ज्योति चावला की कहानी 'सुधा बस सुन रही थी'
ज्योति चावला का नया कहानी संग्रह 'अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती' आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. ज्योति अपनी कहानियों के माध्यम से अपने समय और समाज के सच को बेबाकी से उद्घाटित करती हैं. कहानी कहने का ढंग भी कुछ इसी तरह का कि पाठक लगातार उसमें डूबता चला जाता है. यही नहीं पाठक कहानी के परिवेश और घटनाक्रम को बिल्कुल अपने पास का ही महसूस करता है. किसी भी कहानी के लिए लिए यह सुखद होता है. बहरहाल पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इसी संग्रह से एक कहानी 'सुधा बस सुन रही थी'
ज्योति चावला
सुधा बस सुन रही
थी
मुझे अच्छी तरह याद है जब सुधा भाभी ब्याह कर पहले पहल हमारे गांव आई थी। मिलिट्री दा के पीछे जब वह गाड़ी से उतरी, तो उन्हें देखने वालों की भारी भीड़ जमा थी। यू तो उनकी गाड़ी को दरवाजे पर लगे एक घंटा हो चुका था। लेकिन गाड़ी से वे लोग अब ही निकल पाए थे। लगभग पंद्रह सुहागिन औरतों जिनमें बहनें, भाभी, चाची, बुआ, मां, दादी और फिर उसके बाद मुंह लगी बहनों, भाभियों ने जब तक गलसिकाई और फिर द्वार छेकाई कर और उसमें मुंह मांगा नेग हासिल नहीं कर लिया, तब तक दुल्हा-दुलहिन का रास्ता नहीं छोड़ा। जून की पिघला देने वाली गर्मी, दुल्हन का भारी साज सिंगार और उस पर पान के पत्ते को आग पर सेंक कर गालों को छुआ देने की लम्बी प्रक्रिया - सुधा भाभी पसीने से तरबतर थीं। यू तो इस सारी प्रक्रिया से मिलिट्री दा भी गुजरे थे, लेकिन उनके चेहरे पर थकान उस तरह नहीं दिख पा रही थी। शायद इसलिए कि उनके बांए बैठी खूबसूरत लड़की उनकी पत्नी थी और जिसे देखने के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा था। इस बात का एहसास उनके चेहरे को थकान से दूर ले गया था।
मिलिट्री दा बेहद
खुश दिख रहे थे और धरती पर हर कदम इस एहसास के साथ रख रहे थे कि उनकी लाग से एक
बेहद खूबसूरत लड़की की साड़ी का किनारा बंधा है और वह आंख झुकाए खूबसूरत लड़की कोई और
नहीं उनकी पत्नी है।
दुल्हा-दुल्हन
यानी सुधा भाभी और मिलिट्री दा को चारों ओर से सयानी औरतें घेरे हुई थीं और मैं
अपने दोस्तों की टोली को पीछे भूल सुधा भाभी के पीछे-पीछे चल रही थी। जोड़े को आंगन
से होते हुए घर की छत पर ले जाना था। कई सारी रस्में वहां उनका इंतजार जो कर रही
थीं। ऊपर जाने की सीढ़ियां तंग थीं। एक साथ दो लोगों का चढ़ना मुश्किल था। आगे-आगे
मिलिट्री दा, पीछे सुधा भाभी,
उनके पीछे मैं और पीछे एक पूरा हुजूम। मिलिट्री
दा चलते-चलते अचानक रुक जाते, और आंखें झुकाए
सुधा भाभी उनका रुकना देख न पातीं। दोनों टकरा जाते। यह सब अपने आप हो रहा था या
मिलिट्री दा की शैतानी थी, इसका अंदाजा उस
वक्त मैं तो नहीं लगा पाई थी। हां उन दोनों के टकराने का असर मुझ पर जरूर होता था।
और बार-बार झटका लगने के कारण मैं खीझ जा रही थी। मैं सुधा भाभी के ठीक पीछे जो चल
रही थी।
मिलिट्री दा का
नाम मिलिट्री दा कैसे पड़ा इसके पीछे एक छोटी सी कहानी है। ठीक किसी भी कहानी में
होने वाले गौण प्रसंगों की तरह। यूं तो मिलिट्री दा का असली नाम भुवनेश्वर था,
भुवनेश्वर प्रसाद। उनकी दादी और मां के साथ-साथ
गांव के सब बड़े-बुजुर्ग उन्हें ‘भुवना’ कहकर पुकारते थे। स्कूल के मास्टर जी आज भी
उन्हें भुवनेश्वर प्रसाद कहते थे। लेकिन हम बच्चों के लिए वे सदा से मिलिट्री दा
रहे। कारण यूं कि मिलिट्री दा उर्फ भुवनेश्वर प्रसाद जब इंटर की परीक्षा दे रहे थे
उसी वर्ष मिलिट्री दा के पिता जी की पुरानी पुश्तैनी और विवादित जमीन बिकी थी,
घर झगड़े से मुक्त हुआ था, घर में चौदह इंच का नया ब्लैक एंड व्हाइट
टी.वी. आया था। हुआ कुछ यूं कि मिलिट्री दा इकलौते पुत्र होने के कारण परिवार के
बेहद दुलारू थे। उनके मुंह से निकला वाक्य मिलिट्री दा की मां यानी रामगुनी चाची
के लिए ब्रह्मा की खींची लकीर हो जाता था। भुवनेश्वर कुछ दिनों पहले कहीं टी.वी.
देख आये थे और घर में दिन-रात टी.वी. खरीदने की रट लगाए रहते थे। और रामगुनी चाची
बेटे की जिद पूर्ति करवाने के लिए चाचा की नाक में दम किए हुए थी। एक दिन चाचा खीझ
कर बोल दिए-‘‘जिस दिन झगड़े की
जमीन बिक गई और अपना हिस्सा मिल गया, तुम्हें टी.वी. खरीद देंगे। फिर क्या था रामगुनी चाची
दिन-रात उस जमीन के छूट जाने की दुआएं मांगने लगी और मिलिट्री दा सुबह उठकर रोज
भगवान से उस जमीन के लिए प्रार्थना करते। और लगे हाथ भगवान को इस काम के एवज में
घूस का लालच भी दे बैठे कि ‘‘हे भोलानाथ हमार
मन की इच्छा पूरी कर दो हम तोरा मन्दिर में घी के लड्डू चढाएंगे’’। और ऐसा लालच उन्होंने आसपास उपस्थित कई देवी
देवताओं को दे दिया।
और वह 1988 जून का महीना
था। रामगुनी चाची सब को खिला-पिलाकर दिन में अपने कमरे में सुस्ता रही थीं।
भुवनेश्वर अपने कमरे में बैठ इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे और बीच-बीच में
नींद का झोंका ले लेते थे, चाचा ने आकर
दरवाजा खटखटाया। नींद में ऊंघती चाची ने दरवाजा खोला, चाचा ने अपना छाता चाची को थमाया और गमछे से पसीना पोंछते
हुए खबर सुनाई - ‘‘हो गया निपटारा उ
जमीन का।’’ इतना कहना था कि चाची की
नींद काफुर। ‘का कहे’। चाची ने जैसे इस कथन को इस तरह सुना था -‘‘टी.वी. खरीदने का समय आ गया।’’ उन्हें जैसे अपने कानों पर विश्वास न था। उस
घड़ी खीझ में किए अपने वायदे को निभाने का वक्त आ गया था। और एक दिन शाम दोनों
पिता-पुत्र शाम के समय डायनोरा का 14 इंच का ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. लेकर घर आये।
वह रंगीन टी.वी. के चरम और चैनलों की बाढ़ आने
से दो-चार बरस पहले का समय था। टी.वी. का अर्थ उन दिनों सिर्फ दूरदर्शन होता था।
उन दिनों नेशनल टी.वी. पर एक सीरियल आया करता था- फौजी। शाहरुख खान का दूरदर्शन की
दुनिया में पहला कदम था वह। टी.वी. को लाकर पहले बिस्तर पर रख दिया गया था। मां ने
धूप-अगरबत्ती दिखाई। प्रणाम किया और फिर टी.वी. को रखने का जुगाड़ बिठाया जाने लगा।
पिता जी बैठक से एक स्टूल उठा लाए। उस के नीचे दो र्दो इंटें जोड़ उसे बिस्तर की
ऊंचाई के बराबर लाया गया। मां अपने दहेज के संदूक से सफेद रंग का क्रोशिए का
मेजपोश निकाल लाई। यह वही मेजपोश था जो किसी खास पूजा-त्यौहार पर प्रसाद का थाल
ढकने के काम आता था और काम खत्म होते ही जिसे मां सहेज कर वापस अपने संदूक में रख
देती थी। स्टूल के बगल में नीचे लकड़ी का एक पटरा रखा गया जिस पर 24 वोल्ट का एक बैट्रा रखा गया। चूंकि बिजली थी
नहीं इसलिए दूरदर्शन के सारे प्रोग्रामों को देखना संभव नहीं था परन्तु हां गांव
वालों की इच्छा अवश्य थी कि वे सारे प्रोग्राम देख लें।
एंटीना सेट कर जैसे ही टी.वी. का स्विच
ऑन किया गया कि घड़-घड़ की आवाज सुनाई देने लगी। आवाज़ सुनकर मां-पिता के चेहरे पर
ऐसी खुशी दिखाई दी जैसे अपने नवजात शिशु की पहली किलकारी पर मां- बाप के चेहरे पर
दिखाई देती है। भुवनेश्वर दा ने चैनल्स का बटन ऐंठा और दो-तीन बार छेड़ने-घुमाने पर
नेशनल चैनल सेट हुआ। उस समय टी.वी. पर वही सीरियल आ रहा था-फौजी। सैनिकों की
कमांडो ट्रेनिंग, उनका जोश,
उनका जज़्बा और उससे उभरता हीरो का
चरित्र-शाहरुख खान।
भुवनेश्वर दा हर हफ्ते उस सीरियल का
इंतजार करते और खूब चाव से उसे देखते। उस सीरियल और शाहरुख खान के व्यक्तित्व का
उन पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने ठान लिया कि इंटर की परीक्षा के बाद वे मिलिट्री
में भर्ती होंगे।
इंटर की परीक्षा का परिणाम आया।
भुवनेश्वर दा ने मिलिट्री की परीक्षा दी फिजिकल टेस्ट हुआ और सचमुच मिलिट्री में उनका
सेलेक्शन हो गया। पूरे गांव से मिलिट्री में जाने वाले वे पहले व्यक्ति थे। वे हर
साल फौज से छुट्टी पर आते और हम छोटे-छोटे बच्चों को मिलिट्री के किस्से, जांबाजों की बहादुरी के किस्से, सीमा पर दुश्मन से टक्कर की कहानियां सुनाया
करते। हम बच्चों को ऐसा लगने लगा था जैसे मिलिट्री दा बार्डर पर अकेले खड़े
दुश्मनों के छक्के छुड़ा रहे हैं। धीरे-धीरे हम बच्चों के लिए भुवनेश्वर दा
मिलिट्री दा में तब्दील हो गए। हम बच्चें उन्हें मिलिट्री दा ही पुकारने लगे।
मिलिट्री दा के कंधे पर गुलाबी गमछा और आंखों
में काजल की गहरी मोटी रेखा खूब फब रही थी। दायें हाथ की सांवली कलाई पर ससुराल से
दहेज में मिली सुनहरे रंग की काजल घड़ी भी अपने पूरे रौब के साथ शाम के सात बजा रही
थी। मिलिट्री दा ने गहरे भूरे रंग की पैण्ट के ऊपर मोटे चेक की कमीज पहनी थी। पूरा
आंगन रंग-बिरंगी बंधनवारों से सजा था। मिलिट्री दा और सुधा भाभी को टाट पर बैठाया
गया और फिर शुरू हुआ रस्मों का सिलसिला। ब्याह के बाद स्त्री वामा हो जाती है।
वामा मानी पति की वाम दिशा में रहने वाली। आज सुधा भाभी मिलिट्री दा की वामा हो गई
थीं। सभी बड़ों ने जी भर के दुआएं दीं, मुंह दिखाई में साड़िया, श्रृंगार का
सामान आया था। सुधा भाभी की झोली इतने सारे सामान से भर गई थीं। सयानी और
अपेक्षाकृत कम सयानी औरतें दोनों का फूलों से, दूब से और खील से चुमांउन करतीं और चलते-चलते फूल और दूब से
भरी टोकरी से भाभी का सिर दबा जाती। सिर दबातीं इसलिए कि गृहस्थ जीवन में पत्नी
पति से झुक कर रहे, तभी विवाह सफल हो
पाता है।
लाल साड़ी में भाभी का गोरा रंग और खिल
उठ रहा था। उनके चेहरे पर पसीने की बूंदें थीं जो एक एक कर चेहरे और माथे से ऐसे
टपक रही थीं जैसे यज्ञ में अपनी ओर से बार-बार आहूति दे रही हों। उनके चेहरे पर
घबराहट और उदासी का मिला जुला भाव था जो कभी कभी एक अनजाने डर का भी रंग ले रहा
था। मैं सामने बैठी सुधा भाभी को एक टक देख रही थी। उनके पूरे व्यक्तित्व में कुछ
ऐसा खास था जिसने मुझे पहले पल से उनके साथ जोड़ दिया था। वे एकदम पारंपरिक दुल्हन
की पोशाक में लिपटी हुई भी आधुनिक दिख रही थीं।
सुधा भाभी जब ब्याह कर हमारे गांव आई तब
उनकी उम्र लगभग उन्नीस-बीस की रही होगी। वे इंटर पास थीं और वह भी फर्स्ट डिवीजन
के साथ। भाभी को पूरी तरह जानने का मौका तो मुझे कुछ दिन बाद मिला। लेकिन भाभी की
इंटर की डिग्री उनके साथ दहेज में आए कीमती सामानों में एक खास जगह रखती थी। इसका
अंदाजा रामगुनी काकी लोगों को बार-बार करवा रही थीं।
‘‘दुल्हिन इंटर पास हय। तुम्हारी तरह अंगूठा टेक नहीं। पूरे जिला में फर्स्ट आई है फर्स्ट।’’ रामगुनी काकी ठोक बजा कर और अपनी धाक जमाने के लिए बार-बार दोहरा रही थीं। मिलिट्री दा यानी भुवना उर्फ भुवनेश्वर प्रसाद रामगुनी काकी के इकलौते बेटे थे। तीन बेटियों के बाद आने के कारण मां और बहनों के दुलारे। कभी एक बहन भाई को पंखा झलती तो दूसरी आकर पसीने से बह चुके माथे के टीके को अपनी साड़ी के किनारे से संवार जातीं।
‘‘दुल्हिन इंटर पास हय। तुम्हारी तरह अंगूठा टेक नहीं। पूरे जिला में फर्स्ट आई है फर्स्ट।’’ रामगुनी काकी ठोक बजा कर और अपनी धाक जमाने के लिए बार-बार दोहरा रही थीं। मिलिट्री दा यानी भुवना उर्फ भुवनेश्वर प्रसाद रामगुनी काकी के इकलौते बेटे थे। तीन बेटियों के बाद आने के कारण मां और बहनों के दुलारे। कभी एक बहन भाई को पंखा झलती तो दूसरी आकर पसीने से बह चुके माथे के टीके को अपनी साड़ी के किनारे से संवार जातीं।
उन्नीस-बीस साल की सजीली इंटर पास आधुनिक
सुधा भाभी और 25-26 बरस के गठीले
नौजवान मिलिट्री दा। बूढ़-पुरानी औरतें आतीं और मन भर कर आसीसें इस नए जोड़े को दे
जातीं। एक-दूसरे के साथ खूब जम रहे थे दोनों। यूं ही नहीं कहते गांव में सभी कि
रामगुनी काकी नज़र की बड़ी पारखी हैं। किसी भी चीज को भीतर तक ताड़ जाती हैं। सब कुछ
ठोक बजाकर लाई हैं रामगुनी काकी। ऐसी बहू जैसी पूरे गांव तो क्या आसपास के कई
गांवों तक में न मिले।
भाभी बेहद खूबसूरत थी। गोरा रंग,
छरहरा बदन और ऊंचा कद। वे हमेशा सिर पर पल्लू
लिए रहती है और पल्लू का एक किनारा कमर में खोंसे रहतीं। वे कभी भी चेहरे पर घूंघट
नहीं करती थीं। । यूं तोे उनके घर में कोई था भी नहीं जिससे घूंघट किया जा सके
लेकिन गांव में भी किसी से घूंघट नहीं करती थीं वे। हां आंखों में सम्मान बकायदा
कायम रहता।
भाभी रामगुनी काकी का खूब ख्याल रखतीं। वे
कुछ ही दिनों में उनकी हर जरूरत समझने लगी थीं। नहाते वक्त अपनी साड़ी के साथ ही
रामगुनी काकी की धोती धोना नही भूलतीं। उनके बालों में तेल लगातीं, बाल गूंथ देतीं। सांझ होते-होते उन्हें
खिला-पिला देती और रोटी खिलाते वक्त उनकी रोटी पर घी लगाना नहीं भूलतीं। काकी के
मुंह में कुल मिलाकर छः-आठ दांत ही बचे होंगे। और वे भी खाते वक्त अपने जाने की
चेतावनी देते रहते। उनकी रोटी को नरम बनाने के लिए वे उस पर घी लगातीं और उन्हें
गरम-गरम ही खिला देतीं। रात को उनका बिस्तर लगाना और सही हाजमे के लिए उन्हें
गिलास भर छाली वाला दूध देना भाभी की दिनचर्या थी।
उनके दहेज में उनके साथ एक संदूक भर किताबें भी
आईं थीं जिन्हें उन्होंने अपने कमरे में अपने बिस्तर के ठीक ऊपर वाली टाल पर करीने
से सजा दिया था। सबको खिला-पिला कर वे रसोई को गीले कपड़े से पोंछ देतीं और कमरे
में अपने बिस्तर पर लेटी किताबें पढती रहती।
मैं अक्सर उनसे
किताबें उधार लाकर पढा करती थी। उनका कमरा एकदम करीने से सजा रहता। पलंग पर
साफ-सुथरी चादर और तकिये और तकियों पर हाथों से कढ़े फूल। भाभी सचमुच बेहद गुणवती
थी। इतनी पढ़ाई करने के साथ-साथ खाना बनाना, बुनना, काढ़ना सब आता था
भाभी को। और घर भी कितने करीने से संवारती थी भाभी। मेरे लिए तो आदर्श सी हो गई थी
भाभी। बैठने के लिए दो लकड़ी की कुर्सियां और उन पर गद्देदार तकिये। एक किनारे रखा
टेबल-कुर्सी जिस पर मिलिट्री दा की किताबें और जरूरी सामान रखा रहता और पलंग के
पास नीचे जमीन पर क्रोशिये से बुना पायदान। दरवाजे पर एक गहरे रंग का मोटा पर्दा
भी टंगा रहता, जो उस घर में उस
कमरे को सबसे अलग बनाए रखता।
लेकिन सुधा भाभी को मैंने कभी भी बहुत
खुश नहीं देखा। वे सब काम बहुत करीने और जिम्मेदारी से करतीं, लेकिन यह सब करते उनके चेहरे पर कभी लम्बी
मुस्कान नहीं दिखी। मिलिट्री दा से बात करते भी नहीं। उससे ठीक उलट मिलिट्री दा घर
के इस परिवर्तन से बेहद खुश दिखते। बात-बात पर भाभी का जिक्र, उनके काम की तारीफ, उनकी समझदारी की प्रशंसा करना जैसे उनकी आदत सी हो गई थी।
थोडे़ ही दिनों में वे भाभी से प्रेम करने लगे थे।
भाभी के आने के बाद मेरा उस घर में आना-जाना
काफी बढ गया था। सुबह स्कूल जाते और दोपहर स्कूल से लौटते मेरी नजरें दरवाजे पर तो
कभी अपने आंगन में झाड़ू बुहारती भाभी को खोजती रहतीं। भाभी के पूरे व्यक्तित्व में
खास आकर्षण था जो मुझे उनकी तरफ खींचता था। वे मुझे बहुत प्यार भी करती थीं। गांव
और घर के और लोगों से अलग भाभी हिन्दी में बात करती थी। जहां घर के लोग शुद्ध ठेठी
बोलते, वहीं भाभी एकदम ठहरे से
अंदाज में हिन्दी बोलती। उनके मुंह से निकलता एक-एक शब्द ऐसे लगता जैसे उन्होंने
भीतर कहीं रखे तराजू पर उसे तौल लिया है और उसके अर्थ के प्रति पूरी तरह सजग हैं।
वे शब्द जैसे किसी जल्दबाजी में न होते। उसके उलट ठेठी भाषा बोलते अन्य जन ऐसे
लगते जैसे इनके भीतर शब्दों का कोई अनचाहा गोदाम है, जहां से शब्दों को बाहर फेंका जाना जरूरी है। बिना किसी
अर्थ के बिना किसी लय के एक दूसरे को धकियाते खदेड़ते शब्द। भाभी की देखा-देखी मैं
भी हर समय हिन्दी में ही बात करने की कोशिश करने लगी थी।
उस दिन मिलिट्री दा वापस जा रहे थे।
मिलिट्री दा साल में एक बार घर आते। इस बार वे लगभग तीन महीने बाद लौट रहे थे। इन
दिनों में उनकी जिन्दगी बहुत बदल गई थी। वे अब शादी शुदा थे, उनकी एक पत्नी थी। और इस बार वे अपने पीछे दो
लोगों को इंतजार करने के लिए छोड़े जा रहे थे। रामगुनी काकी का मन काफी उदास था। वे
एक दिन पहले से ही चुप सी हो गई थी। वे इधर-उधर घूमती कोई न कोई चीज लाकर रखती जातीं।
मिलिट्री दा के लिए घर के पेड़े, लड्डू, अचार, पापड़, ऊनी चादर सब कुछ करते
उनकी आंखों में आंसू थे, लेकिन जुबान पर
से शब्द गायब थे। भाभी भी दादा का समान संजोए जा रही थी। दादा की नजरें ज्यों भाभी
पर टिक सी गई थीं। वे काकी के लिए तो दुखी थे ही लेकिन भाभी के लिए शायद अधिक
चिंतित थे। आखिर अभी नया नया ब्याह हुआ है। कैसे रहेंगी वह उनके बिना। मिलिट्री दा
शायद यही बात भाभी के मुंह से सुनना चाह रहे थे। लेकिन भाभी कुछ नहीं बोली। दरवाजे
पर रिक्शा लग गया। दादा ने काकी और आंगन के अन्य बुजुर्गों के पैर छुए, सामान उठाया और चलने को हुए कि भाभी के भीतर
कुछ धक सा हुआ। वे एकबारगी पूछ बैठीं, ‘‘अब की कब लौटिएगा?’’ वे मुस्करा दिए,
‘‘जल्द ही।’’
दादा के जाने के बाद भाभी बिल्कुल अकेली
रह गई थीं। रामगुनी काकी तो थी ही लेकिन बूढी-ठिठारी काकी अपनी हम उम्रों के साथ
रमी रहतीं। और भाभी बिल्कुल अकेली पड़ जातीं। नई-नई शादी, नया गांव, नए सम्बन्धी और
उस पर से जिसका थोड़ा आसरा होता वह पति भी लौट गए। अब भाभी क्या करतीं। लेकिन यह
उनकी किस्मत ही थी कि उसी गांव में उनकी बड़ी बहन मीना दीदी ब्याही हुई थी।
सुधा चाची की बड़ी बहन मीना
हमारे दूर के रिश्ते में आती थीं यानि बिसेसर चाचा मेरे पिता के मौसेरे भाई होते
थे और मीना उनकी ब्याहता यानी मेरी चाची। उनका घर हमारे घर से लगभग पांच मिनट की
दूरी पर पड़ता था। और चूंकि भाभी का घर हमारे पड़ोस में यानि एक ही आंगन में था तो
उनके घर से भी यह दूरी पांच मिनट की ही थी। सड़क के उस पार पीपल चौराहे से आगे बढ़ने
पर जो पुरानी ठकुरबाड़ी है ठीक उसकी बगल में।
लेकिन सुधा भाभी कभी भी अपनी बहन के घर
नहीं जाती थी। लगभग छः महीने हो चले थे उनकी शादी को और तीन महीने मिलिट्री दा को
वापस लौटे हुए इस बीच मीना चाची ही भाभी से मिलने आती रहीं, लेकिन भाभी उनसे मिलने कभी नहीं र्गईं। काकी के लाख कहने पर
भी नहीं। भाभी दिन-दिन भर अकेले रहतीं। खाना खाने घर आतीं काकी के लिए भाभी
गरम-गरम रोटी सेंकती, काकी को खिलाती,
खाना खाकर काकी अपने कमरे में कैद हो जाती।
ब्याह के समय संदूक भर लाई किताबों को भाभी इन छः महीनों में आर-पार पढ गई थीं। वे
मुझसे भी अपने स्कूल की लाइब्रेरी से किताबें मंगवाती और पढती रहती। उन्होंने मुझे
कई कहानियां सुनाईं। प्रेमचन्द की सारी कहानियां मैंने उनके मुंह से ही किस्सों के
रूप में ही सुनी थीं। मैं उनसे बार-बार पूछती थी कि जब उनकी बहन यहीं रहती है तो
आप उनसे मिलने क्यों नहीं जातीं। मेरे इस सवाल पर भाभी एकदम से चुप हो जाती थी।
मीना चाची रिश्ते में मेरी
चाची ठहरती थीं। पिता के मौसेरे भाई की पत्नी यानि मेरी चाची और उनकी छोटी बहन
यानि सुधा को मैं भाभी पुकारती थी। दो बहनें और दोनों से अलग-अलग रिश्ता।
लगभग चार महीने हो गए थे
मिलिट्री दा को गए हुए। इस बीच उन्होंने कितनी चिट्ठियां लिखीं भाभी को यह तो मैं
ठीक ठीक नहीं जानती लेकिन मिलिट्री दा उन्हें चिट्ठियां लिखते थे, यह बात जरूर पता थी मुझे। हुआ कुछ यूं कि वापस
लौटने के बाद मिलिट्री दा को घर की बहुत याद सताई, खासकर भाभी की। उस समय बातचीत का कोई और ज़रिया तो था नहीं
गांव में। ले-देकर एक फोन हुआ करता था डाकखाने में। यूं तो उस फोन की सेवाएं खालिस
रूप से डाकखाने के लिए ही थीं, लेकिन डाकबाबू पर
मिलिट्री दा का बहुत प्रभाव था। वे आने जाने वालों से मिलिट्री दा की खोज-खबर लिया
करते थे। ‘‘कुल मिलाकर एक ही तो ऐसा
दिलेर हैं पूरे गांव में जो सीमा पार जाकर दुश्मन से भिड़ रहा है।’’ डाक बाबू शुद्ध हिन्दी में कहते। डाक बाबू के
अलावा गांव में ऐसी शुद्ध हिन्दी बोलने वाली अब सुधा भाभी ही आई थीं। जाते वक्त
मिलिट्री दा डाक बाबू से डाकखाने का फोन नम्बर लेते गए थे। और एक दिन शाम के पांच
बजे का समय होगा जब डाकखाने का चपरासी संदेसा लेकर आया- ‘‘काकी ओ काकी सुनो उ डाकखाना में मिलिट्री बाबू का फोन आया
है।’’ और ज्यों ही काकी दौड़ने
को हुई कि वह लगभग चिल्लाने के स्वर में बोला- ‘‘तोरा नहीं दुल्हिन क बुलात हयं।’’ भाभी तो शर्म से पानी-पानी हो गई। आंगन में सबने जो यह बात
सुन ली थी। भाभी गई तो जरूर फोन सुनने। लेकिन उस दिन के बाद मिलिट्री दा ने कभी
फोन नहीं किया घर पर।
हां अब वे चिट्ठियां लिखने लगे थे।
लम्बी-लम्बी चिट्ठियां। उन चिट्ठियों के भीतर क्या होता था, वह कभी जान तो नहीं पायी लेकिन चिट्ठी पढने पर भाभी के
चेहरे की रंगत जरूर बदल जाती थी।
गाय सुबह से
रंभा रही थी। सूरज अभी उगा भी नहीं था कि कजरी ने रंभाना शुरू कर दिया था। पिता जी
को लगा कि अबेर हो गई है। उन्होंने लगभग झंझोड़ते हुए मां को उठाया ‘‘सुनती नहीं हो। सुबह हो गई। गय्या कब से रंभा
रही है। सानी-पानी का बखत हो गया।’’ मां अपनी साड़ी का आंचल संभालती बाहर आई तो देखा अभी तो रात ही है। घड़ी अभी तीन
बजकर चालीस मिनट का समय दिखा रही थी। लेकिन फिर कजरी काहे जगाने लगी इतनी सुबह।
मां की समझ में आया कजरी रंभा नहीं रही वह कराह रही है। शायद कुछ तकलीफ थी उसे
जिसके चलते वह रात भर सो नहीं पाई। मां ने जाकर पिता जी को जगाया। कजरी की कराह से
देखते -देखते पूरा आंगन जाग गया। वह बेतहाशा कराह रही थी।
कजरी का रोना अब बर्दाश्त नहीं हो रहा
था। मां उसे प्यार से पुचकारने लगी। मां की आंखों में भी आंसू छलक आए थे। मां को
देखकर मैं भी एकदम सहम सी गई थी। सूरज निकलते ही पिता जी ने मां के कान में कुछ
बुदबुदाया और आंगन से बाहर निकल गए। थोड़़ी ही देर में वे डॉक्टर बाबू के साथ हाजिर
थे। डॉक्टर बाबू ने कजरी को देखा। उसका निरीक्षण-परीक्षण किया और अपने दवाइयों के
डिब्बे से एक बड़ा सा इंजेक्शन निकाला और उसमें दवा भरने लगे। एक झटके से उन्होंने सुई
कजरी के पेट में भोंक दी थी। कजरी का वह क्रंदन विचलित कर देने वाला था। लेकिन
थोड़ी ही देर में वह बिल्कुल शांत हो गई।
डॉक्टर बाबू डॉक्टर की तरह नहीं
लगते थे। उसी तरह साधारण पेंट कमीज पहने एक साधारण आदमी। लेकिन उनके चेहरे पर एक
रौब बरकरार रहता था और जवानी की अक्खड़ता भी देखने लायक थी। वास्तव में जिन डॉक्टर
बाबू की बात हम यहां कर रहे हैं वे कोई डिग्री होल्डर डॉक्टर नहीं थे। कुछ वर्ष
पहले गांव में एक डॉक्टर आए थे- वेटर्नरी डॉक्टर, डॉ. रघुवीर प्रसाद। दरअसल उस साल सरकार की किसी योजना के
तहत छोटे-छोटे गांवों में कामगार जानवरों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए वेटर्नरी
डॉक्टरों की नियुक्ति हुई थी। उसी नियुक्ति में डॉ. रघुवीर प्रसाद का आना हमारे
गांव में हुआ था। पिता जी बताते हैं कि डॉ. रघुवीर प्रसाद के आने से गांव में
पशुओं के स्वास्थ्य को ले कर लोगों में काफी जागरूकता आई थी। कामगार पशु किसी भी
गांव की जान होते हैं। लेकिन ठीक अपनी ही तरह ग्रामीण लोग जानवरों के स्वास्थ्य के
लिए भी चिंतित नहीं थे। लेकिन डॉ. प्रसाद ने आते ही गांव में और आसपास के गांवों
को मिला कर विभिन्न कार्यशालाएं की, लोगों को जानवरों
के स्वास्थ्य सम्बन्धी बारीकियां समझाईं। और सचमुच आने वाले वर्षों में पशुओं की
मृत्यु दर में अंतर दिखाई देने लगा। लेकिन ज्यों ही सरकारी योजना खत्म हुई ये
डॉक्टर भी धीरे-धीरे गांवों से कूच करते चले गए। उन्हीं बरसों में हमारे गांव के
यह डॉक्टर बाबू उनके यहां कंपाउंडरी करने लगे थे। जहां-जहां डॉक्टर प्रसाद नहीं जा
पाते वे कंपाउंडर को भेज देते। धीरे-धीरे कंपाउंडर साहब ट्रेंड होने लगे और फिर एक
दिन अचानक डॉक्टर रघुवीर प्रसाद के गायब होते ही इनकी किस्मत बदल गई। इनकी
दुकानदारी चल निकली। ये डॉक्टर केवल जानवरों का ही इलाज नहीं करते थे बल्कि लोगों
की दवा दारू और जरूरत पड़ने पर सुई भी दे दिया करते थे।
हमारे घर में उनका हमेशा से आना
जाना था। वे मेरे पिता जी के मौसेरे भाई यानी बिसेसर चाचा के छोटे भाई थे - अवध।
अवध प्रताप सिंह। अवध चाचा का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था। पांच फुट नौ इंच कद,
गोरा रंग और चेहरे पर पढ़ाई का तेज। गोरे लम्बे
खूबसूरत चाचा की नाक की सीध में ठोढी के बीचो-बीच एक गड्ढा पड़ा करता था, उनकी आंखें गहरी भूरी और बाल आगे की ओर
घुंघराले थे। उनकी ठोढी, घुंघराले बाल और
भूरी आंखें उन्हें सामान्य पुरुषों से अलग करतीं। साधारण सी पेंट-कमीज में भी काफी
अलग दिखते थे अवध चाचा। अवध चाचा गांव भर में चर्चित थे और कभी-कभी तो उन्हे आसपास
के दूसरे गांवों से भी बुलावा आता रहता था। वे खूब पढाकू थे। जब भी घर पर होते तो
पढते रहते। पिछले ही साल उन्होंने जिला कालेज से बी. एस. सी की डिग्री हासिल की
थी। मेरे गणित और विज्ञान के सवालों का तो चुटकी में हल निकाल दिया करते थे अवध
चाचा। उनके घर की दूरी हमारे घर से लगभग पांच मिनट की थी जरूर लेकिन हम बच्चों के
लिए यह दूरी पांच मिनट की नहीं थी। हम तो कूदते-फलांगते निकल जाते और पलक झपकते ही
लो आ गया अवध चाचा का घर।
हमारे गांव में बिजली नहीं
थी। बिजली की तारें बिछ तो गई थीं लेकिन उनमें बिजली के करंट का दौड़ना अभी बाकी
था। अभी तो जगह-जगह लगे ये बिजली के खम्भे जी का जंजाल हो गए थे। बच्चों की पतंग
उनमें अटक जाती, तो वे देर तक हाथ
पैर पटकते रहते और फिर हार कर रो-धोकर घर लौट जाते। आए दिन उनमें कभी किसी की धोती,
कभी साड़ी तो कभी चादर अटक जाया करती। औरतों के
सारे दिन के काम में इन कपड़ों को वापस बटोर कर लाने का एक नया काम जुड़ गया था।
चूंकि ये बिजली के खम्भे और उन पर यहां से वहां जाती बिजली की तारें पेड़ों की ही
तरह ऊंचाई पर थीं तो पक्षियों को बैठने के लिए भी एक नया ठीया मिल गया था। न जाने
कितने बरसों से उनकी पुश्तें पेड़ों और मुंडेरों पर ही बैठ पा रही थीं। अब बदलते
जमाने के साथ इन पक्षियों की दिनचर्या भी बदल रही थी। यूं कहें कि आधुनिक हो रही
थी। ये पंछी पखेरू जब लम्बी-लम्बी उड़ान के बाद थक जाते तो इन तारों पर आ बैठते आर
जब-तब आते-जाते लोगों पर मल त्याग कर देते। जब आते-जाते किसी राहगीर के सिर पर बीट
गिरती वह इन खम्भों और तारों पर मन भर गुस्सा लेता और अपने बालों को झाड़ता पोंछता
खिसियाता सा निकल जाता। मजमून यह कि ये तारें और खम्भे गांव वालों के गुस्से का
सबब बन गए थे।
बिजली न होने के कारण गांव में दिन छोटे हुआ करते थे। लोगों की दिनचर्या घड़ी देखकर नहीं सूर्य देवता के उदय और अस्त होने के साथ जुड़ी हुई थी। सूरज उगते ही दिन की शुरुआत और डूबते ही रात। लोग अंधेरा होने से पहले ही खाना भी पका लिया करते थे। मुझे याद है हमारे घर में छः बजे तक खाना बन जाया करता था। नहीं तो उसके बाद मां का काम दुगुना हो जाता। एक तो ढिबरी की रोशनी में खाना बनाना पड़ता। और दूसरा यह कि अंधेरे में खाना बनाते समय इस बात का खास ख्याल रखना पड़ता था कि खाने में कहीं कीड़ा पतंगा न आ गिरे।
अवध चाचा का मिलिट्री दा की शादी के बाद
उनके घर में पहला प्रवेश तब हुआ जब मिलिट्री दा सीमा पर थे। अवध चाचा और मिलिट्री
दा का आपस में परिचय तो था, लेकिन यह सम्बन्ध
सिर्फ सामान्य सी जान पहचान से ज्यादा का नहीं था। एक-दो बार वे मिलिट्री दा के घर
भी आए हुए थे।
खैर उस दिन हुआ कुछ इस तरह कि
रामगुनी काकी दोपहर समय पड़ोस से स्वामी सत्यनारायण की पूजा से लौट रही थी। उनके
हाथ में प्रसाद का दोना था। अपनी धुन में रमी चली आ रही काकी का पैर अचानक किसी
पत्थर से टकराया और वे वहीं गिर पड़ीं। खैर किसी तरह सहारा ले लड़खड़ाते लड़खड़ाते वे
घर पहुँची। सुधा भाभी ने तेल गरम कर उनके पैर की मालिश भी की लेकिन उन्हें आराम
नहीं आया। देखते देखते दो दिन बीत गए। काकी का पैर सूजकर ढाई मन का हो गया था।
शायद पैर में मोच आ गयी थी। इसी बीच अवध चाचा को खबर लगी तो वे उन्हें देखने घर आ
गए। उन्होंने पैर को गौर से देखा, अंगूठे से दबाया।
पैर में सूजन काफी अधिक थी। उन्होंने अपने झोले से मरहम निकाली और पैर पर गर्म
पट्टी बांध कर चल दिये। अब वे हर दिन काकी का हाल चाल पूछने घर आने लगे। वे दरवाजे
पर से ही हुंकार लगाते ‘ओ चाची, अब गोड़ कैइसन हो?’ सुधा भाभी दौड़ कर दरवाजा खोल देती और काकी के बिस्तर के
सामने कुर्सी लगा देती। काकी के पैर में काफी गहरी मोच आई थी। कई दिन वे यूं ही
बिस्तर पर रहीं और यूं ही अवध चाचा उनका हाल-चाल पूछने आते रहे। वे रोज काकी के
पैर पर मरहम से मालिश करते और गर्म पट्टी बांध जाते। साथ ही सुधा भाभी को पांव की
देखभाल से संबंधित एहतियात भी दे जाते। भाभी काकी को कंधे का सहारा देकर
नहलाने-धुलाने ले जाती।
अवध चाचा का काकी के घर
आना-जाना धीरे-धीरे काफी बढ गया था। वे काकी की दवा-दारू तो करते ही घर का सौदा
सुलफ भी खरीद लाते। काकी की हालत देख वे चक्की से गेहूं भी पिसवा लाए थे। धीरे
धीरे काकी का पांव ठीक हो गया। वे पहले की तरह ही खूब घूमने-फिरने लगी। लेकिन चाचा
का आना-जाना यूं ही चलता रहा। अवध चाचा का आना काकी को काफी अच्छा लगता था।
मिलिट्री दा के साथ न होने से घर यूं भी सूना लगता था। अवध चाचा उनका मां की तरह
ख्याल रखने लगे थे। काकी को चाचा का व्यवहार काफी अच्छा लगता। वे जहां बैठती अवध
की खूब बढाई करतीं। सुधा भाभी से भी वे अक्सर अवध के मानिंद बात करती रहतीं। एक
दिन तो वे अवध चाचा के सामने ही भाभी से बोलीं - ‘‘ए दुल्हिन, तोरी कोई सहेली
होय त एकरा भी लगन कराय दे।’’ सुधा भाभी भी अब
हंसने-बोलने लगी थीं। जो सुधा भाभी सारा दिन किताबों में कैद रहतीं, और जिन्हें मिलिट्री दा के साथ भी कभी
मुस्कराते नहीं देखा, वही भाभी चाचा के
साथ खूब बतियाती और खिलखिलाकर हंसने लगी थीं। मैं सोचती कि चाचा जरूर कोई जादू
जानते हैं। उनके आते ही काकी और भाभी कितना खुश जो हो जाती हैं। चाचा अब वहीं
बैठकर हमें पढाने लगे थे। आंगन में एक चौकी बिछी थी वहीं बैठ चाचा हमें पढ़ाते और
वहीं बैठ काकी सुपारी काटते खूब ठहाके लगाती।
मिलिट्री दा को छुट्टी मिल गई थी
लेकिन उन्होंने इसका जिक्र तक अपने पिछले खत में नहीं किया था। वे अचानक आकर काकी
और शायद खासतौर पर भाभी को चौंकाना चाहते थे। उनके कानों में घर छोड़ते समय कहा गया
भाभी का आखिरी वाक्य ‘‘अब की कब
लौटियेगा।’’ गूंज रहा था। वे
अचानक उनके सामने जाकर भाभी के चेहरे की खुशी को देखना और फिर इन अकेली रातों में
मन बहलाने के लिए उसे सहेज लेना चाहते थे।
दोपहर लगभग 3.30 बजे का समय था।
मैं स्कूल से लौट और खाना खाकर गहरी नींद में सोई हुई थी जब मां ने आकर मुझे
जगाया। मां मुझसे मीना चाची के यहां जाने को कह रही थी। मैं आंखें मलती बाहर निकली
तो देखा मिलिट्री दा दरवाजे पर खड़े थे और मां उन्हें भीतर आने की जिद कर रही थी।
दरअसल मिलिट्री दा छुट्टी लेकर अचानक लौट आए थे। घर पहुंचने पर उन्होंने देखा कि
उनके दरवाजे पर ताला है। मिलिट्री दा ने हमारा दरवाजा खटखटाया और काकी और भाभी की
बाबत पूछने लगे। काकी हमेशा की तरह ही कहीं निकली हुई थी। भाभी के बारे में भी मां
का अनुमान था कि वे शायद मीना चाची के यहां गई होंगीं। भाभी अक्सर मीना चाची के घर
जाने लगी थीं। मिलिट्री दा को अचानक सामने देख मैं बेहद खुश थी। अब फिर से हमें
फौज के और सीमा पर दुश्मनों से बहादुरी से लड़ने के मिलिट्री दा के किस्से सुनने को
मिलेंगे। मैंने पैरों में चप्पल पहनी और मिलिट्री दा के पांव छू कर मीना चाची के
घर की ओर दौड़ लगा दी।
घर का दरवाजा भीतर से केवल सटा
हुआ था। मेरे दरवाजा खटखटाने पर भी जब अन्दर से कोई जबाब नहीं आया तो मैं दरवाजा
खोल कर भीतर चली गई। यूं भी उस घर में जाने के लिए मुझे किन्हीं औपचारिकताओं की
जरूरत नहीं थी। दिन के समय चूंकि मीना चाची आराम कर रही होती हैं, मैंने इतना संयम बरता था। नहीं तो और दिन तो
दनदनाकर भीतर घुस जाना ही जैसे एक नियम था मेरे लिए। चाची अपने कमरे में नहीं थी।
लेकिन साथ के कमरे से कुछ खुसफुसाहट की आवाज सुनाई दे रही थी। मुझे लगा भाभी और
चाची अवध चाचा के कमरे में बैठे बतिया रहे हैं। मैं निश्चिंत सी कमरे में घुस गई।
चाची उस कमरे में भी नहीं थी। लेकिन सुधा भाभी जरूर थी वहां और साथ ही अवध चाचा
भी। चाचा अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे और भाभी उनके घुटनों पर अपना चेहरा टिकाए
बैठी थी। चाचा धीरे-धीरे कुछ कह रहे थे और भाभी जैसे कहीं खोई हुई थी। जैसे चाचा
ने कुछ कहा न हो जैसे सुनना कोई गैर जरूरी काम हो। मुझे ठीक से याद है भाभी और
चाचा का कमरे का वह दृश्य, और मुझे देखकर
भाभी का अचानक चौंक जाना और बिस्तर से कूद जाना। चाचा भी एकदम सकपका गए थे। ‘‘गुड्डी तोंय इहां की करै छो?’’ चाचा एकदम पूछ बैठे थे। चाचा और भाभी के इस तरह
चौंकने से मुझे भी लगा जैसे मुझसे कुछ गलत हो गया हो, जैसे मुझे इस तरह कमरे में नहीं आना चाहिए था। मैं तब भी
बहुत कुछ तो नहीं समझ पाई थी। हां, लेकिन घबरा जरूर
गई थी। एक सांस में ही मैंने अपनी बात कही और दौड़ गई- ‘‘मिलिट्री दा आपको बुला रहे हैं। जल्दी चलिए भाभी।’’ मेरे इस वाक्य को सुन कर भाभी की क्या
प्रतिक्रिया थी, यह तो मैं नहीं
देख पाई, लेकिन शायद वे सन्न रह गई
थीं। मेरे लौटने के कुछ ही देर बाद भाभी भी अपने आंगन में थी। मिलिट्री दा हमारे
घर बैठे थे। भाभी के होंठों पर मुस्कान थी तो जरूर, लेकिन आंखें शायद मुस्कुरा नहीं पा रही थीं।
मिलिट्री दा बीस दिन घर पर रहे
और बीस दिन काकी लगभग घर पर ही रही। इन बीस दिनों में अवध चाचा आए तो जरूर,
लेकिन कुल मिला कर तीन या चार बार। मुझे पढ़ने के
लिए अवध चाचा के घर जाना पड़ता। मिलिट्री दा मुझसे खूब बातें करते। मुझे घंटों अपने
पास बैठाते लेकिन इस बार मिलिट्री दा कुछ बदले हुए थे। इस बार उनकी बातों में वे
कम बोले और मुझसे ज्यादा सुना। वे मुझसे यहां वहां की बातें पूछते। घर के बारे में,
मां के बारे में, मेरी पढ़ाई के बारे में, सुधा भाभी के बारे में और सबसे अधिक अवध चाचा के बारे में... ... । शायद उन्हें कुछ शक हो गया था - भाभी और अवध चाचा पर लेकिन मेरा बाल सुलभ
मन तब तक ये सब बातें समझता नहीं था। मैं पूरे भोलेपन से बिना किसी दुराव-छुपाव के
उन्हें सब कुछ बता दे रही थी। यह भी कि अवध चाचा यहीं बैठ कर मुझे पढ़ाया करते हैं।
यह भी कि घर के बहुत सारे काम चाचा कर दिया करते हैं और यह कि भाभी सब काम निपटाने
पर अक्सर मीना चाची के घर चली जाती है। चाचा शायद यही सब जानना चाह रहे थे मुझसे।
न जाने इस बीच क्या बात हुई क्या
नहीं, लेकिन भाभी एकदम चुप सी
हो गई थीं। मिलिट्री दा के जाने के बाद भी भाभी के चेहरे पर पहले सी मुस्कान नहीं
लौट पाई। अवध चाचा का घर आना भी काफी कम हो गया था। काकी भी दिन के वक्त अक्सर घर
पर ही रहती थीं और भाभी भी दिन भर अपने कमरे में ऊंघती रहती थी। मिलिट्री दा वापस
लौट गए थे और पीछे एक खामोशी छोड़ गए थे। भाभी किताब सामने रख न जाने कहां खोई रहती
और टोकने पर अचानक चौंक जाती। भाभी के खज़ाने में मेरे लिए कहानियां भी अब कम पड़ने
लगी थीं। ऐसा लगता, जैसे सब कुछ पर
एक उदासी सी छा गई हो।
लेकिन यह उदासी एक बार फिर टूटी। एक
बार फिर माहौल में गहमा-गहमी हुई। हमारे आंगन से लेकर मीना चाची के घर तक खूब
चहल-पहल सी हो गई थी। बिसेसर चाचा और पिता जी दिन-दिन भर बाजार में घूमते और इधर
मीना चाची और मां भी खूब व्यस्त हो गई थीं। अवध चाचा की शादी तय हुई थी। मेरे कदम
भी अब भाभी के घर से ज्यादा मीना चाची के घर की ओर दौड़ने लगे थे। यह तो बहुत
सामान्य-सी बात है। बच्चों को जिस ओर आकर्षण दिखता है, वे उसी ओर हो जाते हैं। शादी का घर, खूब चहल-पहल, खूब आना-जाना था सबका। मीना चाची भाग-भाग कर सब काम करती, और था भी कौन उनके घर देखने वाला। सास-ससुर तो
थे नहीं। चाची और बिसेसर चाचा ही ले-देकर सब कुछ थे अवध चाचा के। मुझे तो खूब मजा
आता था वहां। मां और चाची आने वाली चाची के लिए कपड़े, गहने और श्रृंगार का सामान खरीद कर लातीं तो मैं उसे देखने
की जिद पकड़ लेती। रंग-बिरंगी चटख साड़ियां मुझे बहुत अच्छी लगतीं। मैं नई चाची के
लिए आए नए गहनों को पहन कर शीशे के आगे खड़ी हो खुद पर ही रीझती रहती। मां और चाची
मेरों इन हरकतों पर खूब हंसती।
लेकिन अवध चाचा खुश नहीं थे। उनके
चारों ओर भाभियां, चचेरी-ममेरी
बहनें उन्हें घेरे हुए थीं। चाचा को उबटन लगाया जा रहा था, लेकिन उनके चेहरे से हंसी गायब थी। आज जब सब बातों को जोड़
कर देखती हूं तो कारण समझ में आने लगता है। सुधा भाभी सब रस्मों के समय आस-पास ही
थीं, लेकिन सब सिर्फ औपचारिकता
थी। चाचा मुस्कुराते भी तो वह मुस्कान सिर्फ होंठों तक सीमित रह जाती, दिल तक पहुंच ही नहीं पाती। लावा भूंजते समय
उनकी भाभी और बहनों ने नेग मांगा और चाचा बुझे मन से देते चले गए।
नई चाची घर आई,
सब रीति-रिवाज़ निभाए गए। मीना चाची भी अब गोतनी
हो गई थीं, उनकी छोटी गोतनी जो आ गई
थी। अब वे घर की बड़ी बहू थीं। अब उनसे नीचे भी कोई था जिस पर वे हुक्म चला सकती
थीं। चाची चाचा को छेड़ती रहीं और चाचा भी मुस्कुराते रहे। शादी के बाद चाचा कुछ
खुश लग रहे थे। नई चाची ने आते ही अवध चाचा के बिखरे कमरे और बिखरे जीवन को एक साथ
संवारने की कोशिश की। अपनी गृहस्थी को सजते-संवरते देख चाचा का मन भी खुश था शायद।
लेकिन यह खुमारी भी ज्यादा दिन तक नहीं
चल पाई। ज्यों-ज्यों चाची उस घर की होती गई, चाचा का कौतूहल भी ठंडा पड़ने लगा। मां बताती है चाचा चाची
से प्यार तो करते थे लेकिन सुधा भाभी की फांस उनके दिल में गहरे तक गढ़ी हुई थी। यह
इत्तेफाक ही था कि नई चाची दिखने में भाभी जैसी सुन्दर भी नहीं थी। शादी की खुमारी
धीरे-धीरे उतरती चली गई और साथ ही सुधा भाभी के प्रति अवध चाचा का दबा प्यार भी
जागने लगा।
दिन बीतते चले गए। लेकिन नई चाची को
सुधा भाभी और अवध चाचा के सम्बन्ध की शायद भनक तक नहीं लग पाई। चाचा भी अपनी तरफ
से चाची का खूब ख्याल रखते। नई चाची सुधा भाभी को दीदी कह कर पुकारती थी। भाभी घर
पर आती तो नई चाची उनका खूब आदर-सत्कार करती ....। लेकिन मीना चाची नहीं चाहती थी
कि सुधा भाभी उनके घर आए। वे बोलती थीं मां से, ‘‘दीदी, तोयं त सब पता
छौ। ई सुधा... ।’’ वे चुप हो गई थी।
‘‘एक्कै मां से जन्मल छियै
हम दुन्नो। पर एकरां लछन। की कही दीदी। कनियन कुच्छौ नहीं बूझत हय। गऊ छिये... ।
हमर लल्ला जी छल रहल छियं ओ बेचारी क। हमका त दया लगै छियो ओकरा पे।’’ उनका गला भर आया था। वे नई चाची के लिए बेहद
चिंतित रहती थीं। लेकिन अवध चाचा की पत्नी इन सब चिंताओं से अबूझ थी। वे तो
दिन-रात पत्नी होने का अपना फर्ज निभा रही थीं। मां ने समझाना चाहा था मीना चाची
को, लेकिन क्या समझातीं। वे
भी इस सम्बन्ध के अंत की कल्पना कर डर जाती थीं। मां बताती है उस दिन मीना चाची
बहुत दुखी थीं। वे काफी देर तक मां के पास बैठी रहीं। कुछ कहना चाह रही थी,
शायद कुछ बताना चाह रही थीं वे। लेकिन न जाने
कौन-सी कसम, कौन सी मर्यादा
उन्हें बांधे हुए थी। चाची अधूरा सा वाक्य बोल कर रह गई थी, ‘‘की बताई तोका दीदी... । हमहु कुछ कह्यो नहीं
सकत छियं।’’ यह अधूरा वाक्य
मां को कहीं खटक गया था। उन्होंने जानना भी चाहा चाची से लेकिन वह बहाना बनाकर उठ
खड़ी हुईं और चल दीं। आज उस अधूरे वाक्य को पूरा करने की कोशिश करती हूं तो बहुत
कुछ जुड़ता चला जाता है उसमें।
लेकिन उस समय इन सब बातों से अनजान थी
मैं। बहुत कुछ ऐसा होता था जिनका अर्थ मुझे बाद में लगभग सब कुछ घट जाने के बाद
समझ आया। बढ़ती उम्र के साथ ज्यों-ज्यों मैं समझदार होती गई, बहुत कुछ समझने लगी। लेकिन वह उम्र तो मेरे लिए सबसे
खूबसूरत थी। उसमें भी खास तौर पर वे दिन। मुझे सब लोग बहुत प्यार करते। इधर सुधा
भाभी की लाडली मिलिट्री दा की चहेती थी और उधर अवध चाचा मुझ पर जान छिड़कते थे।
पिता जी अक्सर कहते, ‘‘घर में सबसे बड़की
छिय। त पर भी सब एकरा ही दुलार करै छै। दुन्नो छुटका को कोई पूछबो नाय करय छै।’’
मेरे दोनों भाई-बहन मुझसे छोटे थे। वे दिन भर
मां के कान खाते रहते। खैर, इन दोनों की
कहानी में न कोई भूमिका है, न ही जरूरत।
इसलिए इन दिनों को कहानी से दूर ही रखूंगी।
एक और कारण भी था मेरा सबकी चहेती
होने के पीछे। मैं अनजाने ही किसी की खबरची तो किसी की प्रेमदूत बनी हुई थी। भाभी
की किताबों को अवध चाचा के घर पहुंचाना और फिर थोड़ी ही देर बाद वापस लाकर भाभी को
देना, मिलिट्री दा को उनके पीछे
हो रही घटनाओं की सूचना देना, अवध चाचा का
गिलास में मांस-मछली डालकर मुझे भाभी के घर दौड़ाना - इन सबके लिए मुझसे ज्यादा
उपयुक्त कोई था ही नहीं शायद। आज सोचती हूं तो अपनी बेवकूफियों पर हंसी आती है। और
कुछ मैं न समझ पाई हूं, तो समझ आता है।
आखिर ग्यारह-बारह साल की बच्ची ही थी मैं। लेकिन सुधा भाभी का किताब देकर मुझे
चाचा के यहां भेजना और फिर कुछ ही देर बाद चाचा का किताब लौटा देना, यह भी मैं नहीं सोच पाई कि कोई भी इतनी जल्दी
एक किताब को कैसे पढ़ सकता है। उस पर भी दोनों की सख्त हिदायत यह कि किताब जिसके
लिए दी जा रही है, सिर्फ उसी के हाथ
में सौंपूं। नहीं तो लौट आऊं। खैर, मुझे इन सब में
काफी मजा आता था। दोनों ही ओर मेरी खूब पूछ होती और सब मुझे खुश रखने की कोशिश
करते।
सुधा भाभी को मछली बहुत पसंद थी। वे
खूब खुश होकर खाया करती थीं माछ-भात। अवध चाचा सुधा भाभी की इस पसंद को जानते थे।
उनके यहां जब भी मछली बनती, चाचा चुपके से एक
गिलास में भरकर मुझे भाभी के यहां दौड़ा देते। चाचा सुधा भाभी को मछली भेजने के लिए
कटोरे की जगह गिलास का इस्तेमाल करते। गिलास में मछली की मात्रा ज्यादा भी आती और
उसे लेकर जाने की जल्दी में गिलास से छलकने का खतरा भी कटोरे की तुलना में कम होता।
ऐसी स्थितियों में गांव में बिजली का न होना बहुत काम देता। ढिबरी की रोशनी में
चीज़ों की जगह का आभास मात्र होता। इतना कि कोई पलंग या दीवार से टकरा न जाए लेकिन
उसकी रोशनी इतनी इजाज़त नहीं देती थी कि सब कुछ पर बारीकी से नज़र रखी जा सके। ऐसा
करने के लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता थी और हमारी नई चाची एकदम भोली-भाली थी।
मीना चाची के शब्दों में कहें तो गऊ सी सरल। रात को जब चाची खाना खाने के लिए सब
को बुलाती, चाचा मुझे भी खाने के लिए
बुला लेते थे और चौके में सबसे पहले पहुंच जाते। चाचा मछली का टोकना और बाकी सामान
सामने रख लेते और ज्यों ही चाची और कामों में मसरूफ हुई, चाचा नज़र बचाकर गिलास भर देते और मुझे मेरे काम पर रवाना कर
देते। इन सब में मुझे सबसे अधिक फायदा था। आए दिन मेरी दावत होती रहती और चूंकि यह
क्रम दोनों ओर से चलता, इसलिए बढ़िया
व्यंजन मुझे खाने को मिलते रहते। मां भी मेरे खाने को लेकर निश्चिंत थी, भोजन के समय अगर मैं घर नहीं पहुंची तो वे समझ
जाती कि मैं जरूर सुधा भाभी या अवध चाचा के यहां से खाकर लौटूंगी।
यह
क्रम लगातार चलता रहा। नई चाची सब बातों से अनजान थी। और परदे के पीछे अवध चाचा और
सुधा भाभी का प्यार परवान चढ़ रहा था। इस बार मिलिट्री दा घर आए तो सुधा भाभी बहुत
नियंत्रित थी। उन्होंने खुद को संभाल लिया था। जितने दिन मिलिट्री दा घर पर रहे,
भाभी और अवध चाचा के बीच सन्नाटा पसरा रहा। इस
बीच अवध चाचा के यहां मछली भी बनी और सुधा भाभी ने अपने हाथों से बादाम वाली खीर
भी बनाई, लेकिन दोनों ओर किसी तरह
का आदान-प्रदान नहीं हुआ। हां, मेरी दावत पहले
की ही तरह चलती रही। सुधा भाभी मिलिट्री दा का बहुत ख्याल रखती। मिलिट्री दा भी
सुधा भाभी के इस बदलाव को देखकर संतुष्ट थे। अवध चाचा का घर आना भी लगभग बंद हो
गया था। मिलिट्री दा शायद इसी वहम् को अपने मन में सहेजे वापस भी चले जाते अगर वह
घटना न हुई होती। हुआ यूं कि सुधा भाभी ने उस दिन दलपूरी, आलू की रसदार सब्जी और सेंवई की खीर बनाई थी। मिलिट्री दा
खाने के लिए बैठने लगे कि उन्हें अचानक लगा कि गुड्डी यानी मुझे बुला लें।
उन्होंने दरवाजे से ही मुझे आवाज लगाई। मैं दौड़ कर चली आई। भाभी ने मेरी थाली परसी
ही थी कि न जाने कैसे अचानक मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘भाभी, आज अवध चाचा को
दलपूरी नहीं भेजिएगा क्या?’’ सुधा भाभी के
चेहरे का रंग एकदम उड़ गया जैसे। वे घबरा गईं। मिलिट्री दा ने सुन लिया था - ‘‘की कहलीं गुड्डी?’’ भाभी को मानो सांप सूंघ गया था, ‘तोरा से कुछ पूछ रहल छियौ।’ मिलिट्री दा खड़े हुए और थाली को लात मार दनदनाते हुए बाहर
निकल गए। काकी उन्हें बुलाती पीछे दौड़ीं लेकिन मिलिट्री दा........।
शायद कुछ गलत हो गया था मुझसे। कुछ
ज्यादा गलत। उस घटना के तीसरे ही दिन मिलिट्री दा लौट गए। काकी उस दिन बहुत रोई
थी। मेरी स्मृति में यह पहली बार था, जब काकी यूं फूट-फूट कर रोई हों दादा के जाने पर। दुखी तो वे हर बार होती थीं,
लेकिन यूं फूट-फूट कर रोना...... मां भी कुछ
परेशान दिख रही थी। मिलिट्री दा चले गए। भाभी दरवाजे तक भी नहीं आई। काकी
रोते-रोते भाभी को खूब कोस रही थी, ‘‘हमर बच्चा क तकदीरे खराब कैर देलकै। कौन मुहूर्त मा ई कुलक्षिणी हमरा घर मां
पैर धरलकै ! भोला बाबा, की भूल भेलै हमरा
से!’’ वे भाभी को कोसती जा रहीं
थीं और अपनी धोती के आंचल से आंसू पोंछती जा रही थीं। उस दिन रामगुनी काकी मुझे और
ज़्यादा बूढ़ी दिख रहीं थीं, अपनी उम्र से
कहीं ज्यादा बूढ़ी और कहीं ज्यादा लाचार।
भाभी को दर्द शुरू हो गया था। रह-रह कर
उन्हें दर्द उठ रहा था। कुछ देर वे यूं ही बर्दाश्त करती रहीं। वे घूंट-घूंट कर
पानी पी रही थीं। मैं वहीं बैठी अपना होमवर्क बना रही थी। मां की खास हिदायत थी कि
इन दिनों मैं भाभी के साथ ही रहूं। मैं भी अब कुछ-कुछ समझदार हो रही थी। भाभी का
ख्याल रखना जैसे मेरी नैतिक जिम्मेदारी थी। भाभी उठकर बिस्तर पर जाना चाहती थी।
उन्होंने मुझे पुकारा, ‘‘गुड्डी, तनिक हाथ दे बेटी।’’ भाभी बिस्तर तक पंहुची ही थी कि अचानक जोर से चीखी, इससे पहले कि भाभी कुछ कहती, मैं घर की तरफ दौड़ी, ‘‘मां, जल्दी चल,
भाभी को बहुत दर्द हो रहा है।’’ मां ने उल्टे पांव मुझे वापस दौड़ा दिया और खुद
आंगन से बाहर निकल गई। ननकी दाई को बुलाने का समय आ गया था। थोड़ी ही देर बाद मां
ननकी दाई के साथ वहां थी। मीना चाची के हाथ में पुरानी धोती और चादर थी। पंहुचते
ही मां ने मुझे कमरे से बाहर कर दिया और भीतर से किवाड़ बंद कर दिया। मां के कहने
पर भी मैं घर नहीं गई। वहीं बंद किवाड़ के बाहर खड़ी रही।
सवा दो घंटे तक भाभी यूं ही छटपटाती
रही। मीना चाची न जाने क्या क्या कहे जा रही थी भाभी से। और पूरे सवा दो घंटे बाद
पतली सी आवाज सुनाई दी, रोने की आवाज।
ननकी दाई शायद मां से कुछ कह रही थी। मां दरवाजा खोल कर बाहर निकली। मुझे वहां खड़े
देखकर मां हैरान थी। उन्होंने मेरे गाल पर एक थप्पड़ दिया और मुझे घसीटते हुए घर
की ओर दौड़ी। मैं रो पड़ी थी। रोने की वजह थप्पड़ कतई नहीं था। पिछले कुछ घंटों में
कुछ भर गया था मेरे भीतर जो उस थप्पड़ से फूट गया था। और अब मेरी आंखों से बह रहा
था।
भीतर जा कर मां कुछ ढूंढ रही थी और वह चीज
मिलते ही वह वापस भाभी के घर की ओर चल दी। वह इतन जल्दी में थी कि उन्होंने मेरी
तरफ पलटकर देखा तक नहीं।
सुधा भाभी को बेटा हुआ था। रामगुनी
काकी दादी बन गई थी। मिलिट्री दा पिता बन गए थे और सुधा भाभी.....मां.....। लेकिन
काकी खुश नहीं थी। उन्होंने मुन्ना को गोद में उठाया तक नहीं। बस एक नज़र देखा जरूर
था।
इस बार के जो लौटे मिलिट्री दा,
तो उन्होंने खत तक नहीं लिखा। बेहद दुखी थे वे।
इस बीच भाभी के पेट से होने की खबर लगी मां को, तो मां ने मिलिट्री दादा को चिट्ठी लिखी, मीना चाची ने मिलिट्री दा को संदेसा भेजा,
लेकिन दादा एकदम शांत हो गए थे। न कोई खत,
न संदेश, न टेलीफोन......कुछ नहीं। भाभी सूखकर एकदम कांटा हो गई थी।
बहुत कम बोलने लगी थी वे.....। बस कभी-कभी मीना चाची के घर जाती, वह भी बहुत कम। शायद जब बहुत अकेली हो जाती....
तभी। मिलिट्री दा ने मीना चाची के खत का भी कोई जवाब नहीं दिया। भाभी का पेट फूलता
जा रहा था और चेहरा छोटा होता जा रहा था। सचमुच बेहद कमज़ोर हो गई थी वे।
मिलिट्री दा को जब पिता बनने की खबर मिली,
तब
उन्हें लौटे हुए साढ़े नौ महीने हो गए थे। मीना चाची ने खबर भेजी थी। लेकिन
मिलिट्री दा तब भी नही लौटे...।
मुन्ना अब बड़ा हो रहा था। लेकिन मुन्ना के
साथ-साथ ही बड़ा हो रहा था एक सच। सच जिस पर आज तक परदा पड़ा हुआ था। मुन्ना के जन्म
ने उस परदे को एक बारगी उघाड़ कर रख दिया था। काकी दादी बनकर खुश नहीं थी, मीना चाची मौसी बनकर खुश नहीं थी। मिलिट्री दा
शायद पिता बनकर खुश नहीं थे। मिलिट्री दा खुश नहीं थे शायद तभी तो इस खबर पर भी वे
नहीं लौटे, एक चिट्ठी तक नहीं लिखी
उन्होंने।
लेकिन मै दीदी बनकर खुश थी। दिन भर खिलाती मैं
मुन्ना को......। भाभी खुश थी। शायद ज्यादा संतुष्ट थीं वो। मुन्ना ने उन्हें
संपूर्ण कर दिया था। वे दिन-रात काम में लगी रहतीं। मुन्ना के रख-रखाव में ही
उन्होंने खुद को सीमित कर लिया था जैसे। सबके हिस्से का प्यार वो अकेली लुटा रही
थीं उस पर। उन्होंने कुछ भी सोचना छोड़ दिया था, कहीं भी जाना छोड़ दिया था, न मीना चाची के घर, न आँगन के बाहर। कहीं भी। मुन्ना के चारों ओर ही अब उनकी दुनिया थी। काकी,
मिलिट्री दा के और पूरे गाँव के मुन्ने के
प्रति इस नकार को वे अपने प्यार से भरने की कोशिश कर रही थी।
मिलिट्री दा घर
लौटे थे आज। पूरे सवा साल बाद। रामगुनी काकी बहुत बीमार थी। अस्पताल में भर्ती हुए
उन्हें छः दिन हो गए थे। गाँव से शहर की दूरी लगभग पाँच किलोमीटर थी और अस्पताल
शहर में था। बिसेसर चाचा और मेरे पिताजी उन्हें शहर लाए थे। चाचा ने जल्दी से गाड़ी
की व्यवस्था की और काकी को अस्पताल पहुँचाया। सुधा भाभी भी गई थीं साथ। मुन्ना तब
माँ के पास रुका था। बिसेसर चाचा ने वहीं से मिलिट्री दा को टेलीग्राम कर दिया था।
और टेलीग्राम पहुँचने के चौथे दिन मिलिट्री दा यहाँ पहुँच गए थे। मिलिट्री दा सीधा
अस्पताल पहुँचे थे। वे अस्पताल में ही थे जब हम लोगों को उनके आने की खबर पहुँची।
मुझे याद है, मैं ही पिताजी को
बताने गई थी और पिताजी ने खबर सुनते ही सिर पर हाथ रख लिया था। मुझे कुछ समझ नहीं
आया कि मिलिट्री दा के आने की खबर से पिताजी इतने परेशान क्यों हो गए थे।
शाम को ही काकी की अस्पताल से छुट्टी होने वाली
थी। मिलिट्री दा के साथ बिसेसर चाचा भी थे अस्पताल में। वे लोग साथ ही लौटने वाले
थे। वह शाम एक भयावह शाम थी........।
काकी अब स्वस्थ महसूस कर रही थीं। उन्हें घर
लाया गया। सुधा भाभी उनके आने से पहले खाना बना सब काम निपटा चुकी थी। काकी के लिए
उन्होंने खिचड़ी बनाई थी। दरवाज़े पर गाड़ी आकर रुकी तो सुधा भाभी डिबरी जलाए उनका
इन्तज़ार कर रही थी। मुन्ना शाम से परेशान कर रहा था। मिलिट्री दा ने जब दरवाज़े पर
कदम रखा तो उनके कानों में सुधा भाभी और मुन्ने की आवाज़ पड़ी। भाभी मुन्ने को बहला
रही थी। और मुन्ना बीच-बीच में हँस देता था। भाभी और मुन्ने की आवाज़ ने मिलिट्री
दा की पिछले लगभग सवा साल की जड़ता को झकझोर दिया था जैसे। वे सोचने लगे, यही तो वह सत्य है जिसके पीछे इंसान ताउम्र
दौड़ता है। एक घर, घर में खूबसूरत
पत्नी, किलकारी लेते बच्चे की
आवाज़...... आखिर वह किससे दूर भाग रहा है।
काकी
को सहारा देकर मिलिट्री दादा कमरे में ले आए। भाभी मुन्ने को ले एक ओर ठिठकी-सी
खड़ी रही। दादा शायद उस दिन कुछ कहना चाह रहे थे। शायद भाभी से हाथ जोड़कर माफी
माँगना चाह रहे थे, शायद प्यार से
उन्हें सीने से लगा लेना चाह रहे थे, शायद बढ़कर मुन्ने को गोद में ले लेना चाह रहे थे .... शायद अपने जीवन की
सार्थकता तलाश लेना चाहते थे वे उस पल। वे उसे पल को सहेज लेना चाह रहे थे शायद।
लेकिन वह वक्त उन्हें इस सबकी इजाज़त नहीं दे रहा था। उनके घर पहुँचने की खबर लगते
ही उनका हाल-चाल जानने वालों का ताँता लग गया।.... वे मुन्ना को नज़र भर देख भी
नहीं पाए थे।
बड़ी
उमस भरी शाम थी वह। लोगों के आने से कमरे में घुटन होने लगी तो मिलिट्री दा काकी
के लिए बाहर दरवाज़े पर खाट लगाने की व्यवस्था करने लगे। देखते ही देखते मुखिया जी
ने दरवाज़े पर रोशनी के लिए पेट्रोमेक्स की व्यवस्था भी कर दी। काकी को बाहर खाट पर
लिटाया गया और बूढ़-पुरानी औरतों ने आकर उन्हें चारों ओर से घेर लिया। फिर ज्यों
गाँव की परम्परा रहती आई है, एक-एक कर सब
औरतें एक ओर और पुरुष दूसरी ओर जुटने लगे। इस बीच पेट्रोमेक्स को जलाने का प्रक्रम
चलता रहा। चर्चा गम्भीर बातों से मुड़कर हल्के-फुल्के मज़ाक का रुख ले रही थी। बहुत
दिनों बाद दरवाज़े पर यूँ चौपाल सजी थी, इसलिए हम बच्चों के लिए उत्सव का माहौल हो गया था। सब इधर से उधर दौड़ लगाते और
बीच-बीच में डाँट खाकर माँ के आँचल में दुबक जाते।
सारा
माहौल बहुत हल्का हो गया था। लेकिन न जाने क्यों पिताजी और माँ बहुत परेशान दिख
रहे थे। उदासी और चिन्ता की यही रेखाएँ मीना चाची और बिसेसर चाचा के चेहरे पर भी
दिखाई दे रही थीं। लगभग पूरा गाँव था दरवाज़े पर लेकिन अवध चाचा और नई चाची का कहीं
अता-पता न था।
भाभी
मुन्ना को ले काकी के पायताने ज़मीन पर बैठी थी। मुन्ना गोद से उतरने को मचल रहा
था। मिलिट्री दा चौकी पर बैठे चारों ओर से मिलने-जुलने वालों से घिरे हुए थे। बाहर
एकदम ठंडी हवा चल रही थी। दिन भर की सारी थकान दूर हो गई थी। मुन्ना गोद से उतर कर
घुटने-घुटने चल दरी पर बीचों बीच जा बैठा था। उसकी बाल सुलभ किलकारी लगातार चालू
थी। मिलिट्री दा के कान और आँख उसकी आवाज़ का पीछा कर रहे थे। नज़र भर देख लेना चाह
रहे थे वे मुन्ना को। अंधेरे में इधर-उधर घूम रही उसकी आकृति ही थी अभी तक उनके
सामने।
...... और फिर लगभग आधे घण्टे की जद्दोजहद के बाद
पेट्रोमेक्स जल पाया। रोशनी सीधा मुन्ना के चेहरे पर पड़ी। सिर से पाँव तक रोशनी से
नहा उठा मुन्ना। मिलिट्री दा को इतनी देर से शायद इसी पल का इंतज़ार था। मुन्ना को
देखते ही उनकी आँखे चमक उठी। चेहरे पर एक लम्बी मुस्कान खिंच आई।
लेकिन अगले ही पल वह मुस्कान गायब थी
वहाँ से। बिजली की तरह उनका चेहरा चमका और फिर अंधेरा छा गया। उनके चेहरे का रंग
बदल रहा था। मुस्कान की जगह धीरे-धीरे क्रोध लेता जा रहा था।
ठीक
वही नाक-नक्श। भूरे रंग की गहरी आँखें, नाक की सीध में नीचे ठोढ़ी के ठीक बीचों-बीच गड्ढा, आगे की ओर घुंघराले बाल.........। क्या माया थी ईश्वर की।
अवध चाचा का पूरा चेहरा उतार दिया था मुन्ना पर। ईश्वर भी यही चाहता था शायद कि यह
सच अब खुलकर सबके सामने आ जाए।
इसी
पल का डर था सबको। मीना चाची और बिसेसर चाचा तो जैसे डर से काँप रहे थे। काकी भी
सिर पर हाथ रखे बैठे थी। सबके चेहरों पर चिंता की रेखा खिंच आई थी। कुछ लोगों की
आँखे आगे होने वाली घटनाओं को देखने के लिए बेचैन थी - लेकिन सुधा भाभी बिल्कुल
शांत थी, इस सारी स्थिति से विपरीत
वे एकदम शांत दिख रही थीं। वे सिर पर आँचल लिए गर्दन झुकाए एक ओर खड़ी थीं। कोई
द्वंद्व नहीं चल रहा था उनके भीतर..... शायद कोई पश्चाताप भी नहीं। स्थिति अब
बर्दाश्त की सीमा लाँघ गई थी। मिलिट्री दा के गर्जन से काँप गया सब कुछ, ‘‘त इ छियौ तोहर करनी....... आइ गेलौ तोहर पाप सब
गाँव क सामने। ईहै देखै ल बुलाय रहीं हमरा माँ!’’ वे काँप रहे थे। उनके कपड़े पसीने से भीग गए थे। भाभी उनसे
आँख नहीं मिला रही थी, लेकिन उनकी आँखों
में कोई अपराध बोध नहीं था।
‘‘ईहै सर्टिफिकेट
छियै एकर करम के।‘‘ उनका इशारा भाभी
की ओर था। निढाल होकर बैठ गए वे वहीं तख्त पर। "ऊ सूअर का बच्चा हमर घर तबाह कैर देलकै।’’ फफक-फफक कर रो पड़े थे वे। तख्त पर बैठा उनका
लम्बा-चौड़ा छह फुट्टा शरीर सिर से लेकर पाँव तक फफक रहा था। मिलिट्री दा को पहली
बार इतना कमज़ोर देखा था मैंने। मेरी सारी सहानुभूति उनके साथ जा जुड़ी थी। उस पल
भाभी मेरी नज़रों में गुनहगार हो गई थीं। उनकी वजह से ही तो मिलिट्री दा यूँ पेरशान
हो गए थे।
कोई आगे नहीं आया उन्हें सहारा देने। आखिर क्या
कर सकता था कोई। क्या ढांढस बँधाया जा सकता था। और फिर कुछ पल के लिए एकदम सन्नाटा
पसर गया था। मिलिट्री दा ने खुद पर काबू कर लिया था। लेकिन उनके भीतर एक
ज्वालामुखी पिघल रहा था...... वे शायद किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाह रहे
थे........ शायद निष्कर्ष पर पहुँच गए थे वे।
‘‘अब ई हमर साथ
नायं रैह सकत छौ’’ उनका चेहरा एकदम
कठोर हो गया था, ‘‘न ई न एकर ई पाप।
इसी बखत इसको यह घर छोड़ना पड़ेगा। इसी बखत’’ उनकी आवाज़ ऊँची हो गई थी। हिंदी में बोलने लगे थे वे।
बिसेसर चाचा इस
बीच अवध चाचा को भी खींच लाए थे। चाची भी पीछे चली आई थी। अजब काली रात थी वह।
भाभी को निर्णय सुना दिया गया था। खुसुर-पुसुर शुरू हो गई थी चारों ओर।
मीना चाची दौड़ कर आ गई थी भीड़ से और काकी के पाँव
पकड़ लिए थे। ‘‘काकी समझाईं ई
लल्ला जी का। एतना कठोर न बनी.........।’’ वे रोए जा रही थीं। ‘‘कहाँ जाई ई करम
की अभागन अब ?’’
अवध चाचा मूक दर्शक बन आ खड़े हुए थे। मीना चाची
अवध चाचा की ओर देख रहीं थीं। उनकी आँखों में उम्मीद थी या शिकायत, पता नहीं, लेकिन उनकी आँखें बेचैन कर दे रही थीं सबको। उनकी आँखों में
एक गुहार थी, रहम की गुहार। नई
चाची की भी आँखें भर आई थीं। काकी अजीब असमंजस में फँसी थी....... लेकिन सुधा
भाभी....... वे बिल्कुल शांत थी, एकदम शांत। न कोई
शिकायत, न रहम की उम्मीद, न कुछ छूट जाने का दुःख। बिल्कुल शांत। सब कुछ
को अपने भीतर दफ़न कर लिया था उन्होंने और अब हर अनहोनी के लिए तैयार थीं।
उनकी आँखों में आँसू का एक कतरा तक नहीं था।
उनके आँसू तो बहुत पहले सूख गए थे, बहुत पहले जब इसी
तरह बीच पंचायत, पूरे गाँव के
सामने खड़ा कर उनकी जिंदगी का फैसला ले लिया गया था। इसी तरह एक फरमान सुना दिया
गया था उन्हें और इसी तरह का पुरुष उस दिन उनका भाग्य विधाता बन बैठा था।
......... और उसकी
पृष्ठभूमि में भी अवध चाचा ही थे, अवध, अवध प्रताप सिंह।
सुधा
कुँवारी थी तब और मीना का अभी गौना नहीं हुआ था। बिसेसर चाचा तब कुँवर दादा यानी
मीना और सुधा के बड़े भाई से मिलने के बहाने आया करते थे और एक नज़र मीना को भी देख
लिया करते थे। सुधा के माता-पिता नहीं थे और कुँवर दादा ने ही उनका पालन-पोषण किया
था। कुँवर दादा माँ दुर्गा के बड़े भक्त थे और हर साल दुर्गा पूजा बड़ी धूमधाम से
मनाते थे। दुर्गा पूजा की व्यवस्था के लिए वे कई दिन पहले शुरू हो जाते थे। पूरे
गाँव के मुखिया होते वे पूजा की तैयारी में।
मीना और सुधा दोनों को वे बहुत प्यार करते थे।
दोनों के प्रति पूरी निष्ठा से अपनी जिम्मेदारी का वहन करते। वे अक्सर कहते - ‘‘माँ दुर्गा ही एकर रूप मा हमर घर आइल छै। एकर
रूप मा हमरा माँ का दरसन होलै है।’’ माता-पिता दोनों का ही फर्ज कुँवर दा ने निभाया था। बिसेसर चाचा किसी न किसी
काम से गाँव आते ही रहते थे। आते-जाते वे कुँवर दादा का हाल जानने चले आते थे।
पड़ोस का ही तो गाँव था जहाँ कुँवर दादा ने ब्याहा था अपनी बहन मीना को। बिसेसर
चाचा के साथ अवध भी आ जाया करते थे।
न जाने
कब किस परदे की आड़ में सुधा-अवध के बीच प्यार पनपने लगा। सुधा अवध और अवध सुधा से
प्यार करने लगे थे। यह प्यार जमाने की नज़र बचा कर पनपता रहा। जब तक मीना चाची गौना
होकर अपने घर नहीं चली गई तब तक किसी को भनक तक नहीं लग पाई दोनों के बीच में चल
रहे प्रेम की।
दुनिया
की नज़र बचाकर दोनों एक-दूसरे से जीवन भर साथ निभाने का वायदा कर बैठे। कच्ची उम्र
के प्यार में जो उफान होता है, दोनों में वह चरम
पर था। कुँवर दादा की नाक के नीचे उनका प्यार परवान चढ़ता गया।
और फिर एक दिन ठीक मुहूर्त देखकर कुँवर दादा ने
मीना को विदा करने का फैसला किया।
उस दिन मीना की विदाई के समय कुँवर दादा खूब
रोए थे। बच्ची की तरह पाला था उन्होंने इन दोनों को। अपने ज़िगर के टुकड़े को विदा
करने में कलेजा कैसा फट जाता है, इसका एहसास उस
दिन हुआ था कुँवर दादा को। ठाकुर थे वे। गाँव में उनका रुतबा था। रोना और कमज़ोर
पड़ना ठाकुरों की शान के खिलाफ होता है, लेकिन कुँवर दादा खूब रोए थे उस दिन। मीना के जाने का सबसे ज्यादा दुख तो सुधा
को ही था। बड़ी बहन, सखी सब कुछ तो थी
मीना चाची। उनके गले रखकर रोना शुरू हुईं, तो उन्हें एक दूसरे से अलग करना मुश्किल हो गया।
लेकिन उधर अवध चाचा भी खुद को रोने से रोक नहीं
पाए थे। उनकी आँखों में आँसू थे और वे रह-रहकर रुमाल से अपनी आँखे पोंछ रहे थे। उस
दिन सुधा से मिलने की उनकी ओट जो खत्म होती जा रही थी। अब वे किस बहाने आते यहाँ
सुधा से मिलने।
लेकिन उनका मिलने का सिलसिला रुका नहीं। बल्कि
पहले से और ज़्यादा ही हो गया था। सुधा उस समय मेट्रिक की पढ़ाई कर रही थी। वह रोज
स्कूल जाती और अवध स्कूल से उसके लौटते समय उससे मिलने चले आते। वे अपनी घड़ी की
सुई उसके स्कूल से लौटने के समय से मिलाकर रखते और समय होते ही साइकिल उठा निकल
पड़ते.......। यूँ ही उनका प्यार चलता रहा।
अवध और सुधा स्कूल से घर के रास्ते में पड़ने
वाले आम के बगीचे में मिलते। और फिर पेड़ की ओट में दोनों के होंठ एक-दूसरे से सट
प्यार की परिभाषा रचने लगते। होंठों से होंठों का सटना और प्यार की आग को थोड़ा
दिखाना और छिपाने की लुका छिपी यूँ ही चलती रहती कि एक दिन दोनों पकड़े गए।
हुआ यूँ कि आम के बगीचे में अवध सुधा की सुलगती
देह को टटोल रहे थे कि ऊपर से कुछ टपकने की आवाज़ आई। दोनों चौंक गए। सुधा अपने
कपड़े ठीक करने लगी। अवध ने डरते-डरते देखा,
कुछ नहीं था, पेड़ से एक आम टपका था। दोनों की देह हँसते-हँसते फिर से
एक-दूसरे में उलझ गई। अवध के होठ सुधा की गर्म देह को सहला रहे थे और सुधा की देह
हिचकोले खा रही थी। दोनों आज प्यार के चरम को पा लेना चाहते थे कि फिर से एक आवाज़।
दोनों शायद कोई आवाज़ सुनना नहीं चाह रहे थे। शायद इस समय उन दोनों के सिवाय सब कुछ
झूठ था, सब मिथ्या था। इससे पहले
कि दोनों एक-दूसरे में समा पाते, अवध की नज़र ठीक
सामने पेड़ की ओट में से झाँकती दो आँखों पर पड़ी। अवध को इस तरह अपनी तरफ देखता देख
ओट में छिपी वे दो आँखें भाग निकलीं। दोनों के हाथ-पैर काँप रहे थे। सुधा ने झट से
अपने कपड़े पहने और घर की ओर दौड़ी।
वे दो आँखें किसकी थीं, यह तो उस दिन पता नहीं चल पाया लेकिन कानों कान होते यह खबर
पूरे गाँव में फैल गई। सुधा जहाँ से गुजरती, लोगों के बीच काना फूसी शुरू हो जाती।
कुँवर दादा यह खबर सुनकर हैरान थे। अवध और सुधा
के बीच सम्बन्ध पनपता रहा और उन्हें पता तक न चला। उनका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा
था। सुधा अगर उस समय उनके सामने होती तो न जाने वे क्या कर बैठते। जिस बच्ची को
उन्होंने पाल-पोस कर बड़ा किया, आज वहीं गाँव भर
में उनकी नाक कटाती फिर रही है।
अगले ही दिन उन्होंने मीना को बुला भेजा। मीना
दीदी को अचानक आया देख सुधा हैरान थी। साथ में बिसेसर चाचा भी थे। कुँवर दादा के
सामने मीना और सुधा दोनों के हाथ-पाँव काँपते थे। जुबान तक नहीं खोलती थी वे उनके
सामने। मीना दीदी शक्ल से कुछ परेशान दिख रही थी। आखिर अचानक दादा ने क्यों बुला
भेजा।
कुँवर दादा ने अपने गुस्से पर काबू पा
लिया था। वे जल्द से जल्द इस रोग की जड़ को ही काट देना चाहते थे। उन्होंने मीना को
सुधा के लिए लड़का देखने के लिए कहा ताकि जितनी जल्दी हो सके, इसका ब्याह हो जाए।
मीना चाह कर भी यह नहीं कह पाई कि दादा,
सुधा अगर अवध से प्रेम करती है तो दोनों का
ब्याह कर दीजिए। दादा बहुत ठहरे हुए स्वर में बोले थे, ‘‘सुधा अब ब्याह क लायक भेय गेलै, मेहमान जी और तांेय मिलकै ओकरा लिये लड़का ढूँढो।’’ बिसेसर चाचा ने कहने की कोशिश की थी,....’’दद्दा अपन अवध आ सुधा...... ’’ लेकिन कुँवर दादा बीच में ही उठकर चल दिए। अवध
का नाम भी वे सुनना नहीं चाहते थे।
सुधा दीवार से कान लगा सुन रही थी। उसकी किस्मत
का फैसला ले लिया गया था। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। वह जानती थी कि अब
उसका स्कूल जाना भी रोक दिया जाएगा। कैसे मिल पाएगी अब वह अवध से।
आज से ठीक दसवें दिन दुर्गा पूजा थी। कुँवर
दादा इन दस दिनों तक पूजा की तैयारी में फँसे रहेंगे। यही अच्छा अवसर है। सुधा ने
अवध के साथ भाग जाने की ठान ली थी। इस बीच मौका देख वह अवध से मिलकर आ चुकी थी। तय
हुआ कि ठीक दुर्गा पूजा के दिन जब सारा गाँव पूजा में व्यस्त होगा, दोनों मौका देखकर घर से भाग निकलेंगे।
ये दस दिन सुधा ने घर के हर काम में बहुत रुचि
दिखाई। कुँवर दादा ने उससे बात करना छोड़ दिया था, लेकिन सुधा ऐसे काम कर रही थी मानों कुछ हुआ ही न हो।
दुर्गा पूजा के ठीक एक दिन पहले जब पूरा गाँव बाहर दरवाज़े पर एकत्रित था और कल
होने वाली पूजा की तैयारी कर रहा था, सुधा अपने कमरे में बैठी कल की तैयारी कर रही थी। कल सुधा और अवध घर से भागने
वाले थे। दरवाज़े पर शोर गुल था, सब आपस में
हँसते-बतियाते काम में जुटे हुए थे। औरतों की एक पूरी मण्डली माता के भजन गा रही
थी, चिमटा, ढोलक, मंजीरा सब एक-दूसरे के सुर में सुर मिला रहे थे। पुरुष पूजा के लिए पण्डाल सजा
रहे थे और कुछ नई पुरानी बहुएँ बाते करती फूलों के हार गूंथ रही थी। कुँवर दादा
सारी तैयारियों को बहुत बारीकी से देख रहे थे।
सुधा काम की हर जरूरी चीज अपने बैग में डालती
जा रही थी। उसने अंदर की जेब में पैसे और कुछ जेवर भी रख लिए थे। वह सामान रख कर
पलटी ही थी कि..... कुँवर दादा ठीक पीछे खड़े थे। सब कुछ देख लिया था उन्होंने।
गुस्से से थरथराते कुँवर दादा ने आव देखा न ताव और एक थप्पड़ जड़ दिया सुधा के गाल
पर। वे उसे घसीटते हुए बाहर ले आए। बाहर, जहाँ सारा गाँव इकट्ठा था।, जहाँ ढोलक की थाप
और मंजीरे की गूँज सुनाई दे रही थी, जहाँ उत्सव का माहौल था। देखते ही देखते सब कुछ शांत हो गया। आँगन के बीचों
बीच कुँवर दादा खड़े थे और उनके ठीक सामने सुधा। सुधा की आँखों में तब भी आँसू नहीं
थे। ‘‘बोल की करल रही भीतर मं।
बोऽऽऽऽल।’’ वे गरजे थे। ‘‘देख ले अपन दुलरी का करम। भागय क तैयारी कैर
रहल रहौ‘‘, वे मीना दीदी को घूर रहे
थे। मीना तो जैसे वहीं जड़ हो गई थी। ‘‘पूरा गाँव मा नाक कटाय देतै हमर। इहै दिन देखल लई पाल रहिल रिहै एकरा के?’’
‘‘सूअर क साथ मुँह काला कैर क घूम रहल छै।’’
सुधा अब चुप न रह सकी, ‘‘हम मुँह काला नहीं कर रहे थे दद्दा। प्रेम करते हैं हम अवध
से..... और उससे ही ब्याह करेंगे।’’ सुधा गुस्से में भी शुद्ध हिंदी बोल रही थी।
सुन कर सारा गाँव दंग रह गया। इतनी
हिम्मत एक लड़की की। ब्याह से पहले जहाँ लड़का-लड़की से पूछने का रिवाज़ तक नहीं,
वहाँ एक लड़की बीच पंचायत अपने पाप की वकालत कर
रही है। कुँवर दादा को काटो तो खून नहीं। बीच बाजार सुधा ने उनकी इज्जत की
धज्जियाँ उड़ा दी थी। गाँव में सिर उठाकर चलने वाले कुँवर दादा के नाम पर आज पूरा
गाँव थूक रहा था।
अब फैसले की घड़ी आ गई थी। कुँवर दादा की गुस्से
और अपमान से लाल आँखे और बड़ी हो गई थीं, ‘‘प्रेम-विवाह करै ल चाहि छीं तूं.... सौगन्ध है हमर दुर्गा मैया की, तोरा उहै गाँव में ब्याहबौ, जहाँ तोहर ऊ प्रेमी रहै छौ। ताकि तोय भर जनम
ओकरा देख-देख के तड़पत रहिं.... तोहर पाप का यही दण्ड छौ। कठोर दण्ड।’’ कहकर दादा एकदम शांत हो गए। सुधा वहीं ज़मीन में
धँस गई थी। उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी बह रही थी। प्यार करने की सज़ा मिली थी
उसे।
मीना दीदी ने कुँवर दादा के पाँव पकड़ लिए और
गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘दद्दा, ई जुरम न ढाओ ऊ बच्ची पर। कहीं की नांय रहतै ऊ।
माफ कर दहो दद्दा ओकरा। भूल भेय गेलै...... भूल भेय गेलै ....।’’
दद्दा वहां से चल दिए ऐसे जैसे उन्होंने
कुछ सुना ही न हो। ऐसे जैसे कुछ कहा ही न गया हो।
सुधा भाभी एक बार फिर से पूरे गाँव के
सामने थी। फिर उन्हें सजा सुनाई गई थी। प्रेम करने की सजा। फिर से एक पुरुष उनका
भाग्य विधाता हो गया था। लेकिन उनकी आँखें सूखी थीं। उनमें आँसू नहीं थे। उन्होंने
मिलिट्री दा के निर्णय के आगे घुटने टिक दिए थे। वे चल दी थी वहाँ से कि मीना चाची
ने उनका हाथ थाम लिया। वे पूरे गाँव के सामने खड़ी थीं। ‘‘दण्ड ही देल जैतै......... त पाप खाली एकरे नांय छियै.....
ई पाप में भागीदार कोई अउर भी छै.... अवध भी छै ई पाप का भागीदार। ओकरा भी सजा सुनायल
जाय। ओकरा भी गांव निकाला होय क चाही। हर बार ई अभागन ही काहे दण्ड भोगे....!’’
हांफने लगी थी मीना चाची........। सुधा भाभी ने
उनके कंधे पर हाथ रख दिया।
मुन्ना इस सारी घटना से घबरा कर रोने लगा
था। भाभी ने उसे गोद में उठाया, उसे सीने से
लगाया और चल दी। चलने से पहले उन्होंने एक नज़र अवध चाचा को देखा था। चाचा ने आंखें
झुका ली थीं।
रात भर दरवाजे की देहरी पर बैठने
की मोहलत मिल गई थी उन्हें। सुबह सब के उठने से पहले सुधा भाभी घर की, आंगन की, गांव की देहरी लांघ चुकी थी। छः महीने के दुधमुंहे बच्चे को
गोद में लिए चली गईं थीं वे। किसी से कोई शिकायत नहीं थी उन्हें।
उसके बाद सुधा भाभी कहां गई, किसी ने उन्हें ढूंढने की कोशिश नहीं की। कुछ
दिन रहकर मिलिट्री दा भी वापस लौट गए। अब उस घर में मुन्ने की किलकारी नहीं गूंजती
थी। न आले पर रखी किताबें ही कोई उलटता था। मेरा जाना भी छूट गया वहां.........।
मीना चाची के दिल में आज भी भाभी को लेकर टीस उठती है। अवध चाचा के दो बच्चे हैं
और उन्होंने गांव में ही एक स्कूल खोल लिया है।
आज पूरे बारह साल बीत गए इस घटना
को। इन बारह सालों में मेरी उम्र पच्चीस बरस की हो चुकी है। मैंने डॉक्टरी पास कर
ली है और एक सर्वे के सिलसिले में पूरी टीम के साथ बनारस आई हुई हूं। यहीं के
सरकारी अस्पताल का जिम्मा सौंपा गया है हमें। और यहीं मेरी मुलाकात भाभी से हुई,
सुधा भाभी से। वे ज़िंदा हैं। बारह साल पहले घर
और गांव छोड़कर निकली सुधा भाभी ने किसी कुंए या नदी में छलांग नहीं लगाई। वे अपने
बच्चे को लेकर वहां से बनारस चली आई। दिन भर गाड़ी में बैठे न जाने क्या-क्या सोचती
रहीं वे...... बनारस के मंदिरों में झाड़ू लगाया, घर-घर दाई का काम किया, लेकिन जीने की ललक नहीं छोड़ी। वे मुन्ना के लिए जीना चाहती
थी। गांव की नज़र में वह नाजायज़ संतान हो सकता है, लेकिन मां के लिए उसकी औलाद जायज़-नाजायज़ नहीं होती, उसकी औलाद होती है।
आज सुधा भाभी सरकारी अस्पताल में नर्स
हैं। एक छोटा सा सरकारी क्वार्टर है उनके पास। मुन्ना बारह बरस का हो चुका है और
सातवीं कक्षा में पढ़ता है। भाभी को आज भी मेरी पसंद -नापसंद याद है।
सुधा भाभी ने
स्कूल में मुन्ने के पिता का नाम अवध लिखवाया है - अवध प्रताप सिंह।
सम्पर्क-
मोबाईल- 09871819666
(नया ज्ञानोदय, नवम्बर 2012 से साभार)
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(नया ज्ञानोदय, नवम्बर 2012 से साभार)
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