संतोष चतुर्वेदी के संग्रह 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' पर आचार्य उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा
आज उमाशंकर सिंह परमार का जन्मदिन है। आज के दिन उन्होंने पहली बार पर लगाने के लिए एक समीक्षा भेजी जो मेरे ही नवीनतम संग्रह पर है। शुरूआती एक-दो पोस्टों के बाद आम तौर पर अपने ही ब्लॉग पर मैं अपनी कविताएँ और समीक्षा देने से बचता रहा हूँ. लेकिन आज उमाशंकर के आग्रह को टाल नहीं पाया। उमाशंकर को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए हम यह कामना करते हैं कि उनकी रचनात्मकता इसी तरह बनी रहे और आगे भी हमें उनके और बेहतर आलेख पढने को मिले। तो आईए पढ़ते हैं उमाशंकर की यह समीक्षा 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है : नव उदारवादी व्यवस्था के
खिलाफ प्रतिरोध का स्वर'
दक्खिन का भी अपना पूरब होता है : नव उदारवादी व्यवस्था के
खिलाफ प्रतिरोध का स्वर
उमाशंकर सिंह परमार
संतोष कुमार चतुर्वेदी समकालीन कवियों में एक सुपरिचित नाम
है। उनका पहला काव्य संग्रह ‘पहली बार’ ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और अब
दूसरा काब्य संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता है साहित्य भण्डार प्रकाशन
इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित हुआ। अपने संग्रह ‘पहली बार’ से ही वे अपनी
अपनी अलग छाप लेकर आये और अपने समकालीन कवियों के साथ अपनी अलग पहचान स्थापित कर
लिया। उनका दूसरा काव्य संग्रह इसी पहचान का विस्तार है और कविता के क्षेत्र में उनकी अलग छाप को और भी पुख्ता कर रहा है।
संतोष की अलग
पहचान का मूल कारण उनका विषय चयन और विषय चयन की चारित्रिक सार्थकता का गुम्फंन
है। वो समाज के उन उपांगों और क्रियाओं से अपने विषय को खोजते है जहाँ पर हम
सामान्यीकरण का शिकार हो जाते है। जिस विषय को हम उपेक्षित और अभद्र समझ कर
महत्वहीन कर देते है, संतोष उसी विषय में अपने चरित्र की खोज कर लेते है। उस
चरित्र के साथ समाज का सामंजस्य बैठाते हुए उसकी निजी और सामाजिक विशेषताओं का
उद्घाटन करके टाइप का रूप दे देते है और उस टाइप को एक समूह का प्रतिनिधित्व देकर
उसका यर्थाथवादी निचोड़ हम सबके सामने पेश कर देते है। यह कला उनको बाकी सारे
कवियों से अलग कर देती है। उपेक्षित से उपेक्षित विषय की खोज और उसे चरित्र का
स्वरूप देकर वर्गीय चेतना का संस्कार करना संतोष की विशिष्ट पहचान बन गयी है। इस
श्रमसाध्य क्रिया में उन सभी पहलुओं पर भी गौर फरमाते है जो वर्गीय यर्थाथ को
वर्गीय स्वर बना सकते है।
ऊपर से देखने में
साधारण सी प्रतीकात्मक कवितायें उनकी चारित्रिक शल्य क्रिया के कारण उपेक्षितों की
आवाज बन जाती है। यह सच उनकी सम्पूर्ण यात्रा का सच है, जिन वर्गीय
विसंगतियों का कवि साक्षात्कार करता है उनकी सम्पूर्ण संस्कृति का खुलासा भी कर
देता है। भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप नवनिर्मित वर्गीय सम्बन्धों का जिक्र भी वे अपने
ढंग से करते है। द्वन्दवाद का भौतिक और ऐतिहासिक पहलू उनके कथ्य अभिकथन का मूल
हथियार है वें भली- भाँति जानते है कि जब उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होता है
तो प्रक्रियागत संबंध भी बदल जाते है। उत्पादक और श्रम के बीच सम्बन्धों का नया
रूप सामने आता है, इन बदले हुए संबंधों के बीच समस्याओं का स्वरूप भी नया हो
जाता है। अक्सर हम परमपरागत औजारों से इन संबंधों के प्रति न्याय नही कर पाते इस
उपेक्षित वर्ग के प्रति न्याय तभी हो सकता है, जब हम उत्पादन और
उत्पादक के संबंधों को परिवर्तन के दायरे से देखे, कहने का आशय है कि-वर्गीय चेतना की पहचान के
लिए वर्गीय परिवर्तन को दरकिनार नही किया जा सकता, यही एतिहासिक द्वन्दवाद
का तकाजा भी है।
संतोष ने इन बदले
हुए उत्पादन संबंधों के बीच उपेक्षितों के स्वर को बखूबी उकेरा है, उनकी कविताएं इस
आवाज को वगैर किसी कलात्मक कलाबाजी के यर्थाथ की दंशपरक वस्तु स्थिति से जोड़ कर
देखा है। इस तथ्य को सहजता से देखा जा सकता है “मोछू नेटुवा” एक ऐसा ही उपेक्षित जनजाति का चरित्र है, वह सपेरा है,
सांपों को पकड़ कर
करतब दिखा कर वह अपने परिवार का पेट पालता है। आज के वैज्ञानिक चकाचौध से भरे युग
में सांप अब रोजगार का साधन नही रह गया, वह उद्योगों का आधार बन गया है। बडी-बड़ी
मशीनों से उसका जहर निकाल कर दवायें बनाई जाती है और खाल से विलासिता के साधन
बनाये जाते है, इस आद्योगिक विकास ने मोछू नेटुवा का रोजगार छीन लिया है,
वह दाने-दाने को
मोहताज है। वह दुःखी है कि अब उसके परिवार को कहाँ से रोटी का जुगाड़ होगा क्योंकि
आदमी वगैर किसी चमत्कार के रोटी नही दे सकता वह तो बाजार की तरह ‘वस्तु दो पैसे लो’ की अवस्था में आ चुका है। इस बाजार के जहर से सांपों का जहर
खत्म हो गया है, आदमी ही जहरीला हो गया है।
पीढ़ियों से धन्धा करते आये मोछू नेटुवा,
चिन्तित हैं अब इस बात पर
कि बेअसर होता जा रहा है सांप का असर
और लगातार जहरीला होता जा रहा है आदमी (पृष्ठ 35)
मोछू नेटुवा का दर्द इस नव उदारवादी व्यवस्था में फंसी हुई
एक संस्कृति का दर्द है, एक समुदाय का दर्द है। नवउदारवादी व्यवस्था के समग्र अध्ययन
के वगैर संतोष के इस संग्रह को समझना कठिन है वों उपेक्षितों का विषय तो अवश्य
लेते है और उसमें चारित्रिक संस्कार भी कर देते है और उन संस्कारों को समस्याओं का
सार्वभैमिक स्वरूप दे देते है, उनकी समस्यायें नवउदारवादी विश्व व्यस्था के तहत समाज में
निर्मित नये उत्पादन संबंधों और वर्गीय संबंधों के कारण उत्पन्न पीड़ायें होती है।
संतोष का यह नया संग्रह नवउदारवादी व्यवस्था का ‘दर्द गान’ बन गया है।
इन पीडाओं के
सहारे वे हमारे नैतिक रिश्तों की टूटन को भी अन्वेषित भी कर लेते है। पूँजीजन्य
स्वार्थ में मानवीय संवेदनाओं को खण्डित कर दिया है। सब कुछ बदला है पर तमाम दावों
के बावजूद भी वहाँ परिवर्तन देखा जा रहा जहाँ होना चाहिए “माँ का घर” कविता में माँ का
नाम और उसके असली घर को खोजना आज भी टेढ़ी खीर है। माँ एक नारी है वह माँ होने के
बावजूद भी सम्पत्ति से स्वामित्व से बेदखल है, जहाँ भी जाओ,
जहाँ भी देखो हर
जगह पुरूष ही खड़ा है। कहीं बेटा के रूप में तो कहीं भाई के रूप में तो कहीं पिता
के रूप में तो कहीं पति के रूप में, माँ अपनी स्वतन्त्रता के साथ कहीं दिखती ही नहीं,
ऐसा दृश्य पुरातन समय में भी था और आधुनिकतम समय में भी है। माँ को चिर उपेक्षिता
के रूप में देखा जाना वास्तव में एक नई बात है। माँ पर मैने बहुत सी मार्मिक कवितायें
देखी है पर व्यवस्था में कैद और अपनी पहचान का संकट झेलती माँ का चित्र पहली बार
देख रहा हूँ।
लेकिन सोलहो आने सच सही है कि
मेरे गाँव में नही जानता कोई भी मेरी माँ को
पड़ोसी भी नही पहचान सकता माँ को ठीक-ठाक
मेरे करीबी दोस्तो तक को नही पता मेरी माँ का नाम (पृष्ठ 18)
यह कविता पुरूष की वर्चस्ववादी सोच का सटीक रेखाकंन करती है,
इस कविता में
स्त्री विमर्श को स्त्री हक से जोड कर देखा गया है।
सन्तोष चतुर्वेदी के इस संग्रह में
अधाधुन्ध विकास और तीव्र औद्योगीकरण का प्रखर विरोध किया गया है। भूमण्डलीकरण का
सबसे बड़ा कारण तीव्र औद्योगिक विकास ही रहा है। जब उत्पादन की अधिकता हो गयी तो
नये बाजार की खोज में विश्व को ही बाजार बना दिया गया। हमारे समय का सबसे बड़ा
कटुसत्य ही यह है कि कोई भी कलाकार, कविता,रिश्ता संस्कृति,
धर्म इस नई
प्रतिक्रियावादी बुर्जुवा मार से बच नही पाया। इंसानियत और मानवता के खुशनुमा पहलू
तो जैसे परिदृश्य से ओझल हो गये है। उनकी कविता “प्रश्न वाचक चिन्ह” इस उदारवादी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देती है,
न केवल
प्रश्नचिन्ह वरन विकास के दावों को खोखला सिद्ध करती हुई मानवता के नये स्वरूप पर
भी तंज कसती है। चाहे “मोछू नेटुवा” हो या “माँ का घर” या फिर “पानी का रंग” उन्होंने आधुनिक
समय की मनुष्यता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। बाजार द्वारा गढे गये नये रिश्तो
की धज्जियाँ उड़ा दी है।
दुनिया में
जितने भी रहस्य
उजागर हुए
जितने भी भेद खुले
जितने भी अविष्कार
हुए
जितने भी भण्डाफोड़
हुए
जितनी भी खोजे हुईं
अब जक
सब के पीछे कही न
कही रहा
अवाक मुह बाये खड़ा
यही प्रश्न वाचक
चिन्ह (पृष्ठ 121)
विकास की यात्रा का सबसे पूर्व पहलू मुनाफाखोरी होता है।
अतिशय लाभ की कामना ने नैतिक संवेदनाओं को लील लिया है, बस एक ही धुन होती
है लूटो, कमाओ, खाओं हम अपनी स्वाभाविकता को भूल कर अपनी जैविकीय आवश्यकताओं को दर-किनार कर
इस दौड़ में लगातार दौड़ते जा रहे है क्योंकि भय है यदि हम पीछे रहे तो मर-खप जायेगे,
जिन्दा नही
रहेगें। विकास की यह भागदौड़ स्पेन्सर के विकासवादी सिद्धान्त “योग्यतम की उत्तरजीविता” को तरजीह देती है, जहाँ कमजोर को समाज में रहने का हक नही
दिया जाता है जीता वही है जो शक्तिशाली है। अतः औद्योगीकरण और इसी क्रम में
अन्धाधुन्ध यह भागदौड़ अन्ततः हमारी संस्कृति को नष्ट कर हमारे सामने मरखप जाने
वाले वातावरण का पोषण करता हुआ दिखाई पड़ता है। “राग-नींद” कविता में संतोष ने इस भागदौड़ का क्रूरतम चित्र प्रस्तुत
किया है। इस कविता में अतिशय लाभ , अतिशय मुनाफाखोरी पर प्रकारान्तर से कटाक्ष भी किया है।
जब भी देखा
अपने शहर को
दौड़ते भागते जग को
देखा
*
* * *
कही पर नींद का
नामो निशान नही
कही पर नींद की परछाई
नही
कही पर पर लोरी
गाती कोई माँ नही
कही पर कोई सपना
नही
उफ कितना भयावह है
यह सब कुछ
‘उफ’ शब्द से कवि की वेदना ही नही अपितु समूचे समुदाय की
वेदना व्यन्जित हो जाती है। भूमण्डलीकरण की दौड़ में फंसे हुए व्यक्ति जिनके हक व
अधिकार छीने जा चके है, जिनकी क्रान्ति चेतना को नष्ट किया जा चुका है, जिनके पास स्वप्न
देखने का अधिकार नही है, जिनको माँ की लोरी सुनने की फुर्सत नही है। यह वेदना उन सब
की वेदना है। “राग नींद” कविता में संतोष
ने नवउदारवादी व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। संतोष ने आगाह किया है कि
अभी समय है हमको निहत्था किया जा रहा है, हमे अकेला किया जा रहा है, हमारे रिश्तो को
बाजार के हवाले किया जा रहा है। ये पूँजीवादी शक्तियाँ हमारी क्रान्ति चेतना को
नष्ट कर हमे असहायकर देना चाहती है। “वे हमे अकेला कर देना चाहते है” कविता में देखिए
वे हमें अकेला कर
देना चाहते है
बिल्कुल अकेला
बिल्कुल निहत्था
बिल्कुल निरूपाय (पृष्ठ 124)
यहाँ ‘वह’ का आशय क्रान्ति
विरोधी पूँजीवादी शक्तियों से है जो भूमण्डलीकरण के द्वारा और भी शक्तिशाली हो कर
सर्वहारा चेतना को अपने सामने टिकने नही देना चाहती। इस अतिशय अधाधुन्ध भागदौड़ के
खतरों से आगाह करते हुए भी कवि क्रान्ति चेतना की पहचान कराने से चूकते नही। वे
जानते है कि
भगदड़ में
आदमी हो जाता है
आदिम
दूसरों को कुचल कर
बचाना चाहता है
अपनी जान (पृष्ठ 77)
यहाँ पर मुनाफाखोरी और लाभ के कारण आदमी मूल्यहीन है,
उसकी कीमत नगण्य है,
वह मात्र एक वस्तु
है जो ‘यूज एण्ड थ्रो’ के सिद्धान्त के
अनुसार जीवन जी रहा है। फिर भी वह एक आदमी है और आदमी की सबसे बडी आवश्यकता भूख है,
भूख केवल क्षुधा नही
है अपितु जीवन के परिवर्तन की धूमिल हो चुकी आशा भी है। क्रान्ति के सुन्दरतम रूप
का निर्मल चेहरा भी है, इस आपाधापी और भगदड़
से जूझने के लिए भूख की आग को पहचानना जरूरी है और कवि इसकी पहचान भी कराता है। यह
आग सार्वभौमिक सच है। नमी के विपरीत वातावरण में भी जलती है। कही दावानल के रूप
में, जंगल को जलाती हुई, तो कही बडवानल के रूप में समुद्र को जलाती हुई आग दिख जाती
है। आवश्यकता है आग को प्रज्ज्वलित करने की देखे उनकी कविता “जीवन का राग आग”
आग में एक भूख
भूख में एक आग
रोटी में एक ताप
और ताप में शामिल
है
कहीं न कहीं यह आग (पृष्ठ 22)
संतोष का यह कविता संग्रह नव उदारवादी व्यवस्था के लगभग हर
पहलू को उजागर करता है, बहुत सी कविताये है जो बाजारवाद के बोझ में दब चुके आम आदमी
आवाज को नया स्वर देती है। दशमलव, उलार, हाशियां, चाभी, विषम संख्यायें इत्यादि कवितायें अपने कथ्यात्मक वस्तु के
कारण महाकाव्य कही जा सकती है। इनकी रचना भले ही स्वतंत्र हो पर अपनी अन्तरवस्तु
की गंभीरता इन्हें महाकाव्य का स्वरूप दे देती है। पूँजीवादी भागदौड़ में उलझी
मानवता का दर्द और वेदना संतोष की कविताओं में खुलेआम देखी जा सकती है। वर्ष 2000 के बाद हमारे देश
में जिन आर्थिक नीतियों को को हमारी समस्याओं की दवा कहा गया, वही नीतियां हमारे
सामाजिक संबंधों, मानवीय चेतना व क्रान्ति चेतना की संहारक बन गयी है। आर्थिक
उदारीकरण के इन अमानवीय निष्कर्षो का प्रतिपादन करती हुई संतोष की कवितायें आम
आदमी की वेदना का गान बन गयी है। नवउदारवादी व्यवस्था में आम आदमी की चीख बन गयी
है आम आदमी के पक्ष में खड़ी ये कवितायें नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ एक सकारामक
प्रतिरोध का स्वर है।
कोई भी कवि संप्रेषण
की निर्वाधता हेतु कुछ उठा नही रखता। इसका आशय यह नही है कि कवि अपनी समस्त बौद्धिक
प्रक्रिया को कल्पना के दायरे में समेट कर अपना सारा ध्यान कलात्मक गुणों की
वृद्धि में लगा दे। यदि कोई कवि ऐसा करता भी है तो वह अपनी रचना के साथ अन्याय
करता है, जिस प्रकार भौतिक प्रकृति परस्पर विरोधी प्रयासों से विकसित होती है उसी
प्रकार कवि की रचना प्रक्रिया भी सामाजिक स्तरों पर टकराव का शिकार होती है। इस
टकराव से वह अपनी संवेदना को प्रभावित करता है और अपनी प्रेषण क्षमता को भी
प्रभावित करता है। संक्षेप में कहा जाये तो यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार
वास्तविक प्रकृति का सुन्दरतम विकास द्धन्द के द्वारा होता है उसी प्रकार श्रेष्ठ
कलात्मक विकास भी लेखक के संघर्षो और तकाजों के साथ होता है। अपने संघर्ष को
प्रेषित करने के लिए लेखक उन माध्यमों का सहारा लेता है जिनका असर यथार्थ की ईमानदारी
पर न पड़े “दक्खिन का भी अपना
पूरब होता है” कविता संग्रह में
संतोष ने कलात्मक उपागमों का सहारा वहीँ तक लिया है जहाँ तक अनुभूति में बाधा न बने
वरन सहायक की भूमिका अदा करें। कला कही भी थोपी हुई न प्रतीत हो, स्वाभाविक लगे।
कहीं-कहीं कवि कला को दर-किनार भी कर देता है लेकिन वह तभी करता जब कविता यथार्थ के
भार से बोझिल हो जाती है। देखिए एक सपाट बयानी प्रतीकबद्ध कविता के रूप में यह एक
निपट बयान है जहाँ कोई कलात्मकता नही है और कला का न होना ही कला बन गया है “दशमलव” कविता में दशमलव की अपरिहार्यता को माटी जैसा कहना उपमा की
याद दिला देता है।
तुम मिट्टी की तरह
ही
अपरिहार्य
अनिवार्य हो
दुनिया के लिए
दशमलव (पृष्ठ 22)
दशमलव की अनिवार्यता को मिट्टी से जोड़ कर अनिवार्यता को और
परिभाषित करने की आवश्यकता नही है। इसमें एक अभिव्यंजना है जो “मिट्टी की तरह” वाक्यांश के कारण
गौरवपूर्ण हो जाता है और अभिव्यक्त हो जाता है। संतोष व्यंजना के माहिर खिलाड़ी है,
प्रतीकों का
उत्थान और विकास व्यंजना के अभाव में असंभव है संतोष का काम यही व्यंजना करती है।
व्यंजना में और प्रतीक में वही संबंध है जो शब्द और अर्थ में है। जहाँ व्यंजना है
वहाँ प्रतीक है। जहाँ प्रतीक है वहाँ व्यंजना है। संतोष की कविताओं में प्रतीकबद्ध
व्यंजना के उदाहरण बहुतायत मिलते है। संतोष ने अपनी कविताओं में प्रतीकों का अर्थ
ही व्यंजना सिद्ध कर दिया है। “पानी का रंग” कविता में व्यंजना का उत्कृष्टतम देखा जा
सकता है। एक उदाहरण-
बचाये रखना चाहते
हो
तो बचा लो
अपनी आँखों में
थोड़ा सा पानी
जहाँ से फूटते आये
है
रंगों के तमाम
सोते (पृष्ठ 47)
“आँखों में थोड़ा सा पानी” वाक्यांश लक्षणापरक व्यंजना का खूबसूरत उदाहरण है इसका आशय
शर्म या हया है जिसे वर्गीय समझ भी कह सकते है, वर्गीय चेतना कह
सकते है, इसी वर्गीय चेतना के द्वारा हम अपने विभिन्न रंगों के सपने सिद्ध कर सकते है।
जिसके लिए कवि ने “रंगों के तमाम सोते” वाक्य चुना है। अर्थवत्तापूर्ण,
सरोकारपूर्ण,
वाजिब व्यंजना का
इससे उत्तम उदाहरण अन्यत्र शायद ही मिले।
व्यंजना के
साथ-साथ संतोष ने अपनेी रचना प्रक्रिया में अलंकारिकता को बहिष्कृत नही किया है।
जिस प्रकार वे विषय चयन के प्रति प्रयोगधर्मी है उसी प्रकार अलंकारिकता उत्पन्न करने
पर भी सिद्धहस्थ है। संतोष की उपमा ही देखिए जिसमें लिंग साम्य एवं धर्म साम्य की
खूबसूरत विशेषता विद्यमान है। सबसे अच्छी उपमा वे मानी जाती है जिसमें लिंग साम्य
हो। कालीदास उपमा के सबसे बडे कवि इस लिए है क्योंकि उनकी उपमा में लिंग साम्य ही
पाया जाता है। संतोष की उपमा का एक उदाहरण देखिए-
आकाश अपने नीलेपन के साथ
रहता है हमारे पास
अपना छाता ताने (पृष्ठ 69)
यहाँ पर आकाश प्रस्तुत है तो छाता अप्रस्तुत दोनों पुलिंग
है। आकाश जो हमारे ऊपर औधा पड़ा रहता है छाता भी हमारे ऊपर औधा रहता है। यहाँ पर
लिंग साम्य और धर्म साम्य दोनों उपस्थित है। यह उपमा का सुन्दर उदाहरण है, उपमा के साथ-साथ
संतोष में रूपक विधान की मनोहारी छटा देखने को मिलती है। बिम्ब विधान में तो रूपक
होते ही है पर बिम्बों के अलावा फुटकर रूपक भी बगैर किसी तारतम्य के अलंकार के रूप
में उपलब्ध हो जाते है विशेषकर उन स्थलों में जहाँ प्रकृति के सुरम्य वातावरण का
चित्र होता है। “सुरमई-सांझ” ऐसा ही रूपक है।
सुरमई कह देना ही उसके घनत्व और विस्तार को दिखा देता है।
सुरमई सांझ
घर लौटते पक्षियों
के उल्लास में
कहाँ देती है
अवकाश (पृष्ठ 69)
अब थोडी सी चर्चा संतोष के बिम्ब विधान पर भी हो जाय। बिम्ब
को शब्द चित्र भी कहा जाता है इसकी खासियत एैन्द्रिकता है। अर्थात रंग, ध्वनि, वस्तु, एवं वातावरण किसी
भी रूप में हो सकता है अधिकतर कवि बिम्बों को अनभूत से जोड़ देते है और कल्पना या फैन्टेसी
के ही सहारे अयथार्थ को भी यथार्थ बनाने की कोशिश करते हैं। संतोष के बिम्ब इससे
अलग है। उनके बिम्ब यथार्थमूलक हैं, जो
कविता की समय सापेक्षता को सिद्ध कर देते है। ऐसे बिम्ब जो यर्थाथपरक है उनमें कहीं
भी बनावटीपन नहीं है। कृत्रिमता नही है। एकदम सहज समवेद्य हैं। भूमण्डलीकरण के
रास्ते से हमारे सोच और व्यवस्था को जकड़ कर बैठा हुआ बाजार आज की सच्चाई है। बाजार
आज के बुर्जुवा का सबसे बड़ा हथियार है समय के साथ पूँजीवाद ने खुद को बदला है उसने
पुराने वर्गीय ढ़ाचे को बदल कर खुद को बाजार का करता-धरता सिद्ध कर दिया है। हर
वस्तु की कीमत ही उसकी महत्ता है उसकी मूल्यवत्ता है जो कीमत के दायरे में है वही
सामयिक है वही जरूरत में है जो कीमत से बाहर है वह समय से भी बाहर है। आदमियत की
स्थानापन्न हो चुकी कीमतों को दिखाने के लिए संतोष ने खूबसूरत बिम्ब रचा है। बाजार
की पोल खोलता हुआ आम आदमी के पक्ष में खड़ी कविता का उदाहरण पेश करता हुआ यह बिम्ब
नव उदारवाद के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर है। यहाँ पर एक बानगी देखिए
बाजार की अगवानी
में
जब पलक पावडे
बिछाये है खडे
सत्ता, शासक और दलाल
कुछ चीजे और कुछ
लोग है
कीमतों के दौर में
आज भी
कीमतों के दौड से
बाहर (पृष्ठ 118)
‘पलक पावड़े विछाये’ ‘सत्ता, शासक और दलाल’ यह बिम्ब पूँजीवाद के बाजारवादी हथकण्डे का अनुभुक्त स्वरूप
भली-भाँति अभिज्ञापित कर देता है। ‘कुछ लोग जो आज के बाजारवादी वातावरण से बाहर है वों मूल्यहीन होकर जीवन जी रहे
है।‘ बाजारवाद का इससे
भयावह और यर्थाथ चित्र शायद ही कोई दे सके। न कोई रूपक, न कोई अप्रस्तुत
विधान, न कोई बनावट एक सीधे-सादे चित्र द्वारा भूमण्डलीकरण की अमानवीय व्यवस्था का
उन्होनें साक्षात्कार कराया है। ऐसे कई बिम्ब इस संग्रह ‘दक्खिन का भी अपनी पूरब होता है’ में उपलब्ध है।
सब कुल मिलाकर कहा
जा सकता है कि यदि संतोष के कथ्य को ध्यान में रखा जाय व अभिव्यंजना के हस्ताक्षेप
को स्वीकार किया जाय तो कलात्मक पराकाष्ठा के दर्शन हो सकते है। मै कोरी कलाबाजी
का समर्थक नही हूँ , कला को वही तक उपादेय मानता हूँ जहाँ तक कथ्य की अनुभूति
में बाधा न पडे वरन सहायक की भूमिका अदा करें। संतोष में जो शैल्पिक विशिष्टता
पायी जाती है वह उनकी साध्यता नही है बल्कि कथ्यात्मक साधन है। विभिन्न शैलियों से
अन्तर टकराव करता हुआ उनका कथ्य और भी निखर गया है। समकालीन कविता में अग्रज संतोष
का यह संग्रह समीक्षा के हर फार्मूलें में फिट है। वर्ष 2000 के बाद आर्थिक
उदारीकरण का कुप्रभाव हमारे समाज में स्पष्ट देखा जा सकता है। राजनीति, समाजनीति, शिक्षा, कला सबकुछ बाजार
के उतार-चढ़ाव से प्रभावित है। अपने स्वरूप को खोता हुआ मानव बाजार के हाथ में
कठपुतली बन चुका है, गाँव, खेत, किसान सब के सब बाजार की कोख से पैदा विकास की भागदौड़ में
अपने आप को टिकाने की जद्दोजहद कर रहे है। खरीदने की बेचैनी और बिकने की लालसा सिर
चढ़ कर बोल रही है, मशीनों ने रोजगार छीन लिया है, शहरों ने गाँव छीन
लिया है, लाभ ने नैतिकता छीन ली है अतः इस परिवेश से कवि का कुपित होना स्वभविक है। नव
उदारवाद के खिलाफ संतोष की कविताएं एक मुकम्मल तर्क प्रस्तुत करती है। उन्होंने
बाजार की भगदड़ में सब कुछ गवा चुके आम आदमी के पक्ष में एक जोरदार आवाज का आगाज
किया है। इसी उपेक्षित, शोषित, अभद्र, आम आदमी की पक्षधरता संतोष के इस कविता संग्रह “दक्खिन का भी अपना पूरब होता है” में उपलब्ध है। इस संग्रह को नव उदारवादी व्यवस्था के खिलाफ
प्रतिरोध का स्वर कहा जा सकता है यही स्वर उन्हें अपने समकालीनों के साथ अग्रिम
पक्तिं पर खड़ा कर देता है। उनकी कविताओं को उपेक्षितों के साथ कदम दर कदम चलते
देखा जा सकता है। पूँजीवाद के खिलाफ लड़ते देखा जा सकता है। अग्रज संतोष को एक
उम्दा संग्रह लिखने के लिए बधाई और विश्वास है कि आगे भी विश्व पूँजीवाद के खिलाफ
सांस्कृतिक हस्ताक्षेप का मुकम्मल स्वर गूँजता रहेगा, जो आज का लेखकीय
सरोकार है।
सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
जिला सचिव
जनवादी लेखक संघ बाँदा (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल नं0- 9838610776
बहुत सार्थक समीक्षा। आज के समय को बखानती हुयी....संतोष जी के काव्य संग्रह को एक नये अर्थ मे प्रस्तुत करती हुयी। दोनो लेखको को बधाई।
जवाब देंहटाएंउपरोक्त टिप्पणी मनीषा जैन द्वारा
जवाब देंहटाएंबिना गहन अध्ययन और सूक्ष्म दृष्टि के किसी भी शिल्प का वास्तविक आनंद नहीं लिया जा सकता |भले आप ताजमहल के सामने खड़े हो पर आप उसकी वास्तविक सुंदरता का आनंद बिना कुशल गाइड के नहीं ले सकते उसी प्रकार एक अच्छे समीक्षक ,आलोचक के आभाव में हम कविता के वास्तविक स्वरुप, उसके विविध आयामो का रसास्वादन नहीं कर सकते |अग्रज संतोष जी के अप्रतिम काव्य संग्रह पर सारगर्भित ;सूक्ष्म दृष्टि से परिपूर्ण समीक्षा पढ़कर कोई भी उनके काव्य संग्रह मर्म समझ सकता है |इस समीक्षा के लेखक अग्रज परमार जी को उनकी लेखकीय एवं वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए सभी पाठको कि ओर से कोटिशः बधाइयाँ |अग्रज संतोष जी को इस अप्रतिम काव्य संग्रह के सृजन के लिए नमन एवं अनंत बधाइयाँ |
जवाब देंहटाएं