साझा संस्कृति संगम में स्वीकृत इलाहाबाद घोषणा

इलाहाबाद में विगत 14-15 फरवरी 2014 को 'साझा सांस्कृतिक संगम' का आयोजन हुआ. 'जनवादी लेखक संघ' के इस आयोजन में स्थानीय स्तर पर 'जन संस्कृति मंच' और 'प्रगतिशील लेखक संघ' भी भागीदार थे. इस संगम में देश भर से लगभग 250 लेखक शामिल हुए. कार्यक्रम के दूसरे दिन 15 फरवरी को 'जनवादी लेखक संघ' के आठवें राष्ट्रीय अधिवेशन में 'इलाहाबाद घोषणा' का प्रस्ताव रखा गया, जिसे कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया गया. आज हमारा देश फासीवाद के खतरे को शिद्दत से महसूस कर रहा है. ऐसी परिस्थिति में यह घोषणा ऐतिहासिक महत्व की है, जिसके आशय दूरगामी हैं. इस प्रस्ताव से देश के लेखक समुदाय की चिंताओं के बारे में सहज ही जाना जा सकता है. तो आईये पढ़ते हैं यह 'इलाहाबाद प्रस्ताव' जिसे  हमें उपलब्ध कराया है हमारे युवा आलोचक मित्र संजीव कुमार ने.


साझा संस्कृति संगम में स्वीकृत इलाहाबाद घोषणा

भारतीय समाज इस समय फ़ासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। सच तो यह है कि देश के अनेक हिस्सों में लोग अघोषित फ़ासीवाद की परिस्थिति में ही सांस ले रहे हैं। यह ख़तरा काफ़ी समय से मंडरा रहा था पर अब एक अलग कि़स्म के और ज्यादा निर्णायक चरण में दाखि़ल होना चाहता है। सामराजी सरमाया के दबाव में थोपे गये आर्थिक उदारीकरण ने बेतहाशा आर्थिक तबाही के साथ देश की संवैधानिक संरचना, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सामाजिक और सांस्कृतिक परस्परता के ढांचे को ध्वस्त करना शुरू किया, और ऐसी हालत आन पहुंची है कि प्रतिक्रियावाद के ये बहुमुखी आक्रमण रोके नहीं गये तो हिंदुस्तानी मुश्तरक़ा तहज़ीब, जीवन शैली और पिछले डेढ़ सौ सालों में विकसित राजनीतिक पहचान और क़ौमी परंपराएं ही लापता हो जायेंगी। संगठित पूंजी ने राज्य और राजकीय संस्थाओं पर, प्रमुख राजनीतिक दलों में, कार्यपालिका, सुरक्षातंत्र और न्यायपालिका पर अपनी घुसपैठ इतनी बढ़ा ली है कि वह लगभग सभी दूरगामी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक नीतियों की दिशा निर्धारित करने लगी है और हुक्मरान तबक़ा इसके अर्दली की तरह काम करता दिखायी देता है। मीडिया के बड़े हिस्से पर पूंजी का क़ब्ज़ा हो चुका है। सूचना, प्रचार, समाचार और मनोरंजन के साधनों पर वह लगभग एकाधिकार की स्थिति में है। कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के तंत्र अब पूंजी के चौकस प्रहरी, उसकी साजि़शों के प्रभावी वाहक और जन-हितों को कुचलने वाली हिंसक मशीन में बदल चुके हैं।

यह परिस्थिति सिर्फ़ अमरीकी दबाव या कारपोरेट घरानों के इशारे भर से नहीं बनी है; इसके पीछे प्रतिक्रियावादी ताक़तों द्वारा तालमेल के साथ भारतीय मध्यवर्ग और आम जनता के बहुत से हिस्सों की लामबंदी के संगठित प्रयास हैं और इन प्रयासों का एक लंबा इतिहास है। हमारे देश में भी फ़ासीवादी विचारधारा का एक अतीत है, वह अरसे से ताक़त इकट्ठा करती आ रही है अब वह नाजु़क हालत आ पहुंची है कि यह हमारे भविष्य को निर्धारित करना चाहती है। पिछले दो दशकों में शासक वर्ग की अवाम दुश्मन और लुटेरी नीतियों के नतीजे के तौर पर आनन फानन में धनी हुए मध्यवर्ग का एक बड़ा टुकड़ा, जिसमें नौकरीपेशा लोग भी शामिल हैं, अब इस पूंजी के पीछे लामबंद है। दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी, फि़रक़ावाराना और मज़हबी जुनून फैलाने वाली कुव्वतें, ख़ासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध दर्जनों संगठन हिंदुत्ववादी अस्मिता के निर्माण, प्रचार-प्रसार, योजनाबद्ध साजि़शों और आतंकवादी तरीक़ों से भारतीय समाज के प्रतिक्रियावादी पुनर्गठन में मुब्तिला हैं। इसी दौर में राष्ट्रीय आंदोलन की उदारवादी और जनोन्मुखी प्रेरणाएं और मूल्य तेज़ी से टूटे बिखरे हैं और बांये बाजू़ की वैकल्पिक चुनौती और प्रतिरोध की परंपरा भी कमज़ोर पड़ी है। संक्षेप में, सामराजी भूमंडलीकरण, कारपोरेट पूंजी और हिंदू राष्ट्रवाद का यह गठजोड़ हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर हिस्से पर क़ाबिज़ होना चाहता है, और ऐसी हालत बनायी जा रही है कि लोगों को लगे कि अब और कोई विकल्प बचा नहीं है। जबकि सच यह है कि ऐन इसी समय समाज के बड़े हिस्से, ख़ासतौर पर वंचित तबके़ अपनी कशमकश और अपने संगठित-असंगठित निरंतर संघर्षों से बार-बार और तरह-तरह से जनवाद के विस्तार की तीव्र और मूलगामी आकांक्षा का संकेत दे रहे हैं। विश्वविजय के अभियान को पूरा कर चुका पूंजीवाद अभी गंभीर संकट में है और अपनी विध्वंसक मुहिम को बढ़ाने के अलावा उसे कोई विकल्प दिखायी नहीं देता। दुनिया भर में उसके खि्लाफ़ व्यापक जनअसंतोष की तीव्र अभिव्यक्ति स्वत:स्फूर्त और संगठित संघर्षों के रूप में सामने आ रही है, जिसे कुचलने या विकृत करने या दिशाहीन बनाने या अराजकता की ओर ले जाने की कोशिशें भी बड़े पैमाने पर चल रही हैं। मौजूदा फ़ासीवादी उभार इसी चुनौती का मुक़ाबला करने का मंसूबा लेकर सामने आया है। लोकतांत्रिक और वामपंथी ताक़तें इस समय एक अलगाव के हालात के बीच कॉरपोरेट फ़ासीवाद के भारी दबाव और हमलों का सामना कर रही हैं। यह एक विडंबना है कि जिस समय ऐसी ताक़तों की पारस्परिकता और विशाल एकजुटता की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, वे काफ़ी कुछ बिखराव की शिकार हैं।

हमने देखा है कि हर प्रकार की तानाशाही - फि़रक़ावाराना हो या किसी और तरह की - जनाधार ढूंढ़ती है और ख़ास हालात में वह उसे हासिल भी कर लेती है। जर्मनी और इटली की मिसालें लंबे समय से हमारे सामने हैं। भारतीय समाज की सामाजिक बनावट, विचारधारात्मक तंत्र और दैनिक सांस्कृतिक जीवन में निरंकुशतावादी या फ़ासीवादी तत्वों की मौजूदगी और सक्रियता का इतिहास बहुत पुराना है। पिछले बीस-तीस वर्षों में इस प्रतिक्रियावादी अवशिष्ट का एक विशाल कारोबार ही खड़ा हो गया है और इसमें नयी जान पड़ गयी है। पॉपुलर कल्चरके परंपरागत रूपों और मास कल्चर के नमूने की नयी लुम्पेन बाज़ारी संस्कृति में ढल कर फ़ासीवाद के अनेक तत्व इस वक्त सतत क्रियाशील हैं। साधु, संत, मठ, आश्रम, धार्मिक टी.वी. चैनल, हिंदुत्ववादी प्रचारतंत्र, रूढि़वादी सामाजिक और धार्मिक सीरियलों की बढ़ती लोकप्रियता ने जहां एक तरफ़ धर्म और देवत्वका एक विशाल बाज़ार पैदा कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ़ नृशंसता का उत्सव मनाती सत्य कथाओं और अपराध कथाओं के ज़रिये मनोरंजन उद्योग फलफूल रहा है, जिसमें शिक्षित मध्यवर्ग सहित आबादी के विशाल तबक़े प्रशिक्षित और अनुकूलित हो रहे हैं। इस विशाल कारोबार में फ़ासीवादी कुव्वतें पूरी तरह संलग्न हैं और इसमें बेशुमार पूंजी लगी हुई है। इस तरह फ़ासीवाद के लिए अनुकूल सांस्कृतिक वातावरण पहले से तैयार है और ये कुव्वतें अपनी हेकड़ी से मीडिया में मौजूद विवेकशील स्वरों को दबाने में सफल हो रही हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगातार हमले हो रहे हैं। किताबें जलाना, सिनेमा और नाटक का प्रदर्शन रुकवाना, चित्र-प्रदर्शनियों पर हिंसक हमले करना - सांप्रदायिक फ़ासीवाद के उन्मत्त गिरोहों के द्वारा अंजाम दी जानेवाली ऐसी घटनाएं आये दिन घट रही हैं।

मुज़फ्फ़रनगर का हत्याकांड और अल्पसंख्यकों का विस्थापन बताता है कि फ़ासीवादी शक्ति किस तरह से रूढि़-पोषक खाप पंचायतों, हरित क्रांति तथा पुरुष सत्तावाद के आधार पर खड़ी राजनीति और प्रतिक्रियावादी सामाजिक संस्थाओं से तालमेल बिठाकर उन्हें अपने नियंत्रण में लेती है। उन्होंने नियोजित तरीक़े से लव जिहादका दुष्प्रचार करके सांप्रदायिकता को बहू-बेटी की इज्ज़त का मामला बनाया और एक साथ वर्गीय और जेंडर हिंसा का षडयंत्र रचा, जिसमें हम आज़ादी के बाद सम्पन्न हुए भूस्वामी वर्ग और पूंजीपति वर्ग की आपसी सुलह और कारस्तानियों का सबसे भद्दा रूप देख सकते है।

जिस आसानी से और बिना किसी जवाबदेही के भारतीय राज्य, विरोधी आवाज़ों को दबाता जा रहा है, जिस तरह आतंकवाद की झूठी आड़ में निरपराध मुस्लिम नवयुवकों को गिरफ्तार कर लेता है और माओवाद के नाम पर किसी भी मानवाधिकार कार्यकर्ता को पकड़ लेता है और यातनाएं देता है, जिस तरह श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ायी जाती हैं, लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शनों को जिस तरह कुचला जाता है, जिस तरह से बड़े पैमाने पर कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों में मानवाधिकार हनन हो रहा है, दलितों और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में सरकारी तंत्र कोई कार्रवाई करने के बजाय हमलावरों के बचाव में जिस तरह लग जाता है, और कॉरपोरेट मीडिया तंत्र लोगों को इन चीज़ों की ख़बर तक नहीं देता, यह सब न केवल यह दर्शाता है कि हमारे समाज और राजनीति का संकट गंभीर रूप अखि्तयार कर चुका है बल्कि यह भी बताता है कि हमारे इस संवैधानिक-लोकतांत्रिक निज़ाम के अंदर ही इन सब चीज़ों के लिए गुंजाइश बन चुकी है और यह निज़ाम अब इसी दिशा में आगे जाये, इसकी तैयारी भी पूरी है। मौजूदा फ़ासीवादी मुहिम राज्य की इसी निरंकुशता को एक नयी आपराधिक आक्रामकता और स्थायित्व देने के लक्ष्य से संचालित है। इस संदर्भ में आने वाले आम चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तों को नाकामयाब करना बेहद ज़रूरी है।

रोज़गारविहीन विकासका जो मॉडल राज्य ने लागू किया है, उसने इस चुनौती को और विकराल बना दिया है। विस्थापन और बेदख़ली के ज़रिये संचय का नज़ारा आज का मुख्य नज़ारा है। देश के बेशक़ीमती प्राकृतिक संसाधनों और लाखों-करोडों़ की सार्वजनिक परिसंपत्तियों की बेरहम लूट और बर्बादी एक लंबे समय से जारी है। लोगों से खेत, जंगल, ज़मीन, पंचायती ज़मीनें छीनी जा रहीं हैं और खनन करने, राजमार्ग बनाने से लेकर बैंक, बीमा, जनसंचार, शिक्षा, स्वास्थ्य यहां तक कि डिफेंस जैसे क्षेत्रों को कॉरपोरेट पूंजी और विदेशी निवेशकों के हवाले करने के उपक्रम लगातार चल रहे हैं, जिससे असमानता बेतहाशा बढ़ी है और सामाजिक ध्रुवीकरण चरम बिंदु पर पहुंच रहा है। आबादियों के विशाल हिस्से उजड़ रहे हैं और रोज़ी रोटी के लिए वे मारे-मारे फिर रहे हैं। जिंदगी बसर करने के हालात कठिन से कठिनतर होते जा रहे हैं। अवाम की प्रतिरोध की ख्वाहिश को मुख्यधारा की सियासी पार्टियों का समर्थन लगभग नहीं मिल रहा। कई बार छोटे छोटे ग्रुप विभिन्न मुद्दों पर अपनी सीमित क्षमता के सहारे, कई बार बिना नेतृत्व के भी, लड़ते और कभी कभी थकते नज़र आते हैं। आदिवासियों, ग़रीब किसानों, दलितों, बेसहारा शहरी ग़रीबों, उत्पीडि़त स्त्रियों, अल्पसंख्यकों का विशाल जनसमुदाय मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिष्ठान की हृदयहीनता से हैरान और ख़फ़ा है, और उससे उसका भरोसा उठता जा रहा है। असंगठित, असहाय, हताश आबादियों और बेरोज़गार भीड़ों का गुस्सा अक़्सर आसानी से दक्षिणपंथी और फासिस्ट लामबन्दी के काम आता है। अस्मिता की प्रतिक्रियावादी राजनीति कई बार इसका उपयोग करती है। इसके लिए जहां वर्चस्ववादी अस्मिता की शासक वर्गीय राजनीति से लड़ना ज़रूरी है वहीं यह भी ज़रूरी है कि वंचित तबकों की प्रतिरोधी अस्मिता के सकारात्मक और जनतांत्रिक सारतत्व के प्रति हम ग्रहणशील हों और उसकी रक्षा करें और साथ ही वंचित तबकों की व्यापक जनतांत्रिक एकता के निर्माण की चुनौती को स्वीकार करें। हमें यह भी समझना होगा कि अल्पसंख्यकों में काम करने वाली फिरके़वाराना और दकि़यानूसी ताक़तें भी अन्ततः हिन्दुत्ववादी फासिस्ट मुहिम की खुराक़ और इसके विनाशक दुष्टचक्र को चलाने का औज़ार ही सिद्ध होती हैं। इसलिए साम्प्रदायिक फासीवाद से कारगर ढंग से लड़ने के लिए हर रंगत की साम्प्रदायिक, कट्टरतावादी और रूढि़वादी ताक़तों से एक साथ वैचारिक संघर्ष भी ज़रूरी है। इस वक्त़ जहां सियासी सतह पर वामपंथी और लोकतांत्रिक व सेक्यूलर ताक़तों और संगठनों की ऐतिहासिक जि़म्मेदारी है कि वे बिना वक्त़ गंवाये एकजुट हो कर मुक़ाबले की तैयारी करें, वहीं इसमें कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, शिक्षकों, पत्रकारों और अन्य पेशेवर लोगों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होगी। राजनीति की अक्षमता का हवाला देकर हम अपनी जि़म्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते।

लेखक और कलाकार आज के हालात में लेखक-नागरिक और कलाकार-नागरिक ही हो सकते हैं, अपने क़लम और अपनी कला के साथ इस अवामी जंग में शिरकत करते हुए। सभी तरक्क़ीपसंद, जम्हूरियतपसंद और मानवतावादी सांस्कृतिक संगठनों की इस जंग में शिरकत लाजि़म है।

हम भूले नहीं हैं कि 1930 के दशक में जब हिंदी-उर्दू इलाक़े के इंक़लाबी नौजवान लेखक और लेखिकाओं की कोशिशों के नतीजे के तौर पर प्रेमचंद की सदारत में प्रोग्रैसिव मूवमेंट की बुनियाद पड़ी तो कुछ ही समय में यह पहल किस तरह एक विराट, बहुमुखी अखिल भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन में बदल गयी थी। भारतीय संस्कृति में मध्ययुग के बाद इस पैमाने का परिवर्तन नहीं हुआ था। उस समय, 1930 और 40 के दशक में यह दुनिया विकल्पहीन नहीं लग रही थी। सब एक बेहतर, न्यायपूर्ण समाज का सपना ही नहीं देख रहे थे, उसे पूरा करने की लड़ाई में हिस्सा लेने को तत्पर थे। यही दौर यूरोप और जापान मे फ़ासीवाद के उदय, स्पेनी गृहयुद्ध और दूसरे विश्वयुद्ध का भी था। दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ चले स्वतंत्रता आंदोलन हों या फ़ासिज्म़ का प्रतिरोध, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने उनमें अग्रगामी भूमिका अदा की। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्विरोधों के चलते जैसी क्षतिग्रस्त और खून में रंगी आज़ादी हमें मिली, उसके बावजूद हमारे फनकारों और अदीबों ने हिम्मत नहीं हारी और उपमहाद्वीप की जनता के दिल में प्रगतिशील मानव-मूल्यों को परवान चढ़ाने वाली रचनाशीलता की जगह बनायी। सिनेमा, रंगमंच, संगीत, चित्रकला और साहित्य में प्रगतिशील रचनाकारों ने जनमानस को नयी दिशा देने वाले काम किये जिनका असर आज तक हमारी ज़बान और बरताव में दिखायी देता है। उस समय प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं, उसके आगे चलने वाली मशाल है, या होनी चाहिए। हम इसी परंपरा के वारिस हैं।

आज एक बड़ी और नयी साहसिक पहलक़दमी की ज़रूरत है। फ़ासीवादी ताक़तें जिस पैमाने पर सक्रिय हैं, उसी पैमाने पर उनका जवाब देना होगा। छोटे मोटे वक्तव्य या प्रतीकात्मक कार्रवाइयों की भी अहमियत है, मगर इतने भर से इस जद्दोजहद में कामयाबी हासिल नहीं होगी। स्थिति की विडंबना है कि अभी भी ऐसे बहुत से मोर्चे हैं जिन पर सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें लंबे समय से उपस्थित और आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं, उन पर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक इदारों की सक्रियता नहीं के बराबर है। लेकिन इस कठिन घड़ी में भी फ़ासीवाद का मुकाबला किया जा सकता है, उसे रोका जा सकता है और यहां तक कि उसे शिकस्त दी जा सकती है बशर्ते कि हम इसके लिए एकजुट हो कर खड़े हों। तमाम विषम चुनौतियों के बावजूद अंतत: यह हमारा समय है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम साहित्यिक परिदृश्य में व्याप्त अपसंस्कृति से खु़द को आज़ाद करें, आपाधापी, आत्मपूजा, गुटबाज़ी, लालच और तुच्छताओं से ऊपर उठते हुए, संघर्षशील चेतना के साथ आसन्न चुनौती का मिलकर सामना करें। प्रतिरोध की शक्तियों के लिए यह समय गहन पारस्परिक संवाद, सहकार और एकजुटता का समय है। आज ज़रूरी है कि देशभर में (और ख़ासकर उत्तर भारत में) तमाम प्रगतिशील, जनवादी, सेक्युलर और सच्चे उदार मानववादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन और व्यक्ति, छोटे बड़े मंच और पत्र-पत्रिकाएं, लेखक, नाट्यकर्मी, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पी और समाजविज्ञानी एक बृहत्तर संजाल बना कर काम करें, नयी योजनाएं बनायें, वर्कशाप करें, हर फ़ोरम पर वैचारिक-सांस्कृतिक अभियानों को संगठित करें, प्रदर्शनियां तैयार करें, जत्थे निकालें और तमाम सांस्कृतिक कलात्मक व वर्चुअल माध्यमों और रूपों का उपयोग करते हुए साधारण लोगों को बड़े पैमाने पर संबोधित करें। फ़ासीवाद के कुटिल कुत्सित प्रचार-तंत्र का मुक़ाबला यही चीज़ कर सकती है।

हम इस देश की ज़रख़ेज़ सेकुलर सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत और नवजागरण की संपन्न मानवतावादी जनतांत्रिक और प्रगतिशील साहित्यिक परंपराओं के सच्चे वारिस हैं। ये विरासत कहीं गयी नहीं है। बस विस्मृति की धूल में दबी हुई है। प्रतिरोध का निश्चय करते ही वह हमारे लिए फिर से जी उठेगी और उसके अर्थ चमकने लगेंगे। स्वतंत्रता, समानता और जनवाद के लिए संघर्ष और कुरबानियों की अपनी महान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील विरासत की शान के मुताबिक इस कठिन समय में भी यक़ीनन व्यापक जनतांत्रिक शक्तियों के साथ एकजुटता से इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। हमें यक़ीन है कि अपनी प्रतिबद्धता, लगन, रचनात्मक कल्पना और आविष्कारशील प्रतिभा की मदद से हम अपनी इस भूमिका का कारगर ढंग से निर्वाह कर सकेंगे।

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