आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं
आशुतोष प्रसिद्ध |
दूरी का जीवन में एक खास महत्त्व होता है। समीप रहते हुए भी थोड़ी दूरी जरूरी होती है। लेकिन कभी कभी यह दूरी बहुत अधिक हो जाती है। मनुष्य का अंतस अपनत्व से भरा होता है। इसीलिए किसी अपने की छांव पा कर वह उस आनन्द का अनुभव करता है जो शब्दोें से परे होता है। तुलसीदास याद आ रहे हैं जो अपनी एक चौपाई में लिखते हैं 'बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।' यानी जुड़ाव ऐसा कि बिछड़ने पर प्राणलेवा बन जाए। हमारे समय के युवा कवियों ने हिन्दी कविता को एक नया स्वर प्रदान किया है जो परम्परा से जुड़ कर भी अपने समय के स्वर से आप्लावित है। आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि उन के पास यह स्वर है। आज जब युवा कवियों में अपने को पहचनवाने जनवाने की हड़बड़ी है ऐसे में आशुतोष का धैर्य और चुपचाप लेखन में लगे रहना एक सुखद संभावनाओं की तरफ इशारा करता है। इस युवा कवि को शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं।
आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं
एक टुकड़ा याद
कल रात
दोपहिया से चलते हुए
तुमने अपने मुलायम हाथ
मेरे कन्धे पर रख दिया था
मैंने कहा ―
दबा दो
दर्द हो रहा है
तुम दबाने लगी
हवा मुस्कुराई
बादलों ने कुछ बूंदें भेज के तुम्हें छेड़ा
तुम हँस के कुछ गुनगुनाई
कोई गीत
शायद कजली
तुम्हारी आवाज़ याद है
उसके बोल याद नहीं
वह क्षण बीत गया
पर,
वह तुम्हारा स-स्नेह स्पर्श
हवा की मुस्कान
बारिश की छेड़
कजली की ध्वनि
अभी भी मेरी देह में चल रही
पास की दूरी
हम इतने पास हैं
कि हमें
रहना पड़ता है दूर दूर
मिलते हैं तो जुबान से
कहते हैं
याद नहीं भाषा क्या होती है
संकेत करो
संकेत ही मूल भाषा है।
एक दूसरे को देखते हैं
आंखों से कहते हैं—
"इंतजार ...."
और मुट्ठियां भींच
बैठे रह जाते हैं
पास पास रखी कुर्सी पर
दूर दूर...
पलायन
भागते हुए
सोचा था अबकी लौटा
तो इस देह को नया नाम दे कर लौटूंगा
मगर लौटा तो बुद्ध नहीं
बुद्ध के द पर
एक ऊ की मात्रा लटका कर
मै भूल गया था
मेरा रक्त ही मेरा मूल धर्म है
और जो रक्त मेरी देह में दौड़ रहा है
सदियों से इस देह से उस देह में छनते हुए
उससे सिद्धि छन गई है
बचा है पलायन
सिर्फ़ पलायन ..
अयोध्या
क्षमा चाहूँगा
असमंजस में हूँ कि इसे क्या होना है?
आधुनिक होने हेतु प्राचीन
या प्राचीन होने हेतु आधुनिक
यह कौन सा शहर है?
जिसे एक ही समय पर
आधुनिक और प्राचीन दोनों होना है?
दीपावली पर जो शहर भर में
भगवा ध्वज मढ़े गए थे
वो अब लाल हो रहे हैं
गिरते और टूटते घरों के गर्दो गुबार से
सजावट की लाल पीली नीली रौशनी
काली पड़ गयी है।
आधुनिक प्राचीनता
और प्राचीन आधुनिकता की शर्त पर
शहर के नवीनीकरण के लिए
मंदिरों को छोड़ कर
अधिकतम पुराने को खदेड़
किया जा रहा बाहर
सनद रहे,
मंदिर, अधिकतम पुराने में नहीं
न्यूनतम पुराने में आता है
तभी तो
टूटे हुए घर के बाहर दो साल का बच्चा
सबसे कहता है -
' मैं मन्दिल थे बला हूँ
मुझसे थोटा है मंडिल'
कल लेबर चौराहे की भीड़ में
कोई लेबर कह रहा था
यह धाम सुन्दर हो जाएगा
तो बहुत अच्छा दिखेगा
कोई कह रहा
धाम तो कब्जा लेंगे
भगवा और पीले झंडे थामे लोग
और हमें भगा दिया जाएगा
हम कामगारों का यहाँ कोई नहीं है
हमको नहीं चाहिए
इनमे से कुछ भी
धाम, राम और नाम
हमको बस काम चाहिए काम
राम से पेट नहीं भरता
नहीं जलता चूल्हा
नहीं पकती रोटी
खून बहता है बस खून ...
एक दूसरे लेबर ने उसे जोर से डाँट कर कहा
तुम क्या जानो
लोगों को मिलेगा आराम
और आराम
इस सदी में सबसे जरूरी चीज है।
भीड़ से कोई धीरे से बोला –
'इनसे तो अच्छे थे वाम '
कभी कभी ही सही
मगर कहते तो थे ―
आवाम
आवाम!
किसी बूढे मजदूर ने तो यह तक कहा
बिक गए हैं सब ऊंचे दाम
छोड़कर राज पाट का काम
दशरथ कर रहें हैं दिहाड़ी
सबके बीच जब मैंने
धीरे से क्षोभ भरे स्वर में
माथा पकड़े कहा ―
"हे राम"
सबने आश्चर्य से पूछा
कौन से राम?
कहाँ के राम?
नहीं जानते,
गिरते घरों के मलबे में दब के मर गए राम
जिनका ले रहे हो नाम।
घर लौटा तो रोटियां डाँट के बोलीं
खामोशी से रहो और बस बोलो
काम
काम
ग्लानि
मन है
मग़र
मन का कुछ नहीं
हाथ है
मगर हाथ में
कुछ भी नहीं
दिमाग है,
पर
देह पर अतिरिक्त
400 ग्राम भार जैसे
हमारे होने के बाद
जो कुछ हुईं
वो सब अब करती हैं हमें नियंत्रित
हम खड़े खड़े देखते हैं सब
बिल्कुल असहाय
बिल्कुल कातर हो
वह सब जो नहीं देखना चाहते
मगर कुछ नहीं कर सकते
अपने होने पर
दया करने के सिवा
नाव डूबती हुई
दूर किनारे पर
जाते हुए दिख रही हो तुम
टूट चुकी है पहले से पतवार
नाव की पेंदी में हो गया है छेद
थक गए हैं मेरे हाथ
उलीचते हुए
पानी को पानी में
जैसे-जैसे दूर हो रही हो तुम
डूब रही है नाव
ऊपर आ रहा हूँ मैं
शांत हो रही है देह
भर रही हो मुझमें तुम
वैसे ही
जैसे
मल्लाह की आँख में
भरती है
सूखती हुई नदी
दुनिया के बीच हम
पूरी बस को
आगे से पीछे तक
कई बार निहार कर
बगल की ख़ाली सीट पर
आकर बैठ जाना था उसे चुपचाप
मग़र वह बैठी नहीं
खड़ी रही मुझसे दो हाथ दूरी पर
और ताकती रही मुझे टुकुर टुकुर
कुछ देर ढिठाई से बैठा
इतंजार करता रहा मैं
कि कितनी देर रहेगा संकोच
अभी बैठ ही जाएगी
आकर मेरे बगल
मेरा हाथ पकड़ कर
पर
वह नहीं बैठी
खड़ी रही
सकुचाई हुई
नहीं रहा गया बैठे अकेले
अब मैं भी खड़ा हो गया इस ओर
और उसे इशारे से पुकार कर कहा
'पास आ जाओ'
वो आँख चारों तरफ़ घुमा के कह रही
'दुनिया है...'
मैं खड़े खड़े देख रहा
हमारे बीच दुनिया को
जो इतनी ज्यादा जगह घेर कर बैठ गयी है
कि हमें खड़े हो कर
करना पड़ रहा सारा सफ़र
याद के दाग
बैठे-बैठे दोनों हाथ ऐसे ऐंठा
जैसे
नाग नागिन संसर्ग करते हैं।
फिर गला इधर-उधर घुमाया
गले ही हड्डी से कुट कुट की आवाज आयी
ख़्याल आया
कैल्शियम तो कम नहीं हो रहा हड्डियों में
फिर ख़्याल आया
बचपन में खड़िया बहुत खाया है
कम तो नहीं होगा आसानी से
अलसाया हुआ
थोड़ी देर खिड़की के सीने पर पीठ रख बैठा रहा
उठने को सोचा पर नहीं उठा
बैठे-बैठे बड़बड़ाया ―
किसके उठने से कुछ बेहतर हुआ
कमी रह ही गयी सबसे
ईश्वर से भी,
हाफ पैंट के आगे का पूरा पैर दिख रहा
गाँठ के बगल दाएं
चोट से काला दाग बन गया है
जो तुम को पकड़ते हुए लग गया था
तुम ―
जो कभी हाथ नहीं आई
तुम जो रेत की तरह रही जीवन में
जब आयी तो पता नहीं किस तरह आयी
कोई उपमा ही नहीं समझ आती उसके लिए
रही,
पर अलग-अलग किरदार में रही
कभी अपने घर की बड़ी बेटी बन कर
कभी बड़ी बहन बन कर
कभी दुनिया से ठगी दुखियारी बन कर रही
कभी अपनी बन कर नहीं रही
ना मेरी बन कर...
और जब गयी
तो पता नहीं क्या बन कर गयी
नहीं! नहीं! तुम गयी कहाँ
तुम मुझमें रह गयी
वैसे जैसे फल्गु नदी की रेत के नीचे गंगा रहती है
लुप्तप्राय!
मेरी आँखें
गाँठ के दागों की तरफ़ पहुँची ही थी
कि एक छिपकली गिरी छत से
चटाक...
सारा आलस्य त्याग मैं कूद कर उठा
गिर कर न रुकी छिपकली को सरपट भागते हुए
देखता रहा कुछ घड़ी
फिर भाग कर गया नहाने..
गंवई टोटके के लिए नहीं
दाग मिटाने के लिए
याद के दाग..
तुम्हारे होने को जीते हुए
ज्यादा नहीं
हाथ भर की दूरी रही होगी
मगर तुमसे रहा नहीं गया
तुम बोल बैठी
पास आ कर बैठो
मुझसे दूर नहीं रहा जाता तुमसे
एक बिंदु पर हाथ रख कर बोली
यहां
हां! बिल्कुल यहां बैठो।
मैं अपनी जगह से थोड़ा सा हिला
औऱ तुम्हारे सामने बैठ गया
मन की जगह मिल जाए
तो बदलने में कष्ट नहीं होता
तुम बोली ―
हाँ अब सही से दिखोगे
और फिर चुप हो गई
तुम चुप हो कर भी बोलती हो!
तुम्हारे हाथ रुकते नहीं हैं
रोको तो भी चलते रहते हैं
कुछ नहीं करती तो जहाँ बैठती हो
वहाँ की घास फूस ही उखाड़ती रहती हो
हाथ रोक दूँ
तो पाँव पकड़ कर सहलाने लगती हो
तुम्हें आदत है बोझ कम करने की
वो पृथ्वी का हो
या मन का
बोझ इतना था
कि भूल गया था
बिना बोझ कैसे लगता है
जीवन
अब याद करता हूँ
कि क्या
बोझ भी होता है जीवन?
और उस पर
तुम्हारी आदत ने
आदत बिगाड़ दी मेरी
इन दिनों मैं हल्का हो गया हूँ
इतना हल्का
कि उड़ रहा हूँ
तुम्हारे प्यार की मद्धिम बयार में
पतवार की मानिंद ..
संदिग्ध
दूर से
पास आने के लिए कह कर चली थी
पास आई है
तो एक सीमेंट की कुर्सी पर
बिल्कुल कोने में
मुझसे कुछ फिट दूर बैठी है
इसमें किसी गिलहरी की भांति फुर्ती थी
पर आज हाँफ रही है
कांप रही है
ज़्यादा पानी लग जाए
तो जैसे
पीले पड़ जाते हैं पौधे
वैसे ही
पीला पड़ा है उसका चेहरा
मैं उसे छूने को हाथ बढ़ाता हूँ
तो अनगिन आँखें
मेरे हाथ पर चिपक जाती हैं
उसे आँखों से डर लगता है
ये बात
उसने बहुत पहले बताई थी मुझे
मैंने अपना हाथ समेट लिया
कुछ घड़ी खामोश
अपने दोनों पँजे मसलते
बैठा रहा
फिर उसे देखते हुए मैंने कहा ―
'अपना ख़्याल रखना'
जबकि मैं
कहना चाहता था–
'मेरे साथ चलो
मुझे तुम्हारा ख़्याल रखना है'
पर नहीं कह पाया
इस डर से
कि कहीं इस बात पर
पूरे के पूरे लोग न चिपक जाएं
अपनी अपनी आँखों समेत
प्रत्याशा
मशीनी आवाज़ में कोई स्त्री बोल रही है
गाड़ी संख्या 14102
प्लेटफॉर्म नंम्बर 2 पर आ रही है
बाहर बारिश हो रही है
टीन पर गिर कर पानी
पानी की आवाज़ में बोल रहा है
चारों तरफ़ लोग ही लोग हैं
कुछ आते हुए, कुछ जाते हुए
कुछ भीगे हुए, कुछ भीगते हुए
कुछ गाड़ी निकल न जाए इस डर से
फेफड़े से तेज़ साँस फेंकते हुए भाग रहे हैं
कुछ खड़े हैं मुझ से
इसी विशाल दुनिया में
अपनी दुनिया ख़ोजते हुए
यह जानते हुए भी
कि किसी भी दुनिया में
पूर्णता नहीं हो सकती
वह खड़े हैं।
मैं ऐसे फेंक रहा साँस
जैसे गाडी रुकने पर फेंकती है गैस!
गाड़ी अभी अभी स्टेशन पर रुकी है
पूरा स्टेशन भनभनाती आवाजों से भर गया है
जैसे मधुमक्खी के छत्ते में मार दिया हो किसी ने अध्धा
सब तेज़ी से भाग रहे हैं
सारे उतरने वाले गायब हो रहे हैं
आँख एक डब्बे से दूसरे डब्बे भाग रही है
गहरा सन्नाटा है
जैसे कोई आया ही नहीं इस गाड़ी से
बारिश तेज हो गयी है
रेलगाड़ी भीग रही बारिश में
टीन से लगातार
एक सीधी रेखा में
ढरक रहा है पानी
तभी पानी की उन सीधी रेखाओं को
अपने शरीर से काट कर
ट्रेन के डिब्बों में घुसने लगते हैं लोग
ट्रेन की शुरू होती धीमी चाल के साथ
तेज होती जा रही है सीधी रेखाओं के पानी को
शरीर से काटकर चलने वाले लोगों की संख्या
और धीरे–धीरे डिब्बा दर डिब्बा
नजर के सामने से चली जाती है ट्रेन
बारिश बंद हो चुकी है कब की
ट्रेन भी कब की जा चुकी है
मैं अब भी खड़ा हूँ ओवरब्रिज पर
और मुझ से कुछ लोग
अभी भी खड़े हैं
अपनी दुनिया खोजते हुए
इसी दुनिया में
यह जानते हुए कि
किसी भी दुनिया में पूर्णता नहीं है
पूरा स्टेशन
खूब रोए हुए
आदमी के चेहरे पर
अचानक आई हँसी की तरह लग रहा।
बिटिया के देखने पर
तुम जो अभी अभी
खोल रही हो आँख
इस चौंधियाये हुए संसार में
तुमसे बस इतना कहना है―
कि अब
कभी न बंद करना आँख
खोले रहना
सोते हुए
कुछ पाते हुए भी
कुछ खोते हुए भी
तब भी खोले रहना
जब करना प्रेम
और तब भी
जब सब एक तरफ़ से
कह रहें हो
दिल से सोच कर देखो
तुम अड़ी रहना इस बात पर
कि देखना
तो बस आँख से होता है।
तुम देखना सुंदर भी,
अ-सुंदर भी
पुण्य भी, पाप भी
हिंसा भी और अहिंसा भी
बस घबराना नहीं
जब कोई तुम्हारे देखने के विरोध में
तुम्हें देर तक
किसी शत्रु की तरह देखे
तब तुम भी उतनी ही शत्रुता
और घृणा से देखना
पुण्य देखते हुए मुस्कुराना,
पाप देखते हुए चढ़ जाना पाप की छाती पर
किसी देवी की तरह छाती को चीरने
देखना
कभी खुशी और मुस्कान के साथ
कभी पूरी ताकत के साथ
देखना सब को
देखना सब कुछ
और
जब कभी जरूरत पड़े
देख–लेना सब को..
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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भैया आप कितना अच्छा लिखतें है। बहुत सुंदर। बने रहिए। ♥️🌼
जवाब देंहटाएंये हैं हमारे भारत🇮🇳 के आधुनिक कवि , हमे आप पर गर्व है ।🌺🌺
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