पौमिला ठाकुर के उपन्यास 'नायिका' की रुचि बहुगुणा उनियाल द्वारा की गई समीक्षा

 




कविता, कहानी हो या उपन्यास जैसी कोई रचना, कल्पना की उड़ान होते हुए भी इनमें जीवन और समाज का वह सच दर्ज होता है जिसे इतिहास दर्ज करने से कहीं न कहीं चूक जाता है। यह एक कटु यथार्थ है कि आधी आबादी होने के बावजूद स्त्रियां जाने अंजाने कहीं न कहीं पुरुषों के उत्पीड़न का शिकार होती रही हैं। और बात पहाड़ी स्त्रियों की हो तब यह उत्पीड़न एक भयावह सच्चाई के रूप में सामने आता है। पौमिला ठाकुर ने अपने उपन्यास नायिका के माध्यम से पहाड़ी स्त्रियों के दर्द को दर्ज करने की सफल कोशिश की है। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है कवयित्री रुचि बहुगुणा उनियाल ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पौमिला ठाकुर के उपन्यास 'नायिका' की रुचि बहुगुणा उनियाल द्वारा की गई समीक्षा 'पहाड़ी महिलाओं के पीड़ा की अकथ कहानी'।



'पहाड़ी महिलाओं के पीड़ा की अकथ कहानी'


रुचि बहुगुणा उनियाल 

                     

      

आप किताब पढ़ते हुए क्या चीज़ ढूँढते हैं, यही न कि शुद्ध रूप से साहित्य के साथ रोचकता भी भरपूर मिले, कि आप पढ़ना शुरू करें तो कहीं किसी तरह भी किताब रखने का मन न हो, कि पढ़ते हुए लगने लगे कि अहा यह तो मेरा ही देखा/ जिया/ सुना हुआ है या फ़िर यूँ कि लगे ऐसा तो मुझे लिखना चाहिए था जो लेखक ने लिखा है। लोकभाषा के स्वाद से लबरेज़ और भावनाओं के आवेग से आलोड़ित एक उपन्यास जिसे मैं एक सांस में पढ़ गई।


मैं जब इस उपन्यास को पढ़ रही थी (जो उपन्यास कम और संस्मरण अधिक है) तो मन में उन किताबों को दोहरा रही थी जिन्हें पढ़ते हुए मेरी आँखें डबडबायी हैं, कगार की आग, कृष्णकली, सुनहु तात यह अकथ कथा, कसप, अनजल-धनजल (रिपोर्ताज), मल्यो की डार, मेंढ़क, अंतिम अरण्य, काशी का अस्सी, गबन, अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा, घुमक्कड़ शास्त्र, एक सड़क सत्तावन गलियां, उसने कहा था, कितने पाकिस्तान, मैला आँचल, तमस और तमाम तरह की किताबें मुझे स्मरण आती रहीं जिन्हें पढ़ते हुए मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पायी।


     

'अरे ये क्या..... साहेब की बगल में उसी के जैसा सुर्ख लाल मखमली सूट और सर पर जालीदार दुपट्टे को धाटू बना कर पहने एक गोरी चिट्टी नवयौवना को पा कर गणेषु के पैरों तले जमीन खिसक गई।


दोनों बच्चे टुकुर-टुकुर पिता की ओर देख रहे थे। जिस पिता की बाहें उन्हें देखते ही गर्वीली मुस्कान सहित दो विपरीत दिशाओं में फैल जाती थीं, आज उसी पिता की वे दो बाहें साथ खड़ी उस मोहिनी को सहज करते हुए उसकी बन्दगी सी करती प्रतीत हो रही थीं।


किसी को भी कुछ समझते देर नहीं लगी थी। तभी गणेषु को संबोधित करते हुए साहेब की आवाज़ आई, 'गणेषु, ये  लाली है, सराज से आई है ये। देख, आज से तेरी छोटी बहन है ये। तू फिकर न कर, ये यहां रह लेगी और तू वहां घर पर रहेगी'।


गणेषु का कलेजा फटने को हुआ था क्या वह केवल एक वस्तु है जिसे यहाँ रख दो या वहाँ धर दो, कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी आँखों से गंगा जमना और मुँह से दबी सी चीख निकली थी'। (पृष्ठ संख्या 6, पैराग्राफ 3)

    

पति के धोखे से आहत स्त्री क्या कहे कैसे कहे? जमाना तब का जब अंग्रेज़ी हुकूमत थी, मतलब इंसाफ़ के लिए भी कोई कानून नहीं, बस बेबसी में चुपचाप रोना ही तब ऐसी पत्नियों की नियति होती थी। मेरी आँखें कितनी बार भीगीं कहना मुश्किल है। एक दृश्य और देखिए जो मुख्य पात्र नायिका की माँ गणेषु के अपने जवान बेटे को खोने के बाद का और अपने अंतिम समय में अपने पति से वार्तालाप का है -


'गोपाल की मृत्यु के कुछ ही दिन बाद गांव से खबर आई थी कि गणेषु मृत्यु शय्या पर है और निक्कू से एक बार मिलना चाहती है। साहेब तुरंत बेटी को ले कर गांव की ओर चल दिए थे। मगर लाली ने कोठी से निकलते हुए न जाने ऐसा क्या कहा कि साहेब गांव पहुँच कर गणेषु के कमरे की दहलीज से बाहर से ही उसकी खैरियत पूछ कर लौट आए थे।

'गणेषु'?

'हाँ जी'?

'बीमार हो गई है तू, सुना है, अब कैसा महसूस कर रही है'..... ? 


'ठीक हूँ जी अब'।


माँ के अंतिम समय में माता-पिता का ये वार्तालाप निक्कू के जेहन में उसके अंत समय तक खलबली मचाता रहा था। ये कैसा वार्तालाप। ये कैसी संवेदना जो सच हो कर भी झूठी दिखती है। ये कैसा रिश्ता है...... मुड़ कर जाते हुए साहेब का चेहरा भी न देख सकी थी गणेषु। उसी इतवार की सुबह सूरज निकलने के साथ-साथ गणेषु की आँखें सदा के लिए बन्द हो गई थी'। (पृष्ठ संख्या 14, अंतिम पैराग्राफ - पृष्ठ संख्या 15, पहला पैराग्राफ) 


उफ़्फ! क्या दृश्य खींच लिया इस कलम ने! मैं इसे पढ़ कर कितनी बार फिर पढ़ गई क्या कहूँ!


लोकभाषा की मिठास तो बस क्या ही कहूँ कितनी धाराप्रवाह और सहज है कि आप उसमें डूबते हुए भी साथ-साथ बह निकलने को आतुर हो जाएं, नायिका के साथ उसकी सास के संवाद की एक बानगी देखिए - 

  

‘बड़ा बुरा बगत देखा है बेटिये मैंने। इसके बापू के जाने के बाद बड़ी हुज्जत झेली है मैंने इन अपने टब्बरियों की। दो बरस का भी नहीं था ये जब वो सिधार गए थे। ब्याह के पता नहीं कितने सालों बाद तो ये हुआ था और इसका सुख भी वो देख न सके। टब्बर को तो यही लगता था कि ये अकेली जनानी नहीं सम्भाल पाएगी यहाँ की इतनी सारी ज़मीन और बेटे को भी नहीं पाल सकेगी, इसलिए उन्होंने कई तरह से पट्टू डालने की भी कोशिश करी थी मेर को, मगर इनको क्या पता कि कितनी सख्तजान हूँ मैं। वह बुढला मुझे कूट पीट कर शायद इसीलिए रखता था। ये ज़रा सी गुआंणीं में देर हुई नई मेर को कि दे सोठी पे सोठी। रोटी थोड़ी सी भी ठंडी हुई नहीं तो दे वहीं लात पे लात। टब्बर दूर बैठे अपणे खेतों से मज़े लेते थे कुटाई का। खपरे के मरने के बाद इन्हें लगा था कि मैं आजादी महसूस करूँगी और आवारा हो जाऊँगी मगर उनको जब अपनी मीदों पर पानी फिरता दिखने लगा तो उन्होंने ज़मीनों की हदें तोड़ कर मुझे तंग करना शुरू कर दिया। ख़ैर, ज़मीन भी बचाये रखी मैंने अपनी सारी और गाभरू को भी पढ़ा-लिखा कर समझदार बना दिया। हाँ….. ये एक तम्बाकू का रोग जरूर लग गया मुझे उसके जाने के बाद। अमली हो गई हूँ मैं इसकी। बहुत मार खाई है इसी नड़ी से मैंने उसके हाथों और अब देखो न यही नड़ी मुझे चैन आराम देती है। मेरे दुखों की सबसे पुरानी साथी ‘। कह कर आम्मा हुक्के की नड़ी पर अपने झुर्रीदार हाथ फेरने लगी थी। ‘अब  ये तीनों खपरों के टोल कहने को तो हमारे टब्बर हैं पर हैं सब के सब हरामी। बहुत झेला है मैंने ओ बेटिये….. बहुत ज्यादा….. शायद इसीलिए मैं जरा सख्त मिजाज़ हो गई हूँ ।तू मेरी बात का न बुरा न मनाया कर। मैं भी कोशिश करूँगी कि तुम दोनों के बीच न पड़ूँ कभी'। (पृष्ठ संख्या 27-28)

      

पौमिला ठाकुर



एक ऐसी भाषा, ऐसी शैली जिसमें कहीं भी अपने पांडित्य का भौंडा प्रदर्शन नहीं है। लोक की मिठास के साथ मर्मस्पर्शी वाक्य विन्यास। साथ ही इस एकतरफ़ा संवाद में वो पीड़ा भी झलकती है जो तब की पहाड़ी महिलाओं की जीवन शैली का अपरिहार्य हिस्सा थी, पति की मार-पीट को अपनी नियति मान उसे अपनी रोज़मर्रा की बातों की तरह स्वीकार करने का मर्मस्पर्शी चित्रण है यह संवाद। 



लोक संस्कृति का अद्भुत दृश्य उकेरने में भी लेखिका पूरी तरह सफल रही हैं - 


‘आँगन में झाड़ू लगा कर लम्बी पंक्तियों में टाट पट्टियां बिछाई जा रही थीं। महिलाओं के हाथों की कुशल कारीगरी देखते ही बनती थी उन पर। खाली बोरियों को खोल कर उस पर सुंदर कढ़ाई कर के भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियां उकेरी गई थीं। अलग-अलग घरों से आई ये पट्टियां सामाजिक समरसता का एक खूबसूरत उदाहरण प्रतीत हो रहा था। गांव भर की औरतों की कलाकारी सारे आँगन में फ़ैल गई थी मानों'। (पृष्ठ संख्या 76, अंतिम पैराग्राफ) 


‘तभी बोटी ने हुंकार भर कर गंगाजल का छिड़काव आँगन की तरफ को किया और एकदम यहां-वहां खड़े लोग अफरा-तफरी मचाते हुए आँगन से बाहर हो गए। अब केवल बच्चों की ही पंक्तियां दिख रही थीं। बहुत सुंदर नज़ारा था। निक्कू थक रही थी। वह बैठना चाहती थी मगर यहां-वहां कहीं भी बैठने की जगह न पा कर वह घर के भीतर जा कर अपने बिस्तर पर लेट गई थी‘।  (पृष्ठ संख्या 77, पैराग्राफ 3)


लोक संस्कृति का अद्भुत आस्वाद इस उपन्यास में आप पाएंगे, पढ़ते-पढ़ते बहुत सी जगहों में ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम ख़ुद आज़ादी के ठीक बाद वाले हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में पहुँच गए हैं और बस यही तो एक लेखक की सफलता है। 


संवेदना के स्तर पर तो यह उपन्यास इस हद तक झकझोर के रख देता है कि पाठक को पता भी नहीं चलता कि कब उसकी आँखों से गंगा-यमुना बहने लगी हैं। मैं इस उपन्यास को पढ़ कर ऐसी अकुंठ संवेदना से भर उठी थी कि अपनी रुलाई रोक पाने में पूरी तरह असमर्थ हो गई थी। उपन्यास की नायिका, जो कि लेखिका की नानी जी थीं, का अपने पिता से संवाद का एक नमूना तो पढ़ा ही जाना चाहिए - 


“निक्कू बेटी, सच सच बता, तू नाराज़ है न अपने पिता से “? 

“ऊँऊऊ…. नहीं तो, भला मैं क्यों नाराज़ होऊँगी आपसे “? 

“नहीं, वो….. मैं…. “

“आप निश्चिंत रहिये। कोई नाराज़गी नहीं मुझे किसी से भी, सिवा अपनी माँ के “। 

“माँ से? उससे किस बात की नाराज़गी बेटी, वो तो बहुत पहले ही…. “। 

“हाँ पिता जी, यही तो नाराज़गी है है माँ से मुझे के वह क्यों चली गयी मुझे यूँ भरी दुनिया में अकेला छोड़ कर “। 

“अब ये जीवन मृत्यु किसी के अपने हाथ में थोड़े ही होता है बेटी“। 

“हाँ पिता जी, नहीं होता। परन्तु जब तक जीवन है उसे जीना तो हमारे हाथ में होता है न। यदि आप किसी अन्य स्त्री के लिए चले ही गए थे माँ को छोड़ कर, तो क्या माँ को हम दोनों बच्चों के लिए अपने फ़र्ज़ भूल जाने चाहिए थे? क्या उनका आप पर विश्वास हम दो बच्चों से कहीं अधिक था? आपका उनके साथ विश्वासघात करने के कारण ही वो अपने कलेजे के टुकड़ों को अपनी सौतन को सौंप कर मृत्यु का इंतज़ार करती रही। क्या वह केवल एक पत्नी ही थीं? नहीं न? माँ भी तो थीं न वह। तो क्यों न स्वयं को संभाल सकी थीं? क्यों वह अपने बच्चों को अपने पति प्रेम की बलि पर चढ़ा गयीं? माँ ने आप के जाने के बाद अपनी संतान की बजाय अपनी मौत को ही क्यों चुना? क्यों अपनी लाड़ो को अपनी सौत की पनिहारिन बनने छोड़ गयीं वो? ‘कहते-कहते निक्कू ज़ार-ज़ार रो पड़ी थी।“ (पृष्ठ संख्या 77-78)


सच कहूँ तो मैं भी इस किताब को पढ़ते हुए ज़ार-ज़ार रोई हूँ। इस उपन्यास ने मेरी संवेदना के चरम स्तर को स्पर्श किया इसमें कोई झूठ नहीं। संवेदना, प्रेम, सामाजिक समरसता, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, लोक और सरल भाषा में लिखा यह उपन्यास शुरुआत से ले कर अंत तक पाठक को ऐसा बांधे रखता है कि पाठक प्रथम बैठकी ही आद्योपांत पढ़ने के लिए बाध्य हो जाता है। 


कदाचित् यह पाठकीय टिप्पणी थोड़ी अधिक विस्तृत हो गई है किन्तु फिर भी एक शानदार उपन्यास के लिए यह आवश्यक थी। लेखिका पौमिला ठाकुर जी को उनकी इस किताब के लिए हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ।                 


                     

रुचि बहुगुणा उनियाल 



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