शिरोमणि महतो की कविताएं
तमाम विविधताओं के बावजूद वैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो मनुष्य एक है। उसका खून और उसकी आन्तरिक संरचना में कोई अन्तर नहीं। लेकिन कुछ वर्गों की संकुचित मानसिकता के कारण रंग, नस्ल, लिंग, वर्ग, भाषा, बोली के स्तर पर भेदभाव किया जाता रहा है। 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने जब 'स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व' का नारा दिया तो विश्वव्यापी स्तर पर छाई भेदभाव की यह जड़ता टूटी। हालांकि कवियों ने हमेशा समता की बात की। आधुनिक काल में असमानता के खिलाफ बाकायदा संघर्ष की परिपाटी ही चल पड़ी और अपने हक हिस्से के प्रति सर्वहारा वर्ग की जागरूकता भी दिखाई पड़ी। फैज अहमद फैज की पंक्तियां याद आ रही हैं
हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे।
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।।इस रूप में देखा जाए तो शिरोमणि महतो अपने पूर्ववर्ती कवियों से जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। महतो आधुनिक चेतना सम्पन्न कवि हैं। वे अपनी कविताओं में उन मानवीय मूल्यों की बात करते नजर आते हैं जिस पर आज हर तरफ से प्रहार किया जा रहा है। यह प्रतिबद्धता और पक्षधरता उन्हें कवियों की जमात में अलग खड़ा करती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिरोमणि महतो की कुछ नई कविताएं।
शिरोमणि महतो की कविताएं
पेन्दा
बचपन में कपड़े फट जाते
तो घर वाले उनमें पेंदा लगा देते
मैं उन कपड़ों को पहनता नहीं
मुझे पेंदा बिल्कुल पसंद नहीं था
मेरे कपड़े अगर थोड़ा फट जाते
तो मैं उँगलियों से और फाड देता
ताकि उसमें पेंदा न लग सके
मुझे पेंदा बिल्कुल पसंद नहीं था
मेरे इस स्वभाव को
पिता जी भांप लिये थे
लेकिन कुछ बोलते नहीं
वे मेरे लिए नया कपड़ा खरीद लाते
शायद यह कहावत वे सोच रहे होते-
"बाप की कमाई में बेटा मौज करता है!"
अपने बुरे दिनों में भी उन्होंने
कभी पेंदा लगा कपड़ा पहनने नहीं दिया
वे अपने कपड़ों में पेंदा में पेंदा लगा रहे थे
फटी चप्पलों को सी कर पहन रहे थे
'मईया' के कपड़ों में पेंदा लगा दें रहे थे
लेकिन मेरे कपड़ों में पेंदा नहीं लगाये
मेरे लिए उधार में नया कपड़ा ले आते!
इधर एक दिन चूहे ने
मेरे कोटन पेंट को काट दिया
न चाहते हुए भी मैंने उस पर पेंदा लगा दिया
मैंने भी बिना कुछ बोले
अनमने मन से उस पेंट को पहन लिया
पेंदा लगा पेंट पहन लिया!
अब जब खुद कमा रहा हूँ
पेंदा लगा कपड़ा पहन रहा हूँ
अब समझ में आ रहा-पेंदे का महत्व
अक्सर आदमी को पेंदा लगाना पड़ता है!
हर जगह आदमी पेंदा लगा रहा है!
आजकल कपड़ों से ज्यादा
सड़कों पर 'पेंदा' चिपके होते हैं
सरकारें भी 'पेंदे' के भरोसे चलती हैं
सड़क से संसद तक-'पेंदा' ही 'पेंदा'!
सभ्यता के गुणसूत्र
धरती के शरीर में
शिराओं की तरह..
बहती नदियों में
बहता हुआ जल
शिराओं का लोहू है।
नदियाँ सभ्यताओं की जननी हैं
उनके बहते हुए जल में
सभ्यताओं के गुणसूत्रों का संचरण होता हैं!
धरती पर एक भी नदी
कभी सूखे नहीं
और न ही कोई नदी दूषित हो
नदियों के पानी का दूषित होना
सभ्यताओं के गुणसूत्रों का संक्रमण है!
नदियों के दूषित हो रहे पानी से
सभ्यताओं के गुणसूत्र संक्रमित हो रहे हैं!
ढीला हेरना
एक बैठी हुई दूसरी के आगे
ऐसे सट के कि लगता है-
जैसे वह बैठी है उसकी गोद में
दूसरी स्त्री हेर रही है-
पहली के माथे का ढीला
पकिया सूता जैसे महीन बालों को
एक-एक कर निरख रही है छिपकलियों की जैसी दृष्टि तीक्ष्ण
घनेरे काले बालों के बीच
छुपे चिपके ढीलों को खोज कर
पकड़ कर खींचती है ऐसे कि-
एक भी बाल टूटे नहीं उखडे नहीं
इतना सतर्क सचेत रहते हाथ
लेकिन ढीला हेरते हुए स्त्रियाँ
आपस में खूब बतियाती हैं
वे बोल रही होती हैं-
अपने सुख-दुःख हर्ष-विषाद
जन्म-जन्मांतर का अवसाद!
इतना महीन इतना बारीक काम करते हुए
कोई भला दूसरा काम कर सकता है-?
हंसी-ठिठौली कर सकता है-?
ध्यान को इधर-उधर भटका सकता है-?
ज़रा-सा ध्यान हटते ही ढीला
छुप जायेंगा घनेरे बालों के जंगलों में
हर कोई ढीला नहीं हेर सकता
ढीला हेरना भी एक कला है!
ढीला हेरते हुए स्त्रियाँ
रचती हैं- एक सहज सरस तरल दुनिया
रहस्य व रोमांच से भरी रोचक दुनिया
क्रिया और कौतुक से भरी गुप्त दुनिया
जहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्चित होता है
पुरूषों की दुनिया में ढीला हेरना का
कोई मतलब नहीं होता महत्व नहीं होता
ढीला हेरना समय नष्ट करना होता है
इससे कोई उत्पाद नहीं होता है
वैसे स्त्रियों के अधिकांश कार्य अनुपादी होते हैं
व्यक्ति और समय के हिसाब से
क्रिया का अर्थ और आशय होता है
उसका मतलब और महत्व होता है
लेकिन स्त्रियों के लिए ढीला हेरना
समय नष्ट करने वाला काम नहीं है
और न ही कोई सहायक क्रिया है
यह एक मुख्य क्रिया है-एक आदिम कला
शरद का चाँद
पूनम का नभ
तारों से भरा हुआ
नभ के कड़ाह में
मानों तल रहा-
एक बड़ा-सा पुआ
-शरद का चाँद!
अनगिन शिशु तारक
देख रहे अपलक
ललच रहा मन
भर गया लार
ओंस-सा लार
टपक रहा-
फूलों के ओंठों पर
मानों आकाश कोई
खोंच से भरा हुआ
महुआ का पेड़
जिसमें खिला हुआ
केवल एक फूल
गिरने को आतुर
भरे हुए ताल में
मछलियों के संग
खेल रहा लुक-छुप
- शरद का चाँद
प्रेम में पगा हुआ
फुनगी पर खिला हुआ
झींगे का फूल
सुख से भरा हुआ
कांसे का थाल
सबसे जीवन में
जरूर उगे-सुन्दर सुहान
शरद का चाँद!
बच्चियाँ
शहर के नामी स्टूडियो में
पत्नी को फोटो खिंचवाना था
वह ड्रेसिंग रूम में तैयार होने के लिए गई
मैं भी पीछे-पीछे चला गया
वह क्रीम पाउडर से चेहरे को दमका रही थीं
तभी वहां दो तीन बच्चियाँ आ गईँ वे नवीं-दसवीं की छात्रा रही होगी
उनकी चोटियों के फूल बता रहे थे ।
पत्नी ने एक को आंचल कौंचियाने के लिए कहा
तो वह बड़ी तल्लीनता से लग गई
दूसरी बिना कहे ही बाल ठीक करने लगी
भला तीसरी कैसे रूकती सो वह भी लग गई
और यहाँ-वहाँ साड़ी की सिलवटें ठीक करने लगी
पत्नी को सजाने में तीनों बच्चियाँ ऐसे जुट गई
जैसे उनमें सजाने संवारने की जन्मजात कला हो!
करीब बीस मिनट तक तीनों
पत्नी को सजाती संवारती रहीं
पूरी तन्मयता और आत्मीयता से
जैसे उनका पत्नी से कोई रिश्ता हो
यह रिश्ता अंजाना था या कोई दूर का रिश्ता
या फिर सदियों का स्त्री सुलभ रिश्ता
जिससे जुड़े हुए थे आत्मा के तार!
मैं मुग्ध चकित हो देखता रहा--
पत्नी से ज्यादा उनकी कला को देख रहा था
कि कैसे इस धरती को संजाने संवारने में स्त्रियाँ एक-दूसरे का सहयोग करती हैं
शायद इसीलिए यह दुनिया इतनी भरी-पूरी और बहुरंगी है।
कविता का पानी
जीवन में आग और पानी
दोनों की जरूरत होती है
लेकिन आज आग से ज्यादा
पानी की जरूरत है ..
आग की मद्धिम आंच भी
जीवन के ऊष्मा दे सकती है
लेकिन पानी की कमी
जीवन को शुष्क बना देती है
एक चिंगारी भी काफी है
दुनिया में आग जलाने के लिए
लेकिन एक बूँद पानी
कंठ भी भिगो नहीं सकता
आज पानी के अभाव में
आदमी का मन शुष्क हो रहा
और शुष्क मन में
ऐसा वायरस पनप रहा-
जिसे मारा जा सकता-
किसी हथियार से नहीं
इंजेक्शन से भी नहीं
किसी एंटीडोरस से भी नहीं
उसे मारा जा सकता है-
तो केवल प्रेम से
कविता के पानी से
कविता का पानी
मन को तरल करता है
और मन की तरलता
दुनिया को तरल कर देती है
सो प्रिय कवियों
तुम अपनी कविता में
आग से ज्यादा पानी सरसने दो
दुनिया को तरल होने तक
तुम कहोगे
तुम हांकते रहो
और हम भागते रहें
गरूड़ भेड़ों की तरह
तब तुम कहोगे--
सीधे-साधे-सरल सभ्य
तुम्हारी एक आवाज पर
हम दौडे़ चले आयें
पालतू कुत्तों की तरह
तब तुम मानोगे--
वफादार, विश्वासी, आज्ञाकारी
तुम्हारे एक इशारे पर
हम तत्पर तैयार रहें
तब तुम समझोगे--
खटनहार, मेहनती, परिश्रमी
हमेशा तुम्हारे सामने
सर झुकाये हाथ जोड़े
खड़ा रहे-चारण मुद्रा में
यही चाहते हो तुम हमेशा
लेकिन अब ऐसा नहीं होगा
तुम्हारे सर के बराबर
उठेगा हमारा सर
तुम्हारी आंखों की सीध
तनेंगी हमारी ऊंगलियॉं
और तुम्हारी जुबान पर
रहेगा हमारा लगाम
खिलाडियां
(खिलाड़ी लड़की)
जब भी कोई लड़की
खेलने के लिए उतरती
उसके पहले वह उतारती है‐
उसके ऊपर लादे-कई आवरण!
खिलाडियां जब मैदान में
अपना करतब दिखाती हैं
तो उसकी कला से ज्यादा
उसके अंगों को निरखा जाता है
कोई खेल रही लड़की
एकदम से सिहर जाती है
जो उसकी छाती में चूभ जाते
किसी कुटिल दृष्टि के तीर
मैंदान में खरगोश-सी भाग रही
लडकी के पांव एकदम से जकड़ जाते
जब वह महसूस करती
उसकी स्निग्ध जांधों में
बूढ़े दर्शक की दृष्टि की फिसलन
लक्ष्य भेदने के लिए
चिड़िये की आंख पर
टिकी होती है उसकी दृष्टि
तभी दर्शक दीर्घा से
लेजर की तरह कोई नजर
भेद जाती है- उसकी आंख!
मैंदान में एक लड़की का
खेलना कितना कठिन होता है
उसे झेलना पड़ता है-
दर्शक दीर्घा से हो रहे
- चौरफे हमले को
क्योंकि जब भी कोई लड़की
खेल के मैदान में उतरती
वह उतार कर आती है-
उसके लिए बनाये गये
- सारे सुरक्षा कवच को
लाठीचार्ज
लाठीचार्ज
का मतलब-लाठीचार्ज
कोई तर्क नहीं कोई दलील नहीं!
आन्दोलनकारियों पर
लाठीचार्ज का मतलब
सिर्फ़ और सिर्फ़ लाठीचार्ज
विधार्थियों पर लाठीचार्ज
एक बर्बर कारवाई....
और लड़कियों पर लाठीचार्ज
बर्बर से बर्बर से बरबर...!
पानी में इंद्रधनुष
आकाश में
उगा हुआ इंद्रधनुष
पानी में झिलमिला रहा
सात रंगों की छवि से
पानी इतरा रहा •••
गुणसूत्र
वह जो संगमरमर का
चमचमाता हुआ महल है
हमारे सुख और ऐश्वर्य का ही नहीं
लोभ लालच वैभव विलास का भी
वृतांत बांच रहा है -
एक - एक पन्ने को
खोल कर पढो -
पीढ़ियों के गुणसूत्र भरे हुए हैं :
बीहड जंगल में
जो ढहा हुआ खंडहर दिख रहा है
आततायियों का इतिहास बता रहा है
उनकी क्रूरता और नृशंस्ता के
गुणसूत्र दबे हुए हैं •••
ढहा हुआ खंडहर
उजडा हुआ दुर्ग
भथा रहे कुएँ
नदियाँ और तालाब
वे केवल मानवीय या
प्राकृतिक आपदाओं की कथा
नहीं कह रहे -
उनमें सदियों कि
सभ्यता के गुणसूत्र हैं
आसमान में जो
इंद्रधनुष उगा हुआ है
और पानी के भीतर जो
इंद्रधनुष बना है
भले ही सात रंगों का जादू है
लेकिन पानी के लिए संकेत है -
कि अब पानी कम पडेगा •••
हृदय में समा कर देता धोखा
पानी भीतर पनसोखा!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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शिरोमणि महतो
नावाडीह, बोकारो
झारखण्ड-829144
मोबाइल-993155298
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