रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'जेठ के घाम में'
रुचि बहुगुणा उनियाल |
आमतौर पर परिवार में बेटी का जनम भारतीय परिवारों के लिए खुशी नहीं, बल्कि विषाद का कारक बन जाता है। हालांकि परिस्थितियां बदली हैं इसके बावजूद दुर्भाग्यवश आज भी कहीं कहीं इस परम्परा के अवशेष मिल जाते हैं। राजस्थान के राजपूतों के परिवार में तो बेटियों को जनम लेते ही मार डालने की भयावह कुप्रथा लम्बे समय तक प्रचलन में रही। स्त्रियों के साथ भेदभाव और हिंसा तो हमारे समाज में आज भी देखी जा सकती है। पहाड़ दूर से जितने बेहतर लगते हैं, नजदीक जाने पर वहां की अंतहीन समस्याएं उसकी विडम्बना को उजागर कर देते हैं। स्त्रियों के साथ जुड़ी कुप्रथाएं और समस्याएं वहां के जीवन में भी लम्बे समय तक अंतर्निहित रहीं। आजकल पहली बार पर महीने के तीसरे रविवार को हम रुचि बहुगुणा उनियाल के संस्मरण पढ़ रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है रुचि बहुगुणा उनियाल के संस्मरण की नई किश्त 'जेठ के घाम में'।
'जेठ के घाम में'
रुचि बहुगुणा उनियाल
जून की शुरुआत हो गई है, इस महीने सुबह-सुबह ही पारा अपना रंग दिखाने लगता है। दोपहर के समय बाहर निकलना मतलब भयंकर गर्मी से लू की चपेट में आना है। आज मैंने अपने सब काम जल्दी-जल्दी निपटा लिए थे ताकि दोपहर के वक़्त बच्चों के लिए कुछ रोचक क्रियाकलाप की रूपरेखा तैयार कर सकूँ।
माँ लगभग एक हफ्ते से हमारे पास ही हैं, हालांकि सर्दियों में तो यहाँ आना खुद को कष्ट देने के सिवा कुछ नहीं क्योंकि आँगन में धूप केवल गर्मियों में ही आती है। सर्दियाँ तो यहाँ नर्क से कम नहीं, इसीलिए मैं अक्सर ही गर्मियों के मौसम में माँ को यहाँ रोकने की कोशिश करती हूँ ताकि बच्चों को उनकी दादी जी के साथ वक़्त गुज़ारने का और उनकी दादी जी को भी अपने पोते-पोती के साथ लाड़ करने का भरपूर समय मिले। हालांकि इसमें मेरा अपना भी स्वार्थ है, माँ रहती हैं तो घर में रौनक-सी रहती है, अपने हाथ से उनकी पसंद के व्यंजन बना कर खिलाने से मुझे खुशी मिलती है। बच्चे भी तंग नहीं करते…… माँ उन दोनों को तरह-तरह के क़िस्से/कथा/कहानी सुनाती रहती हैं जिससे बच्चे उनके साथ ही बने रहते हैं।
मैंने बच्चों के लिए मैंगो शेक बनाया और उन्हें दे कर कपड़े धूप से उठाने के लिए बाहर निकली। बाहर एक चटाई के ऊपर साफ़ मोटी दरी बिछा कर माँ धूप में लेटी हुई थी। मैंने माँ को अंदर चल कर मैंगो शेक पीने के लिए कहा क्योंकि माँ को आम बेहद पसंद हैं, लेकिन ऐसा लगा कि उन्होंने सुना ही नहीं। धूप बहुत तेज है और मेरे नंगे पैर बाहर चले आने से सीमेंट के आँगन की ज़मीन पर पैर रखना मुश्किल हो रहा है। मैं माँ को अंदर चलने के लिए कहती, आवाज़ देते हुए आगे बढ़ी, लेकिन अरे!........ माँ तो सोई हुई हैं!
उन्हें सोया देख कर मैं वापस अंदर लौट आयी। बेटी अंदर से देख रही थी उसे कौतूहल हुआ कि आखिर उसकी दादी जी इतनी तेज़ धूप में बाहर कैसे लेटी हुई हैं? मेरे अंदर आते ही उसने अपनी जिज्ञासा की पोटली खोली और एक के बाद एक सवाल मेरी ओर उछाले….
"ममा, दादी इतनी तेज़ धूप में बाहर कैसे लेटी हैं?"
"उनकी पीठ नहीं जल रही होगी?"
"आप उन्हें अंदर क्यों नहीं लायीं?"
क्या जवाब देती मैं?
थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने फिर से सवाल दोहराए तो मैंने उसे कहा…
"बेटा तुम्हारी दादी जी को ठंडा लगता है न इसलिए धूप में लेटना उन्हें अच्छा लग रहा है और पीठ भी नहीं जल रही उनकी"।
"ऐसे कैसे, इतनी तेज़ धूप हो रही है कि आप बाहर खड़ी भी नहीं रह पायी, तो दादी कैसे आराम से लेटी हुई हैं?"
"बेटा, दादी कहती हैं कि उन्हें धूप से सेक लगता है इसलिए लेटी हुई हैं"।
हालांकि प्राप्ति इस उत्तर से संतुष्ट तो क़तई नहीं है लेकिन फिर भी उसने ज्यादा कुछ न कहते हुए गर्मी से बचने के लिए अंदर कमरे का रूख किया जहाँ कूलर चल रहा है। मैं माँ को देखती हूँ कि कितने आराम से धूप में लेटी हुई हैं और उन्हें कोई परेशानी भी नहीं हो रही इस लू जितनी गर्मी से, उनके बूढ़े शरीर में इतनी ठंड है कि जेठ महीने का घाम भी उन्हें नहीं लग रहा।
माँ की आपबीती के अनुसार, ब्याह के लगभग पांच बरस बाद उनकी पहली संतान की जचगी का वक़्त आया था मतलब नवनीत जी की सबसे बड़ी दीदी के जन्म का समय। दीदी का जन्म अगस्त 15 को आता है मतलब भारी बरसात का समय! पहली संतान का सुख मिला तो सब माँओं की तरह उन्हें भी असीम आनंद हुआ लेकिन तब के समय में ठेठ पहाड़ी लोगों में बेटा-बेटी का भेदभाव अपने चरम पर था। जिस लड़की को ब्याह के बाद ससुराल वालों ने कभी लाड़ नहीं किया था, वो एक बेटी की माँ बनी तो घर में सबकी अनकही दुत्कार से सामना हुआ।
पहले तो पहाड़ में उस समय सभी जगह की, और फिर कम से कम इस गाँव की तो सभी बहुएँ एक बौळ्ये के जैसी थीं, लेकिन सबके पति आस-पास ही थे जिससे उनकी चोरी-छुपे ही सही देख-भाल हो जाती थी। लेकिन इस ब्वारी का पति तो "देस" (नरेंद्र नगर) में पुश्तैनी दुकान और अपनी नौकरी के चलते बहुत दूर था तो उसकी देखभाल भला कौन करता? पहले गर्भ की खबर जब "मैत" बौजी और भैजी के पास पहुँची तो बौजी ने उसके लिए घी बनाना शुरू किया….। तब आज के जैसे मेवा - मिष्ठान का समय तो था नहीं, लेकिन फिर भी भैजी एक मास्टर था और ख़ूब सजग मनुष्य भी था सो उसने अपनी भुली, होने वाली भावी स्यूली (जच्चा) के लिए सूखा नारियल और थोड़े मेवे के साथ घी का प्रबन्ध करना शुरू किया।
इधर जचगी होने वाली थी, कि उससे कुछ रोज़ पहले ब्वारी का भैजी एक बड़ा लोटा भर के घी और किलो के आसपास नारियल के अलावा थोड़े मेवे अपनी भुली के लिए ले कर उसके ससुराल पहुँचा। उसकी भुली उस वक़्त घर में नहीं थी, वो सेरों में ढिंका (खेतों के मिट्टी के ढेले फोड़ने) फोड़ने गयी थी जहाँ से उसे पड़ोसियों के साथ "साठी की बिज्वाड़ी उपाड़ने" (धान की पौध उखाड़ने) भी जाना था। उसके हिस्से केवल घर के सारे काम ही नहीं, बल्कि उनके परिवार के हिस्से आयी हर साझी बांट भी आती थी,..... जैसे कि अगर गाँव में कोई ब्याह है तो बाजार से राशन ढोने के लिए भी उसे ही घर के पुरुषों के बदले जाना पड़ता था, क्योंकि पति तो दूर देस में था और यहाँ ससुर जी को अस्थमा की बिमारी थी। जिसके कारण वो कहीं भी नहीं जा सकते थे यहाँ तक कि देवर भी बहुत छोटा सा था! लिहाजा गाँव के किसी भी काम में उनके परिवार के हिस्से कोई काम आता तो वो उसे ही करना पड़ता था।
सरलमन भैजी ने सारा सामान भुली की सासु को दे दिया, हालांकि घर से बौजी ने भैजी को सिखा के भेजा था कि सब सामान भले ही सासु के सामने ही देना लेकिन देना अपनी भुली को ही। शायद वो जानती थी कि सासुएँ ब्वारियों को कितना और कैसा देती हैं। जब शाम को वो घर पहुँची तो भैजी वापस जाने के लिए तैयार हो गया था, लेकिन उसे देखकर थोड़ी देर के लिए रुक गया। भैजी को सेवा-सौंळी करने के बाद उसके भैजी ने बताया कि उसकी बौजी ने उसके लिए क्या-क्या सामान भेजा है। भैजी उसके लिए एक साड़ी ब्लाउज और पेटीकोट भी लाया था जो उसकी सास ने भैजी के सामने ही उसे दे दिया, ये कहते हुए कि घी तब दूँगी जब बच्चा हो जाएगा और तुझे कमजोरी रहेगी।
ज़माना ऐसा था ही नहीं कि ब्वारी तो क्या ब्वारी का भैजी भी कुछ पलट कर कहता या दोनों में से कोई कुछ पूछता सास को। थोड़ी देर में भैजी ने अपना 'ख़ाली झोला' उठाया, अपनी भुली और उसकी सास से विदा ले कर घर के लिए निकल गया। ब्वारी भी अपने काम-धंधे में रम गयी और इसी तरह कुछ दिन बीत गए।
अब आया जचगी का समय, गाँव में तब डाक्टर या नर्स की कल्पना करना भी असंभव था…… जचगी घर में ही हुई और पहली संतान एक बेटी के रूप में आयी।
घर में ही नीचे ओबरा में सिल्कुड़ा की व्यवस्था होती थी तब (मतलब जच्चा-बच्चा को रहना था) । बच्ची के होने के बाद भी पूरे चार दिन तक सास ने बच्ची को देखा तक नहीं। चार-पांच बार सास द्वारा एक-एक चम्मच घी गला कर कटोरी में दिया गया और पाँचवे दिन कहा गया कि घी खत्म हो गया। आधा लोटा ही लाया था तेरा भाई। ब्वारी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि पलट कर कह सके कि मेरे भैजी ने मुझे बताया था कितना घी लाया था वो। बाजरे का आटा और नमक, हल्दी और जरा-सा तेल उसे दिया जाता था। आटा भी उसे नाप कर देती थी उसकी सास….. जो कभी भी उसके दो या तीन दिन के लिए पूरा नहीं होता था, सास उसे ताने देते हुए कहती थी कि पूरे दिनमान पड़ी रहती है और इतना खाती है, जिन्हें वो चुपचाप सुनती रहती थीं। छठवें दिन के बाद उसकी सास ने आखिरकार उसे आदेश दिया कि,......
"एत्वारू कौं का सेरोंम जा अपड़ा बुबास्वैंण"
"उंकी रोपणी छन ल्हगणी, अगर ज्यु हम नीं जांणका त क्वी हमारी मदतक किलै आलु?"
"पाणी फर नी ल्हगी त क्या अब तन्नी बैठीं रली स्ये बेटुला का मुख फर?"
(एत्वारू लोगों के खेतों में जा 'अपने पिता की प्यारी' (गाली), उनकी रोपणी (धान की पौध) लग रही हैं अगर हम नहीं जाएंगे तो कोई हमारी मदद के लिए क्यों आएगा? पानी पर नहीं लगी (शुचिता हवन नहीं हुआ) तो क्या अब ऐसे ही बैठी रहेगी इस बेटी के मुँह पे?)
सास के तीखे वचन बाणों से ब्वारी का कलेजा छलनी हो गया लेकिन फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वो अपने पक्ष में एक भी शब्द बोल सके। छः दिन की दुधमुँही बच्ची को ओबरे में अकेला छोड़ कर ब्वारी सिर झुकाए चुपचाप एत्वारू लोगों के खेत में चली जाती है और दिन भर की रोपणी के बाद ही लौटती है। इधर छः दिन की बच्ची बीच में न जाने कितनी बार भूख से तड़प कर भूखी ही सो जाती है, जिसका अंदाजा ब्वारी को सेरों में हो जाता है क्योंकि नयी-नयी बनी इस माँ की छातियों में दूध भर कर पता नहीं कितनी बार उसके ब्लाउज को भिगो चुका था।
साथ में काम कर रही ब्वारियों को उस पर दया आ जाती है और वो खेतों में आए कल्यौ के अपने-अपने हिस्से से उस भूखी ब्वारी को खिला देती हैं। इसके बाद उसकी दगड़्याणियां उसके बदले की रोपणी खुद करने की जिम्मेदारी ले कर उसे घर भेज देती हैं ताकि वो बच्ची को दूध पिला सके। बच्ची की ममता में डूबी वो घर पहुँची तो उसकी सास की त्यौरियां चढ़ गई। सास कुछ बोल पाती उससे पहले ही ससुर जी ने उसका पक्ष लेते हुए अपनी पत्नी को डांटते हुए कहा,......
"वीं ब्वारी की ज्यान न खई दुद्धी द्येण दे उं थैं नौनीक"
"छै दिन की नौनीक भूक नी ल्हगी ह्वली?, अपड़ी ब्येटीक त त्वैन दु-दुई बखत घुळईयाले"
(उस ब्वारी की जान मत खाना। दूध पिलाने दे उन्हें बच्ची को। छः दिन की बच्ची को भूख नहीं लगी होगी? अपनी बेटी को तो तूने दो-दो बार का खाना खिला दिया!)
आखिरकार ससुर जी के हस्तक्षेप के बाद वो बच्ची के पास पहुँची और दिन भर की भूखी बेटी को दूध पिलाया। सिल्कुड़े का वक़्त भी गुज़रना ही था, गुज़रा! बेटी जब आठ महीने की हो गई तब उसका पति घर लौटा और पहली बार अपनी बेटी को मिला। जब बच्ची ने अपने पिता को देखा तो पहचानने का तो कोई सवाल ही नहीं था लिहाजा वो जोर-जोर से रोने लगी। अपनी पहली संतान को गोद में लेने का सुख भला कैसे भूले कोई? पिता का अपनी बेटी को गोद में ले कर निहाल होना लाजिमी था लेकिन सास के तानों ने ये ख़ुशी ज्यादा देर टिकने नहीं दी।
"ब्येटुली ह्वै ब्येटुली! इतगा उडणकी बी क्वी जरूरत नी ब्येटा सुकर तेरी ब्वारील कुछु जलमी ही नीं निथर स्यीं थैं त तू पुजण बैठदु!"
(बेटी हुई है बेटी! इतना उड़ने की भी कोई जरूरत नहीं है बेटा शुकर है कि तेरी बहू ने कुछ जन्मा नहीं (बेटा) वरना तू तो उसे पूजने ही लगता)
अपनी माँ के सामने उस ज़माने में बेटे की भी हिम्मत नहीं थी कि जुबान खोले इसलिए उसने चुपचाप बेटी को अपनी पत्नी के हवाले किया और तब गोद में लिया जब सोने के लिए कमरे में आए दोनों पति-पत्नी। जब तक उसके ससुर जी रहे उसका पक्ष लेकर उसे सहारा देते रहे। ससुर जी के जीवित रहते हुए उसे दूसरी बेटी भी हुई जो कि नवम्बर 4 की ठंड में हुई थी। दूसरी बेटी के होने के तीन वर्ष बाद ससुर जी की मृत्यु हो गई ।इसके बाद हुआ एक बेटे का जन्म, वो भी 25 दिसम्बर कड़ाके की ठंड में। बेटियों के समय तो ससुर जी का सहारा था सो उसकी थोड़ी बहुत चिंता वो कर लेते थे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उसकी चिंता करने वाला ससुराल में कोई नहीं था।
जब चौथे बच्चे, मतलब स्वयं मेरे पति नवनीत जी के जन्म का समय था तब भारी बरसात का समय था। जुलाई 14 को नवनीत जी का जन्मदिन आता है। तीन बच्चों की माँ और घर की बहू की जिम्मेदारियों में घिरी ब्वारी को काम-काज की ऐसी चिंता थी कि वो न समय पर खा पाती थी और न ही उसे आराम मिलता था। बच्चे के जन्म से दो दिन पहले ही वो भूखे पेट घट्वाड़ी हो कर आयी थी। लेकिन घर में चाय की पत्ती भी नहीं है और नमक-मसाले के साथ ही दालें और चीनी-गुड़ भी खत्म हो गया है।
मायके से आने वाले घी और मेवे तो उसे मिलने ही नहीं थे लेकिन अगर ये सब मूलभूत चीजें भी नहीं होती तो उसे "सिल्कुड़े" (जचगी के बाद का समय) में घोर अभाव झेलना पड़ सकता था। इसलिए उसने अपनी सास को तैयार किया कि वो ननद के ससुराल जा कर उसे मिल आएं। अपनी बेटी को मिलने के लालच में सास तुरंत तैयार हो जाती है।
अगली सुबह उठ कर जैसे ही वो काम पर लगती है कि थोड़ी देर बाद उसके पेट में दर्द होना शुरू हो जाता है। अभी उसे भैंस बाहर निकालने को है, उसे घास डालना बाक़ी है, मोळ (गोबर) उठाना बाक़ी है, कल्यौ भी बनाना है……. अभी तक केवल चाय ही बनी है और उसके पेट-पीड़ा शुरू हो गई। उसने हिम्मत न हारते हुए चाय के गिलासों में चाय डाली और बच्चों को जगाया। दोनों बेटियां तो बड़ी हैं इसलिए वो जल्दी ही जाग गई लेकिन बेटा अभी डेढ़ साल का है और अपनी दादी का बहुत लाडला भी है इसलिए उसे जगाना मुश्किल था।
ब्वारी ने चाय का गिलास उठा कर सास को दिया और खुद भैंस निकालने चली गई। फटाफट मोळ उठाया और भैंस को बाहर निकाला, उसे घास दिया । वियेणा कैसे दिखता आज बरखा होने के आसार लग रहे हैं इसलिए ब्वारी अंदाज़े से ही काम निपटा रही थी। जब वो वापस लौटी तो पीड़ा बढ़ गई थी लेकिन फिर भी वो दम साधे चुप रही, क्योंकि अगर कहती कि मुझे प्रसव पीड़ा हो रही है तो सास बाजार अपनी बेटी के ससुराल मिलने जाना टाल देती और फिर सिल्कुड़े में उसे चाय तक नसीब नहीं होती।
सास और बच्चों के लिए कल्यौ बनाने के साथ ही उसने सास को नहलाने के लिए पानी गर्म कर दिया फिर अपनी सास को नहलाया, ठीक इसी समय उसे कुछ गीलापन महसूस हुआ तो वो समझ गई कि अब बच्चे के आने का समय आ गया है लेकिन फिर भी उसने अपनी सास को कुछ नहीं बताया और नहला कर कल्यौ खिला कर सासु माँ को बाजार भेज दिया। बड़ी बेटी थोड़ी समझदार हो गई है इसलिए उसे छोटे भाई-बहन का खयाल रखने के लिए कह कर वो डोखरे चली गई ताकि भैंस के लिए घास का प्रबन्ध कर सके।
डोखरे में लगभग बावन पुळे घास कट चुका है और अब उसे असहनीय पीड़ा होने लगी है। साथ ही बच्चे की पानी की थैली फट जाने से गीलापन बढ़ गया है। उसने जैसे-तैसे करके घास का बोझ तैयार किया और बड़ी मुश्किल से सिर पर रखा। अभी घर तक जाने में पैदल लगभग पौन घंटे की उतराई है। दर्द से तड़पती ब्वारी धीरे-धीरे डोखरे से चलती है। नीचे रपटीली उतराई का रास्ता है और वो असहनीय पीड़ा से तड़प रही है लेकिन बच्चों के पास पहुँचने का मोह उसे हिम्मत नहीं हारने देता। धीरे-धीरे उतराई उतरती हुई मन ही मन सोच रही है…….. ।
"खुंकल्या नौनोंक त देखियाललु अबार, कुखी पराक की तब भगबान देखौ"
(गोद वाले बच्चों को तो देख लूँगी अभी, कोख वाले की तब भगवान जाने)
इन्हीं खयालों में उलझी, बच्चों की चिंता करती और दर्द से दोहरी होती वो आखिरकार घर पहुँचती है। चौक में बड़ी बेटी खेल रही थी, घास फेंक कर उसे कहती है……
"बच्चा डेगचा फरौ सारू खाणुं तुम सब्बी खयाला अर ओबरा का सारा पाणी का भांडा भैर गाड़्याला, लाखुड़ा अर सुख्यां भांडा वक्खी रह्ण द्यान"।
(बेटी पतीले का सारा खाना खा लो और ओबरे से पानी के सब बर्तन बाहर निकाल दो, लकड़ियां और सूखे बर्तन वहीं रहने देना)
बेटा बौंड की चौखट में बैठे-बैठे "कुल" रहा था (झूल रहा था) बग़ल की एक सास उसे टोकती है….
"ए ब्वारी……. ए गोदाम्बरी की बौ वख देख तेरू ज्योति लमड़दु बौंड बटै"।
"हे जी लमडणं द्या अब ज्यु बी हो, मैं आफ्फुयी मरदौं मिज्याण"
"हे रांड की छोरी!, होंदु क्या? क्या करला हम आज त तेरी सासु बी नी घारम"।
(ए ब्वारी…… ए गोदाम्बरी की भाभी वहाँ देख तेरा ज्योति गिरने वाला है बौंड की चौखट से।
हे जी गिरने दो अब जो भी हो, मैं अपने आप ही मरती हूँ शायद।
हे रांड की छोरी! (आश्चर्य मिश्रित स्नेह का शब्द) होने वाला है क्या? (बच्चा होने वाला है क्या) क्या करेंगे हम आज तो तेरी सास भी घर में नहीं है!)
ये सारी बातचीत उनका घर खोळा के बीचों-बीच होने के कारण और रास्ते में पड़ने से हर आने जाने वाले ने सुना और थोड़ी देर में ही वहाँ खोळा की महिलाओं की भीड़ जुट गई। ओबरा में जाते ही थोड़ी देर में उसने अपनी चौथी संतान एक हृष्ट-पुष्ट बेटे को जन्म दिया। और पूरे गाँव में हल्ला मच गया कि गोदाम्बरी की बौ को दूसरा बेटा भी हो गया है। थोड़ी देर में उसकी सास आती है और ये खुशखबरी सुनती है तो मन में खुश होते हुए उसे डांटती है कि उसने उसे क्यों नहीं बताया कि सिल्कुड़े की पीड़ा हो रही थी उसे।
बेटे के जन्म के तीन दिन बाद ही पड़ोसियों के सेरों में रोपणी लगनी थी, सास ने ओबरा के बाहर से ही अपना हुक्म ब्वारी को सुनाया…….
"पाणी फर नी ल्हगी त हौर कुछ काम नीं कर्नकि?सुन्दरु कौंका सेरोंम जा उंकी रोपणी ल्हगौंण"!
(शुचिता की पूजा नहीं हुई तो क्या और कुछ काम नहीं करेगी? सुन्दरु लोगों के सेरों में जा उनकी रोपणी लगाने)
ऐसे कटु वचन सुन कर ब्वारी सहम गई और तुरंत डर के मारे सेरों में रोपणी लगाने के लिए तैयार हो गई। बाहर जोरों की बारिश हो रही है और ब्वारी अभी केवल तीन दिन की जच्चा है! उसने जाने से पहले अपने दिल के टुकड़े….. दुधमुंहे बेटे को दूध पिलाया और फिर अपनी "मुँडखी" (बरसात के दिनों में पहाड़ी महिलाएँ खेतों में झुक कर काम करती हैं इसटाइटलिए छाता ओढ़ कर काम नहीं कर पातीं लिहाजा सिर और पीठ बचाने के लिए एक प्रकार का सुरक्षा कवच है जो कि आजकल तो प्लास्टिक का बना मिल जाता है लेकिन माँ की युवावस्था के समय वो एक प्रकार के चौड़े घास के पत्तों से बना होता था) ओढ़ कर बाहर निकल गई। आज के समय की बात होती तो सास बहू को ऐसे कच्चे शरीर बाहर निकलने का कहने की तो बहुत दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती।
घनघोर बारिश में तीन दिन के बच्चे की माँ घुटनों से जरा नीचे तक के पानी में साठी की रोपणी लगाने खेत में पहुँच चुकी है। पूरे दिन बारिश में भीगते हुए उसने झुक कर सबके साथ रोपणी लगाई। उसकी ममता का समन्दर हिलोरें मार कर बार-बार उसके कपड़े भिगो रहा है और साथ काम करते लोग उसकी हालत पर तरस भी खा रहे हैं लेकिन चुप हैं। जब रोपणी लगाते हुए अंतिम पड़ाव पर पहुँच गई तो उसके खोळे के एक ससुरजी डोखरे में आए,......... उन्होंने जैसे ही इस नयी-नयी जच्चा को भीगते हुए देखा तो उनका दिल पसीज गया। सबको डांटते हुए उन्होंने ब्वारी को घर जाने के लिए कहा…………. ।
"तीन दिन की स्यूली लगायीं तुमारी काम फर बरखा मा कनु बजर पड़ी तुमारी मुखड़्यों थैं हैं! वीं भाभीक बी नीं दिखेंणु कि या ब्वारी अभी तीन दिनाकी जच्चा छ? घर जावा ब्वारी तुम अर बच्चाक द्येखा"
(तीन दिन की जच्चा लगा रखी है तुमने काम पे कैसा वज्र गिरा तुम्हारी अक्ल पे हैं! उस भाभी को भी ये नहीं दिख रहा कि ये ब्वारी अभी केवल तीन दिन की जच्चा है? घर जाओ ब्वारी तुम और बच्चे को देखो!"
बारिश में भीगी हुई ब्वारी घर पहुँची तो पीछे-पीछे वो ससुर जी भी घर आ गए। उन्होंने सास को लगभग डांटते हुए कहा,
"अरे ब्वारी नीं प्यारी पर नाती त होलु न भाभी? तीन दिन की जच्चा भेज्याली तुमन ईं बरखाम डोखरा तुमुक बिलकुल फिकर नीं वै नाती की? जावा ब्वारी भीतर, अर तुम सुण्याला भाभी वीं थैं डांट्यान ना मैंन ब्वोली ब्वारीक घर औंणक"!
(अरे ब्वारी प्यारी नहीं है पर नाती तो होगा न भाभी? तीन दिन की जच्चा भेज दी आपने इस बारिश में खेत में, आपको बिलकुल फिक्र नहीं है उस नाती की? जाओ ब्वारी अंदर, और तुम सुन लो भाभी उसे डांटना मत। मैंने कहा ब्वारी को घर आने के लिए।)
सास से सहमती हुई ब्वारी अंदर ओबरा में जाती है, लेकिन बच्चे को गीले बदन दूध कैसे पिलाए? उसने जल्दी से कपड़े बदले और फिर आग सुलगाई ताकि खुद को गर्माहट दे सके। चाय बना कर उसने चाय पी ताकि थोड़ी ठंड कम हो और बच्चे को दूध पीने से माँ की ठंड न लगे। फिर जल्दी-जल्दी उसने बच्चे को दूध पिलाया।
दोपहर का दो बज रहा है और नवनीत जी घर आ गए हैं उन्होंने माँ को अंदर चलने के लिए उठाते हुए कहा,
"माँ चल अंदर चल कितनी तेज़ धूप है और तू इतनी तेज़ धूप में बाहर लेटी है! चल आजा अंदर"
माँ उनके साथ अंदर आ गई तो मैं जैसे एक नींद से जागी, अंदर आ कर उन्हें मैंगो शेक दिया। माँ ने खाना खाने से मना कर दिया, वो अक्सर ही दिन में खाना पसंद नहीं करती क्योंकि उन्हें पचता ही नहीं। थोड़ी देर अंदर रह कर वे फिर से बाहर धूप में जा कर लेट गई हैं। माँ इस जेठ के घाम में अपने शरीर की ठंड ही नहीं बल्कि, शायद मन में जमी उन सर्द यादों के ग्लेशियर को भी पिघला देना चाहती हैं जो उनके तन-मन को अक्सर ही पीड़ाओं की शीतलहर में डुबो देती हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्तपेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की है।)
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