कुमार विजय गुप्त के कविता संग्रह की यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा

 



कविता निःसंदेह सर्वाधिक लिखे जाने वाली विधा है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कवियों और कविताओं की बहुतायत हो जाती है और इसी क्रम में हो जाता है कविताओं का सामान्यीकरण। लेकिन एक पहलू यह भी है कि आज भी बेहतरीन कविताएं लिखी जा रही हैं। जरूरत है आंख खोले रखने की। कवि यतीश कुमार हमारे समय के सबसे पढ़ाकू व्यक्ति हैं। इनकी निगाहें अपने समय की बेहतरीन कृतियों पर रहती है। वे इन कृतियों को पढ़ कर वक्त के पन्ने पर शिद्दत से दर्ज भी करते हैं। कुमार विजय गुप्त का हाल ही में एक कविता संग्रह बिंब प्रतिबिंब प्रकाशन फगवाड़ा से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह को पढ़ कर यतीश कुमार ने जो दर्ज किया है उसे आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।



शब्दों को नहीं अपने आप को खोज रहा है कवि


यतीश कुमार



प्रभात मिलिंद ने बिल्कुल ठीक कहा है कि कुमार विजय गुप्त इस समय के सर्वाधिक अंडरसेलिब्रेटेड कवियों में शुमार हैं। पहली कविता 'अनंत क्लोन कामनाएँ’ से ही उनकी दृष्टि संपन्नता और काव्य रागात्मकता पर पकड़ का अंदाज़ा हो जाएगा आपको। सुंदर कविता अगर छंद से बाहर रह कर अपने लय को बनाये रखती है तब उसकी मारक क्षमता और बढ़ जाती है। एक सधे हुए द्रष्टा की, समाज कल्याण से भरी सुंदर कामनाओं के साथ ऐसी शुरुआत, किसी संग्रह की और क्या हो सकती है! कविता यहाँ पुकार लिए मिलती है आह्वान की तरह और कहती है ‘मुझे ढूँढो’! 


“मुझे ढूँढो 

तुम्हारे दो अक्षर के बीच की हकलाहट को 

बेतरतीब के दुख से उबारता हुआ मिलूँगा मैं” 


कविता वह जो हिल्लोल पैदा करे, कविता वह जो इस हिल्लोल के साथ पैठ जाये कुंडली मार कर भीतर और बेचैन करे। गेयता का तत्व लिए ये भाव विरल हैं इस संग्रह में। इतनी प्रचुरता एक ही संग्रह में साधारणतः उपलब्ध नहीं होतीं।


“आख़िर कौन मारता है सपने को

ग्लानि, भूख या फिर तानाशाह”


कवि शब्दों को नहीं अपने आप को खोज रहा है और लिख रहा है कविता ‘तलाश रहा हूँ मैं कुछ शब्द ऐसे’ जो अंत में ख़ुद सवाल बन जाती है। यहाँ सवाल ख़ुद अपनी यात्रा पर है, जिसे मरे या मारे हुए सपनों का सुराग ढूँढ़ना है। लिखते हैं :-


“फ़िलहाल 

मरे हुए सपने का सुराग ढूँढने के लिए 

एक मारे हुए आदमी की खुली आँख में 

मैं उतर रहा हूँ धीरे-धीरे।"


अक्सर बहुत हल्के में हम कह देते हैं कि इन दिनों कविताओं की भीड़ है और भीड़ में अच्छी कविता गुम हो गई है। सोशल मीडिया पर कूड़ा है, तो मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कहता हूँ कि आपको कविता तक जाना होगा, थोड़ी मेहनत ख़ुद भी करनी होगी, थोड़ी पात्रता ख़ुद में जगानी होगी और आपके लिए ऐसी कविताएँ इंतज़ार में हैं। आपको लौटा हुआ लिफ़ाफ़ा फिर से खोलना होगा।


अलका सरावगी के उपन्यास और कहानियों में पहचान की ढूँढ, केंद्र बिंदु होती है और यहाँ विजय लिखते हैं ‘पहचान-पत्र’ शीर्षक कविता। यहाँ विजय की दृष्टि अलग है, वे कहते हैं:- 


ज़रा सोचिए

कितना सार्थक व आसान होता

जब हमारे पहचान-पत्र बनाते

पड़ोस के दुकानदार,

जो हमें पहचानते हैं हमारे भीतर तक

या फिर बनाते, हमारे कसबे के रतन चाचा ही,

जिनके सामने हम ‘जनम के खड़े हुए’। 


थर्ड जेंडर पर लिखी कविता ‘ट्रेन में ताली’ बहुत सरल शब्दों में गहन बात करती है। चूँकि यह विषय मेरे दिल के बेहद क़रीब है, इसलिए इसे दो बार पढ़ा और दोनों बार इसकी ताली की गूँज सुनाई पड़ी। सरल शब्द जब मारक शब्द होते हैं, तो अपनी सबसे तेज धार लिए आते हैं।


कुमार विजय गुप्त 


अभी वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल के साक्षात्कार में अंजुम ने अपनी एक बात कही, जिसमें पॉकेट का साइज, एक बिंब की तरह आ रहा था और स्त्री पुरुष के अंतर को बड़ी साफ़गोई से एक रूपक का ज़ामा पहना रहा था। यहाँ विजय लिखते हैं कविता ‘चोर जेब वाली क़मीज़’। यहाँ बाज़ार के बढ़ते राक्षसी हाथ के सामने अपने पैर समेटती जेब का बिंब है।


"नमक नमक है और चीनी चीनी" बहुत प्यारी कविता है। किचन से जीवन दर्शन खींच लाने का सुन्दर आख्यान, चंद शब्दों में लिखा गया है। इस मीठी कविता में, जीवन में चीनी और नमक के अवदान, दर्शन भाव के साथ उपस्थित हैं, इसे पढ़ा जाना चाहिए। आम जीवन में ही कविता का असली रस छिपा है। कवि को ईश्वर की दृष्टि कुछ पल के लिए मिलती है, जिस पल वह सृजनरत रहता है। विजय के पास यह क्षण घरेलू ज़िंदगी के बीच आते हैं, तब रची जाती है कविता ‘बासी रोटी ताज़ा चाय’। 

कवि लिखते हैं:


“रोज़ाना सुबह मुझमें 

कुछ तरल, ठोस बनता है 

कुछ ठोस, तरल-सा पिघलता है 


पता नहीं 

अपने भीतर के ठंडे को गरमा रहा 

या फिर गर्म को कर रहा हूँ शीतल”


दर्शन के ऐसे भाव से डूबी कविता आपको अपने घर से एक नया परिचय करवायेगी। जिस आटा को गूंधने के लिए आसुओं का इस्तेमाल किया जाता है वह रोटी है, "ज़िंदगी यदि पहाड़ है तो पहाड़ से ऊँचा मस्तक भी होगा" जैसी पंक्तियाँ आपके साथ चलती रहेंगी। कवि की नज़र कुर्सी, चूल्हा, नमक, पेन की खोली, दीवार घड़ी, तकिये, चश्मा यानी आस-पास की चीजों पर पड़ती है और वह उसे ख़ास बना देता है। यह उसकी स्मृति यात्रा की तरह है।


कवि, राजनीतिक गतिविधियों में आयी हलचल से भी परेशान है, पर इन सब परेशानियों के बावजूद वह सकारात्मक सोच नहीं छोड़ता और इंतज़ार करता है कुछ बेहतर घटने का। कवि को इंतज़ार है, चौराहे पर ढक दिये गये कुएँ के फिर से खुलने का, इंतज़ार है दिवंगत दोस्त के फ़ोन पर फिर से कॉल करने का, कटे हुए पीपल के फिर से उगने का, छानते पकौड़े के साथ पकौड़े वाले की मुस्कान का और लौटे हुए लिफाफा के सही जगह पहुँचने का। विनोदपूर्ण कटाक्ष में माहिर कवि, अपनी कविता में व्यंग्य को भी पूरी जगह देता है।


“बह रही कुछ इस कदर हवा 

कि लिखते हम नौ, बन जाता छह 

सोचते तिरसठ पर छत्तीस हो जाता”


युद्ध के संदर्भ में चार कविताएँ लिखी गई हैं, जिनमें रूपक के तौर पर चिड़िया और बंदर, मेमना और बाघ, लाठी और भैंस के साथ पंचों का फ़ैसला और नाला का सहारा लिया गया है। मार्मिक कविताएँ हैं, जिनमें देश, जंगल के साथ आस-पास की चिंताएँ भी हैं। 


अंत में एक और ख़ास बात कि कोई भी संग्रह अच्छा या ख़राब कविता के संकलन से बनता है और कविता चुनते समय तटस्थता आपकी कसौटी होती है। यहाँ कवि को थोड़ी और सावधानी बरतने की ज़रूरत लगी मुझे। अच्छी कविता का सुरूर कुछ कविताओं के कारण दब जा रहा है।



लौटा हुआ लिफाफा - कुमार विजय गुप्त

बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशन , फगवाड़ा, पंजाब




यतीश कुमार 




सम्पर्क 

मोबाइल : 8777488959

टिप्पणियाँ

  1. यतीश सर ने कविताओं के मर्म के नर्म सिरे को बहुत गम्भीरता से पकड़ा है और रेखांकित किया है । संग्रह की एक एक कविताओं पर अपनी पैनी नजर दौड़ायी है , जो अक्सरहां समीक्षकों से छूट जाती है । उनका आभार । साथ "पहली बार" को भी शुक्रिया 💐

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