गोपेश्वर सिंह का आलेख 'तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई'

 

नन्द किशोर नवल


नन्द किशोर नवल हिन्दी साहित्य में मार्क्सवादी चेतना सम्पन्न शीर्षस्थ आलोचकों में रहे हैं। उनके अध्ययन एवं लेखन का क्षेत्र व्यापक है। निराला एवं मुक्तिबोध पर उनका मुख्य काम है। इन दोनों कवियों पर उनका लेखन मानक महत्त्व रखने वाला सिद्ध हुआ है। अपने समकालीन लेखन में नये से नये कवियों पर भी लिखने वाले नवल जी ने तुलसीदास एवं सूरदास से लेकर रीतिकाव्य तक पर कलम चलायी है। 12 मई 2020 को उनके निधन के उपरांत गोपेश्वर सिंह ने यह संस्मरण लिखा था। जो पक्षधर वेब पत्रिका के साथ साथ कथादेश, परिंदे आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। नवल जी की स्मृति को नमन करते हुए हम गोपेश्वर सिंह का यह आत्मीय संस्मरण प्रकाशित कर रहे हैं।



'तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई'

(नंदकिशोर नवल का पुण्य स्मरण)  


गोपेश्वर सिंह


अजीब रिश्ता रहा नंदकिशोर नवल से। वे हमारे अध्यापक भी थे और वरिष्ठ सहकर्मी भी। उनसे वैचारिक-साहित्यिक हमारी लड़ाइयाँ  भी  ख़ूब हुईं और हमने एक-दूसरे से बेपनाह मोहब्बत भी  की। लगभग चार दशकों के संग-साथ में अनेक चढ़ाव-उतार आए। हम एक-दूसरे को कभी पसंद, कभी नापसंद करते रहे। एक-दूसरे की रूचियों को सराहते रहे और मजाक़ उड़ाते रहे। अब जब कि वे नहीं हैं तो लगता है कि पटना से लगाव का एक बड़ा आधार ख़िसक गया। वह पटना जिसे वे बेहिसाब प्यार करते थे और मेरे लिए जो कभी ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ था। हमारे बहुत ही बेतकल्लुफ़ गुरु और साथी थे नंदकिशोर नवल, जिन्हें याद करता हूँ तो अपने जीवन का धड़कता हुआ अध्याय खुलने लगता है।



1990 और 1998 के बीच की कोई तारीख थी. इतना ही याद है कि नवल जी तब विश्वविद्यालय की सेवा में थे। यह भी याद है कि अप्रैल महीने का कोई गर्म दिन था। रात के क़रीब आठ बजे मैं और तरुण कुमार नवल जी के साथ आरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े थे। हम एक सेमिनार से निकले थे और हमें पटना के लिए ट्रेन पकड़नी थी। ट्रेन के आने में एक घंटे की देर थी। गर्मी से ऊपर का एस्बेसटस और प्लेटफ़ॉर्म तप रहे थे। ट्रेन की प्रतीक्षा और ऊपर से गर्मी। हम परेशान हो उठे। तभी नवल जी ने एक ऐसी बात कही जिसके कारण हम दोनों अपनी परेशानी भूल गए। उन्होंने कहा: “आप लोगों को एक बात बताना चाहता हूँ। ‘निराला रचनावली’ के संपादन के दौरान मुझे कई शहरों की यात्रा करनी पड़ी। कई बार इसी तरह के तपते हुए प्लेटफॉर्म पर रात में गमछा बिछा कर सोना पड़ा। लगता था कि मेरी पीठ जल गयी हो। जो रचनावली हिंदी संसार के सामने है उसके संपादन में जितने कष्ट झेलने पड़े उनमें से एक इस तरह के प्लेटफॉर्म पर गमछा बिछा कर सोना भी था’’।



‘निराला रचनावली’ के संपादन में नवल जी ने बहुत मिहनत की। प्रायः सभी रचनाओं के प्रकाशन के संदर्भ और समय का उल्लेख किया. रचनाओं के क्रम-निर्धारण का काम भी सावधानी के साथ किया।  निराला-साहित्य के परिप्रेक्ष्य को ठीक से हिंदी संसार के सामने रखने के लिए रचनावली की लम्बी भूमिका लिखी। मैं कह सकता हूँ कि हिंदी में जो सुसंपादित रचनावलियाँ हैं उनमें ‘निराला रचनावली’ का ऊँचा स्थान है। नेमिचंद्र जैन के संपादन में तब ‘मुक्तिबोध रचनावली’ निकल चुकी थी। वह भी सुसंपादित रचनावली है। नवल जी के सामने संभव है कि वह आदर्श उदहारण के रूप में रही हो। बाद के दिनों में विजय बहादुर सिंह ने ‘नंद दुलारे वाजपेयी रचनावली’, ओमप्रकाश सिंह ने ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’, और मस्तराम कपूर ने ‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ के संपादन द्वारा आदर्श उदहारण पेश किए। इस क्रम में  सुसंपादित अन्य रचनावलियों का भी नाम लिया जा सकता है। लेकिन हिंदी में निकली सभी रचनावलियों को आदर्श के रूप में नहीं याद किया जा सकता। बहरहाल, नवल जी ने रचनावली के साथ कई पुस्तकों के संपादन में इसी आदर्श का निर्वाह किया। वे मानते थे कि मिहनत का कोई विकल्प नहीं है। संपादन का उद्देश्य और उसके पीछे काम करने वाली दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। शायद यही कारण था कि मेरे द्वारा संपादित दो किताबें- ‘भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार’ और ‘कल्पना का उर्वशी विवाद’ उन्हें ख़ूब पसंद आयीं।



उनकी संपादन-कला उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में भी देखी गई। पत्रिका निकालना उनका प्रिय काम था। अपने युवा काल में अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर उन्होंने ‘ध्वजभंग’ नाम से एक पत्रिका निकाली थी। तब उन पर राजकमल चौधरी की संगति का असर था। भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी आदि का भी कुछ असर होगा। पटना में राजकमल के घर पर नंदकिशोर नवल, कुलानंद मिश्र, सिद्धिनाथ मिश्र और शिव वचन सिंह की बैठक हुई और एक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया गया. राजकमल ने पत्रिका का नाम सुझाया- ‘प्रचोदयात’। राजकमल ने कहा कि गायत्री मंत्र का यह शब्द है जिसका अर्थ होता है- प्रेरित करना, आगे बढ़ाना आदि। लेकिन नवल जी और उनके साथी राजकमल जैसे साहसी नहीं थे. उनकी राय थी कि ‘ध्वजभंग’ नाम से पत्रिका निकले। तब नवल जी विश्वविद्यालय के शोध छात्र थे। अपने शोध के सिलसिले में वे कुछ हफ़्तों के लिए पटना से बाहर गए। इसी बीच राजकमल चौधरी का असामयिक निधन हो गया। यह 1967 के आसपास की बात है। बाद में ‘ध्वजभंग’ नाम से ही पत्रिका निकली। तीन-चार अंक निकलने के बाद पत्रिका बंद हो गई। ‘ध्वजभंग’ गढ़ा हुआ नाम था, इससे कई अर्थ निकलते थे। एक अर्थ अकवितावादी संस्कार का भी था। बाद के वर्षों में ‘सिर्फ’, ‘धरातल’, और ‘उत्तरशती’ का उन्होंने संपादन किया। नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में वे ‘आलोचना’ से भी जुड़े। अवकाश ग्रहण के बाद उन्होंने ‘कसौटी’ के पंद्रह अंक निकाले।



कुल मिला कर यह कि पत्रिका निकालना नवल जी का प्रिय शौक़ था। अपने इस शौक़ को वे बहुत जतन से निभाते थे। रचनाओं के संपादन से लेकर प्रूफ़ रीडिंग तक का काम वे स्वयं करते थे। एक-एक शब्द की जाँच-परख करते थे. अपना बहुत-सा समय और पैसा उन्होंने पत्रिका निकालने में ख़र्च किया। क्यों किया? मुझे लगता है कि पत्रिका के जरिए नए रचनाकारों से जीवंत संवाद का आकर्षण उनके भीतर प्रबल था। वे हमेशा नये रचनाकारों का संग-साथ पसंद करते थे। वे गुरुडम के शिकार नहीं थे। उसी आदमी ने दो साल पहले एक ऐसी बात कही जो मुझे झकझोर गयी। उन्होंने पूछा कि अब आपका रिटायर्मेंट करीब आ रहा है तो क्या करने की योजना है? मैंने कहा कि सोचा नहीं है, मन हुआ तो कोई पत्रिका निकालूँगा। उन्होंने कहा कि अपनी पसंद के विषय पर क़िताब लिखिए. किसी कवि-कथाकार या आलोचक पर एकाग्र हो कर काम कीजिए। अब तक यह काम आपने नहीं किया है. फुटकल लेख लिखने से कोई आलोचक नहीं बनता। पत्रिका हर्गिज मत निकालिए। यह ‘थैंकलेस जॉब’ है। होशियार लेखक कभी पत्रिका नहीं निकालते हैं, जैसे  ज्ञानेंद्रपति, आलोक धन्वा और अरूण कमल। इसी के साथ यह भी कहा कि दूसरों की रचनाओं को सुधारते रहने से अच्छा है कि आदमी अपने मन का पढ़े-लिखे। मैं चकित हुआ कि यह बात वह आदमी कह रहा है जिसने जीवन भर पत्रिकाएँ निकाली हैं। वे मुझसे, तरुण कुमार और अपूर्वानंद से उम्मीद करते थे कि हम ख़ूब लिखें, लेकिन जब हम उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं नहीं दिखे तो हमारी हल्की-सी  आत्मीय शिकायत भी करने लगे। कहते कि बाबू साहेब को गप, अड्डेबाजी और भाषण से फ़ुर्सत नहीं है, तरुण जी लिखने में आलसी हैं और अपूर्वानंद की दिलचस्पी का क्षेत्र साहित्य नहीं, राजनीति है। ( वे अक्सर मुझे ‘बाबू साहेब’ कहते थे। उनकी देखा-देखी तरुण कुमार, अपूर्वानंद, सत्येन्द्र सिंहा आदि भी कभी-कभी ‘बाबू साहेब’ कहते थे।)     

  




बहरहाल, नवल जी जितने समर्पित और मिहनती संपादक थे उससे अधिक मिहनती और समर्पित शिक्षक थे। समय से कक्षा में आना और निर्धारित विषय पर पूरे समय केन्द्रित हो कर ठहर-ठहर कर बोलना उनकी आदत थी। वे हमें निराला और मुक्तिबोध की कविताएँ पढ़ाते थे. एक-एक शब्द की व्याख्या के साथ कविता को पूरे विस्तार से खोलते थे। कविता का सामाजिक संदर्भ भी बतलाते थे पर सबसे पहले कविता के धरातल पर हमें ले जाते थे। छुट्टी पर जाने वाले अध्यापक की जगह पर भी वे अक्सर आ जाते थे। पटना विश्वविद्यालय में तब कोई कक्षा ख़ाली नहीं जाती थी। हम  जब उस खाली पीरियड का आनंद उठाना चाहते, तभी नवल जी कक्षा में हाज़िर। हम तब उन्हें ‘फिल अप द ब्लैंक’ के नाम से याद करते। हमारे हाव-भाव से वे समझ जाते कि हम कोई गंभीर व्याख्यान सुनने के मूड में नहीं हैं। तब वे किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर बातचीत करते। एक दिन उन्होंने यह बताया कि किस लेखक-कवि का असली नाम क्या है; जैसे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का मूल नाम सूर्य कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन पंत का गुसाईं दत्त पंत, शांतिप्रिय द्विवेदी का मूंछन दुबे, जैनेंद्र कुमार का आनंदी लाल, मलयज का भरत जी लाल  श्रीवास्तव आदि-आदि। यह सब वे बता रहे थे तभी एक शरारती छात्र ने पूछा: “सर, आपका मूल नाम?’’ वे मुस्कुराए। लेकिन इत्मीनान से जवाब दिया: “नंदकिशोर सिंह. लेकिन मैंने मैट्रिक का फॉर्म भरते समय अपने नाम से ‘सिंह’ हटा कर ‘नवल’ लगा लिया।’’ हमारे साथी ने रचनात्मक सवाल किया:  ‘तख़ल्लुस तो कवि लगाते हैं। आप ठहरे प्रगतिशील आलोचक?’ इस बार उन्होंने उस शरारती छात्र को ठहर कर देखा और कहा: “पहले मैं कवि था। मेरा एक काव्य संग्रह छप चुका है।’ उस छात्र ने कहा: “ओह, आप कवि थे! तभी तो!’’ नवल जी ने यह नहीं पूछा कि ‘क्या तभी तो’, लेकिन यह समझ गए कि छात्र पढ़ने के मूड में नहीं हैं। फिर भी पढ़ाते रहे। बाद के दिनों में भी वे आते और किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर चर्चा करते। हमने भी मान लिया था कि गुरू जी लोग बिना पढाये नहीं मानेंगे, सो मन मार कर पढ़ने लगे। लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह जैसी कहावत छात्रों ने सुन रखी थी।

 


असल में ख़ाली पीरियड कम मिलते थे। दस बजे से दो बजे तक लगातार चार पीरियड होते थे। ख़ाली पीरियड में लडके अपनी कक्षा की लड़कियों से बात करना चाहते थे जिनकी संख्या लड़कों के बराबर ही थी। दो बजे के बाद सभी लड़कियाँ घर में अच्छी बनी रहने के लिए जल्दी घर भाग जाती थीं। देर से पहुँचने पर माता-पिता की डांट सुननी पड़ती। छुट्टी के दिन मिलने का तो सवाल ही नहीं था। सो, लड़कों के पास अपना ख़ाली पीरियड ही होता लड़कियों को प्रभावित करने के लिए। लेकिन नवल जी की अधिक तत्परता हमें भारी पड़ने लगी। लड़कों ने तय किया कि ख़ाली पीरियड में हम लोग गंगा किनारे बैठेंगे जो विभाग के पीछे ही था। लेकिन एक भक्त किस्म के छात्र ने उन्हें इसकी सूचना दे दी। ग़नीमत रही कि उन्होंने इस पर ध्यान न दिया। मामले की नजाकत शायद वे समझ गए थे।

  


मैं जब वहीं अध्यापक हो गया तो वे मुझे भी तैयार हो कर कक्षा में जाने के लिए प्रेरित करते थे। थोड़ी भी देर होती तो वे हमें टोकते थे। कहते थे कि शिक्षक को कक्षा में समय से जाना चाहिए और निर्धारित समय और निर्धारित विषय पर बोलना चाहिए। वे यह भी बताते थे कि जो विषय अगले दिन पढ़ाना है उसकी तैयारी एक दिन पूर्व कर लेनी चाहिए। वे यह भी कहते थे कि अपने व्याख्यान का आदि और अंत बिलकुल सुचिंतित होना चाहिए। यह सब मैंने  कितना सीखा यह तो नहीं कह सकता, लेकिन यह कह सकता हूँ  कि नवल जी इसका पालन जीवन भर करते रहे। वे कक्षा को जितनी गंभीरता से लेते थे उतनी ही गंभीरता से साहित्यिक आयोजनों को भी। विभाग में जब भी वे आयोजन करते उसकी पूरी रूपरेखा गंभीर होती। विश्वविद्यालय के बाहर प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले या व्यक्तिगत रूप से भी उन्होंने जो विचार गोष्ठियाँ पटना में आयोजित कीं, उनकी बड़ी भूमिका नगर के युवाओं को प्रशिक्षित करने में रही। उन्हीं के जरिए उन आयोजनों में हमने नामवर सिंह के ऐतिहासिक भाषण सुनें। हमने केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, अमृतलाल नागर, रघुवीर सहाय, आदि को सुना और अपने को समृद्ध किया। मैं कह सकता हूँ कि नंदकिशोर नवल जैसा सुरुचि सम्पन्न आयोजक मैंने कम देखा  है।



लेकिन इसी के साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि नंदकिशोर नवल पर प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी का ऐसा असर था कि वे अपने से भिन्न मत के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। एक बार पटना विश्वविद्यालय की ओर से सात दिनों का सेमिनार हुआ। विषय था ‘लोक चेतना और हिन्दी साहित्य’। हिन्दी के तमाम छोटे-बड़े लेखक-विद्वान उसमें आमंत्रित हुए। डॉ. नगेन्द्र ने उद्घाटन किया और समापन डॉ. नामवर सिंह ने। रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, विष्णुकांत शास्त्री, मैनेजर पाण्डेय, मधुरेश, सुरेंद्र चौधरी, आदि की याद मुझे है, जिन्होंने वक्ता के रूप में शिरकत की थी। ढाई-तीन सौ लोग सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक वक्ताओं को सुनते थे। बीच में लंच की व्यवस्था नहीं थी। तब भी श्रोता सुनने के लिए डटे रहते। इससे इस सेमिनार की बौद्धिक गुणवत्ता का अंदाजा किया जा सकता है। लेकिन अचानक एक ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी। विष्णुकांत शास्त्री जब लोक चेतना की आस्थामूलक व्याख्या कर रहे थे तो नवल जी का धैर्य जवाब दे गया। वे उठे और शास्त्री जी को टोकते हुए उन्होने कहा कि यह संघ का मंच नहीं है और हम संघ के कार्यकर्ता भी नहीं हैं, यहाँ पढे-लिखे लोग बैठे हैं,आदि। इसके बाद वह सत्र बाधित हो गया. बहुतों को नवल जी की यह हरकत अच्छी नहीं लगी। इसका बदला दक्षिणपंथी सोच के विभागाध्यक्ष  राम खेलावन राय ने अगले सत्र में  लिया। रमेश कुंतल मेघ जब बोल रहे थे तो लोक चेतना की उनकी जनवादी व्याख्या को राम खेलावन राय ने बीच में टोक कर चुनौती दी और कहा कि यह कम्युनिस्ट पार्टी का मंच नहीं है। इसके बाद हंगामा हुआ और वह सत्र भी नष्ट हो गया। इसी तरह फिर एक बार रघुवीर सहाय का व्याख्यान पटना प्रगतिशील लेखक संघ ने कराया। रघुवीर सहाय किस विषय पर बोले यह तो याद नहीं है लेकिन यह याद है कि उन्होंने कहा था कि प्रगतिशील लेखक संघ एक सांप्रदायिक संगठन है। सांप्रदायिक संगठन से उनका आशय यह था कि जैसे पहले साधु-संतों के संप्रदाय हुआ करते थे वैसा ही यह संगठन है। उनका आशय यह भी था कि संगठन की प्रगतिशीलता संबंधी समझ संकीर्ण है। नवल जी से रघुवीर सहाय की अपने संगठन की यह आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई। धन्यवाद ज्ञापन में उन्होंने रघुवीर सहाय की ‘भूरी-भूरी निंदा’ की। रघुवीर चुपचाप सुनते रहे। इसे श्रोताओं ने अच्छा नहीं माना।

 


कुल मिला कर नंदकिशोर नवल जितने अच्छे अध्यापक, संपादक और आयोजक थे उतने ही ‘अच्छे’ असहिष्णु मनुष्य थे। जितने लोगों से उनकी पटती थी उससे अधिक लोगों से उनकी खटपट रहती थी। नवल जी लिख कर और बातचीत की अपनी टिप्पणियों से अपने दुश्मन स्वयं बनाते थे। नगर के जो भी कवि–लेखक थे उनमें कइयों से उनके सम्बन्ध शिथिल थे। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेंद्रपति, आलोक धन्वा, प्रेम कुमार मणि, नचिकेता, जितेन्द्र राठौर आदि से अबोला जैसा था। वे तब अरुण कमल की कविता पसंद करते थे और उन्हें साथ ले कर घूमते थे। उस समय एक चतुष्पदी पटना के साहित्यिक हलके में सुनी-सुनाई जाती थी-


आलोचना की नवल शैली चली है

कुछ लोचनों को रचना खली है 

कुछ पालतू हैं, बाकी फालतू हैं

भले हैं वे जिनकी दाल गली है।


कहा जाता है कि यह चतुष्पदी ज्ञानेंद्रपति की लिखी हुई है। बाद के दिनों में अरुण कमल को नवल जी कम पसंद करने लगे और ज्ञानेंद्रपति तथा आलोकधन्वा उनके प्रिय हो गए। वैसे आठवें दशक के कवियों में अंतिम दिनों में उनके सर्वाधिक प्रिय भोपाल के राजेश जोशी हो गए थे।

 




आयोजनों की बात चली है तो यह भी बताता चलूँ कि 1970 में नवल जी ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर एक विराट युवा लेखक सम्मेलन किया। इसमें नामवर सिंह, धूमिल, वेणु गोपाल, विजेंद्र, कुमारेन्द्र आदि लगभग पचास लेखकों ने भाग लिया। यह नवल जी की आयोजन क्षमता थी जो अत्यंत व्यवस्थित थी। इसी के साथ यह भी बताना चाहता हूँ कि नवल जी को सुंदर काव्य-पंक्तियाँ और शेर ख़ूब याद थे। बातचीत में सही जगह पर वे उनका प्रयोग करते थे। एक बार हम दोनों राजेंद्र नगर स्टेडियम में सुबह घूम रहे थे। सामने से सुंदर काया वाली स्त्री आती हुई दिखी। नज़दीक आने पर मैंने देखा कि चेचक के गहरे गड्ढों से उसके चहरे का सौंदर्य बिगड़ गया है। मेरे मुंह से दुःख सूचक ‘आह’ की ध्वनि निकली। नवल जी ने मेरे दुखी होने पर एक शेर सुनाया जिसकी दूसरी लाइन याद है- ‘देखा है आशिकों ने आँखें गडा गडा कर’। मतलब यह कि चहरे पर जो गड्ढे हैं वे आशिकों की गहरी निगाहों के कारण बन गये हैं। उसके बाद मैं अपना दुःख भूल गया।

 


नवल जी का वस्त्र विन्यास भी बहुत सुंदर और सुसंपादित होता था। वे सूट-टाई, धोती-कुर्ता और पाजामा-कुर्ता तीन तरह का पोशाक पहनते थे। घर पर लूंगी। जाड़े में सूट और टाई तथा शेष महीनों में धोती-कुर्ता या कुर्ता-पाजाम या पैंट शर्ट। वे जो भी पहनते कपड़े बहुत ही साफ-सुथरे होते और उनके व्यक्तित्व पर फबते थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत सुदर्शन था। जाड़े में सूट, टाई पहनकर जब वे साइकिल चलाते हुए विभाग आते थे तो बहुत लोग उत्सुकता से उन्हें देखते थे। वे टाई का नॉट बहुत बढ़िया बनाते थे। मुझे टाई का नॉट बनाना उन्होंने ही सिखलाया था। उनका व्यक्तित्व इतना चमकता हुआ रहता था कि हम लोग कहते थे कि उनकी मैडम उन्हें ठाकुर जी की बटिया तरह धो-पोंछ कर रखती हैं। इसके पीछे कारण यह था कि नवल जी घर-गृहस्थी की चिंता से प्रायः मुक्त रहते थे। उनकी पत्नी रागिनी शर्मा सब कुछ संभालती थीं। यहाँ तक कि कई दफा नवल जी का दिया हुआ डिक्टेशन भी वे लेती थीं। वे सही अर्थों में नवल जी की ‘सचिव-सखी-सहचरी’ रहीं।

 


नवल जी में अनुशासन और अराजकता दोनों का अद्भुत मेल था। वे अपने लिखने-पढ़ने के समय में कोई कटौती नहीं करते थे। इसके चलते कई दफा उनके संबंधी, मित्र और छात्र नाराज हो जाते थे। लेकिन कभी-कभी उनकी अराजक मस्ती देखते हुए बनती थी। छुट्टी के दिन एक बार तरुण कुमार के साथ सुबह टहलते हुए मेरे घर आए। गपशप का सिलसिला शुरू हुआ तो लंबा हो गया। उन्होंने मेरे घर के एक लड़के को भेज कर कचौड़ी और जलेबी मंगाई। नाश्ता करने के बाद हम लोग फिर गपशप में जुट गए। यह क्रम तब टूटा जब एक बजे के लगभग उन्हें कई जगह खोजते हुए परेशान रागिनी शर्मा मेरे घर आयीं। तब मोबाइल का जमाना नहीं था। और हम लोगों के घर फोन भी नहीं था। इसी तरह की एक और घटना याद आती है। दो बजे जब कक्षाएँ समाप्त हो जाती थीं तो हम बैठ कर साहित्य, समाज और राजनीति पर गपशप करते थे। बीच में चपरासी को भेज कर भूंजा मंगाते थे। भूंजा  खाने के बाद कभी-कभी गुलाबजामुन खाने की हमारी आदत थी। यूनिवर्सिटी के बाहर लालजी की दुकान पर हम पान खाते और तब अपने-अपने घर जाते। कभी-कभी हमारी बैठक राजकमल प्रकाशन में होती। महीने-डेढ़ महीने पर हम कभी-कभी पटना की मशहूर मिठाई की दुकानों में जाते और कई तरह की मिठाइयाँ तब तक खाते रहते जब तक कि हम थक न जाते। इसी क्रम में एक बार ऐसा हुआ कि हमने मिठाइयाँ खूब खा लीं। पैसे देने की बारी आई तो किसी की जेब में पैसे नहीं थे। दुकान यूनिवर्सिटी इलाके में नहीं, रेलवे स्टेशन के पास थी। दुकानदार हमें बिलकुल नहीं जानता था। नवल जी ने अपने सुदर्शन और सूट-टाई वाले व्यक्तित्व का उपयोग किया और दुकान मालिक से कहा कि हम पैसे कल भेज देंगे। दुकानदार हमें पहचानता तो नहीं था, लेकिन वह समझ गया कि ये यूनिवर्सिटी के विद्वान लोग हैं।



वे बहुत संयमी थे। बाहर कभी कुछ नहीं खाते थे। लेकिन कभी–कभी यह संयम ढीला पड़ता था तब अराजक रूप ले लेता था। एक बार मेरे घर हम दोनों मछली खाने बैठे। उत्साह में पांच लोगों का हिस्सा हम दो ही खा गए। मेरे घर के बाकी लोग हमारा यह रूप देख कर मुस्कुराते रहे। उनको अंचार के साथ भोजन करना पड़ा। उस अति का फल यह हुआ कि उसको पचाने के लिए मुझे चौबीस घंटे और नवल जी को अड़तालीस घंटे का उपवास  करना पड़ा। मैडम रागिनी शर्मा ने हमारी इस आदत को देहातीपना कहा तो हमने चुपचाप मान लिया। आखिर हम गाँव के तो थे ही। इसी तरह एक बार सोनपुर का विश्व प्रसिद्ध पशु मेला देखने का उनका मन हुआ। उनके साथ उनके आग्रह पर उनके तीन शिष्य हृषीकेश सुलभ, तरुण कुमार और गोपेश्वर सिंह तथा चौथे कवि मदन कश्यप मेला देखने गए। दो बजे से ले कर रात दस बजे तक हमने मस्ती काटी। तरह-तरह के व्यंजन चखे, तरह- तरह के कौतुक किए और तरह- तरह के पशु- पक्षी देखे। तरुण जी, सुलभ और मैंने भंग खायी और झूले पर झूले। तरुण कुमार ने तीन सौ की एक कश्मीरी टोपी अपनी अद्भुत मोल-तोल वाली क्षमता के बल पर दस रुपये में खरीदी। धोती-कुर्ता के साथ कश्मीरी टोपी जब उन्होंने पहनी तब उनके उस रूप की प्रशंसा में हम सबने  सामूहिक रूप से एक कुंडलिया लिखी- ‘धोती कुर्ता टोपी में ही फबते तरुण कुमार’। वह कुंडलिया अब भी  याद है जिसका अंत होता है  इस पंक्ति से –‘ वस्त्र राशि में वैसे ही टी के. की  धोती’। उस दिन तरुण जी कुछ नहीं बोले, अपने ऊपर बनी कुंडलिया का आनंद उठाते रहे। बाद के दिनों में हमने सामूहिक रूप से पटना के साहित्यिक संसार पर बहुतेरी कुंडलिया लिखीं जो हमारी रचनात्मक आवारगी का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। सब कुछ इस मेला यात्रा का आनंददायी रहा लेकिन अंत बड़ा ही तनावपूर्ण हुआ। नवल जी की ज़िद पर सोनपुर से पटना तक लगभग पचास किमी की यात्रा रिक्सा पर करने का फ़ैसला हुआ। एक रिक्सा पर  नवल जी और तरुण कुमार निकल गए। हमें रिक्सा मिलने में देर हुई। जब हम तीनों  रात क़रीब दो बजे गंगा पुल से उतर रहे थे, तभी हमारा रिक्सा तेजी से नीचे गिर पड़ा। हम तीनों और रिक्सा वाले को चोट तो बहुत लगी लेकिन जान बच गयी। नवल जी की मस्ती की वह रात मुझे, सुलभ और मदन कश्यप को जब भी याद आती है हमारे भीतर सिहरन- सी दौड़ जाती है।






                

नवल जी की साहित्यिक रुचि कई पड़ावों से होकर गुजरी थी। पहले वे उत्तर-छायावादी कवियों  की भावभूमि पर कविता लिखते रहे। उसके बाद राजकमल चौधरी के संग-साथ के कारण अकविता के प्रभाव में आए। उसके बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन की ओर घूम आए। बाद में अज्ञेय का प्रभाव उन पर रहा। प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने के बाद वे प्रगतिवादी सोच के आलोचक हो गए. शमशेर, नागार्जुन, केदार, मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि को खूब पसंद करते थे और गैर-प्रगतिशीलों को रूपवादी यानी वर्ग शत्रु मानते थे। बाद में राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश आदि उनके प्रिय युवा कवि थे। आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल आदि की खूब आलोचना करते थे। उनकी नज़र में अशोक वाजपेयी तब रूपवादी कैंप के नेता थे। लेकिन एक गुणात्मक बदलाव 1990 के दशक में नवल जी में आया। इस बदलाव के मूल में सोवियत संघ का पतन एक कारण तो था ही, बड़ा कारण था नागार्जुन का विरोध। उन दिनों नागार्जुन भाकपा और प्रलेस  के  खिलाफ ख़ूब बोलते थे। सोवियत संघ के खिलाफ भी वे बोलते थे। नागार्जुन का यह ‘राजनीतिक भटकाव’ नवल जी से बर्दाश्त नहीं हुआ। वे लिख कर और बोल कर नागार्जुन की आलोचना करने लगे। उसका परिणाम यह हुआ कि नवल जी को पार्टी और संगठन से हटना पड़ा या विरोध को देखते हुए वे खुद हट गए। यही दौर था जब नवल जी प्रगतिशीलता बनाम गैर प्रगतिशीलता, कंटेन्ट बनाम फार्म के रूढ विभाजन से मुक्त हुए और पाठ केन्द्रित आलोचना की ओर मुड़े।



असल में नवल जी बीच का रास्ता नहीं जानते थे। इधर या उधर - या तो आप मित्र हैं या शत्रु। यही कारण था कि नगर के कवियों-लेखकों में से कुछ उनके मित्र थे, शेष से संवादहीनता थी। उनके छात्र रहे लेखकों में से कई लोग थे, जिनसे बातचीत बंद थी। बलराम तिवारी, राणा प्रताप, भृगुनंदन त्रिपाठी, कर्मेंदु शिशिर। अरविंद कुमार, आनंद भारती, हृषीकेश सुलभ आदि से बहुत दिनों तक मुँह फुलौवल की स्थिति रही। अपनी टिप्पणियों से दूसरों को चिढ़ाने में नवल जी का कोई जवाब नहीं था। ऐसा कर के उन्हें शायद मजा आता था। लेकिन ऐसा करके वे अपने प्रशंसकों को खो रहे हैं, इसकी चिंता उन्हें नहीं थी। मेरे साथ सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव तो आया, लेकिन मुझसे  बातचीत कभी बंद नहीं हुई। इसे मैं उनका बड़पन मानता हूँ। बाद में उन्होंने आगे बढ़ कर सब से सम्बन्ध ठीक किये। एक बार दिल्ली में अपूर्वानंद के घर पर मुझे गले लगा कर रोने लगे। बोले कि आपको ठीक से मैंने देर से समझा। यह कम उन्होंने कई लोगों के साथ किया। तब भी गोपाल राय और खगेन्द्र ठाकुर से सम्बन्ध-सुधार की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। उसे अपवाद कहा जाएगा। उन दोनों ने अपनी ओर से पहल की, लेकिन नवल जी का अंत- अंत तक क्रोध शांत नहीं हुआ।



बहरहाल, नवल जी में बदलाव आया। लेकिन  शायद उन्होंने देर से यह बात समझी कि जीवन सिर्फ़ सफ़ेद और स्याह रंगों से नहीं बना है, वह अनगिनत रंगों के मेल का नाम है। इस बदलाव के बाद जो नंदकिशोर नवल दिखाई देते हैं, वह ‘उत्तर नवल पक्ष’ है- जीवन में भी और अपनी आलोचना में भी। लेकिन जो भी कहा जाए, नवल जी की पूर्व पक्ष की गतिविधियों से पटना का साहित्य जगत गुलज़ार रहता था। दूसरों को जब वे चिढ़ाते थे तो लोगों को मजा आता था।     

 

नवल जी मूलतः कविता के आलोचक थे। कविता में भी छायावाद, उत्तर-छायावाद, नई कविता और आठवें दशक की कविता पर लिखना–बोलना उनकी रूचिकर लगता था। इस दौर के बहुतेरे कवियों पर उन्होंने लिखा है और कविता पढ़ने की एक पद्धति विकसित की है। ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ तथा ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ न सिर्फ नवल जी की श्रेष्ठ आलोचना पुस्तके हैं, बल्कि हिन्दी आलोचना के विकास का  श्रेष्ठ उदाहरण भी हैं। मुक्तिबोध की कविताओं की, विशेषत: ‘अँधेरे में’ की उन्होंने जो व्याख्या की है, वह हिन्दी आलोचना में अन्यतम है। मुक्तिबोध के किसी आलोचक के यहाँ वैसी सुंदर और आत्मीय व्याख्या नहीं मिलती है। उनकी मुक्तिबोध वाली क़िताब पढ़ कर मैंने एक दिन कहा कि आपने इस क़िताब के जरिए मुक्तिबोध के ‘मनस्विन रूप’ की ख़ोज की है। मेरी बात सुन कर वे देर तक मुझे देखते रहे। फ़िर कहा – शुक्रिया। मैंने बाद में  ‘मुक्तिबोध का मनस्विन रूप’ शीर्षक से ‘हिंदुस्तान’ अख़बार में समीक्षा लिखी। अख़बार पढ़ने के बाद वे  सुबह- सुबह मेरे घर आए और देर तक बैठे रहे। उस समीक्षा की कोई चर्चा नहीं हुई। यही बात निराला की कविताओं की व्याख्या के संदर्भ में भी कही जा सकती है। निराला की कविता के महत्त्व की चर्चा करते हुए नवल जी ने एक ज़रूरी पक्ष की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि श्रेष्ठ कविता गद्य की शक्ति को आत्मसात करके चलती है। नवल जी की पाठ केन्द्रित आलोचना का एक सुंदर उदाहरण राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ की व्याख्या भी है, जिसके जरिए वे मुक्ति प्रसंग को ‘अँधेरे में’ के बाद हिन्दी कविता की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताते हैं. नवल जी ने अपनी पाठ केन्द्रित आलोचना के जरिए हिन्दी कविता के पाठक को ऐसे समय में पाठ प्रेमी बनाने का काम किया, जब देश में एक विश्वविद्यालय की कृपा से हिंदी आलोचना में रचना की कम, साहित्य-सिद्धान्त का अधिक बोलबाला हो गया था और विदेशी साहित्य चिंतकों के नाम गोष्ठियों में और लेखों में पटापट गिरने लगे थे।



नवल जी ऐसे आलोचक थे जिनसे कालिदास से ले कर संजय कुंदन तक की कविता पर बात की सकती थी. उतने बड़े फ़लक बात करने वाले आलोचक- अध्यापक आज कितने हैं! लेकिन निराला, दिनकर, अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, राजकमल आदि पर वे  बहुत प्रेम से लिखते-बोलते थे। वे साहित्य-सिद्धांत का प्रतिपादन करके आलोचना का नैरेटिव बदलने में विश्वास नहीं करते थे। वे रचना की नयी व्याख्या के जरिए नयी काव्य-रूचि का विकास करने में विश्वास करते थे। वे आलोचना से आलोचना पैदा करने के खिलाफ़ थे। वे ‘तेजाबी आलोचना’ लिखने वालों से कहते थे कि मूल टेक्स्ट शुरू से अंत तक एक बार पढ़ लो, तब लिखो। रचना की व्याख्या आलोचना का व्यावहारिक पक्ष है। इसे दृष्टि से उन्होंने कभी ओझल नहीं किया।   

 


नवल जी को पटना शहर बहुत प्रिय था। उस नगर का साहित्यिक इतिहास उनकी जुबान पर था। उन्होंने अध्यापन कार्य के अलावा दूसरी कोई इच्छा नहीं पाली। वे पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से बहुत प्रेम करते थे। वे कहते थे कि इसे गुरुदेव नलिन विलोचन शर्मा ने बनाया है। नलिन जी की अध्यापन कला और वैदुष्य के वे कायल थे। वे बार-बार यह बताते थे कि नलिन जी दुनिया के लिटररी प्रॉब्लम से अपने छात्रों को परिचित करा देते थे। नवल जी की अंतिम इच्छा थी कि श्मशान  घाट ले जाने के पूर्व उनका शव थोड़ी देर के लिए हिंदी विभाग ले जाया जाए। उनकी यह इच्छा पूरी हुई। आजकल मेरा मन पटना विश्वविद्यालय के परिसर में, वहाँ के हिंदी विभाग में और सामने के अशोक राजपथ पर घूम रहा है, जहाँ नवल जी के साथ हमने सबसे अधिक समय बिताए। मेरी आँखों में रिक्शा पर बैठे हुए नवल जी दिख रहे हैं। रिक्शा का हूड गिरा हुआ है और वे छाता लगाए हुए विश्वविद्यालय की ओर जा रहे हैं। लोगों को आश्चर्य होता कि यह आदमी रिक्शा पर बैठ कर छाता क्यों लगाता हैं! या सूट-टाई में साइकिल चलाते हुए हिंदी विभाग की ओर आते हुए नवल जी दिखाई दे रहे हैं और लोग आश्चर्य से उन्हें देख रहे हैं और सूट-टाई तथा साइकिल का सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं! 

                                                                     

  

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