अमरकान्त जी से धनञ्जय चोपड़ा की एक बातचीत
अमरकान्त : .....वे जो हमेशा अपने समय का
सच रचते रहे
17 फरवरी 2014 को प्रख्यात कथाकार अमरकान्त जी नहीं रहे. यह हम सबके लिए एक बड़ा आघात है. उनके न रहने से हम इलाहाबादवासियों ने अपना अभिभावक खो दिया. एक ऐसा अभिभावक जो महान होते हुए भी इतना सरल और सहज था कि उससे हम अपने सारे दुःख-दर्द बाँट सकते थे. एक ऐसा अभिभावक जो हमें बेतकल्लुफी से डांट सकता था और जो बातों में हमें दुनिया जहान के तमाम कोनों की सैर कराता था. श्रद्धांजलिस्वरुप हम प्रस्तुत कर रहे हैं कथाकार अमरकांत से धनंजय चोपड़ा की बातचीत
वे अपने समय को बखूबी जीते थे, उसमें रम
जाते थे, उसकी मिठास, कड़ुवाहट, उठा-पटक, उहापोह और
जीवन संघर्ष का अनुभव लेते थे और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिन्दगी और
जोंक, बस्ती, हत्यारे, मौत के नगर, दोपहर का
भोजन, सुन्नर पाण्डे की
पतोहू, आंधी, इन्हीं
हथियारों से जैसी सैकड़ों कालजयी कृतियां रच डालते थे। वे
अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए मिलते थे, लेकिन चेहरे
पर शिकन नहीं आती थी। वे जोश के साथ मुलाकात करते थे और
लोगों को आत्मविश्वास भेंट कर देते थे। वे उम्र के कई
अस्सी पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन किसी युवा रचनाकार से अधिक रचनाकर्म करते थे। यह सिर्फ
इसलिए कि वे अमरकांत थे। वरिष्ठï कथाकार-पत्रकार
अमरकांत!
प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वे अमरकांत हैं। आजादी की लड़ाई केदिनों से ही
उन्होंने जिस बेबाकपन को अपनाया वह किसी भी दौर में
लिखते हुए भी उनकी पहचान बना रहा। नई कहानी के दौर से
गुजरते हुए ही अमरकांत ने अद्ïभुत कलात्मक रचनायें देना शुरू
कर दिया था। ‘बस्ती’ कहानी अगर
देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तो ‘हत्यारे’ अपने समय के
नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आयी हताशा से
साक्षात्कार कराती है। डिप्टी कलक्टरी अपने समय के एक बड़े सच को उजागर करती है तो गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों
जैसी कहानियां ढोंग और अवसरवादिता-काईंयापन पर चोट
करती मिलती हैं।
अमरकांत अपनी रचनाओं में इस बात से बखूबी परिचित मिलते हैं कि इस नंगे-भूखे देश में सबकुछ आशा और निराशा केबीच
पेण्डुलम की तरह झूलता ही रहेगा। वे ‘व्यंग्य’ को हथियार की
तरह इस्तेमाल करते रहे और उसकी मार को दवा की तरह।
भले ही अमरकांत सामाजिक-राजनीतिक उठापटक से अपने को तटस्थ रखते हों, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर
पातीं और हर एक विद्रूपता के खिलाफ चीखती, ‘इन्हीं
हथियारों से’ वार करती और सबकुछ ठीक हो जाने
की उम्मीद जगाती मिलती हैं। अनगिनत कालजयी कृतियों देने वाले
अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य
अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, सोवियत लैण्ड
नेहरू पुरस्कार सहित देश के कई बड़े सम्मान और पुरस्कारों
से नवाजा जा चुका है। साहित्यकारों के पुरस्कार दिये
जाने पर वे टिप्पणी करते हुए सहज भाव से कहते हैं कि ‘कोई लेखक
पुरस्कार पाने के लिए थोड़े ही लिखता है। यह भी जान लीजिये कि
कोई भी सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते। प्रेमचन्द, रेणु, निराला बिना
किसी पुरस्कार के ही अमर हैं। हां, यह अवश्य है कि पुरस्कार या सम्मान पाने वाले लेखक की अपने
समाज और पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है।’
कथाकार अमरकांत से यह बातचीत उस लम्बी बातचीत का एक हिस्सा है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज
की मीडिया रिसर्च सेल में धरोहर के रूप में सहेजने के
लिए किया गया था। हमें पता था कि अमरकांत जी से बातचीत
का सिलसिला शुरू हो जाता है तो थमने का नाम ही नहीं लेता। उनके पास
आजादी के संघर्ष का आंखों देखा और भोगा इतिहास है तो हिन्दी पत्रकारिता
के मंजावट वाले दिनों का अनुभव भी है। वे साहित्य की रचना ही नहीं करते
रहे हैं, बल्कि रचनाकारों की कई-कई
पीढिय़ां तैयार करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया है।
यही वजह थे कि हम वीडयिो कैमरा लगाकर बैठ गए और वे
बोलते रहे .... अपने समय का इतिहास और तैयार होते रहे आने वाली कई पीढिय़ों के लिए कई -कई अध्याय। प्रस्तुत हैं उनसे
हुई इसी लम्बी बातचीत के कुछ अंश:
पहली कहानी कब लिखी?
प्रश्न सुनते ही मुस्कराते हैं अमरकांत
जी। कुछ याद करते हुए कहते हैं- पढ़ाई के दिनों में शरतचन्द को पढक़र कुछ
रोमांटिक कहानियां लिखी थीं, लेकिन वे सब कहीं छपी नहीं। वह समय 1940 के आस-पास का
रहा होगा। छपने वाली पहली कहानी ‘बाबू’ थी, जो आगरा से निकलने वाले समाचार पत्र ‘सैनिक’ के विशेषांक में
प्रकाशित हुई थी। शायद 1949-50 में (कुछ याद करते हुए)। दुखद
यह रहा कि इस कहानी की न तो मेरे पास
स्क्रिप्ट ही बची और न ही इसका प्रकाशित रूप। गुम गई ये कहानी। यही वजह है कि मैं हमेशा अपनी पहली कहानी ‘इंटरव्यू’ को कहता हूं, जो पहले प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में मैंने पढ़ी और बाद
में 1953 में ‘कल्पना’ में प्रकाशित
हुई। इसी कहानी के बाद मैं सम्मानित लेखकों की श्रेणी में शामिल हो
गया। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, जो आज तक जारी है।
नए लेखकों के सामने उनका समय और उसकी सच्चाईयाँ हैं। इन
दिनों नई परिवर्तित परिस्थितियां हैं, जो हमारे
शुरुआती दिनों से एकदम भिन्न हैं। ऐसा नहीं है कि नए लेखक
जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। नई-नई समस्याओं पर लगातार लिखा
जा रहा है। कई लेखक तो अपने समय से जूझ कर बेहतर कृतियां देने में सफल भी हो रहे हैं। हां, यहां मैं यह
भी कहना चाहूंगा कि बहुत से नए लेखक हड़बड़ी
में हैं। मेरा मानना है कि मेहनत के बिना अच्छी रचना नहीं
लिखी जा सकती है। शैली और भाषा में नए प्रयोग की अपार
संभावनाएं हैं, लेकिन ऐसा कम ही लेखक
कर रहे हैं। एक बात और, अब हमारे समय जैसा सहज और सरल
समय नहीं रहा और यही वजह है कि नई पर्स्थितियों में रचनाकर्म
कठिन होता जा रहा है।
और आलोचकों की परफार्मेंस पर आपकी क्या राय है?
साहित्य में आलोचना के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आलोचना
का मतलब सिर्फ आलोचना करना ही नहीं होता, जैसा कि
प्राय: देखने-पढऩे को मिलता है। पहले के टीकाकार जो
काम करते थे, वही आलोचकों करना चाहिये। अब
देखिये, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन की मूल प्रति है ही नहीं। उसकी टीका
लिखी गयी। वही मिलती है। उसी से इस दर्शन को समझा जाता
है। आलोचकों को चाहिये कि वे बेहतर कृतियों को खोजकर
उनकी व्याख्या करें, टीका लिखें। मैं यह बात
टुटपुंजिए आलोचकों के लिए नहीं कह रहा हूं। गम्भीर
रूप से आलोचना कर्म में जुटे लोगों को इस ओर ध्यान देने
की जरूरत है। कुछ युवा आलोचकों ने उम्मीद जगा रखी है।
निष्क्रिय पड़ते जा रहे लेखकीय संगठनों को आप क्या सलाह देंगे?
मैं यह नहीं कहूंगा कि वे निष्क्रिय हो गये हैं। वे सब
अपनी नई मान्यताओं के अनुरूप काम कर रहे हैं। देखिए, हमारे समय
में ये संगठन बहुत अधिक सक्रिय हुआ करते थे।
मैं प्रगतिशील विचारधारा का नहीं था, लेकिन ये
प्रगतिशीलियों की सक्रियता ही थी कि वे मुझे अपनी ओर ले गये। मैंने
अपनी पहली कहानी आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक
में ही सुनाई। आगरा के बाद जब इलाहाबाद आया तो यहां भी
इस संगठन के लोगों ने मुझे अपने से जोड़ लिया। यहां उन दिनों परिमल संगठन
भी बहुत सक्रिय था। दोनों ही संगठनों के बीच लेखन में आगे निकल जाने की होड़ मची रहती थी। स्वस्थ्य विमर्श होते थे।
मेरा मानना है कि मतभेद होना गलत नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी
है। इसी से नये रास्त निकलते हैं। संगठनों में होने
वाले विमर्श नई पीढ़ी को तैयार हेने का मंच और अवसर
उपलब्ध कराते हैं। संगठनों को चाहिये कि मतैक्य न होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों को
आगे बढ़ाने के लिए काम करें।
आपने लगभग चालीस वर्ष पत्रकारिता की है। तब और अब की पत्रकारिता में क्या फर्क
महसूस करते हैं?
बहुत फर्क आया है। वेतन के मामले में कई अखबारों व
पत्रिकाओं ने सार्थक पहल की है। हमारा
समय वेतन के मामले में इतना बेहतर नहीं था। हमने आपातकाल भोगा है और उन दिनों पत्रकारों के समक्ष आने वाले संकट को भी।
फिलहाल अब पत्रिकाओं और अखबारों की
प्रस्तुतियों और कंटेंट के वैविध्य में तो ऐसे बदलाव देखने
को मिल रहे हैं,जिनकी कल्पना भर हम अपने समय में करते थे। पत्रकारों के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। ठीक उसी तरह
की चुनौतियां हैं, जैसी लेखकों के सामने हैं।
(अमरकांत जी टीवी पत्रकारिता पर कुछ नहीं कहते, शायद कहना
नहीं चाहते।)
आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने वाले अमरकांत से आज के हालात पर टिप्पणी मांगी
जाये तो क्या होगी?
इस प्रश्न पर कुछ देर संयत रहने के बाद अमरकांत जी हंसते
हुए कहते हैं-अब भ्रष्टाचार और घोटालों वाले इन हालातों पर क्या
टिप्पणी की जाये। हाल के आंदोलन अपने समय को परिभाषित
करने के लिए काफी हैं। बदली परिस्थितियों में राजनीति और
उसके मानक बदल गये हैं। लोगों की आकांक्षायें बढ़ी हैं और जागरूकता भी।
हमारे देश की व्यवस्था जनतंत्र को संतुष्ट कर पाने में विफल सी हो रही
है। गांव के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गयी है तो शहरी लोगों में
राजनीति के प्रति ऊबाहट बढ़ी है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की गारंटी की लड़ाई
जरूरी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि देश में एक
सशक्त लोकपाल की नियुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है। एक बात
और जिस देश में प्रगतिशील जनतंत्र नहीं होता वह कमजोर पड़ता जाता है।
एक लेखक के रूप में आप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं?
हां, यह सवाल बहुत जरूरी है। मैं जब
सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लेने रूस गया था तो मुझे
वहां टालस्टाय और चेखव के घर देखने का मौका मिला। वहां की सरकार ने दोनों ही लेखकों के घर, उनकी चीजों, उनकी किताबों और उन पर लिखी गयी किताबों को
धरोहर के रूप में सम्भालने की जिम्मेदारी उठी रखी है। हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है कि महादेवी, पंत और
निराला के घरों और उनकी चीजों का क्या हश्र हुआ है।
सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी
है। अरे भाई, किसी लेखक को पुरस्कार या
सम्मान दे देने भर से कुछ नहीं होता।
पुरस्कार या सम्मान तो लेखन के लिए होता है। सरकार को चाहिये कि बेघर लेखक
को घर देने, प्रकाशकों से समय पर उचित
रायल्टी दिलाने और उन्हें आर्थिक तंगी से उबारने की दिशा में भी
कदम उठाने की पहल करे और ठोस नीतियां
बनाये। सुना है कि बंगाल में ऐसी कोई नीति बनी है, लेकिन पता
नहीं यह कितना सच है। हिन्दी लेखकों के लिए तो इस तरह की
अब तक कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को नए लेखकों और
शोधार्थियों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। पढऩे और
लिखने की प्रवृत्तियों को जितना प्रत्साहन मिलेगा उतना ही बेहतर समाज और देश हम बना पायेंगे।
आजकल आप क्या लिख रहे हैं?
नियमित लेखन नहीं हो पा रहा है। ‘एक थी गौरा’ उपन्यास को
पुरा करने में जुटा हूं। एक वर्ष में
पूरा कर लेने की योजना है। पत्रकारिता पर भी एक उपन्यास लिखने की योजना बनी है। ‘खबरों का
सूरज’ नाम के इस उपन्यास में मैं ‘सैनिक’, ‘उजाला’, ‘भारत’ व ‘अमृत पत्रिका’ आदि दैनिक व
साप्ताहिक पत्रों व मित्र प्रकाशन की ‘मनोरमा’ पत्रिका में
काम करते हुए मिले अनुभवों को पाठकों के साथ बाटूंगा।
यह उपन्यास पत्रकारों के संघर्ष और संघर्ष के दौरान यूनियन के नेताओं से मिले धोखे पर आधारित होगा।
एक लम्बी बातचीत के बाद भी उनका चेहरा एक स्फूर्तिभरी दमक लिए हुए
दिख रहा था। वे बात करते वक्त यह अहसास ही नहीं होने देते हैं कि हम एक बड़े लेखक के साथ हैं, जिसे
देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा
रहा है और अनगिनत शोधकर्मी जिनपर शोध कर रहे हैं। वे जिस अंदाज में बात करते हैं, वह अपने आप
में एक अलग शैली का निर्माण करता है। जीवन की विषमताओं पर
लिखते समय या फिर जीवन संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते समय, हर बार यही
लगता है कि वे अपने यूवा दिनों का स्वतंत्रता आंदोलनकारी रूप को अभी तक
भूल नहीं पाये हैं। दूसरों के दुखों, कष्टों, संघर्षों, दुविधाओं को नितांत निजी मानकर रचना कर देने वाले अमरकांत
चलते-चलते अपने समय के सच से मुठभेड़
करने की सीख देना नहीं भूलते।
(धनंजय चोपड़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर
ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक हैं।)
मोबाईल - 09415232113
Harnot Sr Harnot
जवाब देंहटाएंमुझे यह समाचार आपसे ही मिला और मैंने पुस्तक मेले में बहुत से लोगों को भी बताया। उनका जाना हिन्दी साहित्य जगत के लिए बहुत बडी क्षति तो है ही लेकिन निजी तौर पर मेरे लिए इसलिए भी कि उनका बरसों से मुझे स्नेह मिलता रहा है। लेकिन दुख यही है कि मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया। मेरे लिखने में उनका बहुत बडा योगदान है। वे जहां भी संपादन में रहे बराबर मेरे लेख और कहानियां छापते रहे। मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि