सुरजीत पातर की कविताएं

 

सुरजीत पातर 


कवि सुरजीत पातर नहीं रहे। वे केवल पंजाबी के ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान के बेहतरीन कवि थे। साठ के दशक में उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत की और शीघ्र ही कविता वे कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर बन गए। सुरजीत पातर की कविताओं में गहन अनुभूति और गहन ऐंद्रिकता सहज ही देखी जा सकती है। आलोचक वैभव सिंह ने उचित ही लिखा है कि 'वे हिंदी में अमृता प्रीतम और पाश के बाद शायद सबसे अधिक पसंद किये गए और पढ़े गये। पंजाबी कविता पर सूफ़ियाना अंदाज, संत-फकीरों की उदारता और आवेगमयी रूमानियत का जो पारंपरिक प्रभाव रहा है, वह उनकी कविता पर भी था।' पातर सही मायनों में आम जनजीवन के कवि थे।अपनी एक कविता में वे लिखते हैं कि मैं दुनिया के बहुमत का कवि हूँ जो उदास है, खामोश है, प्यासा है इतने चश्मो के बावजूद।.. कविता के साथ साथ सुरजीत पातर ने अनुवाद में भी महत्त्वपूर्ण काम किया है। पाब्लो नेरुदा और बर्तोल्त ब्रेख़्त की कविताओं का उम्दा अनुवाद पातर ने किया है। फेडेरिको गार्सिया लोर्का (स्पेनिश कवि एवं नाटककार और नाट्य निर्देशक) के नाटकों के बाद नाटककार और नाट्य निर्देशक गिरीश कर्नाड का प्रसिद्ध नाटक नागमंडल अनुवाद किया है । आम जनता के हितों के लिए प्रतिबद्ध कवि सुरजीत पातर का ऐसे समय में जाना जब प्रतिरोध की आवश्यकता है, एक अपूरणीय क्षति है। पातर की स्मृति को नमन करते हुए प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ।  कविताओं का पंजाबी से हिंदी अनुवाद चमन लाल ने किया है । 


सुरजीत पातर की कविताएं


अनुवाद  :  चमन लाल



मुजरिम  


इन के हाथ से काँटे उगे हैं

बच कर रहना


लेकिन यह न भूलना

ये हाथ बींधकर उगे हैं



कवि साहिब  


मै पहली पंक्ति लिखता हूँ

और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से

पंक्ति काट देता हूँ


मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ

और डर जाता हूँ बाग़ी गुरिल्लो से

पंक्ति काट देता हूँ


मैने अपने प्राणों की खा़तिर

अपनी हज़ारों पंक्तियों को

ऐसे ही क़त्ल किया है


उन पंक्तियों की आत्माएँ

अक्सर मेरे आसपास ही रहती हैं

और मुझे कहती हैं :


कवि साहिब

कवि हैं या कविता के क़ातिल हैं आप?


सुने मुनसिफ बहुत इंसाफ़ के क़ातिल

बड़े धर्म की पवित्र आत्मा को

क़त्ल करते भी सुने थे

सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था

कि हमारे वक़्त में खौ़फ के मारे

कवि भी बन गए

कविता के हत्यारे।



एक नदी  


एक नदी आई

ऋषि के पास

दिशा माँगने


उस नदी को ऋषि की

प्यास ने पी लिया





एक अहसास  


इधर डूबता सूरज है

उधर झड़ते पत्ते हैं

इधर विह्वल नदी है

उधर सूना पथ है


मेरे चारों ओर ये

दर्पण क्यों लटका दिए


सुरजीत पातर हमारे बीच से जुदा हो गए 

यह उनके जाने की उम्र नहीं थी 

अभी उन्हें बगावती तेवर वाली कविताएं लिखनी थी 

ऐसे समय में उन्हें जिन्दा रहना था जिसमें हम नितांत अकेले और असहाय होते जा रहे हैँ 


  

इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी 


बार बार पेश होंगे 

मर चुके, जीवितों के अदालत में 


बार बार उठाये जायेगे 

कब्रों से कंकाल 

हार पहनाने के लिये 

कभी फूलों के कभी काँटों के 


समय की कोई अंतिम अदालत 

नहीं हैँ 

और इतिहास कभी आखिरी बार 

नहीं लिखा जाता



मेरे शब्दों


मेरे शब्दों

चलो छुट्टी करो, घर जाओ

शब्दकोशों में लौट जाओ


नारों में

भाषणों में

या बयानों मे मिल कर

जाओ, कर लो लीडरी की नौकरी


गर अभी भी बची है कोई नमी

तो माँओं, बहनों व बेटियों के

क्रन्दनों में मिलकर

उनके नयनों में डूब कर

जाओ खुदकुशी कर लो

गर बहुत ही तंग हो

तो और पीछे लौट जाओ

फिर से चीखें, चिंघाड़ें ललकारें बनो


वह जो मैंने एक दिन आपसे कहा था

हम लोग हर अँधेरी गली में

दीपकों की पंक्ति की तरह जगेंगे

हम लोग राहियों के सिरों पर

उड़ती शाखा की तरह रहेंगे

लोरियों में जुड़ेंगे


गीत बन कर मेलों की ओर चलेंगे

दियों की फ़ौज बनकर

रात के वक्त लौटेंगे

तब मुझे क्या पता था

आँसू की धार से

तेज तलवार होगी


तब मुझे क्या पता था

कहने वाले

सुनने वाले

इस तरह पथराएँगे

शब्द निरर्थक से हो जाएँगे





एक लफ़्ज़ विदा लिखना 


एक लफ़्ज़ विदा लिखना 

एक सुलगता सफ़ा लिखना 


दुखदायी है नाम तेरा 

ख़ुद से जुदा लिखना 


सीने में सुलगता है 

यह गीत ज़रा लिखना 


वरक जल जाएँगे 

क़िस्सा न मिरा लिखना 


सागर की लहरों पे 

मेरे थल का पता लिखना 


एक ज़र्द सफ़े पर 

कोई हर्फ़ हरा लिखना 


मरमर के बुतों को 

आख़िर तो हवा लिखना। 



मेरी प्रतीक्षा 


लगता है 

कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा 

मैं यहाँ बैठा हूँ 


लगता है 

मैं ब्रह्मांड के संकेत नहीं समझता 


पल-पल की लाश 

पुल बन कर 

मेरे आगे बिछ रही है 

और मुझे लिए जा रही है 

किसी ऐसी दिशा में 

जो मेरी नहीं 


गिर रहा है 

मेरी उम्र का क्षण-क्षण 

कंकड़ों की तरह 

मेरे ऊपर 

ढेर बन रहा बहुत ऊँचा 

नीचे से सुनती नहीं मुझे मेरी आवाज़ 


आधी रात में 

जब कभी जागता हूँ 

सुनता हूँ कायनात 

तो लगता है 

बहुत बेसुरा गा रहा हूँ मैं 

छोड़ गया हूँ सच के साथ को 


मुझे कुचलने पड़ेंगे अपने पदचिह्न 

लौटाने होंगे अपने बोल 

कविताओं को उल्टा टाँगना होगा 

घूम रहे सितारों-नक्षत्रों के बीच 


घूम रहे ब्रह्मांड के बीच 

सुनाई देती है 

किसी माँ की लोरी 


लोरी से बड़ा नहीं कोई उपदेश 

चूल्हे में जलती आग से नहीं बड़ी कोई 

रोशनी 


लगता है 

कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा 

मैं यहाँ बैठा हूँ।





मैं रात का आख़िरी ज़ज़ीरा 


मैं रात का आख़िरी ज़ज़ीरा 

घुल रहा, विलाप करता हूँ 

मैं मारे गए वक़्तों का आख़िरी टुकड़ा हूँ 

ज़ख़्मी हूँ 

अपने वाक्यों के जंगल में 

छिपा कराहता हूँ 


तमाम मर गए पितरों के नाख़ून 

मेरी छाती में घोंपे पड़े हैं 

ज़रा देखो तो सही 

मर चुकों को भी ज़िंदा रहने की कितनी लालसा है।



नदियों के नाम


मातम

हिंसा

ख़ौफ़

बेबसी

और अन्याय

यह हैं आजकल मेरी नदियों के नाम।




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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