सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन में ज़मीर की भूमिका'

 

सेवाराम त्रिपाठी 


हमारे यहां जमीर शब्द का इस्तेमाल अक्सर किया जाता है। इसका प्रयोग और उपयोग वे भी धड़ल्ले से करते हैं जो जमीर शब्द का अर्थ तक नहीं जानते। आजकल जमीर बेचना आम और खुलेआम हो गया है। आदमी के जमीर की बात ही क्या, खुद आदमी पर कोई भरोसा नहीं। बहरहाल बात जब व्यंग्य लेखन की हो, तो यह जमीर और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वैसे यह समय या दौर ही गिरावट का है। गिरावट कितनी होगी, इसके बारे में भरोसे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। व्यंग्य लेखन भी इस गिरावट की लपेट में आने से बच नहीं पाया है। आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने इस मुद्दे पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन में ज़मीर की भूमिका'।



'व्यंग्य लेखन में ज़मीर की भूमिका' 

 

सेवाराम त्रिपाठी



आज के इस लंपट दौर में हम ज़मीर के बारे में सोच रहे हैं और उसकी असलियत या क्षमता की तलाश भी कर रहे हैं। उसकी असल धातु ख़ोज रहे हैं। ज़मीर का रिश्ता हमारी अस्मिता और परिपुष्ट अंतःकरण से ही सीधे जुड़ा है। ज़मीर की संबद्धता अंतरात्मा और विवेकक्षमता से होती है। यूँ ज़मीर अरबी भाषा का शब्द है लेकिन इसकी बेलि बहुत फैल गई है। अब तो वह यूं तो जगजाहिर है लेकिन उसके उपयोग में बुरी तरह से कोताही बरती जाती है। प्रायः कोई ज़मीर की या उसके जागृत करने की बात तक नहीं किया करता। कुछ लोग अपना-अपना ज़मीर बेचने के लिए बैचेन हैं। उन्हें हर हाल में सफलता मिलनी चाहिए।इसलिए ज़मीर बेचने का बाज़ार सजा हुआ है। ज़मीर जागृत नहीं तो उसका बिकना तय है और जब अच्छी खासी क़ीमत मिल रही हो तो कोई क्यों न बेचें। उसका चटनी अचार तो रखना नहीं।



हाँ, कुछ लोग इस मुद्दे को कभी-कभार उठा देते हैं और अपने को समर्पित या महान लेखक या कलाकार के रूप में प्रकट कर दिया करते हैं। यूँ व्यंग्य के बारे में कई तरह की बातें सामने आती रहती हैं। लेकिन ज़मीर के बारे में कोई दिलचस्पी या चिंता नहीं की जाती। ऐसा इसलिए कि उनमें ऊहापोह बहुत है। बातों में  रिपिटीशन यानी दुहराव भी ज्‍़यादा होता रहता है। जो उत्साह की रौ में व्यंग्य लिख रहे हैं, वे उस व्यंग्य लेखन की बुनियादी असलियत को सामने नहीं ला पाए। व्यंग्य रचनात्मक है या विध्वंसक यह लंबे विमर्श की मांग करता है। व्यंग्य लेखन की पुख़्ता ज़मीन है और वह तमाम विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विद्रूपताओं, विकृतियों को उजागर भी करता है। उसकी ऐसी ही हैसियत होती है। इधर व्यंग्य का नाम ले कर खूब मात्रा में लिखा जा रहा है भले ही उसमें असली व्यंग्य की मात्रा कम हो लेकिन वह जम कर लिखा जा रहा है और धुंआधार लिखा जा रहा है यानी नॉन स्टॉप शैली में। पड़ताल करें कि व्यंग्य लेखन की मात्रा बहुत ज़्यादा है। फिर भी हाय-तौबा बहुत है व्यंग्य में। दरअसल मेरी समझ में असली समस्या ज़मीर की है। लेखक की संबद्धता, मानदंड और उसकी क्षमता की है। ज़ाहिर है कि ज़मीर के न होने पर हम कई चीज़ों से अपने आप बाहर हो जाते हैं फिर जिसको जो लिखना है लिखता रहे। जहाँ उड़ना हो उड़ता रहे। लिख-लिख कर अंबार लगाता रहे। पढता रहे चमकता रहे या गुणंता खेलता रहे। कई तरह की श्रेष्ठताओं का गुणा-बाकी करता रहे। जो भी उसे कबाड़ना है कबाड़ता रहे। विचार या पक्षधरता इसी से जुड़े हुए मुद्दे हैं। विचार या पक्षधरता सुनिश्चित करना कोई साधारण काम नहीं है और न फालतू में मुँह पटकने का मामला है। जो इससे गहरे से संबद्ध हैं। जो जीवन की वास्तविकताओं को जानते हैं वही इसकी क़ीमत पहचानते हैं। उसी से जुड़े कुछ लोग हैं वही अच्छा व्यंग्य लिख रहे हैं। सच मानिए अच्छे व्यंग्य लिखे जा रहे हैं लेकिन वे छपकर कम आ पा रहे हैं। इसलिए कि उनको छापने में दोनों हाथ ऊपर उठा लिए जाते हैं। व्यंग्य के नाम पर घोंघा ज़्यादा बजाया जा रहा है। अखबारी लेखन पहले भी तो होता था कम से कम हरिशंकर परसाई और शरद जोशी इसके सक्षम उदाहरण हैं। लोग तो और भी हैं। उनके कॉलम इसके पर्याप्त उदाहरण भी हैं और प्रमाण भी।



एक चिंता यह भी है कि अधिकांश तथाकथित व्यंग्य या तो राजनीति के, कार्यालयीन संस्कृति के आसपास होते हैं या भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। सोचिए, जीवन का रणक्षेत्र बहुत बड़ा और व्‍यापक है। उसके जद्दोजहद और मुश्किलात भी अनेक हैं। उन सभी तक अभी शायद हमारी नज़र ही नहीं गई है। व्यंग्य मध्य वर्ग में ही ज़्यादा मुखर है। सामान्य वर्गों तक पहुंच नहीं पाया है। कुछ बातें उच्च वर्ग की आती हैं लेकिन सभी नहीं, आती हैं तो अत्यल्प सी। भूमंडलीकरण के रूपों को बखानने भर से सब मुमकिन है क्या? साधारण जीवन के विद्रूप, विसंगतियां हमारी नज़र से प्रायः ओझल हैं। व्यंग्य लेखन में यदि लू-लपट कम होगी, तो वाकई मामला खटाई में पड़ जाएगा। इस बीच राजनीति की बेशर्मी का फैलाव हज़ार गुना ज़्यादा हो गया है। आप किस-किसको पकड़ोगे और बताओगे। असंख्य नीचताओं की कोख से नए-नए प्रॉडक्ट उभर रहे हैं। इन सबका बहुत विस्तार हुआ है और उसके प्रत्यक्ष परिणाम समाज, सभ्यता-संस्कृति और लेखन की दुनिया में भी मार्केटिंग कर रहे हैं और पसर चुके हैं। यह समूचे नज़ारे हैं हमारे ज़मीर के। जीवन के यथार्थ से मुठभेड़ ही नहीं की जा रही है, उनको लांघ कर केवल टिपुर्रबाजी की जा रही है। लंबी-चौड़ी हाँक जारी है। जो समय की हक़ीक़त और नज़ाकत देखता है वह देखता ही रह जाता है और बेशर्म यहाँ-वहाँ से उचक-उचक कर निकल जाते हैं।



अधिकांश व्यंग्य के इलाके परस्पर प्रशंसा के बेतादाद अनुपात से लगभग पूरे आच्छादित हो गए हैं। वहाँ प्रतिष्ठा की दुनिया के कारनामें भी अनुभव किए जा रहे हैं। इधर प्रशंसा का अनुपात भी बहुत तेज़ी से और बहुत ज़्यादा बढ़ा है। व्यंग्य में हड़बड़ी की भी भीषण मार है। कहीं न कहीं निपटने-निपटाने की स्पृहा ज़्यादा हो गई है। कुछ साथी ऐसे मुद्दे उठाते रहते हैं। मात्रा भले ही कम हो लेकिन असलियत की तासीर गर्म है जैसे- श्रीकांत आप्टे, राहुल देव और संजीव शुक्ल कुछ गम्भीर प्रश्न उठाते रहते हैं और कभी कोई और भी इसमें शामिल हो जाते हैं। कुछ को तो प्रशंसा से छेंक लिया जाता है। और भी लोग हैं, सबके नाम नहीं लिए जा सकते। मेरी निगाह में व्यंग्यकार को अपने ऊपर भी सेंसर लगाने होते हैं और अपना आत्मालोचन भी करना होता है । यूँ ही खानापूर्ति करने से या हवा में उड़ने से काम चल सकेगा क्या? इसके बिना किसी भी तरह निस्तार नहीं। जो अपनी आलोचना करने का साहस नहीं जुटा पाता, वह दूर-दूर तक फैली विसंगतियों, अंतर्विरोधों, पाखंडों, विकृतियों, विरूपताओं और द्वंद्वों को क्या उठा पाएगा? साहस नहीं तो व्यंग्य लेखन नहीं क्योंकि ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे नहीं हो सकती। व्यंग्य लेखन केवल नाराज़गी का मामला नहीं है और न वह कोई निगेटिव रोल वाला हिसाब-क़िताब है। जैसा कुछ महानुभावों ने मान लिया है बल्कि वह जन-जीवन के अंदरूनी जुड़ाव और उसके लिए संघर्ष का ही गंभीर मामला है। इसी आधार पर उसका मूल्याकंन होगा। अपने मुँह मियां मिट्ठू बने रहने से कुछ नहीं होने वाला है। व्यंग्य लेखन की दुनिया में ऐसे न जाने कितने अपने मुँह मिट्ठू लोग हैं।


हरिशंकर परसाई 


व्यंग्य कहीं ठहर जाने वाला नहीं होता। यदि हमारे जीवन और लेखन में विचारों और वास्तविकताओं की गतिशीलता नहीं होगी तो वह सशक्त रूप से अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। व्यंग्य की सार्थकता समय के सवालों को गंभीरता और साहस के साथ उठाने की होती है। वोट कबाड़ने और सत्ता में लगातार बने रहने के लिए सत्ता ने हमारे भारतीय समाज को बहुसंख्यक तत्ववाद के हवाले बुरी तरह कर दिया है। धर्म का, हिंदू-मुस्लिम का कार्ड बहुतायत और बेशर्मी से इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके लिए भारतीय लोकतंत्र की हत्या करने तक के मंसूबे हैं। कुर्सी बनाए रखने के लिए सैनिकों को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है और वे उसका नारा बुलंद कर वोट बैंक निर्मित कर लेते हैं। संवैधानिक ढांचे को स्वाहा करने के सतत प्रयास भी इसी में शामिल हैं। बेरोजगारी और महंगाई जैसे अति आवश्यक प्रश्न अनदेखे कर दिए जाते हैं। बलात्कारों के मामलों को अनदेखा कर दिया जाता है अत्यंत बेशर्मी से।



मैं अपनी शक्ति भर कहना चाहता हूं कि लेखक, पत्रकार और अन्यों को भी ज़मीर का संरक्षण करना चाहिए, तभी उनकी रचनात्मकता की क़ीमत है। उनका सार्थक वजूद है। मैं अटल बिहारी वाजपेई का कभी प्रशंसक नहीं रहा लेकिन गुजरात कांड पर उन्होंने जो बातें वहाँ के मुख्यमंत्री के लिए कही थी वो उनके ज़मीर की ही आवाज़ थी। उनके शब्दों पर ध्यान दें - “मुख्यमंत्री के लिए मेरा एक ही संदेश है कि वे राज धर्म का पालन करें। एक राजा के लिए, शासक के लिए, प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न तो जन्म के आधार पर, न ही जाति के आधार पर, न ही संप्रदाय के आधार पर।” ज़मीर की आवाज़ें लगातार आती रहती हैं और बेशर्मी ढिठाई में डूबे व्यक्तित्व स्वार्थों की रेस में मन की टकसालों से निकल कर उड़ते रहते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य जीवन की सबसे ज़्यादा उपलब्धिपूर्ण यदि कोई चीज़ है तो वह है उसका ज़मीर। यदि कोई अपने ज़मीर का सही उपयोग नहीं करता तो वह मानसिक रूप से  भयानक बीमार है। ऐसे बीमार लोगों की तादात दिनों-दिन निरंतर बढ़ रही है।



ज़ाहिर है कि व्यंग्य लेखन बेहद गंभीर चीज़ है। बिना सरोकारों के व्यंग्य ही क्या कोई भी लेखन, जीवन वास्तव और कोई भी कला संभव हो सकती है? राजनीति, धर्मनीति और समाजनीति भी उससे किसी तरह अलग नहीं है। द्वंद्व तो होता ही है, उससे पार भी जाना पड़ता है और जीवन में अंतर्द्वंद्व को गहराई से पहचानना यूं तो मुश्किल माना जा सकता है लेकिन उसके बिना क्या कुछ भी संभव हो सकेगा? वह लेम्पून या हांजी-हांजी की दुनिया कत्तई नहीं है। मैं समझता हूं कि लेखक को इतना कमज़ोर और खुदगर्ज नहीं होना चाहिए कि वह सच और झूठ का फ़र्क न कर सके। लेखन ऊपर-ऊपर से निकल जाना नहीं होता। और न हर हाल सत्ता की ढपली बजाना। तय तो लेखक को करना ही होगा कि वह कहाँ है। उसे किन-किन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए निरापद स्थिति में लाना है। विसंगतियों, अंतर्विरोधों समस्याओं से निरंतर जूझना है। व्यंग्य के पास बड़ी चुनौती भी है और ज़िम्मेदारी भी। व्यंग्य शौक पूरा करने के लिए लिखे तो जा सकते हैं लेकिन उनका हश्र क्या होगा? समय कहीं बंधा नहीं होता। उसके विस्तार को हमें काल की निरंतरता में समझना चाहिए। समय की त्रासदी को केवल अपनी सुविधानुसार नहीं रखना चाहिए बल्कि उसकी विराटता को उसकी चुनौतियों-विसंगतियों को बिना भय के दर्ज़ करना चाहिए। व्यंग्य सुविधा में, लालच में और किसी प्रलोभन में अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। बच-बच कर लिखने से उसकी विश्वसनीयता किसी भी सूरत में निर्धारित नहीं हो सकती। व्यंग्य ताली बजाने की दुनिया भी नहीं है। वह प्रशंसा में पड़ कर ऊँचा हो ही नहीं सकता। समय की आपदाओं से मुठभेड़ किए बिना व्यंग्य अपनी सही भूमिका अदा नहीं कर सकता। क्या व्यंग्य बच-बचा के या आत्ममुग्धता में फंस कर वह युग की तमाम विभीषिकाओं का सामना कर सकता है? कर तो नहीं सकता, लेकिन अधिकांशतः हो यही रहा है। शब्दों की सीमाओं में बंध कर हम मांग और आपूर्ति तो कर सकते हैं लेकिन सामाजिक सरोकारों और उसकी उम्मीदों को परवान नहीं चढ़ा सकते। यह लेखक की संवेदना और गहन अंतर्दृष्टि का ही मामला है।



अचानक मुझे पंजाबी ट्रिब्यून के लेखक स्वराजबीर का ध्यान हो आया। जिनका एक लेख है- 'लेखकों का इन्कार'। ”ये साहित्यकार क्या कर रहे हैं? ये साहित्यकार राजसत्ता को अलग तरह से चुनौती दे रहे हैं। वे कह रहे हैं कि राज सत्ता का हिस्सा बनने से इन्कार करते हैं.. देवनूर महादेव और जी। रामकृष्ण यह विरोध उस समय कर रहे हैं जब एक के बाद एक साहित्यकार राजसत्ता के आगे झुकता जा रहा है। वे साहित्यकारों और साहित्य के लिए नए मापदंड भी स्थापित कर रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि साहित्य के बारे में निर्णय सरकारों को नहीं, लोगों और पाठकों को करना है यही सही पहुँच है। यही हमारे संविधान की प्रस्तावना कहती है, मनुष्य के मान सम्मान को कायम रखना।” (हमारा समय जिक्र और फ़िक्र -पृष्ठ 38-39) नहीं तो व्यंग्य लेखन भी संभव नहीं। कोई प्रतिबद्ध और जन संबद्ध हुए बिना तो कुछ समय के लिए चमक सकता है लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए शायद नहीं। व्यंग्यकार रिपोर्टर भर नहीं हो सकता। यह सब कुछ गहन अंतर्दृष्टि का ही मामला है। हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को देखें - "देखो, बादलों में कभी-कभी बिजली चमक जाती है, जैसे दो-चार महीनों में किसी पत्रिका में कोई अच्छी कविता दिख जाती है। मेढक चारों ओर टर्रा  रहे हैं जैसे नए कवि रचना-प्रक्रिया पर चर्चा कर रहे हों। पक्षी घोसलों से सिर निकाल कर बार-बार झांक रहे हैं जैसे बड़े लेखक लिखना छोड़ उत्सुकता से प्रतिनिधि मंडलों में विदेश जाने का मौका ताक रहे हैं। इस सूखे वृक्ष में एक फुनगी फूट आई है, जैसे किसी चुके सयाने लेखक को पद्मभूषण की उपाधि मिल गई हो।" क्या मार है और क्या कहन है।




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टिप्पणियाँ

  1. व्यंग्य के सरोकारों और सरोकारी व्यंग्य पर सटीक चिंता एवं चिंतन।

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  2. व्यंग्य के सरोकारों एवं सरोकारी व्यंग्य पर सटीक चिंता एव चिंतन।

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  3. बात और दूर तक जा सकती थी , जानी चाहिए । त्रिपाठी जी ने जल्दी समाप्त कर दी । बहरहाल बेहतर है व्यंग्य के आलोचनात्मक पक्ष पर बात होनी चाहिए ।

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