शंकरानंद की कविताएं

 

शंकरानंद



शंकरानंद

परिचय


जन्म- 8 अक्टूबर 1983 को खगडिया जिले के एक गाँव हरिपुर में।

शिक्षा -एम. ए. (हिन्दी), बी. एड.


प्रकाशन- कथादेश, आजकल, आलोचना, हंस, वाक्, पाखी, वागर्थ, वसुधा, नया ज्ञानोदय, सरस्वती, कथाक्रम, परिकथा, पक्षधर, वर्तमान साहित्य, कथन, उद्भावना, बया, नया पथ, लमही, सदानीरा, साखी, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती, इंदप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, मगध, कविता विहान, नई धारा, आउटलुक, दोआबा, बहुवचन, अहा जिन्दगी, बहुमत, बनास जन, निकट, जनसत्ता, विश्वरंग कविता विशेषांक, पुस्तकनामा साहित्य वार्षिकी, स्वाधीनता शारदीय विशेषांक, आज की जनधारा वार्षिकी, कथारंग वार्षिकी, सब लोग, संडे नवजीवन, दैनिक जागरण, नई दुनिया, दैनिक भास्कर, जनसंदेश टाइम्स, जनतंत्र, हरिभूमि, प्रभात खबर दीपावली विशेषांक, शुभम सन्देश, नवभारत आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। कुछ में कहानियां भी।


पिता, बच्चे, किसान और कोरोना काल की कविताओं सहित कई महत्वपूर्ण और चर्चित संकलनों के साथ 'छठा युवा द्वादश' और 'समकालीन कविता' में कविताएं शामिल।


हिन्दवी, समालोचन, इन्द्रधनुष, अनुनाद, समकालीन जनमत, हिंदीसमय, समता मार्ग, कविताकोश, पोषमपा, पहलीबार, कृत्या आदि पर भी कविताएं।


अब तक तीन कविता संग्रह 'दूसरे दिन के लिए', 'पदचाप के साथ' और 'इंकार की भाषा प्रकाशित'। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताएं प्रसारित। साहित्य अकादमी, रज़ा फाउंडेशन, भारत भवन सहित कई महत्वपूर्ण आयोजनों में कविता पाठ। पंजाबी, मराठी, नेपाली और अंग्रेजी भाषाओं में कविताओं के अनुवाद भी।


कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार, राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार|


सम्प्रति - लेखन के साथ अध्यापन



हर कवि अपनी कविताओं में कुछ नए मुहावरे, कुछ नई बातें या स्थापनाएं लाने का यत्न करता है। सामान्य तौर पर कवि से यह उम्मीद की जाती है कि वह जो मुहावरे या बातें प्रयुक्त करे, वह सायास न हो कर अनायास हो। पाठक जब उसे पढ़े तो एक पल के लिए न केवल थम जाए बल्कि सोचने विचारने के लिए मजबूर हो जाए। युवा कवि शंकरानन्द ऐसे कवि हैं जो अपनी कविताओं में प्रयोग करते हैं। ऐसे नए मुहावरे या नई बातें लाते हैं कि हमें अनायास ही रुकना पड़ता है। और यह सब कुछ कविता के अन्दर होता है। इस रूप में देखा जाए तो शंकरानन्द कवियों की जमात में एक अलग ढब के कवि हैं। एक लम्बे अरसे बाद पहली बार पर हम उन्हें फिर प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि शंकरानन्द की कुछ नई कविताएं।



शंकरानंद की कविताएं 



जिनके घर नहीं जाना 


यह पृथ्वी 

ओस और धूप से भरी हुई है 

किसी एक को चुनने की जिद 

और कुछ नहीं 

बस एक मूर्खता है 


चौंखट पर पैरों के निशान 

पोंछने तक ही साबुत रहते हैं 

कौन आएगा 

अगर पैरों के साथ आती धूल से 

इसी तरह खीझ बढ़ती रही 


चमकते हैं पत्थर 

लेकिन उनमें  

मनुष्य की गंध नहीं होती 

उसके लिए तो मिट्टी होना पड़ता है 

छाप से भरी हर धूल

एकांत के सन्नाटे में 

उम्मीद की एक परिभाषा है 


जिनके घर कोई नहीं जाता 

उनकी चौंखट

इतनी साफ़ और चमकदार है कि

उसमे अपना चेहरा देखा जा सकता है 

ऐसी उम्र और ऐसा जीवन 

एक सजा ही है 


गंध और छाप से भरी इस पृथ्वी पर 

वह एक वर्जित प्रदेश है 

जहाँ मनुष्यता के सूखे पत्ते 

हरदम फड़फड़ाते हैं 

मुझे उस रास्ते में डर लगता है!



रहस्यों का होना 


रहस्यों का होना 

जीने के लिए बहुत जरूरी है 

जैसे जरूरी है हर एक स्वप्न

नींद के साथ  


सब कुछ सपाट हो कर 

एक दिन तस्वीर खराब कर देता है 

एक ही रंग बार-बार 

अपने होने से उदास करता है 

चाहे वह वसंत का ही क्यों न हो

अकेला गाढ़ा हरा  


वही खुरदरे पत्थर वाले दिन 

मीठे पानी की 

उम्मीदों से भरी 

वह नम रात 

बने बनाए सांचे में ढला 

वही चेहरा 

कभी-कभी बहुत निराश करता है


तब लगता है कि

ऊब दरअसल 

एक ठहराव का नाम है 

लोहे में लगी जंग का नाम है ऊब 

जो धीरे-धीरे सब खा जाता है 


इसीलिए तय चीजों और आदतों में 

अब मेरी रूचि नहीं रही

 

मुझे रहस्यों से प्यार है 

वहां कुछ न कुछ नया मिलने की 

गुंजाईश हमेशा होती है


रहस्यों से भरे 

इस घने अँधेरे के बीच भी 

मुझे चमकीले दिन का इंतजार है।





 

इससे बेहतर 


कोई नहीं चाहता कि 

वह किसी बंजर में 

अकेले पेड़ की उम्र पाए 


यह एक यातना है 

शोक से भरी हुई

दुःख में डूबी पीड़ा 

जो चैन से जीने नहीं देगी 


ग्लानि में डूबना चाहिए जिसे 

वह गर्व से भरा तसला है 

जिससे छलकता है पानी 


बहुत सोचने के बाद भी

कुछ मुश्किलें अमर होती हैं 

वे मिटना नहीं चाहती


ऐसे में मोमबत्ती की तरह 

घुट कर कलपने और गलने से 

बेहतर है एक पत्थर की उम्र!



कुछ समझौते  


दूरियां इतनी है कि 

एक का चेहरा 

दूसरे की छाया के 

विपरीत दिशा में है 


हर भूल एक उम्र के बाद 

अपने रंग छोड़ देती है 

उसकी चमक गल जाती है 

मन के ओस की बारिश में 


कुछ समझौते 

उम्मीद की सुबह देते हैं 

कुछ के हिस्से में आती है 

अमावस की रात

 

हत्यारों की दुनिया में 

कोई फैसला अंतिम नहीं होता 

गवाही जरूर अंतिम हो जाती है।






थकान का मतलब 


पहचानने में 

अक्सर धोखा होता है

 

जिसे हम जड़ समझते हैं 

वह मिट्टी में दबा 

लकड़ी का कोई टुकड़ा है


धूप को पहचान कर 

रात को भूलने की आदत 

सदियों पुरानी है 


कुछ हासिल नहीं होता 

नींद को पहचान कर 

स्वप्न तो तब भी 

पकड़ में नहीं आते हैं 


थकान वह नहीं है 

जो चेहरे से दिखती है 

सुस्ती और हताशा वह नहीं है 

जो परिभाषाएं बताया करती हैं 


जिस कंधे पर सिर टिका हो 

उसका ढह जाना थकान है 

फिर तो दूसरा कन्धा खोजने में 

एक उम्र बीत जाती है 

एक जनम कम पड़ जाता है

 

फिर भी वह कन्धा नहीं मिलता 

जो एक थके हुए मन का बोझ 

बेहिचक उठा ले!



खो जाने के बाद 


हर तरह के शोर के बीच 

गूंजती है एक आवाज 

खो जाने की 


भीड़ में यह अक्सर होता है 

जब बच्चे हाथ 

पकड़ना भूल जाते हैं 

वे हर तरफ भटकने के बाद 

अंत में रोने लगते हैं 


कितना कुछ गुम हो जाता है 

वर्षों तक उसके नहीं होने का 

एहसास तक नहीं होता 

ऊँगली पर गिनना तक 

मुश्किल है ऐसी चीज़ों को


मैं हिसाब लगाना भूल जाता हूँ 

खोने का यह अंतहीन सिलसिला 

चैन से जीने नहीं देता 


बच्चे जिस तरह बिलखते हैं 

झुण्ड से अलग होने के बाद 

उस तरह कोई नहीं बिलखता 

कोई पुकार नहीं लगाता 

सुन लिए जाने तक 

इसीलिए  धीरे धीरे मिट जाता है 


मिट जाने का यह कारण

सबसे प्राचीन है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क-


क्रांति भवन, कृष्णा नगर,

खगरिया-851204


मोबाइल - 8986933049



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