सूरज पालीवाल का आलेख 'नेहरू जी राजनीति में संत, कवि और दृष्टा थे'
जवाहर लाल नेहरू केवल भारत के पहले प्रधान मंत्री ही नहीं थे बल्कि उनके अन्दर एक साहित्यकार इतिहासकार का हृदय भी था। राजनीति उनका पैतृक व्यवसाय नहीं था बल्कि इसे उन्होंने अपने अनुभवों से सीखा और जाना था। भारत की बहुवर्णी संस्कृति और परम्परा को देखते हुए उन्होंने तय किया कि आजादी के बाद का भारत धर्मनिरपेक्ष भारत होगा। बंटवारा होने के पश्चात धर्म की राह पर चलना उनके लिए सुविधाजनक था। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलने का उनका यह निर्णय आसान नहीं बल्कि आग के दरिया पर चलने जैसा था। सूरज पालीवाल ने सही लिखा है कि धर्मनिरपेक्षता को कदम कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। आज जब भारत का सत्ताधारी दल धर्म की राह पर चल पड़ा है और पानी पी पी कर जवाहर लाल को कोसा जा रहा है ऐसे में तब के मुश्किल दौर में उनका यह निर्णय कम साहसिक नहीं था। आज जवाहर लाल नेहरू की पुण्य तिथि पर उनकी स्मृति को नमन करते हुए पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सूरज पालीवाल का आलेख 'नेहरू जी राजनीति में संत, कवि और दृष्टा थे'। यह आलेख उदभावना के हाल में ही प्रकाशित नेहरू विशेषांक से साभार लिया गया है।
'नेहरू जी राजनीति में संत, कवि और दृष्टा थे'
सूरज पालीवाल
‘विनोबा जी ने जो उन्हें ‘लोकदेव’ की उपाधि से विभूषित किया है, उसे मैं सर्वदा सार्थक मानता हूं। भारत के वे नेता नहीं, सचमुच ही लोकदेव थे।’ पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिये दिनकर जी का यह कथन आज इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है कि अब सर्वाधिक आक्रमण नेहरू जी और उनकी विचारधारा पर हो रहे हैं। जिन्होंने इतिहास का ‘क ख ग’ नहीं पढ़ा है, वे भी आक्रोश से भर कर ऐसी भाषा बोल रहे हैं, मानो वे नेहरू को इतिहास से बाहर कर देंगे। जैसे इतिहास पर बात करने का अधिकार उन लोगों ने अपने हाथ में ले लिया है, जिनका न कोई धवल इतिहास है और न इतिहास की समझ ही। मुझे लगता है यह समय दो परस्पर विरोधी धाराओं में बंटा हुआ है, एक, जो अपने इतिहास और ऐतिहासिक घटनाओं को बारीकी से समझने की कोशिश में लगे हुए हैं तथा दो, जो अंधभक्त बन कर इस देश की ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ को मिटा कर हिंदुत्व के मद में डुबो देना चाहते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने इस देश की सामासिक संस्कृति को बचाये रखने के प्रश्न पर हर दृष्टिकोण से विचार किया था और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि इस देश की ताकत धर्मनिरपेक्षता में ही अक्षुण्ण रह सकती है। छद्म राष्ट्रवाद भारत जैसे देश के लिये बहुत बड़ा खतरा है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर 1952 से 1964 तक दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे थे। वे उन लोगों में से एक थे, जो कभी भी पंडित जी से मिल सकते थे और बिना किसी संशय या भय के अपना पक्ष रख सकते थे। दिनकर ने पुस्तक का शीर्षक विनोबा भावे से अवश्य लिया है लेकिन पूरी पुस्तक उनके अपने अनुभवों पर आधारित है। बहुत छोटी-छोटी घटनाएं, जिनमें पंडित जी का पूरा व्यक्तित्व निखर कर और उभर कर आता है, के माध्यम से दिनकर पंडित जी का ऐसा चरित्र गढ़ते हैं, जो राजनेता से अधिक लोकदेव का बनता है। बड़ी घटनाएं इतिहास तो बनाती हैं लेकिन वे चरित्र निर्माण से बच कर निकल जाती हैं। दिनकर के सामने नेहरू हैं और नेहरू के सामने केवल दिनकर ही नहीं हैं, बहुत सारे लोग हैं पर इन बहुत सारे लोगों में एक दिनकर भी हैं। इसलिए दिनकर जी बार-बार उनका मूल्यांकन करते हैं और पाते हैं ‘उनका सुयश राजनीतिज्ञ का कम, उनके भीतर छिपे संत, कवि और दृष्टा का अधिक था। वे सभ्यताओं के बीच दुभाषिये का काम कर रहे थे, जो लेखकों का काम है। इसीलिए विश्व के चिंतकों को उनके मरने से जैसा दुख हुआ, वैसा किसी और राजनीतिज्ञ के मरने से नहीं हुआ था।’ दिनकर 1951 ई. में राष्ट्रसंघ में दिये गये भाषण को उद्धृत करते हैं, जिसमें नेहरू जी ने कहा था ‘मैं केवल प्रधानमंत्री नहीं हूं, उससे कुछ ज्यादा हूं। मैं आदमी हूं, इनसान हूं। अक्सर मैं थोड़ी-सी रोशनी पाने के लिये मन ही मन संघर्ष किया करता हूं। मेरी बेचैनी का सबब यह है कि मैं समझना चाहता हूं कि इंसान को, दरअसल, होना कैसा चाहिए? मेरी बेचैनी का सबब यह है कि मैं सत्य की एक झलक पाना चाहता हूं। उस सत्य तक पहुंचने का रास्ता पाना चाहता हूं।’ सत्य तक पहुंचने का रास्ता सरल नहीं है, इस बात को वे जानते थे इसलिए बार-बार अपनी बेचैनी का जिक्र करते थे। नव-स्वतंत्र देश का प्रधानमंत्री, जिसके सामने भयावह समस्याएं हैं, टूटा बिखरा और सांप्रदायिकता की आग में जलता हुआ देश है और वह सत्य को पाने के लिये बेचैन हैं? दरअसल, नेहरू को इसी बेचैनी में खोजा और पाया जा सकता है। उनकी इन्हीं बेचैनियों के कारण दिनकर लिखते हैं ‘दुनिया का इतिहास प्रधानमंत्रियों का इतिहास नहीं है। वह संतों का इतिहास है, नबियों, दार्शनिकों, कवियों और पैगंबरों का इतिहास है। इतिहास की जिस चोटी पर कवि, दार्शनिक और पैगंबर बसते हैं, जवाहर लाल चाहते थे कि इतिहास उन्हें भी उसी चोटी पर स्थान दे।’
रामधारी सिंह दिनकर |
कुछ लोग बगैर पढ़े और बगैर जाने यह मान कर चलते हैं कि नेहरू जी का पंडित विशेषण है, जो पांडित्य के लिये प्रयोग किया जाता है लेकिन यह बात सिरे से गलत है। वे कश्मीरी पंडित थे इसलिए उनके नाम के आगे पंडित शब्द का प्रयोग किया जाता था। वे न तो किसी विशेषण के आकांक्षी थे और न वे इस प्रकार के ढकोसलों को पसंद ही करते थे। उनकी प्रसिद्धि का विश्लेषण करते हुये दिनकर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘पंडित जवाहर लाल नेहरू धर्म के आदमी हैं या नहीं, वे ईश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं- इस विषय की जिज्ञासा लोगों के भीतर बराबर चला करती थी । और जीवन-भर में जवाहर लाल जी ने एक बार भी नहीं कहा कि मैं धर्म का आदमी हूं। आश्चर्य की बात यह है कि तब भी वे भारतीय जनता के बीच उस प्रकार पूजित हुए, जिस प्रकार और कोई भी व्यक्ति पूजित नहीं हुआ था। बुद्ध, अशोक, शंकराचार्य, संत, चिश्ती, कबीर, तुलसी, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, रमण महर्षि और गांधी-इन महापुरुषों को भारतीय जनता ने जो सम्मान दिया, वह सम्मान उसने किसी भारतीय को नहीं दिया। किंतु इन सभी महापुरुषों को जनता का प्रेम उनके धर्म-प्रेम के कारण प्राप्त हुआ था। भारत के इतिहास में जवाहर लाल पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें जनता का प्यार धर्म के लिये नहीं, धर्मनिरपेक्षता यानी ‘सेक्युलर’ गुणों के कारण प्राप्त हुआ।’ पंडित जी के बारे में दिनकर की यह स्थापना महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि धर्म या धार्मिक व्यक्ति बिना कुछ किये या कहे भारतीय जन-मन में सम्मान का अधिकारी हो जाता है। इसीलिए धार्मिक मठ और उनके मठाधीश स्वतः ही सम्मान के पात्र बने रहते हैं। इस सम्मान के लिये उनका कोई परीक्षण नहीं होता लेकिन धर्मनिरपेक्षता हर क्षण परीक्षण से गुजरती है, उसके लिए हर घड़ी परीक्षा की घड़ी है। पंडित जी इस तथ्य से अनजान नहीं थे, इसलिए भी कि धार्मिक तो परंपरानुसार हुआ जा सकता है लेकिन धर्मनिरपेक्षता स्वयं अर्जित की जाती है। कहना न होगा कि बचपन में उन्हें मि. बु्रक्स जैसे अध्यापक मिले जो थियोसोफिस्ट थे। ‘थियोसोफी आंदोलन के साथ उन दिनों पंडित मोती लाल जी भी थे। अतएव स्वाभाविक था कि जवाहर लाल जी भी उसकी ओर झुके। लगभग 13 साल की उम्र में पंडित जी ने थियोसोफी आंदोलन में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की थी, मगर उस समय तक मोतीलाल जी का थियोसोफी विषयक उत्साह शिथिल हो चुका था। फिर भी उन्होंने अपने बच्चे को थियोसोफी में जाने की आज्ञा दे दी।’ ज़ाहिर है कि 13 साल की कच्ची उम्र में उन्होंने इस नयी पद्धति पर विचार किया और मन में जो बीज पड़े, उसने आगे चल कर पारंपरिक धर्म के बारे में सोचने-विचारने का मार्ग प्रशस्त किया।
पंडित जी के धार्मिक होने तथा धर्म को मानने और न मानने को लेकर तमाम कवायदें चलती रहती थीं, जिनसे वे अनजान नहीं थे। कहना न होगा कि गांधी जी की धर्म में दृढ़ आस्था थी लेकिन वे इसे दूसरों पर थोपते नहीं थे। वे जानते थे कि पंडित जी की आस्था धर्म में नहीं है फिर भी वे उन्हें ‘स्फटिक’ के समान स्वच्छ मानते थे। उनकी मान्यता थी कि ‘गरचे जवाहर लाल हमेशा यही कहता है कि ईश्वर में उसका विश्वास नहीं है, मगर मेरे जानते बहुत-से पुजारियों की अपेक्षा वह ईश्वर के अधिक समीप है।’ यह गांधी जी का मानना था, जो उनके अपने अनुभवों से पुष्ट हुआ था। धार्मिक होना और धार्मिक दिखना-दोनों एक नहीं हैं। गांधी जी धार्मिक थे, दैनंदिन जीवन में वे खुल कर यह बात कहते थे लेकिन उनका धर्म किसी मंदिर या मठ तक सीमित नहीं था। वे मंदिर नहीं जाते थे और यह कहते थे कि कोई एक मूर्ति उनकी भावना को तुष्ट नहीं कर सकती। पर वे अपने धर्म के साथ दूसरों के धर्म का भी उतना ही सम्मान करते थे। यही नहीं वे धर्म को निजी विश्वास भी मानते थे इसलिए धर्म को ले कर जवाहर लाल से उनका कभी विवाद नहीं हुआ। दिनकर जी ने गांधी और जवाहर लाल के इन रिश्तों की गहरी पड़ताल की और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘गांधी जी भविष्य की ओर से नहीं, भारत के अतीत की ओर से आये थे। इसलिए जनता बिना किसी कठिनाई के उन्हें पहचान गई। लेकिन जवाहर लाल जी का आगमन भविष्य की ओर से हुआ, अतएव गांधी जी की बहुत-सी बातें ठीक से उनके हृदय में बैठ नहीं सकीं। शंकाएं उन्हें सताती रहीं, संदेह उन्हें घेरते रहे लेकिन हर दुविधा के समय उन्हें भासित यही हुआ कि संभवतः मैं ही गलत हूं, गांधी जी ठीक हैं।’ गांधी जी ही ठीक हैं मान कर वे धार्मिक नहीं हुए और न अपनी मान्यताओं में कोई परिवर्तन ही किया बल्कि यह धारणा और पुष्ट हुई कि भारत जैसे बहु-धर्मावलंबी देश की राजनीति धर्म से परे होनी चाहिए तथा उसके किसी राजनेता को धार्मिक छवि से बचना चाहिए। दिनकर ने लिखा है ‘जवाहर लाल धर्म के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहते थे । जिस ध्येय की प्राप्ति के लिये गांधी जी ने सर्व-धर्म-समन्वय का तरीका अख्तियार किया था, उसी ध्येय की प्राप्ति के लिये जवाहर लाल जी ने आधुनिकीकरण के साधन चुने। धर्म को वे आदमी का बिलकुल निजी मामला समझते थे। वह राजनीति में घसीटी जाने की चीज नहीं है। उसे मनुष्य-मनुष्य के बीच विभेद डालने का कोई अधिकार नहीं है। जन्म से सभी मनुष्य समान हैं। आदमी धर्म या अंधविश्वास ले कर पैदा नहीं होता। मनुष्य का वैयक्तिक और सामाजिक जीवन बुद्धिवाद और तर्क के सहारे चलना चाहिए। इसके बाद व्यक्ति को अगर धर्म की चिंता है तो यह उसका बिलकुल निजी सवाल है।’
धर्म की परिणति सांप्रदायिकता में होती है पंडित जी इस तथ्य को भलीभांति जानते थे। आज भले ही हम स्वाधीनता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहे हों लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के मूल में जो सिद्धान्त थे, उन्हें तो बिल्कुल ही भुला दिया गया है। पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार सांप्रदायिकता हावी हो रही है और सच तो यह है कि हावी की जा रही है, इस ध्रुवीकरण से सत्ता तो हासिल की जा सकती है पर देश के सभी नागरिकों का विश्वास अर्जित नहीं किया जा सकता। इस समय सांप्रदायिक शक्तियों के निशाने पर सबसे अधिक पंडित नेहरू ही हैं। पंडित जी जिन मूल्यों पर राजनीति करते थे, उन मूल्यों का उपहास उड़ाया जा रहा है और उनकी धर्मनिरपेक्ष नीतियों को चीर-चीर किया जा रहा है। मुझे लगता है पंडित जी की यह ताकत बार-बार उभर कर सामने आ रही है जिससे वर्तमान सत्ता भयभीत है। यह महज संयोग नहीं है कि जैसे-जैसे पंडित जी पर प्रहार तीखे होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उनकी लोकप्रियता और बढ़ती जा रही है। नयी पीढ़ी फिर से उनकी पुस्तकों, भाषणों, पत्रों और साक्षात्कारों को गंभीरता से पढ़ रही है और उनके मन में यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि उनके पास भारत जैसे विशाल देश को आगे ले जाने का अद्भुत विजन था। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में जाना जाता है। चाहे कितने भी संकट आये हों, चाहे कितना भी विरोध हुआ हो, उन्होंने अपनी मान्यताओं से कोई समझौता नहीं किया ‘अंधकार जितना ही गहरा होता गया, जवाहर लाल जी की आवाज उतनी ही तेज होती गई। जब अंधकार अपनी चरम सीमा पर पहुंचा, पंडित जी ने निर्भीक स्वरों में हुंकार भरते हुए कहा कि शासन के मूल में जब तक मेरा हाथ है, मैं भारत को हिंदू राज्य बनने नहीं दूंगा।’ वे स्वयं हिंदू थे, उनके लेखन में धर्म और धर्म की परंपरा को समझने की गहरी चिंता है लेकिन वे न तो धर्म की राजनीति करने के पक्ष में थे और न धर्म को सांप्रदायिकता की परिणति तक लाने में ही यकीन करते थे। अपनी इस आस्था का वर्णन करते हुये संविधान सभा के 14 अगस्त, 1947 की रात में होने वाले अधिवेशन में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि ‘मैं इस निष्कर्ष पर आ गया हूं कि अगर हम लोग अपने व्यवहार में कुछ नैतिक सिद्धांतों का पालन नहीं करेंगे तो हमारे लिए यह असंभव हो जायेगा कि हम अपनी अस्तमित गरिमा को फिर से प्राप्त कर सकें ।’ इसी आस्था को और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को कहा था ‘हम चाहे जिस किसी भी मजहब के मानने वाले हों, हम समान रूप से भारतमाता की संतान हैं। सांप्रदायिकता या संकीर्णता को हम बढ़ावा नहीं दे सकते, क्योंकि जिस किसी भी देश के नागरिक मन, वचन या कर्म में संकीर्ण हैं, वह देश कभी भी ऊपर नहीं उठेगा।’ उनकी चिंताएं व्यापक थीं, वे जिस देश की आजादी के लिये संघर्ष कर रहे थे, उस देश की सीमाएं भी वे जानते थे इसलिए बार-बार वे संकीर्णता और सांप्रदायिकता से ऊपर उठने का आह्वान करते हैं। ‘वे मानते थे कि भारत बहुत पुराना, बहुत ही बड़ा मगर बेहद कंटीला देश है और इसकी एकता की रक्षा का कार्य सबसे अधिक महत्व का कार्य है। वे यह भी मानते थे कि भारत की जनता भोली तो है लेकिन उसके भीतर शक्ति की कमी नहीं है। हां, भय उन्हें उन व्यक्तियों और दलों से महसूस होता था, जो धर्म, प्रांत, जाति या भाषा के नारे लगा कर सीधी सादी जनता को गुमराह करते हैं। इसीलिए वे अपने भाषणों में भारतीय जनता की प्रशांसा और जनता को गुमराह करने की कोशिश करने वाले गिरोहों की निंदा करते थे। संप्रदायवादी वृत्ति उन्हें किसी की भी पसंद नहीं थी-न हिंदुओं की, न मुसलमानों की, न सिक्खों की, न ईसाइयों की। न वे इस बात को उचित समझते थे कि सारे भारत की जनता का खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, संस्कृति और भाषा एक हो जाये। मध्यकालीन संस्कारों के दलदल से उठा कर भारत को वे उस जगह पहुंचाना चाहते थे, जहां धर्मांधता और अंधविश्वास का दौर-दौरा नहीं हो, जहां आदमी तर्क और बुद्धिवाद की मशाल जला कर चले, जहां धर्म, संस्कृतियां और रीति-रिवाज अलग-अलग कायम रहें, मगर सारे देश की जनता भौगोलिक तथा मानसिक रूप से एक रहे। भारत में विज्ञान और टेक्नोलॉजी से सभी सामान मुहैया हो जायें, इसे पंडित जी काफी नहीं समझते थे। वे यह भी चाहते थे कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति का मन विज्ञान से युक्त हो और सवालों पर वह उस दृष्टि से सोच सकें, जिस दृष्टि से आधुनिक मनुष्य को सोचना चाहिए। उनका अटल विश्वास था कि जिस दिन भारतीय जनता के भीतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण घर कर लेगा, उस दिन संप्रदायवाद, धर्मांधता, अंधविश्वास तथा जाति, प्रांत और भाषा के झगड़े आप से आप समाप्त हो जायेंगे।’
साठ वर्ष पहले पंडित जी की मृत्यु हो गई लेकिन इन साठ वर्षों में वे भारतीय प्रजातंत्र के प्रहरी बन कर जनता और सत्ता को सावधान करते रहे। अब तो आजादी का अमृत काल भी पीछे छूट गया है लेकिन वे खतरे जिनके बारे में पंडित जी बार-बार कह रहे थे, वे अब और घनीभूत हो कर छाने लगे हैं। इसलिए उनकी प्रासंगिकता दिन पर दिन और अधिक बढ़ती जा रही है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जैसे-जैसे सत्ता उन पर प्रहार कर रही है वैसे-वैसे जनता में वे और अधिक प्रासंगिक और लोकप्रिय होते जा रहे हैं।
बुद्धिवाद और तर्क से व्यक्ति का आधुनिक सोच निर्मित होता है और इसकी परिणति समाज के आधुनिकीकरण में होती है। आधुनिकता और वैज्ञानिक सोच गहरे तक जा कर व्यक्ति और समाज को बदलते हैं। इसलिए पंडित जी शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में वैज्ञानिक सोच पर जोर देते थे। वे जब शिक्षण संस्थानों के आधुनिकीकरण की बात करते थे तो उनकी नज़र में विश्व के वे विश्वविद्यालय थे, जिन्होंने दुनिया को बदला था। दिनकर जी यह मानते हैं कि भारत के मन को आधुनिक बनाने में पंडित जी का बहुत बड़ा हाथ है। सामंतवाद और साम्राज्यवाद के हज़ार वर्षों ने भारतीय मन को खोखला कर दिया था। बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण ने उन प्रदेशों में आधुनिक शिक्षा की अलख जगाई और अपने पाखंडों से मुक्ति के लिये आंदोलन चलाये। बंगाल में राजा राममोहन राय, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर और केशवचंद्र सेन इत्यादि ने जिस तरह जन मन को बदलने में भूमिका निभाई उसका प्रभाव गहरे तक पड़ा। महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक और डॉ. भीमराव अंबेडकर इत्यादि ने सामाजिक सुधारों के साथ आजादी की अलख भी जगाई लेकिन हिंदी प्रदेशों में इस तरह का जनजागरण नहीं हुआ। हिंदी प्रदेशों में हम भारतेंदु काल से नवजागरण की शुरूआत मानते हैं लेकिन यह केवल साहित्य तक ही सीमित रहा। लोक मानस को बदलने में इसकी भूमिका बहुत बड़ी नहीं है इसलिए यह जनआंदोलन नहीं बन पाया। जिस प्रदेश से 1857 का बिगुल बजा हो, वह आधुनिक बनने में पिछड़ा क्यों रहा, इस पर विचार किया जाना चाहिए। पंडित जी यह सब देख और अनुभव कर रहे थे लेकिन वे जब अपनी पढ़ाई पूरी करके आये तब स्वाधीनता आंदोलन जोर पकड़ रहा था इसलिये वे सीधे-सीधे उससे जुड़ गये। मेरा मानना है कि उन्हें समय ही नहीं मिला कि वे इस प्रकार का आंदोलन शुरू कर पाते। लेकिन अपनी नीति-रीति से उन्होंने जो संदेश दिया, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। बाबू राजेंद्र प्रसाद ने एक संस्मरण सुनाया था, जिसे दिनकर ने उद्धरित किया है ‘एक बार वे कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने को पटना से बंबई जा रहे थे कि छेउंकी स्टेशन पर मोती लाल जी और जवाहर लाल जी उसी ट्रेन में सवार होने को आये। राजेंद्र बाबू तीसरी श्रेणी में थे। मोती लाल जी ने रिजर्व फर्स्ट क्लास में चलना छोड़ दिया था, किंतु वे द्वितीय श्रेणी का टिकट लिये हुए थे। मोती लाल जी ने राजेंद्र बाबू से कहा, चलो एक समझौता ही कर डालो। मैं तो फर्स्ट क्लास से उतर कर सेकेंड क्लास में आ गया हूं। अब तुम भी थर्ड से तरक्की करके सेकेंड में आ जाओ। फिर दोनों जने साथ ही सफर करेंगे। राजेंद्र बाबू ने अपना टिकट बदलवा लिया और वे द्वितीय श्रेणी में आ गये। इतने में दिखाई पड़ा कि जवाहर लाल जी प्लेटफार्म पर घूम रहे हैं। मोती लाल जी ने राजेंद्र बाबू से कहा, जरा इस लड़के को देखो। यह भी तुम्हारी तरह थर्ड क्लास में सफर कर रहा है। अभी इसके मौज-मजे के दिन थे, मगर यह तो साधु हो रहा है। राजेंद्र बाबू ने देखा मोती लाल जी की आंखों में आंसू छलक आये हैं।’ दिनकर ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा ‘गांधी जी में जो यतीवृत्ति थी, जवाहर लाल उस वृत्ति को भी अपने भीतर लाना चाहते थे। एक बार मोती लाल जी ने गांधी जी से कहा था, जवाहर को बंदरपने से बचाइए। आजकल वह चने-मुरमुरे चबाता है।’ कहना न होगा कि मोती लाल जी ने अपनी विवेक बुद्धि से धन कमाया था और वे अमीरी का जीवन जीने के आदी थे लेकिन गांधी जी के प्रभाव और स्वाधीनता आंदोलन में सम्मिलित होने के कारण उन्होंने उस जीवन को तिलांजलि दे दी थी। लेकिन अकेले पुत्र की यह स्थिति देख कर उन्हें दुःख होता था, जिसकी अभिव्यक्ति इस संस्मरण में होती है। यह संस्मरण देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू का है, जो अपने समय में पटना के बड़े बेरिस्टर थे। आज जवाहर लाल जी पर तरह-तरह के घटिया आरोप लगाये जाते हैं, उनके योगदान को कम कर के आंकने का निकृष्ट प्रयास किया जा रहा है इसलिए इस कृतघ्न समय में हमें उन लोगों की बातों पर विश्वास करना चाहिये जो पंडित जी के साथ रहे और जिन्होंने देश के लिये अपनी सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर अभाव, संघर्ष और जेल जीवन को चुना था।
मोती लाल जी की जब मृत्यु हुई तब महात्मा गांधी और विधान चंद्र राय उनके पास थे। दिनकर जी ने गांधी जी और विधान चंद्र राय के बीच हुये वार्तालाप को उद्धृत किया है, जो मार्मिक है ‘विधान बाबू ने गांधी जी से पूछा- मोती लाल जी में अलौकिक गुण क्या था? गांधी जी ने जवाब दिया-जवाहर लाल के लिये असीम प्यार। क्या वे भारत को प्यार नहीं करते थे? नहीं, उनका देश प्रेम उनके पुत्र-प्रेम से उत्पन्न हुआ था। भारत के लिये अभिमान उनमें इस कारण था कि भारत ने जवाहर लाल को जन्म दिया था।’ जब 1929 में लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहर लाल जी को सभापति चुन लिया गया तब ‘कहते हैं, जब जुलूस में जवाहर लाल की सवारी निकली, मोती लाल जी अपनी जेब से मुट्ठी की मुट्ठी पैसे और रुपये निकाल कर उन पर न्योछावर करने लगे। और जब पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास हो गया, पंडित जी दौड़ कर झंडे के पास गये और उसके चारों ओर घूम कर नाचने लगे।’ यह पंडित जी का राष्ट्र प्रेम है, जो भारत की पूर्ण स्वाधीनता के लिये प्रतिबद्ध था। 1928 के कलकत्ता कांग्रेस के अवसर पर सुभाष चंद्र बोस ने युवकों का आह्वान करते हुये कहा ‘युवको! साबरमती और पांडिचेरी के खिलाफ विद्रोह करो।’ यह वह समय था जब अल्हड़, आवेशी और उत्तेजित नौजवान पंडित जी और सुभाष बाबू के आसपास मंडरा रहे थे, उन्हें इन दोनों में ही अपने सपनों की दुनिया दिखाई दे रही थी। उस समय यह लगने लगा था कि युवा-वर्ग हिंसा के माध्यम से भारत की स्वाधीनता का मार्ग तलाश रहा है। मोती लाल जी और अन्य बड़े नेताओं ने गांधी जी को पत्र लिख कर अपनी चिंताओं से अवगत कराया, वे जवाहर लाल जी के सभापतित्व में युवाओं की समस्याओं का समाधान ढूंढ रहे थे। तब गांधी जी ने कहा ‘जवाहरलाल का सारा समय कांग्रेस के महल को शुद्ध रखने में नष्ट हो जायेगा। जवाहर लाल की आत्मा इतनी ऊंची है कि वह कांग्रेस के भीतर बढ़ती हुई अराजकता और शोरगुल को बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन मेरा ख्याल है, कांग्रेस की भीतरी अराजकता शीघ्र ही, आप से आप खत्म हो जायेगी और जो लोग आज शोर मचा रहे हैं, उन्हें खुद एक अनुशासक की जरूरत महसूस होगी । वही मौका जवाहर लाल के आने का होगा।’ गांधी जी सही थे, यह बात सही है कि भारतीय राजनीति में उनका आकलन हमेशा लोगों को चकित करता था। नेहरू जी कई बार उनकी बात समझ नहीं पाते थे लेकिन यह मान कर चलते थे कि वे जो कह रहे हैं, सही ही होगा। इसलिए उन्होंने कहा ‘शॉक देने की कला में गांधी जी बेजोड़ हैं। मगर कैसी विचित्र बात है कि उपवास किस तारीख से आरंभ किया जाये, यह बात भी उन्हें ईश्वर बता देते हैं।’
जवाहर लाल जी अपने जीवन में तीन लोगों का प्रभाव स्वीकार करते थे। ‘अपने पिता से उन्होंने शान और ठाठ ग्रहण किया था, गांधी जी से यथासंभव अहिंसक बनने की शिक्षा स्वीकार की थी और अंतरराष्ट्रीय दृष्टि उन्हें रवींद्र नाथ से प्राप्त हुई थी।’ नेहरू जी के बारे में दिनकर जी ने कई बड़ी बातें बहुत सहज हो कर कही हैं, जो पंडित जी को समझने के अमोघ सूत्र देती हैं। पंडित जी ने गांधी जी को पहली बार 1916 में लखनऊ अधिवेशन के अवसर पर देखा था। तब गांधी जी की उम्र 47 वर्ष की थी और जवाहर लाल जी केवल 27 वर्ष के थे। उन्होंने लिखा ‘गांधी जी उस समय तैयार आदमी थे। जवाहर लाल जी तैयारी के क्रम में थे। गांधी जी को जो कुछ बनना था, वे बन चुके थे। टॉल्स्टॉय की शिक्षा उनके भीतर खुशबू बन कर समा चुकी थी, सत्य, अस्तेय, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का व्रत वे ले चुके थे और सत्याग्रही नेता के रूप में भी सन् 1913 में ही उनकी कीर्ति का आरंभ हो चुका था, जब उन्होंने 2500 भारतीय मजदूरों का नेतृत्व करते हुये नेटाल की सीमा पार करके ट्रांसवाल में जबर्दस्ती प्रवेश किया था। शक्ति, साधना और संकल्प से भरा-पूरा एक कर्मठ मनुष्य, जो भारत को आजाद कराने आया था किंतु परिस्थिति का अध्ययन करने को, बिना मुंह खोले, सारे देश में घूम रहा था। आत्मविश्वासी, सर्वस्वत्यागी, एक लक्ष्यव्रती, संयमी, सदाचारी और विराट, जो अपनी विराटता को अभी देहाती पगड़ी और अंगरखे में छिपाये हुये था। जवाहर लाल की कोटि दूसरी थी। वे अमीर के बेटे थे, अमीरी में पले थे, इंग्लेंड से पढ़ कर वापस आये थे और किताबों ने जो कुछ उन्हें सिखाया था, उससे प्रेरित हो कर किसी बड़े काम में अपनी जिंदगी लगाना चाहते थे। पंडित जी शुरू से ही ऐसे आदमी थे, जिसकी दृष्टि जमीन पर कम, क्षितिजों पर ज्यादा रहती थी। किताब पढ़ कर वे अहले-किताब बनना चाहते थे, इतिहास को मोड़ कर वे इतिहास के पात्र बनना चाहते थे। अमीरी में पलने पर भी जवाहर लाल के भीतर अकेलेपन का भाव था। मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे शुरू से ही जिंदगी की ठोकरों से परिचित होते हैं। धनी परिवार के बच्चों को ठोकरों का ज्ञान नहीं होता। उनकी हर इच्छा पूरी होती चलती है, यहां तक कि अंत में अगर उनकी कोई इच्छा पूरी नहीं हुई तो वे ठुनुक जाते हैं। जवाहर लाल जी के भीतर जो तुनुकमिजाजी थी, वह इसी परिस्थिति की देन थी।’ निश्चित ही जवाहर लाल जी भावुक व्यक्ति थे, इसी भावुकता ने उन्हें सुविधा का मार्ग छोड़ कर कंटकाकीर्ण मार्ग चुनने को प्रेरित किया था। आजादी के बाद के वर्षों में उनकी लोकप्रियता गांधी जी से भी अधिक थी, वे चाहते तो तानाशाह बन सकते थे लेकिन नहीं बने। तानाशाही से उन्हें नफरत थी और अपने लोगों के बीच सहज-सरल हो कर जीने में उन्हें सुख मिलता था। अपनी तमाम तरह की व्यस्तताओं के बीच वे सही समय पर कार्यक्रमों में आते और यदि किन्हीं कारणों से देर हो जाती तो सार्वजनिक रूप से माफी मांगते। दिनकर जी ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा ‘निर्धारित समय पर अगर वे दफ्तर या सभा में नहीं पहुंच पाते, तो इसके लिए उन्हें खेद होता था । एक बार विदेश मंत्रालय में मुझे उन्होंने नौ बजे सुबह का वक्त दिया था, मगर खुद वे कोई चालीस मिनट देर से पहुंचे। आते ही बोले ‘माफ करना महाकवि! मैं भी लाल किले और कुतुबमीनार की तरह दिल्ली का एक्जिविट-तमाशे की चीज-हो गया हूं। रोज ही सैकड़ोें लोग गोल बांध कर मिलने आते हैं। आज कुछ ज्यादा लोग आ गये थे, सो थोड़ी देर हो गई।’
नेहरू जी के बारे में कहा जाता है कि वे हमेशा अपने हाथ में छड़ी रखते थे और अनियंत्रित भीड़ में बिना भय के घुस कर उसे नियंत्रित करते थे। जब गोविंद वल्लभ पंत की मृत्यु हो गई तब पंडित जी किसी कार्यक्रम में बनारस में थे। उनके घर पर अनियंत्रित भीड़ को कोई काबू में करने वाला नहीं था, तब लोगों को पंडित जी की याद आई। दिनकर जी ने एक और घटना को याद करते हुए लिखा ‘सन् 1950 ई. में जब राजर्षि श्री पुरुषोत्तमदास टंडन पंडित जी को अभिनंदन-ग्रंथ भेंट कर रहे थे, तब उन्होंने एक बड़ा ही मनोरंजक संस्मरण सुनाया था। एक बार पंडित जी की सभा में होहल्ला मच गया और भीड़ को शांत करने के लिये पंडित जी खुद ही मंच से नीचे कूद गये। भीड़ भयानक थी, इसलिये पंडित जी का अंगरक्षक भी भीड़ में साथ ही कूद गया और पंडित जी को अपने अंकवार में भर कर उन्हें आगे बढ़ने से रोकने लगा। फिर क्या था, पंडित जी अपने अंगरक्षक को ही पटक कर उसे कूटने लगे। और जब वे मंच पर वापस आये, उन्होंने टंडन जी से कहा, कहिए, यह कुश्ती कैसी रही?’ ऐसे कई किस्से और कई कहानियां पंडित जी के बारे में कही सुनी जाती हैं, जो उनकी निडर उपस्थिति का प्रमाण हैं। आजकल जैसी सुरक्षा व्यवस्था प्रधानमंत्री के लिये की जाती है, उसे देखते हुये पंडित जी की याद आना स्वाभाविक है। वे जनता के दुलारे थे इसलिये उन्हें अपने लोगों के बीच जाना, उन पर गुस्सा करना और उन्हें सही रास्ते पर लाने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। पंडित जी के जाने के बाद दिनकर जी अक्सर कहा करते थे ‘मेरी ताकत जवाहर लाल जी थे, अब वे नहीं हैं तो मैं किससे कहूं?’ जवाहर लाल जी तो उन सबकी ताकत थे, जो लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और देश के जन-मन को आधुनिक सोच में बदलना चाहते थे।
आजादी की पहली वर्षगांठ के अवसर पर लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जी को दि. 15.8.1948 को पत्र लिख कर सूचित किया ‘हम अल्बर्ट हॉल; लंदन' में हुई एक बड़ी सभा से अभी ही लौटे हैं, जहां 4000 से अधिक लोग भारत की स्वाधीनता की पहली वर्षगांठ मनाने के लिये एकत्र हुए थे। बेशक, इसकी पूरी रिपोर्ट आप अखबारों में देखेंगे ही, परंतु मेरे ख्याल से आप यह जानना पसंद करेंगे कि सभा में जब आपका नाम लिया जाता था तब तालियों के साथ इतने लंबे समय तक हार्दिक जयघोष होता था कि सारी कार्यवाही स्थगित हो जाती थी।’ (सरदार पटेल, चुना हुआ पत्र-व्यवहार, 1945-50, खंड 1, पृ. 319, सं. - वी. शंकर)
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