'व्योमकेश दरवेश' पर अरुणाकर पाण्डेय की समीक्षा 'हमन को होसियारी क्या!'



हमारे समय के अनूठे और बेजोड़ लेखक-आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी को व्योमकेश दरवेश के लिए 'व्यास सम्मान' प्रदान किया गया है. आदरणीय विश्वनाथ जी को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस किताब की एक समीक्षा, जिसे हमारे अनुरोध पर लिखा है मित्र कवि अरुणाकर पाण्डेय ने.  

एक लेखक की ताकत का  इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि विधाएँ भी भ्रम में पड़ जाएँ कि आखिर यह है क्या? विश्वनाथ त्रिपाठी हमारे समय के ऐसे ही विलक्षण लेखक हैं जिन्होंने अपनी कृति 'व्योमकेश  दरवेश' में यह कर दिखाया है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन को केन्द्र में रख कर लिखी गयी यह पुस्तक अपने आप में बेजोड़ बन पड़ी है.  तो आईये पढ़ते हैं इस पुस्तक पर लिखी गयी यह समीक्षा।     

व्योमकेश दरवेश – हमन को होसियारी क्या!

अरुणाकर पाण्डेय

लगभग तीस वर्षों के अंतराल पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन और उनकी दृष्टियों पर केन्द्रित यह पुस्तक उनके अन्तरंग शिष्य और हिन्दी के प्रतिष्ठित अध्यापक और रचनाकार डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखी गयी है। इससे पहले नामवर जी की उन्ही पर केन्द्रित पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ सन बयासी में राजकमल से ही प्रकाशित हुई थी।  इस बीच द्विवेदी जी के अन्य शिष्यों जैसे कि काशीनाथ सिंह और शुकदेव सिंह द्वारा उन पर लिखे संस्मरण भी हिन्दी के पाठकों को पढने के लिए मिलते रहे। इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि द्विवेदी जी का व्यक्तित्व उनके जाने के बाद भी लगातार हिंदी समाज में विकसित होता रहा है और त्रिपाठी जी की यह पुस्तक उनके विस्थापन को एक लम्बे समय तक चलने वाली सांस्कृतिक घटना के रूप में हमारे सामने रखती है।

पुस्तक पढ़ने के साथ यह अहसास लगातार बना रहता है कि भले ही हम द्विवेदी जी को पुस्तक से समझ रहे हों लेकिन संघर्ष की परम्पराएँ जीवंत होती हैं। अन्य शब्दों में पुस्तक पढ़ते हुए हम जिन घटनाओं का सामना करते हैं वे हमें निश्चित ही पन्नों के पार उन ऐतिहासिक जगहों का आस्वादन कराती हैं जहां पहुँच कर हम एक समूचे जीवन में फक्कड़पन की बादशाहत देख समझ सकते हैं। संभवतः यही कारण है कि त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक का नाम ‘व्योमकेश दरवेश’ रखा है।

‘व्योमकेश दरवेश’ बहुत समय लेकर और बहुत शोध के साथ लिखी गयी है जिससे यह तो सिद्ध होता ही है कि द्विवेदी जी का साहित्य जितना स्थान हिन्दी जगत में बनाता है उससे कम उनका अपना जीवन नहीं। इसका कारण उनका खुद का जीवन है जिसका अध्ययन यह प्रमाणित करता है कि वे स्वयं एक औपन्यासिक चरित्र रहे होंगे। उनका जीवन जितने विरोधों और घातों से भरा था वह स्वयं में एक रचनात्मक प्रेरणा के लिए पर्याप्त है। उनके अपने अनुभव ही यदि साहित्य में आलोचकीय विस्तार पाते हैं तो उसमें आश्चर्य की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।  द्विवेदी जी का यह व्यक्तित्व इतनी जटिलताओं का परिणाम है कि उसका प्रभाव त्रिपाठी जी के इस गद्य की विधा को तय करने में पाठकों के समक्ष द्रविड़ प्राणयाम की स्थिति पैदा कर दे। यह इस अर्थ में अच्छा भी है क्योंकि यह पारम्परिक पाठकों की समझ को भी ठोस चुनौती देता है। द्विवेदी जी का चरित्र उनके गाँव-जवार से लेकर उनके अस्त होने तक के काल तक इस पुस्तक में विराजमान है। इसमें त्रिपाठी जी से संपर्क के पहले का जो कुछ लिखा गया है वह पाठक को जीवनी के निकट ले जाता है। इसके साथ द्विवेदी जी की वत्सलता में जो त्रिपाठी जी ने देखा समझा वह पाठक को संस्मरण की ओर खींचता है। संभवतः इस कारण त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक को ‘पुण्य-स्मरण’ माना है और भूमिका में लिखा है कि यह उनकी भी समझ से परे है कि यह पुस्तक जीवनी है या संस्मरण। वे यह याद नहीं कर पाते कि कब उन्होंने यह किताब लिखने की सोची थी लेकिन यह द्विवेदी जी का अखंडित स्मरण ही है जो उनसे यह काम करा गया। हाँ ! लेकिन लम्बे समय तक यह किताब तैयार करते हुए भी वे द्विवेदी जी की यह डांट याद करते रहे हैं कि “आलस्य प्रतिभा की खाद होती है, लेकिन तुममे खाद कुछ ज्यादा ही हो रही है।”


  (चित्र : विश्वनाथ त्रिपाठी)

 त्रिपाठी जी ने ‘व्योमकेश दरवेश’ में द्विवेदी जी का जीवन कई भागों में प्रस्तुत किया है। पहला भाग  ‘बचपन, बसरिकापुर और काशी’ उनके छात्र जीवन से सम्बंधित है। इस भाग का प्रामाणिक विश्लेषण करने के लिए उन्होंने द्विवेदी जी के आरंभिक जीवन को प्रकाशित करने वाले कई महत्वपूर्ण सन्दर्भों का हवाला दिया है। इसके लिए उन्होंने आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी अभिनंदन ग्रन्थ,’ग्रंथावली’ के वैयक्तिक संस्मरण खंड,’शांतिदूत’, नागरीप्रचारिणी पत्रिका के आचार्य केशव प्रसाद मिश्र स्मृति ग्रन्थ तथा द्विवेदी जी द्वारा लिखित महत्वपूर्ण पत्रों व अन्य सन्दर्भों का उपयोग किया है। लेकिन इस श्रमसाध्य उपयोग से उन्होंने जिन घटनाओं का वर्णन और विवेचन किया है, अंततः वे पाठक के मन पर द्विवेदी जी के छात्र जीवन से ही मार्मिक संघर्ष को उद्घाटित करते हैं। जिस विद्या और रचनात्मकता की उपासना उन्होंने जीवन भर ठहाके मारते हुए की, उसका आधार प्राप्त करने में भी उन्होंने जो युद्ध लड़ा, यह किताब जैसे हमारे सामने उन सब का साक्ष्य प्रस्तुत करती हो। मानो संघर्ष ने खुद का सौन्दर्य स्थापित करने में द्विवेदी जी को आरम्भ से ही चुन लिया।

ऐसी ही एक मार्मिक घटना का उल्लेख त्रिपाठी जी ने उनके पत्रों के माध्यम से किया है जब वे सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में इंटरमीडिएट की परीक्षा की फीस भरने में असमर्थ हो गये थे। प्रिंसिपल ध्रुव की दुत्कार और लोक ने उन्हें परीक्षा की फीस के लिए कथावाचन की ओर अग्रसर किया और उससे उन्हें उस जमाने के पैंतीस रुपयों के साथ रजाई, अन्न, वस्त्र और रूपये भी प्राप्त हुए और उन्होंने इंटरमीडिएट उत्तीर्ण की।  यह प्रसंग छात्र जीवन में ही उनका पुरुषार्थ के बल को रेखांकित करता है जिसमें द्विवेदी जी ने तमाम विरोधों में भी जीवन पर्यंत संघर्ष का दामन नहीं छोड़ा और अपनी साहित्य-दृष्टि अर्जित की।

त्रिपाठी जी की यह पुस्तक ऐसे ही अनेक मार्मिक प्रसंगों से भरी पड़ी है और द्विवेदी जी की जीवनी शक्ति का शोध लगातार उनके जीवन के हर महत्वपूर्ण पड़ाव पर करती है। त्रिपाठी जी ने इन पड़ावो को बचपन एवं छात्र जीवन के पश्चात् शान्तिनिकेतन,बनारस-प्रकरण, पंजाब विस्थापन तथा उनके मृत्यु-पर्व के रूप में चिह्नित किया है। शान्तिनिकेतन की चर्चा अनेक सन्दर्भों में की गयी है जिसमें आधुनिक हिंदी संस्कृति और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व का सम्बन्ध बनता हुआ दिखता है। यहाँ पर द्विवेदी जी के अपने छात्रों के साथ के व्यवहार से शिक्षा-रीतियों पर भी प्रकाश डाला गया है तथा साथ ही साथी अध्यापकों के साथ उनकी चर्चा का परिचय भी प्राप्त होता है। सांस्कृतिक प्रभाव एक रोचक प्रसंग पाठक को तब मिलता है जब एक  रूढ़िवादी ब्राह्मण महोदय शान्तिनिकेतन पधारते हैं। जब द्विवेदी जी चर्चा के उपरान्त उन्हें मूर्ति रहित उपासना-मन्दिर दिखाते हैं तो वे यह सहन नहीं कर पाते कि बिना मूर्ति के उपासना कैसे हो सकती है! द्विवेदी जी के यह समझाने पर कि यहाँ ब्रह्म की उपासना के कारण मूर्ति नहीं है, वे राम-राम करके अपनी घृणा दर्ज कराते हैं। गीत-गोविन्द के पाठ और लड़के-लड़कियों की सहपाठिता पर भी उक्त सज्जन की यही प्रतिक्रिया होती है और बिना आगे संवाद किये वे वहाँ से चले जाते हैं। त्रिपाठी जी ने द्विवेदी जी के इस प्रसंग से एक ऐसा खोया हुआ दुर्लभ प्रकरण हमारे सामने रख दिया है जिससे पता चलता है कि शान्तिनिकेतन से आते हुए नये बदलावों को अभी हिंदी पट्टी में स्थापित होने के लिए रूढ़िवादी घृणा का कितना कोप सहना पड़ा होगा। 



(चित्र : विश्वनाथ त्रिपाठी)
 द्विवेदी जी का बनारस प्रवास और वहाँ से उनके विस्थापन का प्रकरण हिंदी जगत से कभी विस्मृत नहीं हो पाता क्योंकि वहाँ से पीढ़ियों ने उनके फक्कड़पन का सबसे गंभीर और मर्मस्पर्शी आस्वादन पाया है। इसका कारण यही लगता है कि जिस परम्परा की पहचान उनके समकालीनो ने उनके जीवन और साहित्य-दृष्टि की अभिन्नता से की है उसका केंद्र काशी ही था। द्विवेदी जी के फक्कड़पन और संघर्ष का सबसे सघन परिचय काशी की प्रयोगशाला से प्राप्त होता है। व्यक्ति प्रणेता हो,स्वाभिमानी हो, कर्मठ हो, पीढ़ियों का निर्माता हो और विषयों की समझ बदलने की ऐतिहासिक क्षमता रखता हो और लगातार षड्यंत्रों, अपमानों और आघातों तथा विरोधों की आंधी का सामना करता हो तो वह कभी मर नहीं सकता। यही कारण है कि कबीर उनकी आलोचना-दृष्टि के केंद्र थे। त्रिपाठी जी की पुस्तक का उक्त अंश इस मायने में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन जाता है क्योंकि एक तो यहाँ जीवनी संस्मरण में रूपांतरित होने लगती है और दूसरा यह कि इस प्रकरण की प्रामाणिकता के लिए वे फिर से अपनी श्रमसाधना का परिचय देते हुए विभिन्न सन्दर्भ बहुत  सावधानी से अर्जित कर प्रस्तुत करते हैं। वे स्वयं द्विवेदी जी के बनारस-प्रवास के गवाह हैं लेकिन द्विवेदी जी के इस शोध में वे ज़रा भी ढीले नही दिखाई पड़ते और बधाई के पात्र हैं।     

‘व्योमकेश दरवेश’ की एक अनुपम विशेषता यह है कि त्रिपाठी जी के माध्यम से द्विवेदी जी की मृत्यु की यात्रा भी इसमें अंकित है और यहाँ भी पाठक इस समझ को विकसित करता है कि करुणात्मक आख्यान की शैली बेहद स्वाभाविक हो सकती है। याद नहीं आता कि इस प्रकार किसी गुरु की मृत्यु का साक्षात्कार कहीं ऐसे प्रस्तुत हुआ हो। बल्कि पुस्तक का यह अंश द्विवेदी जी और मृत्यु की अंतरंगता को दर्शाता है तथा रोग और बीमारियों तक को एक चरित्र दे जाता है। मसलन साइटिका के रोग को द्विवेदी जी सहते हुए भी एक नया नाम ‘साहित्यिका’ दे देते हैं और उसे साहित्यकारों का रोग बताते हैं जिससे यही अनुभूति होती है कि उनका चिर-परिचित विनोद उनके दर्द पर भी हावी हो गया था।

त्रिपाठी जी की एक खासियत उनकी गद्यात्मकता और गद्य-रसिकता है जो ‘व्योमकेश दरवेश’ में भी सर्वत्र व्याप्त है। पुस्तक पढ़ते हुए कई बार उसके श्रवण की प्रतीति होती है और वह भी आत्मीयता के रंग मरण डूबी हुई। पाठक को यह लग सकता है कि जैसे किताब के माध्यम से वह साहित्यिक बैठकबाजी का आनंद उठा रहा हो और लेखक उनसे अपने मन की स्मृतियाँ और अनुभव साझा कर रहा हो।  उदाहरण के लिए इस पुस्तक की भूमिका रचते हुए वे बताते हैं कि जब इस पुस्तक के लिखने की बात उन्होंने प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी जी से की तो उन्हें यह सलाह मिली कि वे द्विवेदी जी को बिना बताये उनकी बातें नोट कर लिया करें। लेकिन इस स्थिति पर स्वयं त्रिपाठी जी ही लिखते हैं कि -


            “ मैं यह सब कुछ नहीं कर पाया। इच्छा रही होगी, ज्ञान और क्रिया से रहित।”

यहाँ बात चल रही है साहनी जी कि गंभीर राय न मान पाने कि, लेकिन अनायास ही ‘कामायनी’ की स्मृति भी विनोदात्मकता के साथ पाठक के मन में उभर आती है और वह बिना मुस्कुराए नहीं रह सकता। इसके साथ ही ऐसा लगता है कि जैसे पाठक उनके साथ एक वार्तालाप में निश्चिन्त हो बैठा और खुद में डूबा हुआ उन्हें सुनता जा रहा हो। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस पुस्तक की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इसमें द्विवेदी जी के कुछ दुर्लभ छायाचित्र भी संकलित किये गए हैं जो पाठक को उनकी अविस्मरणीय और भावनात्मक छवि अनायास ही दे जाता है।

 द्विवेदी जी के आदर्श कबीर थे। उन्होंने यह कहा है कि “हमन हैं इश्के मस्ताना,हमन को होसियारी क्या!” यह बात द्विवेदी जी के चरित्र पर भी पूरी तरह लागू होती है क्योंकि उन्होंने भी उसी फकीरी को बिना किसी हिंसा के जीवन भर जिया और सहजता उसकी आत्मा थी जो किसी भी तरह चालाकी और चालबाज़ी को प्रश्रय नहीं दे सकती। अंततः यह किताब भी वैसी ही सहजता की परिपक्वता का परिणाम है जिसका स्वागत मुक्त कंठ से हिंदी जगत के द्वारा किया जाना चाहिए। 












सम्पर्क -   
अरुणाकर पाण्डेय
मोबाईल - 09910808735


टिप्पणियाँ

  1. pustak bhahut rochak, patniye he. jin varisth sahityekaro ko hamne nh dekha unke vishy me padh kar acha lugta he. lugta he hamne unhe dekh liya. vishv nath ji ka dhyanyevad. Manisha jain

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