मदन कश्यप की कविताएँ

 

मदन कश्यप


प्रेम मनुष्यता की आधारभूमि है। सम्बन्धों की पृष्ठभूमि बनाने और सम्बन्धों के आयाम को विस्तृत करने में इस प्रेम की भूमिका विशिष्ट रही है। इसीलिए प्रेम कवियों के लिए लोकप्रिय विषय रहा है। दुनिया का कौन सा ऐसा कवि होगा जिसने प्रेम पर कविताएं न लिखी हों। मदन कश्यप हमारे समय के जरूरी कवियों में से हैं। प्रेम उनकी अधिकांश कविताओं के मूल में रहता आया है। कल मदन कश्यप का जन्मदिन था। प्रिय कवि को जन्मदिन की विलंबित बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएँ।


 

मदन कश्यप की कविताएँ 



चालाक लोग 


चालाक लोग इसका पूरा हिसाब रखते हैं 

कि क्या क्या बचाया 

लेकिन यह कभी नहीं जान पाते हैं 

क्या क्या गँवाया


वे पाँव गंवाकर जूते बचा लेते हैं 

और शान से दुनिया को दिखाते हैं ! 



अभी भी बचे हैं


अभी भी बचे हैं

कुछ आख़िरी बेचैन शब्द

जिनसे शुरू की जा सकती है कविता


बची हुई हैं

कुछ उष्ण साँसे

जहाँ से सम्भव हो सकता है जीवन


गर्म राख कुरेदो

तो मिल जाएगी वह अंतिम चिंगारी

जिससे सुलगाई जा सकती है फिर से आग



एक दिन स्त्रियाँ


बैंक होगा 

 वहाँ स्त्रियाँ नहीं होंगी

 विश्वविद्यालय होगा 

टेलीविजन भी होगा 

हस्पताल भी होंगे 

 पर स्त्रियाँ कहीं नहीं होंगी 

उन्हें न तो पैसे की ज़रूरत होगी

 न ही शिक्षा या इलाज की 

आवश्यकता बस होगी तो केवल हिजाब की 


काले बुर्कों में कैद कर

उन्हें डाल दिया जाएगा काली कोठरियों में 

जहां कभी-कभी कुछ ख़ौफनाक आवाज़ें आएंगी 

बंदूकों की या अजानों की

औरतों के चीख़ने की या बच्चों के रोने की

धीरे-धीरे मिटती चली जाएंगी उजाले की स्मृतियाँ

 

सबसे जहीन स्त्रियाँ बस जुगत लगाती रहेंगी

 कि पतियों की पिटाई से कैसे बचे

सबसे सुंदर स्त्रियाँ ख़ैर मनाती रहेंगी

 धर्मधुरंधरों की निगाहों से बचे रहने की

फुसफुसाहटों और सिसकियों तक 

सीमित हो जाएंगी सबसे ख़ूबसूरत आवाज़ें 

कला केवल भोजन पकाने की रह जाएगी

वैसे करने को होगा बहुत कुछ 

 लेकिन रसोई और बिस्तर से बाहर कुछ भी नहीं


ज्ञान बस थोपे गये कर्तव्यों के पालन के लिए होगा

दहशत इतनी गहरी होगी

कि कई बार उसके होने का एहसास भी नहीं होगा

फिर एक दिन ब्लैक होल में तब्दील हो जाएंगी

काली कोठरियाँ

और संगीनों के साये में मुर्दा हो रहीं स्त्रियाँ

हमेशा के लिए उनमें दफ़्न हो जाएंगी

बच्चा जननेवाली कुछ मशीनों को छोड़कर! 



दुःख 


दुख इतना था उसके जीवन में

कि प्यार में भी दुख ही था


उसकी आँखों में झाँका

दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था


उसे बाँहों में कसा

पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा


उसे चूमना चाहा

दुख होठों पर पपड़ियों की तरह जमा था


उसे निर्वस्त्र करना चाहा

उसने दुख पहन रखा था

जिसे उतारना संभव नहीं था






तब भी प्यार किया


मेरे बालों में रूसियाँ थीं

तब भी उसने मुझे प्यार किया

मेरी काँखों से आ रही थी पसीने की बू

तब भी उसने मुझे प्यार किया

मेरी साँसों में थी, बस, जीवन-गन्ध

तब भी उसने मुझे प्यार किया


मेरे साधारण कपड़े

किसी साधारण डिटर्जेंट से धुले थे

जूतों पर फैली थी सड़क की धूल

मैं पैदल चलकर गया था उसके पास

और उसने मुझे प्यार किया


नजर के चश्मे का मेरा सस्ता फ्रेम

बेहद पुराना हो गया था

कंधे पर लटका झोला बदरँग हो गया था

मेरी जेब में था सबसे सस्ता मोबाइल

फिर भी उसने मुझे प्यार किया

एक बाजार से गुजरे

जिसने हमें अपनी दमक में

शामिल करने से इन्कार कर दिया

एक खूबसूरत पार्क में गए

जहाँ मेरे कपड़े और मैले दिखने लगे

हमारे पास खाने का चमकदार पैकेट नहीं था

हमने वहाँ सार्वजनिक नल से पानी पिया

और प्यार किया



कुछ देर साथ चलो


कुछ देर साथ चलो

महानगर बनते शहर की काली सड़क पर

इस ढलती मगर जलती तिपहरी में चलना कठिन है

फिर भी कुछ देर साथ चलो


यही समय है कि सड़कें सूनी हैं

तुम्हारा कुछ दूर हटकर चलना भी

साथ-साथ चलने-सा लगेगा

थोड़ी देर निहारूँगा तेज धूप में दमकता

पसीने से लथपथ तुम्हारा चेहरा

और कभी नहीं प्रकट होने दूँगा

तुम्हें बाजू में समेटकर

अंतरिक्ष की ओर भाग जाने की अपनी इच्छा


बस थोड़ा दूर-दूर ही सही

थोड़ी दूर तक चलो


इस शहर में शामें सुनहरी नहीं होतीं

कोई ऐसी ममतामयी वाटिका भ्ज्ञी नहीं

जिसके एकांत के आँचल में थोड़ी देर दुबक सकें हम

कोई झील नहीं

जो हमारे स्नेह को दे सके शीतल स्पर्श

बस तपती हुई सड़क का निर्मम सूनापन है

यह काफी है कुछ दूर तक साथ चलने के लिए

कुछ देर साथ चलो



बचे हुए शब्द


जितने शब्द आ पाते हैं कविता में

उससे कहीं ज्यादा छूट जाते हैं


बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं

मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में


बचे हुए शब्द

थल को

जल को

हवा को

अगिन को

आकाश को

लगातार करते रहते हैं उद्वेलित


मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ

तो मुस्कुरा कर कहते हैं

तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता

और मुझ पर छींटे उछालकर

चले जाते हैं दूर गहरे जल में


मैं जानता हूँ इन बचे हुए शब्दों में ही

बची रहेगी कविता





प्यार में


पानी पर

चलना ना सीखा

बादल-सा

उड़ना ना सीखा

फिर क्या सीखा

प्यार में


धरती-सा

बिछना ना सीखा

अम्बर-सा

उठना ना सीखा

फिर क्या सीखा

प्यार में


काँटों से

लड़ना ना सीखा

फूलों से

डरना ना सीखा

फिर क्या सीखा

प्यार में


 

धीरे-धीरे


धीरे-धीरे

सब कुछ धीरे-धीरे

वे बेहद इत्‍मीनान से हैं

न समय की कमी है ना धैर्य की


न झपट्टा मारने की जरूरत है

ना ही किसी उत्तेजक नारे की

इतना धीरे से छीनेंगे

हमारे हाथों के निवाले

कि मुँह खुले के खुले रह जाएँगे


धीरे-धीरे

वे काटेंगे हमारे सीने का गोश्‍त

इतनी होशियारी से

कि आधी धड़कन सीने में रह जाएगी

आधी गोश्‍त में चली आएगी


फिर अंतराष्‍ट्रीय बाजार में

ऊँची कीमत पर बेचेंगे

खून से लथपथ गोश्‍त


दर्द होगा

लेकिन धीरे-धीरे


झूठ


झूठ के पास है सबसे सुंदर परिधान

कीमती आभूषणों से लदा है झूठ

झूठ की अदाएँ सबसे मारक हैं

उसके इशारे पर नाच रही है दुनिया


चारों ओर बज रहा है झूठ का डंका

सोने की जल गई

पर आबाद है झूठ की लंका


झूठ के हवाले ट्राय का किला

झूठ के हवाले नील का पानी

हड़प्पा की मुद्राएँ

बेबीलोन का वैभव

फारस की बादशाहत

इब्राहिम की तदबीर

जरथुस्त्र का चिंतन

बुद्ध की करूणा

कन्फ्यूसियस का दर्शन

कलिंग का युद्ध

संयोगिता की प्रेमलीला

पानीपत की पराजय

पलासी का षड्यंत्र

सब झूठ के हवाले


सच पराजित तो होता रहा है

मगर इतना हताश पहले कभी नहीं दिखा






फिर लोकतंत्र


बिकता सब कुछ है

बस, खरीदने का सलीका आना चाहिए

इसी उद्दंड विश्वास के साथ

लोकतंत्र-लोकतंत्र चिल्लाता है अभद्र सौदागर


सबसे पहले और सस्ते

जनता बिकेगी

और जो न बिकी तो चुने हुए बेशर्म प्रतिनिधि बिकेंगे

यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी

सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है


नैतिकता का क्या

उसे तो पहले ही

तड़ीपार किया जा चुका है

फिर भी ज़रूरत पड़ी तो थोड़ा वह भी खरीद लाएँगे बाजार से

और शर्मीली ईमानदारी

यह जितनी महँगी है

उतनी ही सस्ती

पाँच साल में तीन सौ प्रतिशत बाप की ईमानदारी बढ़ गई

बेटे की तो पूछो ही मत


सबसे सस्ता बिकता है धर्म

लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि

कि कुछ भी खरीदा जा सकता है

यानी लोकतंत्र भी


आदिवासी


ठण्डे लोहे-सा अपना कंधा जरा झुकाओ

हमें उस पर पाँव रख कर लंबी छलाँग लगानी है

मुल्क को आगे ले जाना है

बाजार चहक रहा है

और हमारी बेचैन आकाँक्षाओं के साथ-साथ हमारा आयतन भी बढ़ रहा है

तुम तो कुछ घटो रास्ते से हटो


तुम्हारी स्त्रियाँ कपड़े क्यों पहनती हैं

वे तो ऐसी ही अच्छी लगती हैं

तुम्हारे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं

(इसमें धर्मांतरण की साजिश तो नहीं)

तुम तो अनपढ़ ही अच्छे लगते हो


बस, अपना यह जंगल नदी पहाड़ हमें दे दो

हम इन्हें निचोड़ कर देश को आगे ले जाएँगे

दुनिया में अपनी तरक्की का मादल बजाएँगे

और यदि बचे रहे तो तुम्हें भी नाचने-गाने के लिए बुलाएँगे


देश के लिए हम इतना सब कर रहे हैं

तुम इतना भी नहीं कर सकते 


तुम्हारी भाषा अब गन्दी हो गई है

उसमें विचार आ गए हैं

तुम्हारी सँस्कृति पथभ्रष्ट हो गई है

उसमें हथियार आ गए हैं

खतरनाक होती जा रही हैं तुम्हारी बस्तियाँ

केवल हमारी दया पर बसी नहीं रहना चाहतीं


हमने तो बहुत पहले ही सब कुछ तय कर दिया था

तुम्हें बोलना नहीं गाना आना चाहिए

पढ़ना नहीं नाचना आना चाहिए

सोचना नहीं डरना आना चाहिए

अब तुम्हीं कभी-कभी भटक जाते हो


तुम्हें कौन-सी बानी बोलनी है

कौन-सा धर्म अपनाना है

किस बस्ती में रहना है

कब कहाँ चले जाना है

यह तय करने का अधिकार तुम्हें नहीं है


तुम तो बस, जो हम कहते हैं वह करो

बेकार झमेले में मत पड़ो

हम से डरो हमारी भाषा से डरो

हमारी संस्कृति से डरो हमारे राष्ट्र से डरो 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 9999154822



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