केतन यादव की कविताएं
केतन यादव |
केतन की कविताएं : काव्य-प्रक्रिया, काव्य-कथ्य, काव्य-कला
नासिर अहमद सिकंदर
कवि केतन यादव की दस चुनिंदा कविताएं मेरे सामने हैं। इन कविताओं के क्रमशः शीर्षक हैं-ओ शरद के सप्तपर्णी प्रात, आती हैं स्मृतियां, रोपनी के गीत, दाल-भात, नई पृथ्वी, स्थितप्रज्ञ, अभिव्यक्ति के नेपथ्य से कॉलरिंग, बांस के फूल, शब्दों का खून, आत्महत्या से ठीक पहले। इन कविताओं के शीर्षकों के मूल में उनकी कविता की सामाजिक भूमिका कथ्य जुड़ता है और उभरता है। मैं भी लगभग हफ्तों उनकी कविताओं के इन्हीं शीर्षकों पर मोहित रहा, ठहरा रहा, खोया रहा, पढ़ता रहा, गुनता रहा।फिर कोशिश की कि यह देखा जाए कि कविताओं की शीर्षक पंक्तियां उस कविता में अपनी क्या अहमियत रखती हैं तो मैंने पाया कि कवि की काव्य प्रक्रिया के भीतर कविता के शीर्षक उनकी कविताओं के भीतर पहुंचने का दरवाजा हुआ करती हैं, जिसे खोल कर ही आप उनकी कविताओं के मर्म तक पहुंच सकते हैं।
हिंदी कविता के समकालीन काव्य परिदृश्य में जहां लगभग चार-पांच पीढ़ी के कवि एक साथ सृजनरत हैं, वहां केतन ऐसे युवतम कवि हैं जिनका काव्य-शिल्प बेहद कलात्मक है तथा काव्य-कथ्य भी प्रगतिशील जनवादी पृष्ठभूमि की दिशा में उभरता है। यानी कि मनुष्यता के पक्ष में, किसान, मजदूर, आम आदमी की पक्षधरता में भी। केतन जिस तरह अपनी कविताओं में प्रकृति संबंधी अनुभव को बिंबों के माध्यम से प्रेम या प्रेमाभिव्यक्ति की सामाजिकता को अनुभव की प्रामाणिकता तक ले जाते हैं तो कोई भी पाठक इस काव्य प्रक्रिया पर चकित होगा कि यह कथ्य और काव्य प्रक्रिया मुक्तिबोध की प्रारंभिक काव्य परंपरा से जुड़ती है। यथा - हदय की प्यासा, अनुरोध, तू और मैं, अनुभूति, मरण का संसार, कोकिल, मेरा मन आकुल था, कलाकार की आत्मा, अपने से, मुझको मरण मिला, पीले पत्तों के जग में, जो क्षण तुमने।
केतन मुक्तिबोध की प्रारंभिक कविताओं की काव्य कला की परंपरा से जुड़ते हैं जिसमें प्राकृतिक दृश्यों की जानकारी व प्रकृति संबंधी चित्रण उभरता है। वे केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन, विजेन्द्र की लोकपरंपरा को भी अपनी कविता के केन्द्र में रखते हैं। उनकी कविता ‘रोपनी के गीत’, दाल भात’, ‘बांस के फूल’ ऐसी ही हैं।
दरअसल केतन ‘पूरबी बोली और संस्कृति के उसी तरह के कवि हैं जिसमें केदार और त्रिलोचन आते है। केतन की कविताओं में लोक शब्दों का प्रयोग बखूबी देखा जा सकता है। जैसे कि गठरी-मुठरी, महतारी, टोला-मुहल्ला, कुनमुन, लहसनिहाई, सिहरन के अलावा ‘रोपनी के गीत’ शीर्षक कविता में ‘‘पूरबी बोली को अर्पित’’ यह कविता जीवन के उन संदर्भों को उल्लेखित करती हैं जिसमें आम जन का जीवन संघर्ष और दिनचर्या है।
केतन की कविताएं बिंबपरकता में ऐसी कविताएं भी हैं जिसका प्रयोग हिंदी की काव्य परंपरा में मुश्किल से दिखलाई पड़ता है। उनकी ‘स्थितप्रज्ञ’ एक ऐसी ही कविता है जिसकी शुरूआत ही हिंदी कविता के नये बिंब से होती है।
नदी की नाभि पर गिरा एक सूखा पत्ता
डुबो रहा था नदी को,
अफना-अफना कर भंवरी लिए
डूबी जा रही थी नदी
बुलबुलों में आक्सीजन छोड़ते
इसी कविता में आगे ‘‘दृश्य दो’’ में वे लिखते हैं
नदी की पीठ पर लेटा एक पत्ता
देख रहा था आकाश
उक्त कविता की बिंब संरचना पर बात करें तो हिंदी कविता में मुझे केदार नाथ अग्रवाल की ‘बालक ने’ कविता याद आती है जिसमें वे ताल और कंकड़ का जिक्र करते हैं। केतन के इस बिंब में पत्ते और नदी का जिक्र है।
केदार नाथ की कविता की पंक्ति उल्लिखित है-
बालक ने कंकड़ से ताल को कंपा दिया
ताल को नहीं, समूचे काल को कंपा दिया।
दरअसल केतन की कविताएं छायावाद के बाद उभरी विभिन्न काव्य प्रवृत्तियों तथा बड़े कवियों केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, जैसे कवियों का अनुसरण करती हैं। उनकी शब्दों के खून, आत्महत्या से ठीक पहले, जैसी कविताएं रघुवीर सहाय के काव्य-कला से जुड़ती हैं। ‘‘शब्दों के खून’’ कविता में ‘उपमान मैले हो गये हैं’’ पंक्ति अज्ञेय से आवाज मिलाती है। केतन की कविताओं पर, उन्हीं की काव्य पंक्ति से निष्कर्ष निकाला जाए तो कहा जा सकता है कि ये कविताएं ‘‘प्रकृति सत्ता की सर्वोच्च सामाजिक बोध’’ की कविताएं हैं।
नासिर अहमद सिकन्दर |
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नासिर अहमद सिकंदर
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केतन यादव की कविताएं
(1) ओ शरद के सप्तपर्णी प्रात!
बहुमंजिला इमारतों के झुरमटों से
बमुश्किल, प्रदूषित इन हवाओं के
पार जा दिखती —
शुभ्र शीतल शांत से आकाश में तिरछी चुभी
पतली लजादुर क्वार की पीली किरण
कोई पुरानी याद, छेड़े मन
दौड़ जाती है बदन में कुनमुनी सिहरन
खिल उठी चम्पा कली अपराजिता की
पाँव के नीचे पड़ी—
अड़ी है रास्ता सब रोक कर, शिउली
कह रही ऋतु है हमारा यह,
कवि! जा सको यदि लाँघ कर आँचल, तो जाओ
यह शरद की प्रेममय रेखा।
जो बचा था शेष गत आषाढ़ सावन का
हुआ पूरा विरेचन,
ओ शरद के पल-पल बदलते पीतवर्णी मेघ
अब नहीं बासी पुराना कुछ!
धान की धानी पकी सी बालियों में
ओस की गोलाइयों में चमका एक चेहरा
झाँकता सा कह रहा है कुछ
प्यार करने को बुलाता है मेरा संसार
ओ शरद के सप्तपर्णी प्रात!
(2) आती हैं स्मृतियाँ
कभी लहू से लथपथ
कभी ओस से भीग कर
पैरों में लिए असंख्य सुइयों के निशान
कितने शहर की रेलगाड़ियों की सीटियों की आवाज लिए
स्मृतियाँ तुम्हारी
कभी अघोषित युद्ध
कभी अविराम संघर्ष
कभी विवशतर संधि बन कर आतीं
आती हैं स्मृतियाँ
कई बार स्मृतियाँ बन कर।
(3) रोपनी के गीत
(पूरबी के लोकधुन से प्रेरित, पूरबी को अर्पित)
स्त्रियाँ सपरिवार गाड़ रहीं
किसी मंगल परब का धान
वही जो रंगाया जाएगा शुभही में -
हल्दी से चाउर, किसी दुलहन के खोंइछा में
भरा जाएगा जो, मंडप में बहिना के आंचर में
सजल आँखों गिरेगा जो लावा फूट कर
बाँधा जाएगा हाथ में संकल्प धरे फूल-अक्षत
छींटा जाएगा जो किसी सुहागन अर्थी के पीछे
बो रही हैं वह सब
गीतों में पोर-पोर डूबे।
अधिया खेत में बो आई पूरे सपने
अबकी फसल पर दाँव है
बड़की का ब्याह और छुटके के दसवीं का अगला एडमिशन
रिश्ते का बयाना दे आए हैं बड़की के बाउजी
दे कर चार बोरिया पुराना चावल, कह कर -
जितना पुराना पका चाउर है उतना निभाएगी हमार बबुनी
खदबद नरम भात पकाएगी भिनसार।
सब कुछ अब धान भरोसे है
पेट भी, पतीला भी
एक पंक्ति में बराबर खड़े-खड़े
रोपा गया सब दुख सब आस
प्ररधान जी के खेत में
रोपनी के गीत गा-गा कर
रोपा गया धान
सपने में लहरा रहा बार-बार
बरखा को भेज देना इंदर महराज
तुम्हारे नाम होगा पहला ज्योनार
रख लेना अक्षत भर लाज बस।
(4) दाल-भात
तड़के की आवाज़ कि मचल उठे अँतड़ी
गमक उठे चौका छौंक की लहसनियाई खुश्बू से
खिड़की खुलती थी टोला-मोहल्ला में
न जाने कवन मसाला डालती है नवकी पतोहू
कहती थीं पड़ोस की चाची-दादी सब
आज टिफिन सर्विस में जब पहुँचती
पूरे चार कौर कम तरकारी
तब कीमत पता चलती है गठरी-मुठरी में
दबे एकगो अचार बड़नी का,
जब ऊब जाता है मन एक ही स्वाद से
तब एक जुबान पर लगी थाली याद आती
मुँह पानी होने पर जीभ से ढकेल ली जाती है
जानी पहचानी अचानक की भूख
परदेस में पता चलता है
महतारी के कलाई का झलका
हथेली का निशान
हमारे पेट की गति से तेज
चलता है उसका हाथ चूल्हे पर,
न जाने रोज़ रोज़ के दाल-भात में भी
कैसा स्वाद छोड़ देती थी माँ
कि घूम आया देश-विदेश
पर नहीं उपजा शायद वैसा अन्न
किसी रसोइये की हथेली पर।
(5) नयी पृथ्वी
पृथ्वी को जानने के लिए
कितनी खुदाई और करनी पड़ेगी
इसे बचाने के लिए
कितने उपग्रह ढूँढ़ने होंगे
कितना समय लगेगा
एक नयी पृथ्वी बसाने में?
(6) स्थितप्रज्ञ
दृश्य: - एक
नदी की नाभि पर गिरा एक सूखा पत्ता
डूबो रहा था नदी को
अफना-अफना कर भँवरी लिए
डूबे जा रही थी नदी
बुलबुलों में आक्सीजन छोड़ते
डूब गयी नदी
दृश्य :- दो
नदी के पीठ पर लेटा एक पत्ता
देख रहा था आकाश
धँसते जा रहा था देखने से
सिकुड़-सिकुड़ कर धँस रहा आकाश
दृष्टि से आहत विक्षत
धँस गया आकाश
अदृश्य :-
न नदी डूब रही थी
न आकाश धँस रहा था
बस पानी में पत्ता उड़ रहा था।
(7) अभिव्यक्ति के नेपथ्य से कॉलरिंग
सूरज निकलना चाहता है पर कुहासों ने घेर रखा है
कली खिलना चाहती है पर पाले ने जकड़ रखा है
चिड़ियों का आसमान में उड़ना असुरक्षित है
और मछलियों के लिए पानी के ऊपर तैरना
जितना दाना-पानी पास है उसी से काम चलाना होगा
अधिक की थोड़ी सी आशा भी न्यून कर सकती है
मौसम दिल खोल कर बोलने की माँग कर रहा
पर ऐसी बर्फ जमी है माहोल में
और हमारे पास उसे पिघलाने की जरा सी क्षीण आग है
या तो उससे चूल्हा जला लें
या कि उसकी रौशनी से बर्फ पिघला लें
करने को पूरी क्रांति बची है
पर वर्क फ्रॉम होम में सिमट चुका साहस
आस-पास की जमी चुप्पी की बर्फ़ को
एक चींखती पुकार चाहिए तोड़ने के लिए
चौराहों पर निकलना जरूरी है
बस कंबल हटाने की देरी है
बाहर नेटवर्क सी पसरी है शीतलहर
इतनी ठंड कि बोलने से पहले
मुँह खोलना पड़ेगा।
(8) बाँस के फूल
सात बहिनों वाले देस में
प्रकृति दुल्हन का जोड़ा कभी नहीं उतारती है
पूरब में सबसे पहले सूरज झाँकता है अचल अरुणाचल से
तो किरणें सीधे
पर्वत के किरीट मणि पर पड़ती हैं
मणिपुर चमक उठता है
बाँस के झुरमुटों के बीच से आती मुलायम पीली धूप से
सतरंगी शिरोई के फूलों से पट जाती हैं पगडंडियाँ
पूरे आश्चर्य के साथ केवल यहीं उगती हैं ये
पूरब के स्विड्जरलैंड में पर्यटक
सुकून तलाशने आते रहे हैं बरसों से
चाय की पत्तियाँ यहाँ लहराते हुए उड़ कर आती हैं
जैसे असम से पोलो खेलने आई हों
घरों के दीवारों पर लटके धान के गुच्छे
किसी दुर्दांत अकाल से बचने की कामना लिए लटके हुए हैं
उनकी पूरी संस्कृति
बाँस के इर्द-गिर्द घूमती है
बाँस के मचान पर बैठे शिकारी के हाथ बाँस का तीर
बाँस के खंभे दरवाजे और बाँस की ही दीवारें
बाँस की कुर्सी और बाँस की चटाई
बाँस के गोलाकार छाते ही बचाते हैं मूसलाधार वर्षा से
बाँस की टोपियाँ ही छत हैं
टोकरी, डोंगा, परात, बक्सा, सूप, डलिया
पंखा, खिलौने सब बाँस के
ऊँची-ऊँची लहराती बाँस की पत्तियाँ
मानों मणिपुर के आदिवासियों का आदिम ध्वज हों
जो प्रकृति की सत्ता को बता रही हों सर्वोच्च
सूखे गिरे बाँस के खोखलों में से गुजरती हवा
कोई आदिम धुन छेड़ रही है
बाँस से ही बनती है बांसुरी
और बाँस की अर्थी ही ठुमुक कर चलती है मसान
बाँस के बेहया खेत
जो उगते हैं बिना खाद पानी के
बाकि जगहों पर बँसवारी बन उपेक्षित रहते हैं
पर इस अंचल में पूजनीय हैं
रोजी-रोटी है बाँस
हालाकि बाँस होना ठूँठ होना है
शाप है बाँस होना
बाँस की सर्वाधिक प्रजातियाँ हैं पूरब में
मणिपुर में दूर-दूर तक बाँस हैं
पर जो बाँस पोषक थे आज उनकी बन रही हैं केवल लाठियाँ
टकरा रही हैं जनजातियाँ बाँसभूमि की
बाँस के गाँठों से खून बहने लगे हैं अब
इतना कि लोकटक झील लाल है पूरी तरह
बराक भी हो चुकी है लाल
ब्रह्मपुत्र भी लालपन लिए बढ़ रही
मेघना भी
चारों तरफ बाँस के झुरमुटों में साँय-साँय की आवाज़ है
कोई भी कभी भी आ कर बाँस कर सकता है किसी को
इतना खौंफ बच्चों ने पहली बार देखा
और बूढ़ों ने अब तक कभी नहीं
मणिपुर की वृद्धाएँ एक साथ कह रही हैं
बाँस फर आया है मणिपुर में
भीषण भयानक तबाही लिए
अकाल से पहले ही विनाश हो रहा है आज शायद
अमंगल का फूल खिला है पूरब में
जरूर बाँस के फूल खिल आए हैं मणिपुर में।
(9) शब्दों का खून
सभ्यता के विकास-क्रम में
कुछ शब्द उचक कर नयी भाषा में शामिल हो लिए
कुछ पीछे रह गये घिसे-पिटे से
जिन्होने समझौता किया उनका हुआ प्रमोशन भी
वरना कुछ थोक के भाव घुसेड़ दिए गये
किसी पुरानी केस की फाइल में
जैसे बहुत से शब्द पड़े हुए हैं
पाली-प्राकृत-अपभ्रंश की पोथियों में।
जो अड़े थे अपनी मूल अस्मिता लिए
उन्हें समझना धूबर या खतरे से भरा बता कर
ठहरा दिया गया
‘अपठित लिपि’।
कितने ही शब्द गुम हो गये
कितनों का हो गया देशनिकाला
कितने शब्द अश्लील और देशद्रोही बन कर
क्रांतियाँ कर रहे थे जंतरमंतर पर
कुछ शब्द हो रहे थे हरे से लाल
एक गालीबाज़ पुलिस वाले के मुँह में
पान की पिचकारी बन कर।
कितने ही शब्द एक वैश्या ने दबा लिए
अपने बच्चे से छिपा कर गठरी में
कितने ही परिचित शब्दों को पतिव्रताएं -
पहली रात से पहले जला दीं
न्याय की गुहार लगाते एक वाक्य ने
अपने ऊपर पेट्रोल छिड़क लिया
मसअला यह था कि उसके किसी शब्द के
अर्थ को उतार लिया गया था,
बीच बाजार में।
कुछ शब्दों से इतना खतरा बढ़ गया कि
इतिहास से मिटा दिया जा रहा जिंदा उन्हें
यह कह कर कि वह प्रभावित कर रहे थे वर्तमान
और बहुत से पवित्र शब्द
इतिहास की कब्र से वर्तमान में लाए जा रहे खींच कर
जिनके उच्चारण में है
मारण-मोहन-उच्चाटन-स्तम्भन-विद्वेषण की मंत्रपूत शक्ति
जिससे शांति दंगे में, जन्मदिन हत्यादिन में
सीधे त्वरित रूपांतरित हो सकते हैं।
कुछ शब्द गड्डमड्ड हो आक्रांत कर रहे भाषा को
जैसे अहिंसा में हिंसा, अन्याय में न्याय
लोकतंत्र में लोक, जनगणमन में मन
प्रधानमंत्री में प्रधान, उप-मुख्यमंत्री में मुख्य
न्यायालय में न्याय, चुनाव में चयन
नौकरशाही में नौकर, देशभक्ति में भक्ति
अभिनेता में नेता, विश्वगुरू में विश्व
सत्यमेव जयते में सत्य और जय दोनों
ख़ैर यह तो भारतीय वांग्मय के सबसे भ्रामक शब्द हैं
डोल नहीं रहा संयम
उदासीन आत्मस्थ बुद्ध है हर इंसान अब
जूँ नहीं रेंगता है कान पर शब्द कहाँ छुएंगे
धामिन लोट रही धरती पर
रास्ता निर्भीक पार कर लेता है आदमी
एक-एक शब्द ऑक्सीजन के अभाव में दम छोड़ रहे
और कुछ का कत्लेआम मचा है साहित्य में
कुछ शब्दों के रक्तपात से
क्या उबर पाएगा कभी साहित्य-समाज?
मेरे एक कवि ने बीसवीं सदी में कहा था
‘फर्क नहीं पड़ता’ सदी का सबसे बड़ा मुहावरा है
मैं उसकी कब्र की कान में यह अपडेट देना चाहता हूँ
कि वह मुहावरा मनुष्यता के शब्दकोश और पाठ्यक्रम से
निकाल बाहर फेंक दिया गया है
उस शब्द में अर्थ नहीं दीख रहा था अब कोई
पर इतने में भी हाय कवि जात
शब्दों में अर्थ भरने की कोशिश में लगा हुआ
‘उपमान मैले हो गये’ की ढाढ़स ढूँढ़ लाता है
जिस तरह से एक बच्चा
आसमान से बीन लेना चाहता है तारे
वैसे ही कवि अनचीन्हे अनुभूतियों से शब्द
सारा दिन व्यथित रहता है
इस संसार से मूल्यवान शब्दों के
खो जाने की चिंता में।
(10) आत्महत्या से ठीक पहले
(उन सबको जो मरना नहीं चाहते थे)
कितनी नीरवता छाई होगी उस कमरे में
उस पंखे के आस-पास
उस चेयर पर जहाँ अब हैं केवल
पंजे के निशान
एक अकाल खालीपन
और उम्मीदों के अंतिम साक्ष्य।
अगर तुम ठीक-ठीक
उसकी आत्महत्या की वजह तलाश रहे
तो तुम्हारे हाथ पूरा समाज लग सकता है
हो सकता है एक अपराधी के सौ चेहरे हों
या हर चेहरे पर एक ही अपराधबोध रहित बेशर्म चुप्पी
भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती
यह बात तो तुम जानते ही होगे
और इसी कारण मॉब लीचिंग के अपराधी
अक्सर बेहद सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता होते
अति सामाजिक
अपने समाज के कंधों पर
लड़खड़ाते कदम पहुँच जाती है श्मशान
मूक अचेत लाश
यह अलग बात है कि —
‘अर्थी उठाने का कोई नियम नहीं होता’
अपनी-अपनी मुक्ति की दी हुई परिभाषाओं से अलग
किसी और लोक में जहाँ न स्वर्ग का दूत होता
न ही नर्क का कोई यम
वहाँ बस कालकवलित स्वप्न होते हैं
और क्या करे वह?
कौन-सा विकल्प रहा होगा शेष
जो नहीं तलाश किया होगा उसने
मोबाइल पर बहुत से निकटतम कांटेक्ट
हो चुके होंगे उस पल अभूतपूर्व अजनबी
गैलरी की स्क्रोल्ड की हुई सभी तस्वीरें
और पूरी जिंदगी की एक सॉर्ट रील भी
बहुत कमजोर और अप्रभावी साबित हुई होगी
उस एक पल के बदले
उन ख़यालों को तकिये के नीचे रखे सिर की तरह
दबा देना चाहता होगा वह
पानी भरी बाल्टी में डुबो देना चाहता होगा
आख़िरी बुलबुले तक
हवा में लटकती हुई साँस टाँग देना चाहता होगा
या फिर नदी की धार में समय हो जाना चाहता होगा
और नहीं तो फिर —
पी ली होगी उसने जीवन की सारी तिक्तता
जिसके सापेक्ष कोई अमृत नहीं हुआ होगा
उस सदेह के लिए
जीवन से उबरने की कोशिशों में पड़ा मन
अपनी ही जाल में फँसी मकड़ी है
छटपटाते हुए एक-एक खाना टूटता जाता है
और एक पल कुछ भी नहीं होता
हाथ में थामने को
लड़खड़ाता हुआ नीचे गिर जाता है आदमी
आदमी मकड़ी नहीं हो पाता
वह भी जीने के लिए पैदा हुआ होता है
और मुझे पूरा विश्वास है कि जिंदगी उसके लिए
हम सबसे ज्यादा जरूरी रही होगी
और यह भी मानता हूँ मैं कि
कोई न कोई एक टाल सकता था पल को
आत्महत्या के सच्चे प्रयत्नों में
‘मौत के आ जाने और चूक जाने के मध्य
एक जीवन का अंतर होता है’
मौत के ऐच्छिक भँवर में भी जीवन का हाथ काम्य होता
यह समझता है डूबने वाला —
आत्महत्या से ठीक पहले तक।
कवि का संक्षिप्त परिचय -
नाम : केतन यादव
जन्म : 18 जून 2002
शिक्षा :
बी. कॉम. (2020) हिंदी से एम. ए. (2022)
वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से शोध।
प्रकाशन : वागर्थ, जानकीपुल, इंद्रधनुष कृतिबहुमत, जनसंदेश टाइम्स, समकाल पत्रिका, समकालीन जनमत, समावर्तन, पहली बार ब्लॉग, वनमाली (युवा पीढ़ी विशेषांक), हिंदुस्तान, अमर उजाला आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
'लौटती हुई साँझ' नामक कविता संग्रह।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क -
208, दिलेजाकपुर,
निकट डॉ एस पी अग्रवाल,
गोरखपुर -273001
उत्तर प्रदेश।
ईमेल - yadavketan61@gmail.com
मो . 8840450668
ब्लॉग साहित्य प्रेमियों के लिए रुचिकर रहेगा. इस सुंदर प्रयास के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
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