मनोज शर्मा की कविताएं
कुदरत की खूबसूरत देन हैं ऋतुएं। ऋतुएं आती हैं जाती हैं। यानी बदलती रहती हैं। इन ऋतुओं के साथ हमारे जीवन की तमाम यादें जुड़ी होती हैं। हमें अपने पसंदीदा ऋतु की हमेशा प्रतीक्षा रहती है। इस ऋतु के आते ही हमारी बांछें खिल उठती हैं। बसन्त ऐसी ही ऋतु है। आमतौर पर यह पतझड़ का मौसम होता है, लेकिन साथ ही नवागत का स्वागत भी यह बसन्त करता है। लेकिन आज आधुनिकता की बयार में हम कुछ ऐसे बह गए हैं कि ऋतुओं के बारे में कुछ पता ही नहीं चल पाता। कवि मनोज शर्मा ने इन ऋतुओं को शिद्दत के साथ एक लम्बा जीवन जिया है। लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि अबकि बसन्त जैसे कि आया ही नहीं। वह सवाल पूछते हैं कि आखिर किसने बदल दिए हैं मायने। वे मायने जो युग युगान्तर से सुरक्षित थे अचानक कैसे उनके अभिप्राय बदल गए। आज यह यक्ष प्रश्न समूची मानवता के सामने है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मनोज शर्मा की कविताएं।
मनोज शर्मा की कविताएं
सोच
सपने को लेकर जैसे ही सोचा
आया सपना
ऊसी पल बादल नीले से भूरे हो गए
दोस्त, फूलों में बदल गए
स्त्रियां, जहां पांव धरतीं
फूट पड़ते पानी के सोमे
धरती ज़रख़ेज़ हो जाती
रिश्ते सोचे
तो कई चंदा चमकने लगे
भर -भर आया
ग़ायब हो गयीं तमाम कंटीली तारें
उस रात, लोग देर तक बेसुध सोए
मोरों की आवाज़ सुन, भोर की पहल संग उठा
तो अलग से सुगंध मिली
अचानक लगा, अब अकेले बैठने की ज़रूरत नहीं
दर्जनों तितलियां शब्दों की तरह बुला रही हैं
इस काल में
भाषा के तिलिस्म में डूब जाने की इच्छा है
तो, तमाम परछाइयों डरो
ऐ, हवाओ ! फिर - फिर बरो।
अबकि बसंत
बसंत है
लग क्यूं नहीं रहा ...
हरियाली के जनकों पे
आकाश से बरस रहे हैं
आंसू - गैस के गोले, निरंतर चलतीं रबड़ की गोलियां
नेपथ्य में कौन है ...
यहाँ किसने धराशायी की है
बसंत की उमंग ...
कहां बसती है वर्णमाला
किसने बदल दिए हैं मायने
बूढ़े किसान का माथा, आँख के पास से फट गया है
मीडिया के पास सनातन भाषा है
और बोलता है फट्टड़ बूढ़ा किसान
जाएंगे, दिल्ली जाएंगे
पहली कटने के बावजूद
यह बसंत में उड़ायी जा रही
नयी पतंग जैसा है
किसी दूसरे मुल्क में पहुंचा, राजा
मुग्ध है, उसके जयकारे लग रहे हैं
नयी पोशाक में सजा - धजा
और घर में दीमक लगी है
बेशक, बेबस हैं अन्नदाता
गूंगी होती जा रही हैं, बस्तियां
कि अबकि, बसंत को काठ मार गया है!
संवाद
बस, थोड़ा सा आसान हो जाए
वक्त
आपको, धैर्य से सुनूंगा
थोड़ी सी रूक जाए, आंधी
गुफाओं का इतिहास बताऊंगा
थम जाए भूचाल
आपकी भूख बांट लूंगा
एक नन्ही बच्ची ने
उम्र की पहली चूड़ियां पहनी हैं
छनकाती मस्त है अब
होना तो चाहिए उसी पे ध्यान पूरा
ये क्या से क्या कह - बुन रहा हूँ
केश बनाती, औरत
चश्मा साफ करता, आदमी
गली में फुटबाल खेलते, बच्चे
समाज का विन्यास
अंधों को भी सपने आते ही हैं
गूंगे भी अंतर्मन में गाते ही हैं
कोढ़ी भी तो मुस्काते ही हैं
हमें इनसे माटी से संवाद करना सीखना होगा।
भिनभिनाहट
दिन भर कानों में भिनभिनाता रहा
एक मच्छर
काटता रहा रात भर
घटती - उचटती चली गयी नींद
यह मैली उम्मीद जैसी सुबह है
बुझ चुके हैं दीए
एक गिलास पर निशान हैं
पुलिस एक मरियल बूढ़ा पकड़
उसके हाथों के बता रही है
जबकि, बूढ़े के हाथ, सन '14 से कटे हैं
पता नहीं हलक से
कब खींच ली जाए ज़ुबान
कोई किसी का, कोई किसी का है
जनता का कोई नहीं
पुस्तक - मेले सजे हैं
और सिसक रही हैं किताबें
भिनभिना रहा है मच्छर
भिनभिना रही है, राजनीति
समय, तंत्र, समाज बेबस हैं
भिनभिनाहट की आदत होती जा रही है
जगह - जगह से फट चुकी हैं
बच्चों की स्कूली बर्दियां
अध्यापक, नेता जी से पूछ कर ही पढ़ाते हैं
तथा भिनभिनाता जा रहा है, मच्छर
फसलें आधी हैं
बिजूके पलट दिए गए हैं
चूहे मिट्टी खोदने में लगे हैं
तय हैं पूजा - स्थल
जैसे तय आरती है
जैसे तय है भिनभिनाहट
तय है, सभी तय है
इसी के लिए सालों - साल लगे
शिशुओं के आगे मैली - उम्मीद रख
अब, विक्षिप्त ठहाके लगा रहे हैं संघ - चालक
और भिनभिना रहा है मच्छर
भिनभिनाता जा रहा है।
स्मृतियों की पोटलियां
स्मृतियों की पोटलियां तहखाने में फैंक दी गयी थीं
किसी ने मछलियां पकड़ने के कांटे से
बाहर निकाला और लगा खोलने
वहां वह शख़्स मिला
जिसने कभी स्थितियों से समझौता नहीं किया
कभी घर को ताला न लगाया
जिसके भोजन के समय चार दोस्त मौजूद रहे
मिला वह भी
जो अकारण बहस करता
पर, अच्छा लगता
कुछ लुप्त हुए पंछी मिले
एक डायरी मिली
जिसमें बहुत से फोन नँबर थे
जिन्हें वर्षों से डायल नहीं किया गया
सन्नाटे का इतिहास मिला
वह अर्थशास्त्र मिला, जो होना चाहिए
एक सुच्चा नेता भी मिला
मिले दोस्त
कविता - पोस्टर बनाते - लगाते
मिली ठठकती - चहकती उमंग
हैरानी है
अभी तक रौशनी रही है वहां
सोच रहा हूँ
तहखानों में पड़ीं स्मृतियों की पोटलियों को
दीमक क्यूं नहीं लगती...?
लोक - नायक
जिसे रोना आता है
उसे आता है रिश्ते समझना भी
हँसने का तरीका आता है
बच्चों से खुल कर खेलना
समझ है, किस तरह की जाए ज़रूरतमंद की मद्द
किसी की पोशाक नहीं परखता
चाहता है
सभी की थालियों में भोजन महकता रहे
उसके देवता ख़ुद चल कर उसके पास आते हैं
महिलाओं को देखता है तो
गर्व से भर उठता है
कि इन्हीं के भरोसे, धुरी पे टिकी है
धरती
उसे चाहें नापसंद करें
उसका सीना पसन्द से लबरेज़ है
सूखी टहनियों में फुनगियां फूटने की
संभावना तलाशता है
रास्ते बुहारने वाला ऐसा राही
जो हरेक की यात्रा के प्रति सजग है
लोक - गीतों का सरमाया
सुरक्षित है उसी के पास
ऐसे लोक - नायक को
सलाम!
बिसात
कोई माँ, संतान के साथ बिसात नहीं बिछाती
कोई प्रेमी - जोड़ा भी नहीं
कुदरत को पता ही नहीं
होती है क्या शतरंज की बिसात
लहू, धमनियों में इकसार बहता है
जैसे महकते हैं फूल, बेरोकटोक
जैसे खिलते हैं तारे, बेहिचक
समाज में किसने शुरू की
बिसात बिछाने की क्रिया ...
हमें मिले दुःख - सुख यकसां
हमने प्रेम किया, लकीर से हट कर
महक को धारण किया
चखा, लोहे का स्वाद
मिट्टी चूमी, और अनाज बारम्बार
हमने दोस्तों के लिए कुरकरी की खुशियां
हम जो करते गए, वहां वक्त मुलायम होता चला गया
बताते चलें
हमें शतरंज खेलना नहीं आता
प्रेम की तासीर
प्रेम
जब फूलों के हार से गुंथना शुरू होता है
हमें साँसों में एक तर्ज़ सुनायी पड़ती है
यह उदास करता है और गर्वित भी
ज़ार - ज़ार रुलाता, पोर - पोर हंसाता
प्रेम में चँदा, तर्जनी पर टिका मिलता है
आप रात का रंग बदल सकते हैं
प्रेम, संबंधों का जादू है
पक्के राग का शुरुआती आलाप
भोजन सी सुगन्ध
प्रेम में दरख़्त
कुछ और हरे नज़र आने लगते हैं
प्रेम, अंधे को मिली रौशनी सरीखा है
प्रेम के पाखी
चूमते हैं सदा अंबर
नदियों को नज़र नहीं लगती
क्या कहूँ
कि प्रेम के खरगोश बेरोकटोक
समय के भीतर - बाहर फुदकते रहते हैं
प्रेम में खुलते चले जाते हैं
सच के मायने
प्रेम में नींद
किस्से बुनती है
प्रेम में ध्वस्त हो जाते हैं, छल - छद्म
वह, जो इतनी मारक यात्रा के बावजूद
तरोताज़ा हो लौट रहा है
जिसकी आँखों में गहरे रहस्य हैं
होठों पर सदाबहार मुस्कान
दरअसल, प्रेम में है ।
यात्रा
बहुत यात्राएं तय कर लेने
बहुतेरे लोगों से मिलने - बरतने
लंबा अर्सा नौकरी करने
बहुत अधिक हंसने, उदास रहने
निरंतर पढ़ने - लिखने
नींदे उचाट होने, तो भी सपने देखने
और नए से नया खेला जांचने के उपरांत
मेरी निगाहें ठहरी हैं ...
ये किसी भ्रांति पे नहीं
सजे ताजों पर हैं
इतनी कठिन और आसान राहों में
मुझसे कभी न छूटी सुगंध
वही बच्चू माली, मेरे इर्द - गिर्द रहा
जिसकी चप्पल के टूटे स्ट्रैप बसकुए से जोड़े गए थे
उसी ने मुझे जानकारी दी
पत्तों, फूलों, बेलों, दरख़्तों की
उसका बेटा
इस चढ़ती अर्थव्यवस्था में
बेरोज़गारी से तंग आ
मुंबई भाग गया
नाबालिग बेटी को किसी ने खराब किया
तो उसने फंदा लगा लिया
बीवी के ब्रैस्ट - कैंसर का ईलाज नहीं करा पा रहा
फिर भी पूरी मेहनत से
मौसमी फूलों की गुड़ाई - सफाई करता
मुझे ख़ुशबू के फ़लसफ़े समझाता रहा
वही बच्चू माली
जो एक दिन शिवलिंग पर जल ढाल रहा था
कि हाथ कांपे और छिटक गया लोटा
वह उठा तथा चल दिया वापिस
पलट भी नहीं देखा
मैंने, जितनी सुगंध चखी
वह मेरे इर्द - गिर्द व्याप्त श्रम की रही
जिसने मुझे जीवन के उत्तरार्द्ध तक में अबोध बनाए रखा
मेरी हथेलियों से चुग्गा चुगते रहे पक्षी
इसी के चलते मैं
बेइंसाफ़ियों से जूझा
ऐसा कुछ अनूठा, अद्भुत नहीं है, यह
छोटी सी जगह, आम से परिवार में जन्मा
अचीन्हे स्कूल से पढ़ा
मुझ सा एक शख़्स, किसी तरह जीवन में
ख़ुशबू धारण करना सीख जाए तो
इसका रहस्य आप उसके एकांत में जा कर ढूंढ सकते हैं
उस युद्ध में ढूंढ सकते हैं
जिसे उसने तमाम तरह के अमरत्त्व के विरूद्ध लड़ा
वह शिखरों पर खड़े हो
अपना नाम नहीं चिल्लाता
कि वही आवाज़ उसे लौट - लौट सुनाई दे
वह खाइयों में उतरता है
लेकिन उसमें व्याप्त ख़ुशबू का यही जादू है
कि, लौ ढूंढने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती
साथी!
समय गा सकता है
भर सकता है खाली कटोरे
वह, बच्चू माली को खुशहाल बना सकता है
उसकी गंध सूंघे, परखें
आपके नथुनों को कहीं
दुर्गंध की आदत तो नहीं पड़ गयी
मेरी साँसों में विद्यमान है, सुगंध
मुझे निश्चिंत करती
गहन आकाश तक उड़ाती
इस लायक बनाती
कि किसी भी मुकुटधारी की आँखों में झाँक
सवाल दाग सकूँ
जब आपने विचलित होने के
सभी विकल्प
फूँक लगा उड़ा दिए हैं
तो चँदा आपसे हर रात बातें करता है।
(यह कविता प्रिय भाई व बेहद ज़रूरी युवा - कवि 'कमलजीत चौधरी' के कारण संभव हुई। अतः उन्हें ही समर्पित।)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 7889474880
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जवाब देंहटाएंअच्छी और अर्थपूर्ण कविताएं।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी
अपने समय को तराजू में तोलती कविताएं, अंतस तक को झकझोर देने वाली कविताएं स्मृतियों के बक्से खोलती, तमाम तरह के सिस्टम को कटघरे में खड़ा करती कविताएं हैं
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