सुभाष राय का आलेख 'कला ने स्वयं चुना महादेवी को'

 

अक्क महादेवी


उत्तर भारत की महिला भक्ति सन्त मीराबाई के कृष्ण-प्रेम और भक्ति से हम सब परिचित हैं। दक्षिण भारत में कुछ इसी तरह की ख्याति 12 वीं सदी की वीरशैव पंथ की महिला भक्ति सन्त अक्क महादेवी की है। महादेवी की आध्यात्मिकता उस उच्च स्तर की है जिसमें भक्त और परमेश्वर के बीच कोई भेद नहीं रह जाता बल्कि वे एकाकार हो जाते हैं। वीरशैव पंथ के अन्य संतों जैसे बसव, चेन्न बसव, किन्नरी बोम्मैया, सिद्धर्मा, अलामप्रभु एवं दास्सिमैय्या ने स्वयं अक्क महादेवी को ऊंचा दर्जा प्रदान किया है। कवि सुभाष राय ने अक्क महादेवी पर महत्त्वपूर्ण शोधपरक कार्य किया है। हाल ही में सेतु प्रकाशन नई दिल्ली से उनकी किताब 'दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी' प्रकाशित हुई है। सुभाष राय लिखते हैं अक्क महादेवी के बारे में लिखते हैं -'सहजता उनका सबसे गहरा सौंदर्य है। जीवन का गहन दर्शन भी उनके कहन में ढल कर पारदर्शी हो जाता है। उनके वचनों में भाव और कल्पना का वैराट्य तो है ही, कलात्मक सौंदर्य भी है। आश्चर्यजनक बात यह है, यह कला सीखी हुई नहीं है, यह भीतर के प्रकाश से उपजी हुई है, इनमें ज्योति के सात रंगों के अनगिन मिश्रण हैं, अनगिन छायाएं हैं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुभाष राय की किताब से ही एक महत्त्वपूर्ण अंश 'कला ने स्वयं चुना महादेवी को'।



'कला ने स्वयं चुना महादेवी को'      


सुभाष राय 

    

अक्क महादेवी स्वयं जितनी सुंदर हैं, उनके वचन, उनकी कविता उससे भी सुंदर है। सहजता उनका सबसे गहरा सौंदर्य है। जीवन का गहन दर्शन भी उनके कहन में ढल कर पारदर्शी हो जाता है। उनके वचनों में भाव और कल्पना का वैराट्य तो है ही, कलात्मक सौंदर्य भी है। आश्चर्यजनक बात यह है, यह कला सीखी हुई नहीं है, यह भीतर के प्रकाश से उपजी हुई है, इनमें ज्योति के सात रंगों के अनगिन मिश्रण हैं, अनगिन छायाएं हैं। नहीं लगता कि काव्य भाषा के सौंदर्य से उनका परिचय रहा होगा, रचना-विधान के बारे में वे जानती रहीं होंगी या काव्य-शास्त्र कभी पढ़ रखा होगा लेकिन उनके वचनों में अलंकार, उपमाएं, सादृश्य-विधान, बिम्ब अनायास चले आते हैं। दरअसल यह उनके दुर्धर्ष अनुभव के कारण संभव हो पाता है। जीवन को, उसकी जटिलताओं को, उसके द्वंद्व को उन्होंने बहुत कम उम्र में बहुत पास से देखा था। प्रकृति के उग्र और कोमल रूप को भी उन्होंने अपनी कठिन यात्रा में गहराई से अनुभव किया होगा। इसी प्रक्रिया में उन्हें जीवन को प्रकृति के भीतर और प्रकृति को जीवन के भीतर देख सकने की दृष्टि हासिल हुई होगी। वे पढ़े-लिखे परिवार से थीं इसलिए बचपन से कुछ संस्कार जरूर मिले होंगे जो साधु-संतों से निरंतर मिलने, उनसे बातें करने, कहानियां सुनने से परिपक्व हुए होंगे। जाहिर है तमाम मिथ-कथाएं भी उन्होंने सुन रखी होंगी। यह सब उनके वचनों में आता है लेकिन एक नयी चमक के साथ, नयी अर्थ-दीप्ति के साथ। उनके यहाँ आ कर शिव भी कैलासवासी, निहंग, निराकार नहीं रह जाते। न ही मंदिर में स्थापित मूर्ति मात्र। वे बस एक अद्वितीय प्रेमी रह जाते हैं। 

   


महादेवी आध्यात्मिक जीवन का एक विराट रूपक रचती हैं। शिव से प्रेम करती हैं, उनसे शादी रचाती हैं। सबकी मौजूदगी में, धूम-धाम से। दुल्हन बनती हैं, सजी-धजी। शिव उनका हाथ अपने हाथ में ले लेते हैं और वे उनके घर श्रीशैल स्थित 'कदलीवन' चली जाती हैं। इस रूपक में 'कल्याण' केवल एक शहर नहीं रह जाता, 'कदलीवन' घने जंगल का अगम्य कोना भर नहीं रह जाता। यहां 'कल्याण', 'कदलीवन' और 'शिव' सभी अपने पारम्परिक अर्थ बदल देते हैं। महादेवी भाषा और शब्दों से खेलने वाली किसी महान कवि की तरह नजर आती हैं। जब वे 'कल्याण' पहुँचती हैं तो अपनी उजास भरी प्रांजल अभिव्यक्ति में एक स्थानवाचक संज्ञा को भाववाचक संज्ञा में बदल कर उसमें नया अर्थ भर देती हैं। 'कल्याण' सिर्फ कल्याण नहीं रह जाता। कल्याण कसबे तक पहुँचना कठिन नहीं है, वहां तो कोई भी आसानी से पहुँच सकता है लेकिन जीवन के 'कल्याण' का रास्ता बहुत कम लोगों को मिलता है। यह अलग और महत्वपूर्ण बात है। वे उन लोगों के बीच पहुँच जाती हैं, जिनके साथ होने से वे अपना 'कल्याण' संभव मानती हैं, जिनके संग होने से वे 'कल्याण' का मार्ग हासिल कर सकती हैं। इसी तरह जब वे 'कदलीवन' पहुँचती हैं तो वह केवल किसी जंगल का भूगोल भर नहीं रह जाता। कदलीवन में उनका प्रिय शिव रहता है। शिव तो सब जगह रहता है, कण-कण में सर्वत्र, सबके भीतर। 'कदलीवन' पहुंचते ही वे प्रबल भावावेग से भर जाती हैं। उन्हें लगता है वहां सारा जंगल, सारे पेड़, हर पत्थर प्रेम से भरा हुआ है। सबमें उनका प्रियतम समाया हुआ है। वे अपना अभीष्ट पा लेती हैं। वहां पहुंच कर उनकी यात्रा पूरी हुई। वे कहती हैं, 'कदलीवन में मैंने समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने वाला ज्योति रूप देखा और मेरी आँखों की प्यास बुझ गयी।' जैसे ही वे इस विवरण में आगे जोड़ती हैं, यह 'कदलीवन देह और मन का भयानक जंगल है,' एक विदग्ध सौंदर्य रच देतीं हैं, कदलीवन अपना सामान्य अर्थ खो देता है। देह और मन 'कदलीवन' में रूपांतरित हो जाता है। देहजन्य मोहाकांक्षाओं के भयानक जंगल में ही ज्ञान की 'ज्योति' जल रही है। देह में ही वे विदेह को, शिव को या कहें अपने-आप को खोज लेती हैं। देह के भीतर ही 'कदलीवन' है। इस तरह दोनों भौगोलिक जगहें अद्भुत प्रतीकों में बदल जाती हैं। 

   


महादेवी का शिव भी गले में सांप डाले और व्याघ्रचर्म पहने मिथकीय शिव नहीं रह जाता, प्रियतमा की एकाग्र कल्पना में वह पुरुष प्रियतम का रूप धर सामने आ खड़ा होता है। वे बार-बार परंपराभंजक की तरह सामने आतीं हैं, आम प्रचलित विश्वासों और धारणाओं को खंडित करती हैं। प्रेम के अतिरेक में वे शिव से बतियाने लगती हैं, उससे शिकायत करती हैं, उलाहना देती हैं। कन्नड़ कवि एवं विद्वान ए. के. रामानुजन एक कथा के जरिये महादेवी की मनस्थिति का विश्लेषण करते हैं, 'पुराणों में शिव वेश बदल कर पार्वती के पिता हिमालय से कहते हैं, 'शिव के पास कोई सम्पदा नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है, सौंदर्य नहीं है। वह बूढ़ा है, उसमें कोई इच्छा नहीं। वह यायावर है, भिखारी है। वह पार्वती के लायक नहीं है।' और फिर वह पार्वती से कहता है, 'शिव सारे सुखों से मुक्त है, उसका कोई संबंधी नहीं, कोई घर नहीं। उसे यौन आनंद भी नहीं चाहिए। उसकी कोई पत्नी नहीं, कोई संतान नहीं। फिर भी तुम उन्हें पति के रूप में चाहती हो तो कोई वजह जरूर होगी। ..कोई स्त्री उस शिव से विवाह क्यों करना चाहती है, जो सब कुछ नष्ट कर देता है?' महादेवी पार्वती का नाम लिए बिना इसका उत्तर देती हैं, 'मैं अमर्त्य, अक्षर, अरूप, अजन्मा, जाति-कुल से मुक्त और निर्भय पुरुष से प्रेम करती हूँ।' यहाँ शिव का निर्गुण होना ही उसका सर्वोत्कृष्ट गुण, उसका अप्रतिम सौंदर्य बन जाता है। जैसे पार्वती के साथ विवाह में शिव की वह विरक्त छवि रूपांतरित हो जाती है। खोपड़ी हार में, तीसरा नेत्र तिलक में और सांप आभूषण में बदल जाता है, वैसे ही अक्क महादेवी की कविता में भी वह एक अपूर्व जागतिक प्रेमी में रूपांतरित हो जाता है।

     


अक्क महादेवी का प्रेम एक फैंटेसी की तरह शुरू होता है, खुद को अपने भीतर ही खोजता है। शिव को पा लेने या शिव से विवाह करने का अर्थ शिवमय हो जाना है, शिवत्व धारण कर लेना है। वह इस संसार से अलग नहीं है। यह संसार ही उसका प्रत्यक्ष रूप है। महादेवी शिव से विवाह की कल्पना करती हैं और एक अभिनव कलात्मक मनोराज्य रचती हैं। संभव है, उन्होंने पौराणिक कथाएं सुन-सुन कर बहुत सारे बिम्ब, सादृश्य विधान और उपमाएं संस्कृत से हासिल किया हो लेकिन वे अपने वचनों में उन्हें उन्हीं पारम्परिक अर्थों में नहीं बरततीं हैं। उदाहरण के लिए 'अपने शरीर के बाहर जाल बुनने वाले कीड़े' का बिम्ब पुराना है। उपनिषदों में भी इसका इस्तेमाल हुआ है। रामानुजन स्पष्ट करते हैं कि बृहदारण्यक उपनिषद में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की चर्चा करते हुए कहा गया है कि 'जैसे एक मकड़ी अपने शरीर से निकले धागे को अपने शरीर के बाहर बुनती है, उसी प्रकार इस आत्मा से सारी प्राणवायु, सारे शब्द, सारे ईश्वर और सारे जीव सारी दिशाओं में जन्म लेते हैं। महादेवी अपने वचन में इसका बिलकुल नए ढंग से इस्तेमाल करती हैं, 


'जैसे रेशम का कीड़ा अपने धागों को अपने ही शरीर पर 

कसता हुआ प्राण गँवा देता है

वैसे ही मैं अपनी ही वासनाओं में जल कर मर रही हूँ

हे स्वामी मेरी वासनाओं को मिटा दो 

और मुझे अपने पास आने का रास्ता दिखाओ।'  


यहाँ दोनों का अंतर देखा जा सकता है। उपनिषद में प्रयुक्त इस बिम्ब में जो शीतलता है, जो ठंडापन है, वह महादेवी के यहाँ गायब है। महादेवी के यहाँ मुक्ति की उत्तप्त छटपटाहट है। उपनिषद का संकेत वस्तुगत है, वह ब्रह्माण्ड के सर्जक की बात करता है लेकिन महादेवी व्यक्तिगत अनुभव को शब्द देती हैं, अपने संशय और भ्रम से निकलने की बात करती हैं। एक में मनुष्येतर दर्शन की ध्वनि है तो दूसरे में एक प्रेमी की आर्त पुकार है, मानवीय ध्वनि है। 

     


अक्क महादेवी वीरशैव आंदोलन से जुड़ी हुई थीं लेकिन उन्हें धार्मिक कहना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा। अपनी खोज यात्रा में 'वस्त्र उतारना' उत्तरोत्तर उनके लिए ज्यादा अर्थपूर्ण होता जाता है। वह देह तक सीमित नहीं रह जाता। वे समझने लगती हैं कि उन्हें अपनी मौलिक सहजता में प्रवेश करना है। इसके लिए जीवन में बाहर से ग्रहण की गयी सारी असहजताओं से मुक्त होना होगा। देह से वस्त्र उतारना सरल है लेकिन मन पर जो अदृश्य वस्त्र है, जो बाहर की, जगत की छायाएं हैं, उनसे मुक्त होना बहुत कठिन है। मन पर पड़े वासनाओं, इच्छाओं और आकाँक्षाओं के वस्त्र भी उतारने पड़ेंगे। सारी विशिष्टताएं त्यागनी पड़ेंगी। धर्म के भौतिक स्वरूप से भी मुक्ति पानी होगी। इस अंतर्द्वंद्व से, इस तनाव से उनकी कविता जन्म लेती हैं। वे जाति, धर्म, लिंग, जेंडर की अस्मिताओं को भी वस्त्र की तरह उतार फेंकती हैं। यह विकास उनके वचनों में आदिम कलात्मकता भर देता है। उनके वचन कविता हुए बगैर उत्कट काव्यमयता से उद्दीप्त हो उठते हैं, धार्मिक या शास्त्रीय हुए बगैर प्रखर आत्मिकता से प्रज्वलित हो उठते हैं। वे धीरे-धीरे बाहर-भीतर से सारी द्वंद्वात्मकता को तिलांजलि देती हुईं आगे बढ़ती हैं। उनके शब्द असीम और सार्वभौम प्रेम से भर जाते हैं। यह आज की दुनिया के स्वार्थ भरे व्यक्तिगत या स्वार्थमयता से भरे प्रेम की तरह सीमित नहीं है। यह उस सर्वातिशायी प्रेम की दृष्टि और अनुभव से आकंठ भरा हुआ है, जो सबकी प्यास बुझा सकता है। 

   


विद्वान कवि एच. एस. शिवप्रकाश के अनुसार 'यह बुद्ध के दुख, वेदांत की माया और ईसा के पाप के अनुभव की तरह नहीं है।  यह उस नग्न आदिम आकांक्षा की तरह है, जो सारी आकाँक्षाओं की जननी है। यह प्रेम मिलन की अदम्य आकांक्षा से ऐसा दर्द पैदा करता है, जिसे दबाया नहीं जा सकता। उनका प्रिय शिव उनके यहाँ चेन्न मल्लिकार्जुन बनकर आता है और जब वह आता है, सारा द्वंद्व समाप्त हो जाता है, स्वर्ग-नरक एक हो जाते हैं, शहद और जहर एक हो जाते हैं। यह सतत चैतन्यता की परम भूमि है।' कहते हैं श्रेष्ठ कविता जब आती है, उस समय कवि इसी जमीन पर होता है। वह काव्य संसार का प्रजापति होता है। 


अपारे काव्य सं सारे कविरेव प्रजापति। 


अक्क महादेवी की कविता में पारदर्शी विलक्षणता इसलिए दिखाई पड़ती है क्योंकि वे शब्द की सीमित दुनिया से ज्यादा अशब्द की असीम दुनिया में हैं, जहाँ से वचन अपने-आप फूटते हैं। भाषा की स्थानिकता, अलंकारिकता और आत्मिक अनुभव की श्रेष्ठता मिल कर कविता का जो वितान रचते हैं, वह अद्वितीय बन जाता है।     

    


कन्नड़ विद्वान डी. ए. शंकर महान अंग्रेजी आलोचक लोंजाइनस के हवाले से एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं। लोंजाइनस ने कविता में उदात्त तत्वों की विवेचना करते हुए विलक्षण कवि सेफो की एक कविता का उल्लेख किया है, 


'तुम्ही ने मेरा हृदय बनाया है 

जो मेरे सीने में जोर-जोर से धड़कता रहता है 

जब मैं तुम्हारी ओर देखती हूँ 

मेरी आवाज लड़खड़ा जाती है, रुँध जाती है, ठहर जाती है 

मेरी जिह्वा खामोश हो जाती है 

एक सूक्ष्म आग मेरे समूचे शरीर में दहक उठती है 

अँधेरे में मेरी ऑंखें तैरने लगती हैं 

मेरे कान अद्भुत सायं-सायं में डूब जाते हैं 

ओस में भीग कर मेरे पांव ठंडे पड़ जाते हैं

बर्फीली सिहरन मुझे झकझोरने लगती है 

मेरे गाल राख से भी ज्यादा उदास पड़ जाते हैं 

मृत्यु बिलकुल पास खड़ी लगती हैं।' 


लोंजाइनस के अनुसार इस कविता में सेफो की संवेदनाएँ अनेक विरोधाभासों के साथ उपस्थित होती हैं। वे ठंड से जम जातीं हैं, आग में जलती हैं लेकिन महसूस भी करती हैं, सचेष्ट भी रहती हैं। सब उसी एक क्षण में। दर असल वे किसी एक संवेग से नहीं बल्कि अनेकानेक संवेगों से एक साथ साक्षात्कार करती हैं। ऐसी मनस्थिति अक्क महादेवी में भी दिखाई पड़ती है। वे भी परस्पर विरोधाभासी संवेगों से एक साथ जूझती हैं, टकराती हैं। बिना आग के तपना, बिना घाव के दर्द महसूस करना, शीतल समीर के झोंके और  चन्द्रमा की किरणों में जलन का अनुभव करना, ऐसे अनेक संवेग एक साथ आते हैं। इस तड़प में उन्हें अपने प्रिय की नाराजगी दिखाई पड़ती है। उनसे मिलें तो कैसे मिलें। असल में यह विरोधाभास नहीं है बल्कि यह गहन प्रेम से उपजी सघन अभिव्यंजना है। प्रियतम के न मिलने से अनुकूलताएँ भी प्रतिकूलताओं में बदल गयीं हैं। यह कोई भौतिक रोमांटिक प्रेम नहीं है, परिपक्व और उदात्त प्रेम है। उन्हें अब विरह का एक पल भी बर्दाश्त नहीं। जान जानी है तो भी क़ुबूल है। इंतजार सहा नहीं जाता। आज नहीं, कल नहीं, जो भी होना है, अभी इसी वक्त हो जाए।   

   



अक्क महादेवी के वचनों की आम-फहम भाषा कन्नड़ होते हुए भी संस्कृत के लोकप्रचलित शब्दों और मुहावरों को भी अपनी कविता की धार से बाहर नहीं करती। वे ऐसे कुछ शब्दों का अभिनव और उत्कृष्ट प्रयोग करती हैं। उनका एक वचन इस तरह शुरू होता है, 


'तेरणिय हुळु तन्ना स्नेहदिंदा मनेया माडि, 

तन्ना नूलु ताने सुत्ति सुत्ति सावा तेरनंते।'  


इस वचन में 'रेशम के कीड़े' का रूपक है। इस कन्नड़ पंक्ति में संस्कृत का एक शब्द 'स्नेह' आता है। इसका अर्थ आम तौर पर प्रेम, लगाव से लिया जाता है। इसका एक और शाब्दिक अर्थ, 'तेल की तरह चिपकने वाला' भी होता है। इस तरह यहाँ 'स्नेह' का दोहरा अर्थ हो सकता है। एक कीड़े के जीवन से जुड़ा हुआ, चिपकने वाला पदार्थ, जो कीड़े के शरीर से निकलता है और जिससे वह जाल बुनता है और दूसरा मानवीय प्रेमासक्ति से लबरेज। ये दोनों अर्थ 'स्नेह' से जुड़े हुए हैं और यह शब्द अपनी प्रतीकार्थ व्यंजना में एक नयी मानवीय ध्वनि पैदा करता है। जिस तरह 'स्नेह' यानी चिपकने वाले पदार्थ से बना धागा कीड़े के लिए प्राणलेवा बनता है, वैसे ही 'स्नेह' यानी प्रेम महादेवी के लिए प्रिय के न मिलने की स्थिति में मृत्यु तुल्य वेदना का कारण बन जाता है। (6) इसी तरह महादेवी के प्रिय 'चेन्न मल्लिकार्जुन' में  'चेन्न' कन्नड़ का और 'मल्लिकार्जुन' संस्कृत का शब्द है। कन्नड़ के पारदर्शी शब्द 'चेन्न' यानी 'प्रिय' के साथ आ कर 'मल्लिकार्जुन' भी अपनी दुरूहता छोड़ कर हृदय के करीब आ जाता है। वे रूपकों का इस तरह प्रयोग करती हैं कि कई बार पूरा वचन ही रूपकों के प्रवाहमय विस्तार की तरह सामने आता है। 

   


महादेवी भारतीय प्रेम कविता की परंपरा का अतिक्रमण कर जाती हैं। उनके एक वचन में 'माया' सास और 'दुनिया' ससुर बन कर आती है। कुछ दार्शनिक तत्व भी इन रूपकों में शामिल हैं। तीन देवर 'तीन गुणों' की तरह, पति 'कर्म' की तरह, ननद 'वासना' की तरह आती है। मन यानी 'नौकर' प्रियतम से मिलने में मदद करता है। यह खूबसूरत वचन इस प्रकार है। 


माया मेरी सास है, दुनिया ससुर 

तीन चीते की तरह ताकतवर देवर हैं 

मैं सबको चकमा देकर निकल गयी 

पति के चंगुल से अपने प्रियतम के पास 

मेरा मन मेरा नौकर है, उसी की 

दया से मैं अपने स्वामी से मिल पायी 

मेरा पर्वत शिखर वासी जूही की तरह धवल 

अतिशय सुंदर मेरा स्वामी 

मैं उन्हें ही अपना पति बनाऊंगी। (7)

   

      

यह कविता 'पति' यानी कर्म के बंधनों को चकमा दे कर अपने 'प्रियतम' के पास निकल जाने के साथ ही अपने क्लाइमेक्स पर पहुँच जाती है। यहाँ अपने 'प्रेमी' से मिलन के लिए समाज की तथाकथित 'वैधता' के समूचे ढांचे को चूर-चूर कर देने के प्रियतमा के प्रबल संकल्प को स्थापित मान्यताओं पर एक झटके की तरह महसूस किया जा सकता है।  

      


अक्क महादेवी के जीवन की अंतर्कथा उनके बाहरी संघर्षों से भी ज्यादा नाटकीय और आकर्षक है। उनके अनुभव का संसार विराट है। अनुभव की वैविध्यता और भिन्नता के कारण उनकी रचनाओं में एकरसता नहीं दिखती। उनकी भाषा जीवन के ताप और गहरी आत्मीयता से इस तरह पगी हुई है कि हृदय को भीतर तक वेध देती है। उनके वचनों में प्रकृति अपने तमाम रूपों में ध्वनित-प्रतिध्वनित होती दिखाई पड़ती है।  वे पेड़ों  से, पक्षियों से, पहाड़ से, नदी से मल्लिकार्जुन के बारे में पूछती हैं। कहीं देखा हो तो बता दो। वे भी इसी पहाड़ पर, इसी जंगल में रहते हैं, तुम्हें जरूर पता होगा। कहाँ मिलेंगे वे, कोई संकेत दे सको तो दो। अपनी भाषा में बतियाते तोते से, मधुर गीत गाती कोयल से, फूलों पर मंडराती मधुमक्खियों से, झीलों में अलमस्त तैरते हंसों से, पहाड़ों पर नाचते मयूरों से पूछती हैं, 


'तुमने उन्हें देखा या नहीं

बताओ, मुझे बताओ, कहाँ है मेरा चेन्न मल्लिकार्जुन।' (8)


सबसे प्रार्थना करती हैं, अगर तुम कहीं मेरे स्वामी चेन्न मल्लिकार्जुन को देखो तो मुझे आवाज दो, मुझे दिखा दो। उनका दिन कब आता है, रात कब गुजर जाती है, उन्हें पता ही नहीं चलता। उनकी स्मृति में सिर्फ उनका प्रियतम बसा है, बाकी कुछ भी नहीं। बाहर जो कुछ है, सब उनके शिवत्व का हिस्सा बन जाता है, उनकी खोज-यात्रा में विलीन हो जाता है, 'समूचा दिन, समूची रात केवल तुम्हारी याद में खोयी रहती हूँ मैं। (9) अपने प्रिय की उपस्थिति का सादृश्य-विधान भी उन्हें प्रकृति में ही मिलता है। उसे समझने का कोई आसान रास्ता नहीं है, वह अगम्य है लेकिन बहुत सरलता से वे उसकी अगम्यता का समाधान भी ढूंढ लेती हैं। उनकी अनुपमेयता में भी वे उपमेयता आविष्कृत कर लेती हैं। उनके विविधवर्णी जीवनानुभव में सर्वत्र चेन्न मल्लिकार्जुन की विराट व्याप्ति है। 


'समूचे वन में, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों में, पहाड़ों, झरनों, नदियों में 

ओ! मल्लिकार्जुन तुम सबमें भरे हुए हो 

फिर भी मुझे अपना चेहरा क्यों नहीं दिखाते ?' (10)


इस प्रश्न में यह निहितार्थ झलकता है कि महादेवी किसी खास रूप में उसे न देखते हुए भी असंख्य रूपों में उसकी विराट अभिव्यक्ति को देख रही हैं।  

     


अक्क की कविता साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट रचनात्मकता का उदाहरण है। वे एक साथ महान संत भी हैं, भक्त, प्रेमी और महान कवि भी। इसलिए उनकी कविता में जितना महत्व कविता होने को दिया जाना चाहिए, उतना ही महत्त्व उनकी कविता के कथ्य को भी। उनके कहन में अद्वितीय कलात्मकता है। महादेवी ने जो जीवन जिया, जिस तरह के अनुभवों से गुजरीं, वे सीधे शब्दों में नहीं समा सकते, उन्हें अभिधा में कह पाना कठिन ही नहीं लगभग असंभव है। इसीलिये उन्हें कहने के लिए वे आम जीवन और प्रकृति से लिए गए अलंकारों, रूपकों, बिम्बों का प्रचुरता से प्रयोग करती हैं। इससे वे आसानी से अदने से अदने आदमी तक भी अपनी बात पहुंचा पाती हैं।  वे अपने अनुभवों को व्यक्त करने के लिए अनगिनत सादृश्य विधान रचती हैं। वे चाहती हैं कि 'प्रिय' उन्हें वैसे ही अपने भीतर समाहित कर ले जैसे मधुमक्खी सुगंध को सोख कर अपने भीतर जज्ब कर लेती है। प्रिय की प्रतीक्षा में रात भर जागते 'चकोरे' की तरह मैं तुम्हारे चरणों से लिपटी तब तक जागती रहूंगी, जब तक तुम मिल नहीं जाते। वे मिलन के आनंद को रचती हैं, 


'यह वैसा ही है जैसे बावड़ी के कीचड़ में कोई जलधारा बह निकली हो 

सूखते पौधों पर बारिश की बौछार हो गयी हो।' 


प्रेम में कठिन परीक्षाएं देनी होती हैं। अक्क भी इस द्वंद्व से गुजरती हैं। वे महसूस करती हैं कि जब मन व्याकुल होता है, सुख के साधन भी वेदना ले कर आते हैं। पति और प्रेमी, दोनों की मौजूदगी के द्वंद्व का वे समानांतर सादृश्य रचती हैं। 


मल्लिकार्जुन के अलावा अन्य सारे पति 

बादलों में दिखती रंगीन कठपुतलियों की तरह हैं 

जो किसी भी पल अदृश्य हो जाने वाली हैं। (11)

 

   

महादेवी बिना गहराई की भक्ति की तुलना 'तोता रटंत' से करती हैं, जो पढ़ता तो है, लेकिन कुछ भी नहीं समझता। माया में दिग्भ्रमित भक्त की तुलना उस हाथी से करती हैं जो मूनस्टोन में अपनी छाया से लड़ते हुए मारा जाता है। उनके यहाँ देह की कामनाएं उस मां की तरह है, जो राक्षस बन गयी हो। शरीर की चेतना से मुक्त होने को वे अनेक रूपकों से व्यक्त करती हैं, 


'मैं एक जली लाश की तरह हूँ 

एक कठपुतली की तरह हूँ, जिसकी रस्सी टूट चुकी है 

एक बावड़ी की तरह, जिसका जल सूख चुका है।' 


कभी निराशा भी आती है, 


'बबूल के पेड़ पर चढ़े हुए बन्दर की तरह हूँ 

जहाँ न फल हैं, न बैठने की जगह।' (12)


अपने द्वंद्व की तुलना अक्क उस बछड़े से करती हैं जो दो गायों का दूध पीने के लिए छोड़ दिया गया है, 


'आह, मैं इस दुनिया और उस दुनिया के बीच 

पूरी तरह ख़त्म हो गयी/

जैसे एक बछड़े को दो गायों का दूध पीने के लिए छोड़ दिया गया हो।' 


एक अन्य वचन में वे कहती हैं, 


'जैसे सूर्य दुनिया की गतिशीलता का बीज है 

वैसे ही मन सारी इच्छाओं का बीज है।'  


ज्ञान और भक्ति साथ-साथ होते हैं, यह बात कहने के लिए अक्क सूर्य और उसकी किरणों की तुलना ज्ञान और भक्ति से करती हैं,


'ज्ञान सूर्य की तरह है 

भक्ति उसकी किरणों की तरह 

बिना किरणों के सूर्य हो नहीं सकता 


इसलिए ज्ञान के बिना भक्ति और भक्ति के बिना ज्ञान कैसे संभव है।' शरणों का साथ याद करती हुई वे अद्भुत उपमान गढ़ती हैं। 


उनके संग की चाह जो तुम्हें नहीं जानते 

पत्थर से पत्थर टकरा कर आग पैदा करने जैसा है 

उनके संग की चाह जो तुम्हें जानते हैं 

मक्खन के लिए दूध को मंथने जैसा है  

हे, चेन्न मल्लिकार्जुन जब कोई 

आप के शरणों के संग रहता है 

यह कपूर के पर्वत में आग लगने जैसा है। (13)

  

     

महादेवी के वचनों में उपमा, रूपक और बिम्ब की आकर्षक उपस्थिति है। अलंकारों से समृद्ध वचन एक ऐसे संत के हृदय  से फूटते हैं, जिसने देह की, जेंडर की चेतना खो दी है। वे कहती हैं कि मैं देह में स्त्री जरूर हूँ लेकिन आत्मा के स्तर पर न स्त्री हूँ, न पुरुष 


'मेरी देह धूल है 

मेरी आत्मा शून्य है।' 


वे अपने रूपांतरण को शब्दों में इस तरह विन्यस्त करती हैं, 'देह की जटिलताओं, मन की चंचलता और आत्मा के विचलन को पराजित कर मैंने इन्द्रियों के अंधकार पर विजय पा ली है।' (14) अब समस्त शास्त्र और धर्मग्रंथ उनके लिए 'चावल की छिलके और भूसी' की तरह हैं।' भस्म, हल्दी और धूल के रूपकों से वे अपने प्रेम का इजहार करती हैं, 


'गुरु के चरणों को धुलने से गिरा पानी

मेरे लिए पवित्र स्नान जल है 

पवित्र भस्म अमिट हल्दी है 

नग्नता भव्य परिधान है 

शिव के चरणों की धूल मेरे सौंदर्य का साधन है 

रुद्राक्ष मेरा गहना है।'  


उनके वचनों में अपूर्व चित्रात्मकता देखी जा सकती है। बिम्ब किसी कठिन बात को भी आसान बना देते हैं। अमूर्त विचारों को भी बिम्बों के जरिये इस तरह कहना संभव हो जाता है कि उसे कोई भी समझ ले। इनमें अर्थ की कई छायाएं होती हैं, जो काव्यात्मक अभिव्यक्ति को और सुन्दर बना देती हैं। उनके कठिन रास्ते में प्रकृति के जो चित्र मिलते हैं, वे उन्हें अपने अनुभव के मोतियों में गूंथ लेती हैं।    

   


अपने समय में ही अक्क महादेवी को एक श्रेष्ठ वचनकार के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। चेन्न बसवण्णा महादेवी के वचनों की उत्कृष्टता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि पुराने कवियों के 60 वचन बसवण्णा के 20 वचनों के बराबर हैं। बसवण्णा के 20 वचन अल्लम प्रभु के 10 वचनों के बराबर, अल्लम के 10 वचन अजगण्ण के 5 वचनों के बराबर और अजगण्ण के 5 वचन महादेवी के एक वचन के बराबर हैं। (15) इस तरह चेन्न बसवण्णा महादेवी को सर्वश्रेष्ठ वचनकार के रूप में स्थापित करते हैं। काव्य के मर्म के लिए आलोचक जिन तत्वों की जरूरत महसूस करते हैं, वे सभी महादेवी की रचनाओं में दिखाई पड़ते हैं। यद्यपि महादेवी में अपने जीवन में काव्य कर्म को नहीं चुना, न ही कविता करने की मंशा से कोई कविता रची लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक यात्रा में जिस पीड़ा, दर्द, यातना और अंतर्द्वंद्व से गुजरती हैं, उसे कहने का अपना तरीका ढूंढती हैं। इसी खोज में जीवन के अनेक बिम्ब, उपमाएं, रूपक, चित्र  स्वयमेव उनकी रचनाओं में चले आते हैं। देह और आत्मा का संघर्ष उन्हें विपरीत दिशाओं में धकेलता रहता है। अपने प्रिय से मिलन की अटूट आस, लक्ष्य-वेध की मुश्किलें, उससे उपजी विछोह-यातना और इस अंतर्संघर्ष की प्रचंड वेदना उनकी कविताओं में फूटती है। उन्हें हूबहू कहने के लिए शब्द नहीं मिलते तो वे सादृश्य का सहारा लेतीं हैं, रूपकों को माध्यम बनती हैं, बिम्ब-चित्रों की मदद लेती हैं और अपनी घनीभूत पीड़ा, अकाट्य उम्मीद एवं दुर्लभ रोमांच के साथ उन्हें संघनित कर एक अनोखा काव्य संसार रचती हैं। उनकी कविताओं की गहरी कलात्मकता और संवेदना आज भी कविता के पारखियों को अचरज में डाल देती है। बेशक वे एक युगांतकारी कवि हैं और रहेंगी।



सुभाष राय 



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