भरत प्रसाद का उपन्यास अंश 'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप : जे.एन.यू.'

 



एक रचनाकार एक साथ कई विधाओं में सिद्धहस्त ढंग से लेखन कर सकता है। विधाओं की यह विविधता लेखक की उस दृष्टि से ही सम्भव हो पाती है जिसमें वह विस्तृत परिप्रेक्ष्य में चीजों या परिस्थितियों को अवलोकित कर पाता है। एक साथ कई विधाओं में लेखन की समृद्ध परम्परा हिन्दी साहित्य में भी दिखाई पड़ती है। हमारे समय के सक्रिय रचनाकार भरत प्रसाद उन रचनाकारों में से एक हैं। आलोचना, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, समीक्षा के अतिरिक्त भरत जी 'देशधारा' नामक एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं। हाल ही में सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से भरत प्रसाद का उपन्यास 'काकुलम' प्रकाशित हुआ है। उपन्यासकार को बधाई देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं इसी उपन्यास का एक रोचक अंश 'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप  :  जे.एन.यू.' 



'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप  :  जे.एन.यू.' 

                          

भरत प्रसाद 



ऐन 2021 की दहलीज पर धवल की जवानी। कहिए कि आकांक्षाओं की उत्तुंग लहरों में उछलती हुई एक नाव, स्वप्नों के क्षितिज में सुदूर खोई कोई मंजिल, अनजाने, दिशाहीन तीरों के बीच छटपटाता एक पक्षी या ऊँचाई-निचाई से भरा हुआ एक रास्ता, जिसका अन्त रहस्यमय विस्तार में खो गया है। धवल वही, कहाँ रह गया जब वह बन्नीपुर के बगलगीर गांवों की माया-छाया के सिवाय कुछ न जानता था। जिस दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के परिसर में दाखिल हुआ तब से ले कर आज तक धवल ने एक ही पाठ सीखा सहमे हुए आंसुओं और हाथ से फिसलती सफलताओं के बीच चलते हुए लाचार अस्तित्व का नाम जीवन है।

          


स्नातक का परिणाम घोषित होने और देश के शीर्षस्थ विद्या केंद्र जे.एन.यू. में दाखिला लेने के बीच एक साल उड़ गये। धवल ने सुना था कि वहाँ प्रवेश पा लेना नौकरी मिलने की आधी गारंटी है। वहाँ के छात्र कम्पटीशन पीते हैं। कम्पटीशन खाते हैं? कम्पटीशन की माला पहनते हैं। यह कम्पटीशन भारतीय प्रशासनिक सेवा का पर्याय है। पी.सी.एस. के एक्जाम में तो वही किस्मत आजमाता है जो आई.ए.एस. की हृदयघाती परीक्षा से बार-बार टकरा कर मात खा चुका है। जो सिर के काले बाल खोने और एक सुपत्री का पापा होने के साथ ओवरएज हो चला है। जे.एन.यू. अर्थात् भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों के उत्पादन की प्रयोगशाला। एक ऐसा अवसर जहाँ खुद के साथ-साथ एक मनमाफिक आई.ए.एस. प्रेमिका भी सुसंभव है। यह विश्वविद्यालय नौजवानी के स्वादिष्ट सपनों को पंख लगाने वाला गुलाबी आकाश है।

             

धवल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय को चारों दिशाओं में खुले ज्ञानालय के रूप में जिया था, यहाँ जे.एन.यू. को अदृश्य अबूझ और अभेद्य दीवारों से घिरा हुआ पाया। अरावली पर्वतमाला की आनंदकालीन खड़ी चट्टानें जे.एन.यू. की आधुनिकता को नींव दिए हुए थीं। परिसर के चारों ओर आगमन और बहिर्गमन के रास्ते, मगर दूर से एक सहम भरते हुए। धवल ने एक चट्टान को उत्सुकतावश छुआ, लगा जैसे भूमि में दबे हुए इतिहास को हाथ लगाया हो। परिसर के ऐन ऊपर छाया आकाश जे.एन.यू. की वैचारिक तरंगों से आवेशित लगता था, मानो उतना आकाश, आकाश में जम गया हो, थम गया हो। वह केवल आकाश नहीं, जे.एन.यू. के सपनों को रात देने वाला आसमान था, वह बदलाहट के रोमानी नारों को आत्मसात करने वाला विस्तार था। जे.एन.यू. का आकाश एक ऐसे वैचारिक कारखाने को छत देने वाला आश्चर्य था, जहाँ ऋतुएँ खास वहाँ के मस्तिष्कों के लिए बदलती थीं। धवल ने पाया कि जे.एन.यू. राजधानी में हो कर भी राजधानी में नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालय कहला कर भारतीय रंग, स्वभाव, ढब-ढांचे का नहीं है। वह जितना दिख रहा है, उससे कई गुना अनदिखा है। जे.एन.यू. मानो मोर्चां साधे बैठा हुआ कोई तीरंदाज या बख्तरबंद सैनिक। न जाने किस जादुई प्रेरणा ने पहली बार में ही धवल को जे.एन.यू. के प्रति एक सजग आकर्षण से भर दिया किन्तु बुद्धि के स्तर पर। हृदय अबूझ उद्विग्नताओं का अखाड़ा बन चुका था, जो जे.एन.यू. में आते ही अनियमित भावों की लहरों में मचलने लगता। न जाने क्यों धवल किसी के चेहरे को देख कर शांत नहीं हो पा रहा था, यहाँ तक कि खुद अपना चेहरा पहेली बनने लगा। अपनी समझ की पकड़ से बाहर लगने लगा था वह । यह परिसर एक साथ रोमांच, अचरज, चुनौती, खिंचाव और संकल्प की जिद क्यों पैदा कर रहा था? धवल ने इस लाल विचारधारा के कारखाने में यह भी महसूस किया कि यहाँ दृश्य और अदृश्य दोनों की अनेक परतें हैं। सच का सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो उठना भौतिक विकास का अनिवार्य स्वभाव तो नहीं? धवल इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि स्वयं को सीधे सहजतापूर्वक प्रकट कर देना, अपने वजन को खो देना है, जो जितनी अदाओं, कलाओं और ताव के साथ खुद को पेश कर रहा, उसकी पूछ और अहमियत उतनी ही ज्यादा है। धवल को बहुत जल्द यह आत्मज्ञान उपलब्ध हो गया कि जे.एन.यू. में प्रवेश करना कठिन है तो इसकी चुम्बकीय माया से बाहर निकलना महामुश्किल। धरती के भीतर अंगदनुमा पांव जमाए हुए पुस्तकालय, जिसकी बंकरी दीवालें ज्ञान के मशालचियों का स्वप्न छिपाए हुए हैं, जिसके भीतर प्रतिदिन हजारों बुद्धिवीरों का जमघट लगता है। जिसके इर्द-गिर्द मंडराते ही कुछ कर गुजरने की बेचैनी का दौरा पड़ने लगता है। जे.एन.यू. के कच्चे, पक्के, खुले-छिपे, सरनाम-गुमनाम दुबले-चौड़े रास्ते शरीर में फैली नसों की तरह हैं, जिनमें ज्ञान पाने की जिद दौड़ती है। पूरा परिसर अपने भीतर सघन, अनगढ़ हरियाली का रहस्य जीता है। यूकेलिप्टस के गगनवादी दरख्त, बनजामुनों की बहार, दैत्याकार नीम का आदिम फैलाव और आजू-बाजू निगाहों की शक्ति को मात देती हुई निर्दयी कांटों भरी बौनी झाड़ियों का साम्राज्य। धवल को लगा, वह किसी काल्पनिक भूमि पर उतर आया है, जो बांधता है, तो सहम भी भरता है, आकर्षक है तो मायामय भी, व्यक्तिगत गढ़ता है तो हमसे बहुत कुछ छीनता भी है, यहाँ तक कि हमको हमीं से भुला देता है। बाहर से देखने पर चट्टानमय हरियाली की मोटी चादर तान कर शताब्दियों से स्वयं में डूबा हुआ और भीतर आने पर अपने अदृश्य जादुई हाथों से शरीर, हृदय, बुद्धि, आत्मा, चेतना और आकांक्षा को तराशता हुआ।

                

जे.एन.यू. अर्थात् “जानते नहीं तुम” या कि “जीवन को न करो उदास “ चाहो तो जे.एन.यू. का गूढ़ार्थ जाम नहीं है उपेक्षणीय।’। वैसे तो मध्यकालीन राजसी किले की तरह आंखों में चढ़ बैठता प्रशासनिक भवन अपने बाएं प्रदेश में प्रथम प्रधानमंत्री की आदमकद प्रतिमा धारण किए हुए है। लगता है जैसे जवाहर लाल आते-जाते, देखते न देखते, भागते-रूकते प्रत्येक ज्ञानबाज से कुछ कहने के लिए उत्सुक हैं। धवल के लिए यह प्रतिमा इसलिए भी कुतूहल का मुद्दा थी, क्योंकि वह नेहरू के अपने कद से बड़ी और काले रंग की थी। मूर्ति का अपना प्राणत्व है, प्रभाव है, पुकार है और प्रेमाकर्षण भी। केवल शरीर में व्यक्ति जीवित नहीं रहता, अपने चित्रों में, शब्दों में, हंसी में, मूर्तियों में भी साकार होता है। कई महीने लग गये धवल को यह समझने में कि जे.एन.यू. को भारतभूमि का विश्वविद्यालय कहे या सोवियत रूस का? यहाँ पढ़ने वाले छात्रों को राष्ट्रीय स्वभाव का कहे या अन्तर्राष्ट्रीय स्वभाव का? यहाँ जुबान-जुबान पर चमकती हिंदी को अपने देश की हिंदी कहे या खास लंदन में प्रचलित हिंदी? प्रवेश पाने के प्रारंभिक दिन धवल के लिए अतीत मोह की बाढ़ में बहते जाने और चित्त पर जे.एन.यू. के आकर्षक आतंक जमने के दिन थे। वह यहाँ के कच्चे अनगढ़ रास्तों पर चलता तो सहम कर, रुक-रुक कर जैसे पैरों में एक-एक किलो के पत्थर बांध दिए गये हों, जैसे अपनी छाया में उलझी-पुलझी झाड़ियाँ अपने मौन इशारों में रात-दिन बुलाती रहती हों। यहाँ कदम-कदम पर चित्त को अस्थिर करने वाले इतने आश्चर्य फैले हुए थे कि धवल अपने हाथ से छूटने को फिर विवश था। वह ठीक-ठीक समझ भी नहीं पा रहा था कि खुद को बहते जाने से रोक क्यों नहीं पा रहा? 

        

सेंटर आफ इंडियन लैंग्वजेज़ के हिंदी विभाग में धवल का दाखिला उबड़-खाबड़ रास्तों वाले मैराथन दौड़ की तरह था। धवल ने बचपन से ले कर मौजूदा उम्र तक न जाने कितने उतार-चढ़ाव के मोर्चे जीते थे, इसीलिए भव्य-न्यायालय जैसी चेतावनी देते स्कूल, सी.आई.एल. की तीन सीढ़ियाँ को फतह करने की क्षमता आ ही गयी। यहाँ प्रेम के नव साधकों के बीच इन्हें 'स्वर्ग की सीढ़ियाँ' कहा जाता है। जिस पर बैठे बगैर, चढ़े-उतरे बगैर छात्र जीवन की योनि से मुक्ति नहीं मिलती। धवल को कावेरी छात्रावास में कमरा भी उपलब्ध हुआ, चारों तरफ से परम चुप, केवल ऊपर नीचे जमे हुए कमरों की बालकनी से खुद के बारे में बोलता हुआ।

             

धवल के लिए सबसे प्यारी, जादुई, मोहक और मादक जगह थी, कावेरी छात्रावास की मेस, जो कि हास्टल के हृदय में खड़ी थी, जहाँ पहुँच कर दोनों विंग्स (खण्ड) के रास्ते खुलते थे, जहाँ के रोशनदान, खिड़कियों और नशेड़ी के मुँह की तरह परमानेंट खुले दरवाजों से पकते हुए भोजन की महक प्रेमिका की याद को पीछे छोड़ देती थी। धवल के रूममेट थे प्रशांत मणि, जो सिर से पांव तक अशांतमणि थे। जब तक कमरे में उपस्थित, तब तक सद्यः पठित पुस्तकों के ज्ञान का रौब झाड़ कर धवल का सिर चाटते ही थे, न रहने पर उनसे जुड़ी हुई दैनिक घटनाओं की बौछार धवल को अशांत किए रहती। फिर तो अक्सर होता यह कि ‘जब तू है- तब मैं नहीं, जब मैं हूँ तू नाहीं।’ की अघोषित नीति लागू थी- धवल के चित्त में। दशा इस हद तक पहुँच गयी कि प्रशांत बबुआ के कमरे में दाखिल होते ही, धवल कुर्सी-मेज को नमस्कार बोलते हुए बिस्तर में चू जाता, मानो कि कई हफ्तों से नींद का स्वाद न पाया हो। जबरन खुद को सुला लेने का यह रहस्य प्रशांत मणि को मालूम था। परंतु कुछ कहे कैसे; खुद की अशांत आदतों के आगे लाचार जो थे मर्दवा।

             


अपने गाँव से जे.एन.यू. की दूरी धवल को सात समुन्दर न सही, सात नदियों पार की  लगती ही थी। जुलाई माह में जब परिसर के आसमान ने बारिश का रंग-ढंग दिखाया तो धवल के गंवई चित्त में बन्नीपुर के क्षितिज की बारिश खिंच गयी। धवल ने महसूस किया बारिश की दौलत में डूबी प्रकृति स्त्री की तरह झुक जाती है, उसने यह भी पाया कि उस क्षण दरख्त प्रार्थना की मुद्रा में खड़े आकाश को धन्यवाद देते हैं और दिशाएं मानो सतरंगी चूनर ओढ़ कर अलौकिक नृत्य की तैयारी कर रखी हों। ऐन बारिश की बेला जे.एन.यू. कैम्पस धवल का मन मोह लेता था, यहाँ तक कि धुली-चिकनी चट्टानों में जैसे कोई अबूझ जुबान आ गयी हो और वे स्पर्श पाने के लिए, हमें बैठने के लिए आमंत्रित कर रही हों। परिसर का आकाश कुछ इस कदर पास आया लगता था, मानों पैंतरा बदलते बादलों के आन्दोलन ने अपने जलभार से उसे झुका मारा हो।

          


धवल की पहली क्लास का दिन तैयार कुछ ऐसे हुआ मानो, मोर्चें पर कोई सिपाही जा रहा हो। घुमाव खाई हुई पक्की सड़क पर धवल के पाँव सध नहीं रहे थे। हास्टल के गेट के बाहर निगाहों को हर वृक्ष से टकराता, गदबदाई झाड़ियों में उलझाता और उत्सुकता से लबरेज करता हुआ बढ़ रहा था। यह आया प्रशासनिक भवन; यह दृष्टिगोचर हुआ पुस्तकालय। यह साकार दिखा भारतीय भाषा अध्ययन संस्थान और उसकी सीढ़ियाँ, जिसके बारे में सर्वव्यापी मुहावरे को उसने पहले ही सुन रखा था। सुबह के साढे़ नौ बजे किसका दीदार होगा ? हाँ भगत सिंह, पाश, चे ग्वेरा, नागार्जुन, ब्रेख्त, नेरुदा अपनी बुद्धि प्रेरक पंक्तियों के साथ बंकरी दीवारों पर विराजमान थे। कुछ पोस्टरों की पेंटिग ऐसी चुम्बकीय पहेली जैसी थी, जिसका मतलब बूझ लेना एक कठिन परीक्षा उतीर्ण करने जैसा था।

               


भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी विभाग, प्रथम सत्र, पहला दिन, पहली क्लास; एक छोटे कद के, दुबले-पतले शरीर की मूर्ति, खुल्ले दरवाजे पर दस्तक देते हुए चुपचाप प्रधान कुर्सी पर आ कर स्थापित हो गये। योगियों जैसा विरक्त चेहरा लिए दूर-दूर बैठे नवमित्र यंत्रवत् उठ खड़े हुए, शिक्षक ने बैठने को कहा मानो कहना चाहते हों- 'अब खड़े-खड़े ही क्लास लोगे क्या? बैठ जाना भी कोई चीज होती है।' चेहरे पर नाचती जिज्ञासा ने आंखों-आखों में एक-दूसरे की ओर प्रश्न फेंका- ये गुरु कौन हैं? धवल की स्मृति में चित्र चमका, ये तो मेरे गाँव के हेड मास्टर साहब लगते हैं, जो बगल में छड़ी दबाए दिन भर पैंतरा बदलते थे, जो विद्यालय को अनुशासन में रगड़ कर और श्रम के पसीने से सींच कर छतनार वृक्ष बनाने को कमरबद्ध थे। पहले ही दिन मास्टर साहब नुमा गुरूदेव ने मार्क्स-एंगेल्स की कला और साहित्य वाली पुस्तक सामने रख दी और नोंक पर आग लिए हुए तीर जैसा प्रश्न छोड़ा- 'हां, तो आप लोगों में से किसने-किसने यह किताब देखी है?' सवाल सुनना था कि धवल को लगा आधा शरीर वहाँ है और आधा शरीर कहीं उड़ चला है। आंखें उपस्थित हैं, परंतु मन विलुप्त हो गया है। आज पहले दिन शिक्षक ने ट्रेनर की तरह क्लास ली मार्क्स और एंगेल्स को लेकर। 'तो कार्ल मार्क्स जर्मनी में पैदा हुए वहीं पढ़ाई-लिखाई की। दर्शन, अर्थशास्त्र और साहित्य उनके प्रिय विषय थे। हेगेल का दर्शन उन्हें बहुत भाते हुए भी असंतुष्ट कर रहा था। एपिक्यूरस का भौतिकवादी दर्शन युवा मार्क्स की आँखों में खोजी चमक भर देता था। शेक्सपीयर की कविताओं के कायल थे- मार्क्स। इन सबसे प्रभावित, प्रेरित, उद्वेलित होते हुए भी कार्ल मार्क्स अपनी राह खोजने के जिद्दी जीनियस थे। जर्मनी के मजदूरों का संगठन खड़ा किया और महज 29 साल की उम्र में 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' लिखा। बात यह कि इस उम्र में आप लोग प्रेम की नाव में बैठे हुए जवानी की नदी पार करते हैं। है कि नहीं? ऐं।

           


तकरीबन एक घंटे की क्लास डेढ़ घण्टे में खत्म। श्री गणेश के दिन ही किलो-किलो भर के ज्ञान की झमाझम बारिश। अधिकांश नव ज्ञानांकुरों के लिए सन्न-सन्न उड़ती पहेली की तरह थी। धवल ने कार्ल मार्क्स और उनके मस्तिष्क से फूटी विश्व-ध्वनि को सुन रखा था, उड़ती हुई जिज्ञासा की प्रेरणा में एक मुट्ठी भर अध्ययन भी  किया था परंतु आज जो मैनेजर पांडे के मुख से ध्वनित हुआ, वह मन-मस्तिष्क की अज्ञात तहों को आन्दोलित करने जैसा था। कक्षा के पूर्ण विराम पर धवल के चित्त में एक नन्हें प्रश्न ने पक्षी के घोंसलाजीवी बच्चे की तरह सिर उठाया, परंतु डर मन में नाच रहा था कि पूछते ही डपट कर कहीं बैठा न दिया जाऊँ, परंतु परमाश्चर्य गुरुवर खुद ही सवाल कर बैठे दबे हुए दबंग स्वर में - 'हां, तो मैं कह रहा था कि तुममें से किसी को सवाल करना है?' धवल बेंच पर बैठे मेढ़क की भांति उछल खड़ा हुआ- 

'सर। मेरा एक सवाल है।'

'हां, पूछो, मैं खाली अपना मुँह देखते रहने के लिए थोड़ी कह रहा हूँ।

                


'सर! कार्ल मार्क्स यदि धर्म को अफीम मानते थे, तो गले में ईसा मसीह के क्रास का चिह्न क्यों पहनते थे?' गुरु को कल्पना न थी, पहले ही दिन, पहली ही कक्षा में, पहेली जैसी आंखों वाला छात्र इतना पक्का सवाल पूछ लेगा। गुरुवर संभल गये, उत्तर का ठंडा शर्बत भी पिलाया - 'अच्छा किया पूछ कर। तुम्हारा नाम क्या है? कार्ल मार्क्स यहूदी परिवार में पैदा हुए थे। बचपन से ले कर नौजवानी तक कभी चर्च, कभी बाइबिल, अक्सर नेत्रबंद प्रार्थनाएँ करना, मतलब समझो कि उनका आरंभिक जीवन ईसाई धर्म के प्रभाव देखरेख और शासन के बीच निर्मित हुआ। वे धर्म के अवैज्ञानिक तौर-तरीके के कठोर आलोचक थे निंदक भी परंतु एक असाधारण करुणा के धनी ईसा के प्रति उनके भीतर प्रेम था, इसीलिए क्रास पहने हुए हैं। धर्म के मनुष्यता विरोधी स्वरुप की आलोचना कीजिए, वह भी आंखें खोल कर, आँखें मूंद कर निन्दा गाने वाले सूरदास कहलाते हैं।'

                    


कक्षाएँ समाप्त कर के धवल ने बाहर आ कर निगाहें आकाश को समर्पित किया। लह-लह चमकती हरी पत्तियों की ठाट के बीच में झलकता सूरज अपनापन का खिंचाव भर रहा था। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता है- सूर्य छोटा हो जाता है, किन्तु रोशनी धारदार और परिपक्व। चारों और लहराती प्रकृति के कोरे सौन्दर्य में बहते हुए धवल भूल ही गया कि मार्क्सवाद का ककहरा सीख कर आया है। उसे तो गुरूदेव के तर्कमय विचार आकर्षक होते हुए इस जादुई अबाध सौन्दर्य के आगे फीके लग रहे थे। धवल का युवकोचित हृदय रह-रह कर अनोखी अनुभूतियों में आन्दोलित हो चला। मनुष्य के पास बुद्धि है, तो वह सोचने का हकदार हो गया। मुँह है-तो बोलने का अधिकारी। मौलिकता है - तो सृजन करने का कौशल और शक्ति है - तो शासन जमाने की योग्यता। मगर एक मिनट धवल! यह बुद्धि, यह वाणी, यह स्वभावगत मौलिकता या शारीरिक शक्ति आयी कहाँ से? जिसे मनुष्य अपना कहता है- वह अपना है कहाँ? आदमी तो स्वयं को भी अपना नहीं कह सकता। सांसें सौंपती हैं- हवाएँ, दृष्टि देता है -सूर्य की कृपा पर निर्भर दिन, ईश्वर से बढ़ कर कीमती अन्न हासिल होता है - धूसर, बेरंग, अनाकर्षक धरती से। और इस साढ़े तीन फुटिया हाड़-मांस के ढांचे में पानी, लोहा, जिंक, कैल्शियम जैसे अदृश्य, गुमनाम तत्वों के सिवाय और है क्या? धवल अप्रत्याशित एहसासों की झड़ी में सिहर उठा कि सभी दृश्य अदृश्य में मौजूद हैं। सब कुछ का होना, कुछ भी न होने से संभव हुआ। सौन्दर्य का कारण असुंदरता है। यहाँ तक कि सारे नये और मौलिक विचार, विचारों की गुलामी से मुक्ति पाने के बाद जन्म लेते हैं। 

                       


आज क्लास का दूसरा दिन एक दूसरे शिक्षक का टेंस माहौल। विषय है - ‘‘चिट्ठी-पत्री में प्रेमचंद का व्यक्तित्व।’ अर्थात् दर्जनों उपन्यास और तीन सौ से बेशी कहानियों का पहाड़ करने के बावजूद प्रेमचंद और कहाँ-कहाँ बाकी रह जाते हैं। तनिक तिरक्षी निगाहों से पड़ताल की जाय कि मुंशी जी महामना कद के थे या और लेखकों की तरह पैसावादी व्यक्ति थे। अपने शिक्षक प्रभावकारी से विद्यार्थियों को ज्ञान मिला कि प्रेमचंद अपनी कहानियाँ छपने के एवज में नकद नरायन न मिलने पर सम्पादकों से कभी छाता, कभी कुछ, कभी विशेष कुछ ले लिया करते थे। पत्नी शिवरानी देवी दबाव बना कर कहानियाँ इसलिए, लिखवातीं ताकि लक्ष्मी का दर्शन मिलता रहे। ‘सरस्वती’ प्रेस खोलना, मंहगा शौक साबित हुआ प्रेमचंद के लिए। नायाब रचनाएँ रचने वाला कलम-पुरूष सरस्वती प्रेस के चक्कर में अपना माथा धुन रहा था। ऊपर हंस, मर्यादा, माधुरी और जागरण निकालने की खून सुखाऊ जिद। शुरु तो सब कर दिया, परंतु लंबे वक्त तक कायम रहना एक का भी संभव न हुआ। प्रेस में पसीना बहाने वाले मजदूरों के साथ प्रेमचंद का व्यवहार मसीहाई था, परंतु सही वक्त पर कई बार मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण प्रेस में ताला लगाने का दौरा प्रेमचंद के चित्त में बार-बार पड़ता था। डॉ वीर भारत जी ने अधिक इत्मीनान से, परिपक्व मुस्कान बिखेरते हुए, अंगूठे के ठीक बाद वाली अंगुली दिखाते हुए एक-एक छात्र की आँखों में झांक-झांक कर बताया, प्रेमचन्द के रहस्य से पर्दा उठाया कि पहले विवाह के तुरंत बाद पहली पत्नी का परित्याग कर दिया। कालांतर में शिवरानी देवी से सात फेरे लिए। आगे जो आश्चर्य से सन्ना देने वाली बात गुरुवर्य ने कहीं, वो यह कि शिवरानी देवी के रहते हुए प्रेमचंद एक और स्त्री के साथ प्रेम में थे। इतना ही नहीं, पहली पत्नी के जीवित होने का रहस्य तब खोला जब वह मर गयीं, वो भी लंबी उम्र अकेले ही काट कर। पता तो यह भी चलता है- प्रेमचंद की इस पुरुषोचित चालाकी पर शिवरानी देवी ने उन्हें पत्नियोचित झापड़ पुरस्कार स्वरूप यथास्थान रसीद किया था।

                           


धवल का कच्चा विवेक उलझ उठा हकीकतों के खुले-छिपे जंगल में। वह तय नहीं कर पा रहा था, किस प्रेमचंद को आंखों में बसाए? उस कद को जिसे हजारी प्रसाद द्विवेद्वी, राम विलास शर्मा, और शरत चन्द जैसे कलम-वीरों ने स्थापित किया, या फिर उस कद को, जिसकी परतें यहाँ क्लास में गुरु जी खोल रहे हैं। प्रेमचंद का एक अदृश्य महाकद वह भी तो झांकता रहता है, जो उन्होंने अपनी नायाब कहानियों और छतनार बरगद जैसे उपन्यासों के भीतर खड़ा किया। जो उनके दीवानों के सिर-चढ़ कर बोलता है। लगातार कुछ दिनों तक मानसिक उठापटक और मथना-मथानी के बाद धवल एक धारणा तक पहुँचा कि किसी के भी बारे में अंतिम धारणा मत बनाओ, क्योंकि किसी के बाहरी और आन्तरिक यथार्थ को पूर्णतः जान ही नहीं सकते। जब व्यक्ति खुद को प्रकट कर रहा तो बदनामी, शर्म, मर्यादा, सामाजिक प्रतिष्ठा या जहरीले विवाद के भय से छिपा भी रहा। खुद को जितना छिपा रहा उसी में उसका एक और चेहरा मौजूद है, जो निजी इच्छाओं, वासनाओं, स्वार्थों और स्वच्छंद रुचियों से संचालित है। सामाजिक तौर-तरीकों का लौह ताना-बाना इस चेहरे को जाहिर करने का न अवसर देता है, न इजाजत। इसीलिए जब, जहाँ जैसे जिस हद तक इस स्वादप्रेमी चेहरे को मौका मिलता है, लुके छिपे-अपनी क्षुधा शांत करता रहता है। चूँकि यह अप्रकट है- इसलिए रहस्यमय और व्याख्या से परे। यह अवश्य है कि मनुष्य के व्यक्तित्व की कसौटी उसका प्रकट यथार्थ नहीं, अप्रकट यथार्थ है। धवल रोमांचित हो उठा, इस अनोखे सत्य का एहसास करते ही कि प्रत्येक मनुष्य के यथार्थ के तीन आयाम हैं- एक वह जो कर्म, व्यवहार, वाणी के द्वारा प्रकट करता है। दूसरा वह जो वह चाहता है, सोचता है, आकांक्षा रखता है- परंतु प्रकट नहीं करता और तीसरा वह जिसके बारे में उसे खुद भी पता नहीं। व्यक्तित्व का यह जो तीसरा आयाम है - वह इन दो आयामों की बादशाही ताकत के कारण इतना दबा हुआ है कि खुद की संभावनाओं की अथक खुदाई करने के बाद ही सामने आता है। यह अद्वितीय तीसरा आयाम ही व्यक्ति का स्थायी यथार्थ है। किसी शरीर से फूटती प्रतिभा की जादूगरी इसी तीसरे अप्रकट आयाम की तरंग है, प्रतिध्वनि है, आंशिक प्रवाह मात्र है।

                       


धवल की कल्पना में आदमी की एक और छवि पानी पर नाचती परछाईं की भांति उभर गयी यह कि मनुष्य एक समय में कई मुद्दों, सवालों, सपनों, चाहतों और यादों में बंटा होता है। इतना भर से बात नहीं पूरी होती- वह जो कह रहा है ठीक वही नहीं सोच रहा, जो सोच रहा, ठीक वही नहीं लिख रहा, जो लिख रहा, मन में पहले चबा कर, फिर नफा-नुकसान की छननी से छान कर लिख रहा है। अपनी प्रत्येक हंसी के साथ शत-प्रतिशत नहीं, अपनी प्रत्येक स्वीकृति के साथ पूरा-पूरा नहीं। आज वह जो भी है भविष्य के किसी भी कल में न होगा। वह कभी वह नहीं होता, जो होना चाहता है, बल्कि हमेशा वह हो जाता है, जो उसकी चालाकी, गूढ़ स्वार्थ, मौका परस्ती और मजबूरियों ने गढ़ दिया। एकाश्मक व्यक्तित्व का पुरुष मोमबत्ती ले कर ढूँढे़ न मिलेगा । हर एक ढांचा न केवल खंडित है- बल्कि परस्पर विपरीत, विरोधी आदतों, रूचियों, स्वभाव और व्यवहार का मामूली दास है।

                  


इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में क्लास लेना गांव की कुश्ती लड़ने जाना है, परंतु जे.एन.यू. के हिंदी विभाग में कक्षाएँ अटेंड करना मनमाने शरीर, बुद्धि और आदतों को विचारों की छैनी से गढ़ना, छांटना, तराशना था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय अघोषित आजादी देता है- कि चाहे तो क्लास लेने आ विराजो, मन कहीं और रमा हुआ है तो क्लास में आने की जरूरत नहीं। परंतु जे.एन.यू. में एक भी क्लास छूटा कि गुरुओं की चेतावनी भरी वर्षा में चुपचाप भींगने के तैयार रहिए। क्लास बंक मारने पर यदि बिजूका की तरह पांच मिनट खड़ा करते तो गनीमत थी। यहाँ तो छिपे व्यंग्य का ऐसा डंडा मारते हैं कि अपने सिवा और कोई नहीं देख सकता, मजाकिया अंदाज का डंडा। मसलन - आज भी आने की क्या मजबूरी आ गयी? दस या बारह बजे तक सोते कान में तेल डाल कर फिर उठते और गंगा ढाबा के आस-पास एक चक्कर मार आते फिर दंड-बैठक वगैरह कर लेते। अरे भई दुकेले बनने की सफलता के लिए ट्रेनिंग तो लेनी पड़ती है न! ऐं?' धवल को रह-रह कर यह अंतर्ज्ञान मथता रहता कि जे.एन.यू. में ट्रांसफारमेशन या कहिए कि व्यक्तित्व के रूपान्तरण का अदृश्य चुम्बकत्व फिजा में सक्रिय है। धवल एक और दिन एक और आलोचना पुरुष से मात्र एक सवाल कर बैठा, बेंच पर बैठे-बैठे- "सर, यदि 'द हिन्दू’ अखबार मार्क्सवादी विचारधारा का है तो सौ से अधिक वर्ष बीत जाने के बावजूद- एक धार्मिक शीर्षक से क्यों बंधा है?’’ फिर क्या था, आलोचना के गुरु वाणी, हाव-भाव, और तमतमाते आवेश के साथ बरस पड़े -'तुम भी कैसे-कैसे सवाल पूछते हो? अब कहो, कि बी.एच.यू., जामिया का नाम बदल दिया जाय क्योंकि उनके नाम धार्मिक रंग लिए हुए हैं। धर्म से इतनी चिढ़ क्यों? धर्म कोई बहुरुपिया है क्या कुतहूल से देखो भी और दस कदम दूर भी भागते रहो। मेरे कहने का मतलब समझो।  तुम भी न.... अरे, केवल धार्मिक नाम रखने के कारण कोई गैर प्रगतिशील नहीं साबित हो जाता।'

               


धवल की दशा उस नाविक की तरह थी, जो किनारे से चला तो नाव साथ थी ऐन मझधार में पहुँचते ही नाव डूब गयी, मजा यह कि तैराक वीर भी ना था वह, परंतु जीवन बचाने के लिए हर जतन-करना ही था। 

            


धवल ने पाया कि शिक्षक के व्यक्तित्व के भी कई स्तर हैं। एक तो वह जब पढ़ाते समय सुकरात का अवतार होता है। दूसरा वह जब काफी की सिप लेने के दौरान अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के कसीदे पढ़ रहा होता है और तीसरा वह जब किसी यारबाज बौद्धिक के साथ फुसफुसाहट भरी मुस्कुराहटों से आपस में खेल रहा होता है। अभी तक धवल ने यही विचार प्रज्जवलित कर रखा था कि कर्म विचार, वाणी, व्यवहार और स्वभाव से मनुष्य की हकीकत का पता चल जाता है, परंतु ठहरिए, कुछ बड़ी चूक हो रही है - जब हम बलपूर्वक खुद की श्रेष्ठता का प्रकाशन करते हैं-तो हमारी श्रेष्ठता की पेंदी कमजोर है, उसमें कहीं चोर छिद्र आ चुका है। जब हम अपनी विद्वता का वजन गांठ रहे होते हैं तो विद्वता की चमक पर धुँआ छा गया मानिए। जब अपनी बात मनवाने के लिए उत्तेजना की हद तक ताकत झोंकनी पड़े, फिर तो बूझ लीजिए, बात में वह योग्यता नहीं, कि उसे स्वीकार कर लिया जाय। एक साथ विरोधी किस्म के विचारों से पराजित नौसिखुआ की तरह जूझता धवल चल पड़ा कावेरी की ओर। चिंतन की मस्ती में शरीर अनायास सड़क पर ढुलक रहा था, आसपास की झाड़ियों, वृक्षों यहाँ तक कि सुगंधमय चमक बिखेरती छात्राओं के बादशाही जादू का असर भी उसके बबुआ-चित्त पर नहीं पड़ रहा था। धवल की चलती-फिरती बेहोशी की हद तो तब हो गयी, जब रूममेट प्रशांत मणि ब्रेकेट में अशांत शिरोमणि निगाहों-निगाहों में धवल से टकरा गये, और धवल ने थम कर देखा भी नहीं कि क्या ये मेरे ही कमरामित्र हैं?

         


विश्वविद्यालय की फिजाओं में सांसें लेते हुए बीत चले आधा वर्ष। अंगुलियों पर गिने जाने लायक इन महीनों में धवल ने जाना जो नैसर्गिक तौर पर नग्न है, उनमें कम से कम नंगई है और जिसने कई खूबसूरत पर्दों के आवरण में खुद को ढँक लिया है, उनकी नंगई बेमिसाल; लाजबाव हैं। पेड़ नंगे, मगर सज्जनता की मूर्ति जैसे। जीव, जानवर, जन्तु सब परम नग्न परंतु आदमी की हिंसा के आगे लाचार। समुद्र, नदी, धरती सब नग्न, मगर इनसे बढ़ कर महानता की मिसाल कहाँ मिलेगी?

                


जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव अपने आप में एक सांस्कृतिक घटना या कहें - बौद्धिक युद्ध की प्रयोगशाला। आइसा, एस. एफ. आई., अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, नेशनल स्टूडेन्ट्स आफ यूथ कांग्रेस - ये चार स्थायी स्तम्भ हैं,- जे.एन.यू. छात्र संघ के। मगर इन्हीं के बीच इन्हीं के समानान्तर, इन्हीं से होड़ लेता हुआ- एक और छात्र संगठन बूझ लीजिए- वह है -‘फ्री थिंकर्स’ का। अर्थात् जो स्वतंत्र युवा बौद्धिक हैं, जो किसी एक विचारक या किसी एक विचार से आबद्ध रहने में विश्वास नहीं करते। जो मार्क्स को मानते हैं, परंतु मार्क्सवाद से बंधे नहीं हैं, जो विवेकानंद से अन्तः प्रेरित हैं, परंतु भगवा रंग से संकल्पमय एलर्जी है, जो गांधी की अद्भुत शख्सियत को पसंद करते हैं, किन्तु उनकी हिन्दू धर्मपरस्ती की निर्मम निन्दा भी छांटते हैं। जे.एन.यू. का यह छात्र संगठन सबसे अल्पसंख्यक दल है, जिसमें आजाद ख्याल छात्राओं का दबदबा है। इसमें से एक-एक को आत्मज्ञान है कि वे छात्र संघ का चुनाव कभी नहीं जीतेंगे, परंतु इतनी तन्हा जिद्द जरूर है कि एबीवीपी का वोट जरूर घटाएंगें और विरोधी का वोट घटा देना अपने समर्थक को जीत दिलाने में निर्णायक योगदान है। ‘फ्रीथिंकर्स’ की परम आकांक्षा है- अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पराजित हो, हम जीतें या नहीं? और कमोवेश प्रतिवर्ष उनकी यह आकांक्षा फलीभूत होती है। प्रेसीडेंट और वाइस प्रेसीडेंट का पद सारा भजन, कीर्तन, तप, साधना, और भाषण जोतने के बावजूद ए.बी.वी. पी. को नसीब नहीं होता।

                        


जे.एन.यू. का छात्र संघ चुनाव इ.वि.वि. से अलहदा है। यहाँ कहीं भी, किसी भी वक्त बेमौसम बारिश की तरह भाषण शुरू हो सकता है। आपको सुनना है रुक जाइए, नहीं सुनना है कट लीजिए। वोट बैंक मजबूत करने के लिए कोई गुप्त होशियारी नहीं, कोई भाईयाना नौटंकी नहीं। जाति, क्षेत्र, धर्म, परम्परा, संस्कृति सनातन मूल्यों और आध्यात्मिकता के प्रति आकंठ भक्तिवान हैं, तो ए.बी.वी.पी. के अव्वल सिपाही हैं आप और यदि इन सभी के प्रति बुद्धि के मैदान में मार्क्सवादी आलोचना करने हैं तो आइसा में आइए। न हिन्दू परंपरा की ढोल पीटनी है, न ही मार्क्सवाद का मंत्रजाप करना है- तो ‘फ्रीथिंकर्स’ कहलाने से कौन रोक सकता है। इन तीनों के बीच ‘एन. एस. यू. आई., जो कि कांग्रेस दल की युवा शाखा है चुनाव लड़ती है, मगर जीतने के लिए कतई नहीं, लड़ने का धर्म निभाने के लिए। वरना चुनाव के अंतिम दिन तक कैम्पस की दिशाएं तरस जाती हैं किसी कांग्रेसी युवा का झन्नाटेदार भाषण सुनने के लिए। जब अध्यक्ष पद के लिए धक्का मार कर मोर्चे पर खड़ा किया गया छात्रनेता मतों के प्रचंड अंतर से हार जाता है, तब पता चलता है कि ये फलां संगठन के फलां पद के लिए प्रत्याशी थे। ए.बी.वी.पी संयम सन्तुलन, धैर्य और आत्म समीक्षा में यकीन जरा कम करती है। उसका फार्मूला है- फ्रन्टफुट पर बैटिंग मारना। बात साफ है, मुद्दा कोई भी हो, सबको खींच कर सनातन धर्म, मूल्य, मर्यादा और अध्यात्म से जोड़ दो। हर समस्या का समाधान रेडीमेड तैयार है। मसलन विश्व में जो आविष्कार आज हो रहे हैं, भारतवर्ष, अरे नहीं मित्र-महान भारतवर्ष में वह खोज वैदिक ऋषि, मुनियों ने हजारों साल पहले कर ली थी। बताइए श्री रामचन्द्र जी का पुष्पक विमान क्या था, आज के जमाने का एरोप्लेन ही तो।

                 


गोदावरी छात्रावास शत-प्रतिशत छात्राओं के नाम समर्पित रहने के कारण छात्रनेताओं के लिए विशेष खिंचाव का केंद्र  रहता है। नैसर्गिक संयोग देखिए कि वहाँ बहस करने लायक, भाषण का सिक्का जमाने लायक, गुटरूगूँ  करने योग्य और देर रात ओसमय आकाश तले भापमय चाय की प्यास बुझाने लायक चट्टानें भी कछुओं की भांति औंधी जीम रहती हैं। चुनाव का हफ्ता भर शेष है – फिजाओं में चुनाव-चुनाव की राजनीतिक गंध उड़ रही है। दो विपरीत संगठन के मित्र-नेता चप्पलें चटका कर बगल से गुजरते हुए – क्या मित्र? से आगे बोलना भूल गये हैं। आइसा जहाँ वामपंथ को व्यावहारिक जमीन पर उतारती है, जरा माहौल, मिजाज पढ़-समझ कर मोर्चा लेती है, वहीं एस. एफ. आई. लेफ्ट के सिद्धांत का झण्डा उठाए रहती है - सुखे लाल कपड़े की पृष्ठभूमि पर हंसिया और हथौड़ा। देखते ही तबियत सिहर उठती है कि क्रांति अब हुई कि तब हुई, सूरज अब समाजवादी हुआ कि तब हुआ। यकीन न आऐ तो एक आपादमस्तक मार्क्सवादी मेघा का भाषण सुन लीजिए- 'मैं यहाँ सामने खड़े एक-एक भाई से पूछना चाहता हूँ - तुम्हारे शरीर में जो लहू दौड़ रहा है - किसके दम पर? तुम जो सुंदर वस्त्र पहनते हो, आखिर किसके बूते? ये जो जूता गांठ कर रास्तों पर उड़ते हो, किसके परिश्रम से? मत भूलो कि भोर होने से पहले जो मिट्टी में अन्न उगाता है- वह तुम्हारा ही एक भाई या पिता है। मत भूलना कि तुम्हारा उत्थान लाखों की पीठ को सीढ़ियाँ बनाने से तय हुआ है। यह भी याद रखना साथी! जब किसान की पसीना मिट्टी में गिरता है - तो फसलें नहीं,  सभ्यताएँ लहलहाती हैं। जब एक श्रमिक जन्म लेता है - तो पृथ्वी की हिफाजत करने वाला एक सैनिक खड़ा होता है, जब मरता है तो यकीनन पृथ्वी ने अपने तन से नाभिनालबद्ध एक वृक्ष खो देती है।' संयोग से दूर पत्थरवत खड़ा धवल पत्थर पर जीवित प्रतिमा के सामने खड़े श्यामबिहारी बनर्जी लेनिन बने भाषण दे रहे थे। धवल हो उठा मंत्रबद्ध, ऐसा बहा उनके भाषण के जादू में, मानो उसके भी शरीर में कार्ल मार्क्स उतर रहे हों, कुछ देर के लिए अपना धवलपन भूल गया और श्यामबिहारी का एक-एक वाक्य पूरे शरीर में बिजली की तरह झन-झन गूंजता रहा।

             


कैम्पस के चुनावी मौसम में जिधर देखो, उधर निर्व्याज भाव से भाषण बरस रहे थे। सुनने वाले भक्तगण ऐसे निर्विकार सुनते, जैसे पकड़ कर लाए गये हों, जिन्हें चुनाव शब्द से एलर्जी थी, वे छात्र नेताओं को परम ज्ञानी की तिरछी निगाहों से देखते और एक चुभन वाली कंटीली मुस्कान मारकर अंतर्ध्यान हो जाते। धवल की दशा गांव के छुटहर बछड़े की तरह थी। बीच खेत में घुसकर चार गाल निपटाता और मुंह उठा कर देखता, यहाँ के बाद किस फसल को साफ करना है। ‘फ्री थिंकर्स’ संगठन की देवयानी प्रधान अपनी फेमिनिस्ट आडियोलाजी पेश कर रही थीं- “साथियों! सदियों से भारतवर्ष में स्त्री कभी माँ, कभी पत्नी, कभी बहन और कभी प्रेमिका रही परंतु मैं पूछना चाहती हूँ - वह स्त्री कब रही? मेरा मतलब है - स्त्री को उसके मन से, उसकी आंखों से, उसकी इच्छाओं, सपनों और जरुरतों के अनुसार कब देखा गया? अधीनता स्त्री की नियति है या पुरुषनिर्मित गुलामी? प्रकृति ने वह सब कुछ स्त्री को दिया। जो पुरुष के पास है, सिवाय अंगों की भिन्नता के, फिर महत्व का यह लाइलाज भेद क्यों? माँ की गरिमा पा कर भी वह गुलाम है, पत्नी का दायित्व अघोषित सेविका का दूसरा नाम है। स्त्री के लिए सारी फिलासफी देह से शुरू होती है और देह पर पूर्ण विराम ले लेती है। यह कोमलता, कमनीयता, मादकता जो पुरुष को लुभा कर भी उसकी सत्ता के आगे स्त्री के व्यक्तित्व को झुका दे, किस महत्व की? वक्त है अपनी आजाद आत्मा के अधिकार को हासिल करने का, वक्त है कि हम निर्भय होकर कहें कि स्त्री पुरुष के साथ कंधा मिला कर चलने वाली मित्र है, पीछे-पीछे अनुसरण करने वाली गूंगी गुड़िया नहीं।’’ देवयानी नशीली फुहार चित्त पर छिड़क ही रही थीं, कि ऐन मुँह पर खड़ा  धवल पूछ बैठा - ‘‘जिस पुरूष को जन्म देती है औरत वही उसे पर इतना शासन कैसे जमा सकता है?" देवयानी थम सी गयी, पूछा- 'तुम्हारा नाम क्या है साथी?' धवल को एक मीठा सा झटका लगा, 'साथी' किसी छात्रा ने पहली बार कहा था, वो भी इतना धड़ल्ले से। धवल ने एक और सवाल भेंट किया - 'जब यह सच है कि स्त्री के बगैर पुरूष नहीं और पुरूष के बगैर स्त्री नहीं तो दोनों के बीच प्रेम, सहयोग, विश्वास और सम्मान का अकाल क्यों? और देवयानी जी! अपने महत्व का हक आप बलपूर्वक छीन कर या लड़ कर कैसे हासिल करेंगी? वह तो हृदय से फूट पड़ा झरना है, जो किसी के प्रति अकारण ही जन्म लेता है।' देवयानी प्रधान ने अपना लच्छेदार भाषण बंद कर दिया और चट्टान से अदापूर्वक नीचे उतर कर धवल के निहायत निकट आ गयीं, बेतरह रोमांचित हो उठा धवल, मानो रोम-रोम के नीचे मादक आनंद के बुलबुले फूट चले हों। ' साथी! परसों-प्रेसीडेंटियल डिबेट है - गंगा के लाॅन में। तुम जरुर आना तुम्हारे सवाल मौन कर देते हैं। आवोगे न?' असमंजस में हिचकोले खाता हुआ धवल ढंग से न हाँ कह पा रहा था, न ही ना। देवयानी न जानी कौन सी पहेलीमय बांकी मुस्कान हृदय पर अंकित करती हुई जाने लगीं, जो धवल की हाँ सुने बगैर दावा करती थी कि तुम डिबेट में आने से खुद को रोक नहीं पाओगे मित्र! धवल वापस कमरे पर आया, देवयानी की मुखर वाणी से जितना खिंचाव नहीं हुआ था, उससे चौगुना खिंचाव देवयानी के महकते मौन से हो गया। 

               


जे.एन.यू. की दिशाओं में मार्क्सवादी चिंगारियों की धूम है तो क्या हुआ; ‘फ्री थिंकर्स’ की रागिनी रह-रह कर बज उठती है तो क्या हुआ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी कोई चीज हुआ करती है। जिसके इन दिनों पतवार हैं- वंशीधर महंत। महंत टाइटल तो इन्होंने हिन्दुओं की साधु-परम्परा पर रीझ कर रख लिया, वरना इनका मातृपक्ष से नाम है - वंशीधर त्रिपाठी। इनकी एक आँख से वैदिक भारत की हिन्दू सभ्यता बहती है तो दूसरी आँख से भारत के शेष मतावलंबियों को वहला-फुसला कर हिन्दू बना लेने का काल्पनिक आनंद। धवल ने देखा कि श्री वंशीधर महंत आधा कृष्ण, आधा नेता के मिले जुले अवतार हैं। गले में गेरूवाधारी तौलिया, बीच मस्तक पर हनुमान चालीसा जपने के बाद स्वतः अंकित किया हुआ गेरूवा टीका। महीन खादी का श्वेताभ पैंट और इसी तर्ज की शर्ट बूझ लीजिए। मजा तो यह कि वंशीधर अपने माथे पर शिखा पाल रखे हैं, जे.एन.यू. के माहौल की शर्म कहिए या पोंगापंथी घोषित होने का अखंड भय, वंशीधर ने शिखा छोटी ही रखी है, जिसे तेल से चमका कर बांधते तभी हैं, जब गले का तौलिया बार-बार पीछे फेंक कर भाषण जमाना होता है। कुतूहल, उत्सुकता और अनिश्चय की आदतवश धवल उनका शंख ध्वनिनुमा भाषण सुनने ठहर गया। वंशीधर घंटा भर पहले पान निपटा कर आए थे। पीने वाला पान नहीं, खाने वाला पान। लीजिए, पान खाने से लाल हुए होठों का कौशल सुनिए- 'मैं पूछना चाहता हूँ भाइयों! कि सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध होने से पहले हम लोग कौन थे? गीता में भगवान कृष्ण का महान उपदेश किसी मार्क्सवाद से कमतर है क्या? और फिर हमें किसी विदेशी विचारधारा का अनुयायी क्यों बनना? युगों-युगों पहले यही आर्यावर्त विश्वगुरु हुआ करता था। हम फिर वही गौरव लौटाएँगे। भारतवर्ष सोने की चिड़िया बनकर रहेगा, ये हमारा वादा है आपसे।'

          


दो सप्ताह के भीतर पूरे कैम्पस में प्यासे पंक्षी की तरह भाषणों की बारिश पी-पी कर धवल बूझने लगा कि व्यक्ति सबसे अधिक वह बोलता है जो चाह कर भी कर नहीं पाता, जो हसरत प्यारी होने के बावजूद अधूरी रह जाती है। अर्थात् वादा-कुछ न कर पाने की प्रायः क्षतिपूर्ति है, क्योंकि जो कर गुजरने की सनक पालते हैं, वे वादा करते ही नहीं। धवल ने एक तथ्य का और अंतर्ज्ञान प्राप्त किया वह यह कि वादा कर्म के प्रति आपकी निष्ठा, समर्पण और प्रतिबद्धता को दुर्बल कर देता है। यह ऐसे पोस्टडेटेड चेक की भांति है, जिसमें बैंक बैलेंस है ही नहीं। धवल ने तब और माथा पीट लिया जब देखा कि भाषणों में वादों का फल बरसाने वाले आड़ में सिगरेट-साधते हुए निर्व्याज मस्ती के साथ फुसफसाते थे- 'यार, बस जीत पक्की हो जाय, फिर वादों-फादों को कौन पूरा करता है?' इसीलिए धवल ने मौन को, वादा न करने को वाणी की कठिन उपलब्धि माना, जो बड़ी समझदारी, 'मैं' मुक्त विवेक और बोलने की निर्थकता जान लेने के बाद हासिल होती है। मुंह की कीमत बोलने में नहीं, बल्कि अपने विचार कम और इंकार की प्रतिध्वनि पैदा करने में है। व्यक्ति जब बोलता है तब खाली अधिक हो जाता है, भर उठता है बहुत कम। किन्तु जब मौन रहता है, तब चिंतन के रास्ते अनछुए सत्यों की बारिश होती है और हमारे भीतर-भराव आ जाता है। धवल ने जाना कि जीवन की अधिकांश दूरियाँ, युद्ध, संघर्ष, शत्रुता, अप्रेम, कुंठा, ईर्ष्या और भेदभाव केवल वाणी की अराजकता और अहंकारमयता से पैदा होती हैं। मनुष्य जीवन में केवल इतना सीख जाय कि क्या नहीं बोलना, कब चुप को साधना है, किस हद तक और कितने ताप के साथ बोलना है तो दुनिया के बीच बेमिसाल मित्रता खिल उठेगी। 

            


छात्रसंघ चुनाव की भाषणमय गरमागरमी के बीच एक विद्युती आश्चर्य से साक्षात्कार हुआ। वे जब चलते तो लपट, अब बोलते तो तड़कते बादल, जब चुप रहते थे तो दहकता लोहा और जब सो जाते जो जैसे जल कर बुझी मशाल। नाम था - रमाशंकर विद्रोही, जिन्हें जे.एन.यू. का युवा कंठ 'विद्रोही जी' पुकारता था। धवल ने पाया कि यह ऐसा कवि है जो पढ़ने से ज्यादा कविता सोचता है, सोचने से ज्यादा जीता है और जीने से ज्यादा कविता के लिए मरने की जिद पालता है। रमाशंकर आपादमस्तक अपने नाम के अनुसार कविताई के जोश में रमे रहते थे। बात-बात में कविता, चाय-चाय में कविता, सांस-सांस में कविता। चिंगारी की तरह परिसर की पगडंडियों पर बहते हुए एक दिन धवल ने रोका और ठौर-ठिकाना जानना चाहा, तो रमाशंकर का अफलातूनी जवाब पा कर बुत्त बन गया- 'पूरा कैम्पस मेरा घर है, यहाँ की धरती और चट्टानें मेरा बिछौना हैं। तुम जैसे साथियों का प्यार ओढ़ता और बिछाता हूँ। कविता पढ़ने से मिले हुए अन्न के बूते जीता हूँ और जहाँ भी, जिससे सच्चा भाव बैठ जाय, उसी का हो जाता हूँ।' कुछ मौकों पर धवल इस जन्मजात आशु कवि विद्रोही से फूटती कविता की टंकार सुन चुका था। विद्रोही कविता पढ़ते नहीं थे, सुमिरते थे; सुनाते नहीं थे, आह्वान करते थे। किसी औधड़ की नाई कविता का मंत्र भाखते थे। माहौल तब और जादूमय हो उठता, जब विद्रोही का बायाँ हाथ हवा में मशाल की तरह लहराने लगता और आंखें, ओंठ, मस्तक, बल्कि सारा शरीर एक अबूझ बगावत की जागृति में कंपकपा उठता। कैम्पस में कवि बनने के लिए ही जन्म लेने वाले कवियों की भरमार थी, परंतु ऐसा कवि जिसके भीतर कविताई धड़कन की तरह मौजूद हो, धवल ने पहली बार देखा। विद्रोही को जरा छेड़ना था कि एक अवधी गीत की गंवई बारिश शुरू हो गयी 

"अमवा इमिलिया महुवआ की छइयाँ

जेठ बैसखवा बिरमइ दुपहरियाँ

धान कइ कटोरा मोरी अवध कइ जमिनियाँ

धरती अगोरइ मोरी बरखा बदरिया

लगतइ असढ़वा धूमड़ि आए बदरा

पड़ि गई बुनिया जुड़ाइ गयी धरती

गुरबउ गरीब लइके फरुहा कुदरिया

तोरइ चले बबुआ जुगदिया कै परती

पहिलइ बरवा पथरवा पै परिगा

छटकी कुदार मोर खुलि गा कपरवा

मितवा न जनव्या जमिनिया क पिरिया

टनकइ खोपड़ी मोरा दुखवा अपरवा

खुनवा बहा हइ मोरा जइसे पसिनवा............।’’ 


धवल अवधमृग था- बच्चे की तरह हुलस कर पूछा -‘‘रूक क्यों गये और सुनाइए न!"

           


गंगा छात्रावास के मैदान में अल्लह सन्ध्या का सांवला धुधंलका पसर चुका है। जहाँ-तहाँ  बल्ब, अंधकार से दो-दो हाथ करते सैनिकों की भांति जल रहे हैं। मंच सज गया है, प्रेसीडेंटियल डिबेट के लिए। आज बेमौसम में मूसलाधार बारिश होगी। फटेंगे छात्रनेतानुमा बादल, चमकेंगी विरोधी विचारों की बिजलियाँ, उठेगी गर्जना परिवर्तन के संकल्प की। इस बारिश में भागने का मौन सुख पाएँगे- एम.ए., एम.फिल., पी.एच.डी. और एकाध शोधार्थीनुमा अतिथि प्रवक्ता जो पिछले 10 वर्षों से स्थायी सिद्धि प्राप्त करने में चूक गये हैं। आधा लाॅन तंबमय है। छात्राओं के लिए सबसे आगे की जगह आरक्षित है। मंच पर अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद के सभी मोर्चाकार पधार चुके हैं। माइक से आवाज गिरती है, कि जिस प्रत्याशी से जिसे छात्र को सवाल पूछना है, वह मंच के पास आ कर हमें लिखित प्रश्न सौंप दें ।

         


थाली के भोजन पर जीभ से झाडू मार कर छात्र-छात्राएँ बह चले गंगा लान की ओर जो कभी भी भाग न लेने की होशियारी का शिकार था, वह आगे बैठने से घबराता था, निर्व्याज बस अजनबी की तरह लान का एक कोना पकड़ लिया था। डिबेट की महफिल गांवों में गुलजार रहने वाली नौटंकी की समां से कम रोमांचक नहीं थी। मंच पर आइसा, एस.एफ.आई., ए.बी.वी.पी., एन. एस. यू. आई. और फ्रीथिंकर्स के प्रत्याशी बरसने के पूर्व भरे पड़े बैठे थे बादल जैसे। अपनी बातें रखने के लिए आमंत्रित किया गया आइसा के उपाध्यक्षी प्रत्याशी को, जो अखिल कैम्पस में समर प्रताप उर्फ कामरेड प्रताप के नाम से पहचाने जाते थे। एक पसली का शरीर कुल वजन 60 किलो के नीचे, कदकाठी पाँच फुट पांच इंच के भीतर परंतु आवाज की चोट कुछ ऐसी जैसे नगाड़े पर अंगुली देते समय ध्वनि गूंजती है। पीजिए समर प्रताप का वाम रस- 'यहाँ मंच पर उपस्थित सभी साथियों, कामरेड दोस्तों और छात्र मित्रों, छात्राओं को भी लाल सलाम! प्रेसीडेन्टियल डिबेट वह दिन है, जिसका बेसब्री से इंतजार हर छात्र को होता है। आज हम मंच पर उपस्थित अपने प्यारे कामरेड चन्द्रशेखर को सलाम करते हुए अपने विचार आप सबके बीच रखना चाहते हैं।' जिस तरह, मैं कहना चाहता हूँ जिस-जिस तरह पूंजीवाद मनुष्यता का शत्रु है, उसी तरह साम्प्रदायिकता, रंगभेद और जातिवाद। भारत में पूंजीवाद यूरोप, अमेरिका और चाइना की तरह अपने खूनी चेहरे का आकार तो न ले सका, मगर मैं जोर दे कर कहना चाहता हूँ भाईयों, कि हमारे देश ने पूंजीवाद से भी बड़ा दुश्मन अपने घर में पाल रखा है- उसका नाम है - धार्मिक कट्टरता, मजहबी भेदभाव और हिन्दू मुस्लिम की साम्प्रदायिक मानसिकता। मैं मानता हूँ कि भारत की मिट्टी में धर्म और अध्यात्म बीज तत्व जैसे रहे हैं, जिसमें हजारों सालों से धीरे-धीरे यहाँ के मनुष्यों की मानसिकता, स्वभाव और कल्पना जगत को निर्मित किया। मगर मैं आप सबसे हाथ जोड़ कर यह सवाल करना चाहता हूँ कि आप आज धर्म के मठाधीशों, बहुरूपियों और ठेकेदारों से सवाल क्यों नहीं करते? पूछते क्यों नहीं कि प्राचीन भारत का धर्म आज के भारत के पास है कहाँ? आज के धर्म को धर्म कहना अपने साथ धोखा है। अब धर्म धन्धा है, बिजनेस है, शतरंज है, माया-जाल है, बवाल है और देश की धर्मभीरू जनता को शान्ति, मोक्ष और भाईचारे का झुनझुना बजा कर धोखा देते रहने की जादूगरी है।





          

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