का प्रलाप है जिसे गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता और बेचैन प्रश्नाकुलता के चलते आमतौर पर दुनियादार मनुष्यों से अलग घोषित कर दिया जाता है| वह है भी अपनी सुविधाओं को हासिल करने में ही पूरे जीवन भर लगे रहते मनुष्यों से अलग| समाज, देश, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक पर सुचिन्तित विचार सामर्थ्य रखने वाला, शोषण पर, जाति-धर्म की श्रेष्ठता के दम्भ पर होती हिंसा का  मुखरता से विरोध करता हुआ, सत्ता की करतूतों और दशा को निडरता से प्रश्नांकित करने वाला| हाँ उस पागल आदमी की चिट्ठी में यही सब तो लिखा होगा-

‘सन चौरासी का डर
गुजरात की शर्म
और उस औरत का पेट लिखा होता है
जिससे निकालकर एक बच्चे को
एक कभी न बुझती हुयी
आग में झोंक दिया गया था’|

यह उल्लेखनीय है कि आमतौर पर अभियोग और प्रश्नचिह्न सत्ताओं पर ही लगाए जाते हैं जो सच ही ज्यादा जवाबदेह होती हैं, लेकिन यहाँ ये अभियोग और प्रश्नचिह्न उस जनता के ऊपर भी हैं जिसने अपने को निरुपाय मान लिया है कारगर प्रतिरोध के बजाए एक नियतिबोध से भरा समर्पण जिसकी स्थायी मुद्रा बन जाती है-

‘पागल आदमी की चिट्ठी में
देश की जनता की जगह भेड़
और सरकार की जगह गड़ेरिया लिखा होता है|’

यह कविता अपने समय की सम्यक जाँच-पड़ताल और बेहद अर्थपूर्ण विश्लेषण क्षमता के मद्देनजर बार-बार पढ़ने के लिए आकर्षित करती है|

         शोषित-वंचितों की पक्षधरता, उन्हीं के आत्मालाप से स्थितियों की भयावहता का चित्रण इन कविताओं का विशिष्ट राग है| इन स्थितियों के लिए कविताओं में इस समूची व्यवस्था और उसके सूत्रधारों के पतन पर विलाप भी मिलता है|यह बार-बार दूसरों को उनकी जवाबदेही के लिए प्रश्नांकित करता कवि क्या किसी तरह अपनी स्वयं की नैतिक जवाबदेही के लिए व्याकुल है? क्या रचनात्मक सामर्थ्य कोई उम्मीद का पर्याय बन सकती है? अपने ही शब्दों की सामर्थ्य को जीवन की कठोर सच्चाइयों के विलोम में परखना अपने बेचैन आत्म से किसी सार्थक रूपक की कामना करना ही तो है-

‘कि मेरा एक भी शब्द उतना ताकतवर नहीं
कि एक किसान की आत्महत्या के पहले
अनाज में बदल जाए|’

यह आत्मस्वीकार की वंचना अत्यंत मानवीय और कवि की ही एक काव्यपंक्ति के सहारे कहें तो ‘सबसे कम आदमी रह जाने की होड़’ के विरुद्ध कविता की जिजीविषा का प्रबल साक्ष्य है|

          अपने निजी और सामाजिक बोध के प्रति अत्यंत सजग व संवेदनशील, कविकर्म के प्रति अध्यवसायी, अपने स्वप्नों-प्रार्थनाओं के लिए प्रतिबद्ध और शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए संकल्पित व आम मनुष्य के हक में लड़ाई लड़ने के दायित्त्व को स्वीकार कर प्रश्नांकित करने में मुखर विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ संग्रह के पिछले पृष्ठ पर उल्लिखित मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह के इस कथन को चरितार्थ करती हैं- ‘विमलेश आत्मचेतस तथा आत्मसजग होने के साथ ही गहरे दायित्त्वबोध के कवि हैं|’                         

समीक्ष्य संग्रह

एक देश और मरे हुए लोग – विमलेश त्रिपाठी

कीमत - 99 रूपये

बोधि प्रकाशन, जयपुर

सम्पर्क 

ई-मेल : sharan_mc@rediffmail.com



टिप्पणियाँ

  1. Vimlesh jee ke sangrah ki kaafi charcha ho rahi hai. Sameekshaaon se pare jb kuchh aalochanatmk kaam is par hoga to is sangrah ka sateek moolyankn hoga... Baharhaal maine bhee ise padha hai. Mujhe Vimlesh jee ko is sangrah par haardik badhai deta hun. Santosh ji abhaar. Sharan jee aapko shaandaar sameeksha ke liye badhai!
    - Kamal Jeet Choudhary ( J&K )

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