ब्रज रतन जोशी का आलेख ‘अनुपम पथ के अनुपम राही’



अनुपम मिश्र

एक अरसा पहले जब हमारे सामने यह बात आती थी कि प्रदूषण के चलते हमारी पृथिवी का पर्यावरण असन्तुलित होता जा रहा है तो हम इस पर पूरी तरह से विश्वास नहीं कर पाते थे। आज अब हम इस हकीकत का सामना कर रहे हैं। अलग बात है कि खतरे को जानते-समझते हुए भी हम आज भी वह सब कर रहे हैं जिससे भविष्य में पर्यावरण कुछ इस तरह दिक्कततलब हो जाएगा कि हमारे लिए जीना असम्भव हो जाएगा। जीवन का मूल स्रोत पानी का भण्डार हमारी जीवन शैली की वजह से लगातार सिकुड़ता जा रहा है। ऐसे में अनुपम मिश्र की याद आना स्वाभाविक है जिन्होंने अपना समूचा जीवन पानी के लिए अर्पित कर दिया। आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस विशेष अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि आलोचक ब्रज रतन जोशी का आलेख ‘अनुपम पथ के अनुपम राही’।    

   

अनुपम पथ के अनुपम राही

ब्रजरतन जोशी



जल चिन्तन के इतिहास पुरुष अनुपम मिश्र कोई बड़े दार्शनिक या अकादेमिक विद्वान नहीं थे, वरन् वे अपने चिन्तन, मनन से साफ माथे का समाज बनाने की ओर अग्रसर एक द्रष्टा रहे हैं। वे नहीं चाहते थे कि लोग उन्हें किसी विद्वान या दार्शनिक अथवा गहन अध्येता का दर्जा दें। इसलिए वे किसी दर्शन का सूत्रपात भी नहीं करते वरन् उनकी सारी ताकत जल की बून्दों को रजत बूंदों के रूप में देखे जाने की ओर हमें द्रष्टा भाव से परिपूरित करने की रही है। वे शब्दों के जादूगर या बड़े लिख्खाड़ भी नहीं रहे हैं, पर वे कुछ ऐसे अस्पर्शी, अलक्षित और उपेक्षित विषयों से हमारा परिचय बढ़ाते, गहराते हैं और उन्हें हमारे जीवन में प्रवेश देने की कामयाब कोशिश करते हैं जिनकी वजह जीवन जीवन है। उनका जल विचार, चिन्तन समस्त दर्शनों पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर जीवन के प्रांगण में जल की अविरल उपस्थिति को घना करने की शानदार कवायद है। 



वे हिन्दी के मौलिक जल चिन्तक हैं। मौलिक इन अर्थों में कि वे अपने लेखन की दृष्टि और सृष्टि में किसी पूर्वज या परम्परा का कोई प्रदाय, उस तरह प्राप्त नहीं करते जैसे सामान्यतः एक कवि या विचारक करता है। हाँ, भाषा का संसार जरूर उनको भवानी भाई की परम्परा से जोड़ता है, पर वे विचार की अपनी सरणि बनाने वाले दीप्त अनुपम पुरुष थे।



वे हमें जल चिन्तन की सरणि में खींचते हैं, उनका गद्य अद्भुत आकर्षण का केन्द्र है, वे आचरण और व्यवहार में जितने सरल और सहज रहे हैं उतने ही सरल, सहज और बोधशील अपने लेखन में भी रहे हैं। वे हमें जबरन अपने विषय, ज्ञान और चिन्तन की त्रिवेणी में नहीं धँसाते वरन् सिर्फ़ अत्यन्त विनयपूर्वक आग्रह करते हैं कि देखों, यह भी एक चिन्ता का, चिन्तन का, लेखन का महत्त्वपूर्ण विषय और क्षेत्र है, यह भी जीवन का उतना ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जितना कि बाकी।



वे लोक वैज्ञानिक हैं। लोक विद्या की गहरी समझ, उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास उनके लेखन की धार को और अधिक तेज़ बनाते हैं। हमारे समय में जल चिन्तन और अध्ययन को हिन्दी गद्य के केन्द्र में ला कर वे आज भी खरे हैं तालाब से केवल तालाब की प्रासंगिकता को ही रेखाकिंत नहीं करते वरन् हमारे अपने जीवन स्वभाव के साथ जल के रिश्ते और जल कर्म करने वाले संसार सागर के कथानायकों को भी हमारे सम्मुख जीवन्त कर देते हैं, जिन्हें आज का आधुनिक समाज तेज़ी से विस्मृत करता जा रहा है। वे अपने साथ या अपने विचार के साथ हमें जबर्दस्ती नहीं जोड़ते वरन् एक ऐसा परिवेश बनाते हैं कि भाषा के उस भूगोल में संवेदना, अनुभव और विचार के मेल से पाठक गद्य के महासागर से अपरिचित होते हुए भी किसी परिचित तैराक या गोताखोर की भाँति निर्भय हो कर उतरता है।



वे पर्यावरण विश्व के अकेले ऐसे संवेदनशील नागरिक विवेक के धनी हैं जो केवल जल, थल, मल, शोर, ताप आदि प्रदूषण की चिंताओं को केन्द्र न रख कर वैचारिक प्रदूषण, अकाल और सत्कर्म को भी जीवन की चिंता का केन्द्र मानते हैं। इसीलिए उनके विचार आकाश में भाषा, गोचर, भूकंप, पेड़, माटी के साथ मनुष्य का मन और माथा भी शामिल है। वे जानते थे कि जीवन को अगर जीवन की तरह जीवित रखना है, तो हमें पेड़-पौधें, कुँए, तालाब, बावड़ी, खेत, पशु और समाज को समय सिद्ध और स्वयंसिद्ध बनाना होगा। यह उनके सैद्धान्तिक कार्यों एवं साधना के प्रबल प्रताप का ही परिणाम है कि आज लापोड़िया का मस्तक ऊँचा है और जड़े हरी होने के साथ गहरी भी।



उनकी एक बड़ी खूबी यह भी है कि वे किसी सिद्धान्त, मत, विचारधारा के अन्ध अनुयायी नहीं हैं, वरन् गाँधी के सच्चे शिष्य हैं, जो गाँधी मार्ग की आत्मचेतस जमीन पर अपने पैर जमाने बाद जमाने की ओर देखते हैं और अपने अनुभव से आगे बढ़ते हैं। यह जो अपने जमीन पर खड़े होना है, दरअस्ल यही अपने आत्मचेतस होने का प्रमाण भी है। जब हम स्वयं को जागृत कर लेते हैं, तो बाकी काम तो सहज ही अपने क्रम में संपादित हो जाता है। 



हालाँकि वे कोई सिद्धान्त नहीं थोपते, गढ़ते, रचते। पर हाँ, वे मनुष्य में गहरी आस्था रखते हैं। इसलिए गजधर चेलवा, मजदूर किसान और उपेक्षित जन-समुदाय के साथ सुषुप्त शिक्षित, साक्षर समुदाय में भी जो लोकविद्या के मर्म से अपरिचित हैं, मानवीय गरिमा स्थापित करते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि वे प्रथमतः और अंततः एक मानववादी हैं। उनका लेखन मनुष्य का, मनुष्य के लिए, मनुष्य द्वारा लिखा गया साहित्य है जिसका चरम, परम सब कुछ मनुष्य है। विज्ञान और तकनीक के इस प्रचण्ड दौर में वे लोक विद्याओं के सबल, सजग और श्रेष्ठ उन्नायकों में अग्रणी हैं।



वे हिन्दी संसार के ऐसे विवेक सम्पन्न गद्यकार रहे जो जैसा बोलते थे वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसे दीखते थे। यानी मन, वचन और कर्म की त्रिवेणी में उनका जीवन अपने आचरण एवं चरित्र को लिए ही सदैव जागरण के साथ आगे बढ़ा। कह सकते हैं कि वे संज्ञा रूप में तो एक वचनीय अनुपम थे, पर कर्म में बहुवचनीय आत्मवान, यही उनके सचमुच अनुपम होने प्रमाण भी है।



मैंने अपने अनुभव से पाया कि वे गहरे बोध-सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी-पुरुष थे। कार्य उनके लिए पूजा रहा। सबहु मानप्रद आप अमानी उनका जीवन पथ था और कर्म ही जीवन है उनका मूल मन्त्र। उनका लेखन हमारी बुद्धि को तृप्ति नहीं देता वरन् विवेक का पोषण करता है। वे हिन्दी परिदृश्य के उन गिने-चुने गद्यकारों की श्रेणी में ऐसे अग्रणी हैं जो पाठक की मन, बुद्धि और आत्मा तीनों को एक साथ पोषित करते हैं। 



वे हमारे समय के उन नायकों में हैं, जो अनंत जीवन के अनंत पहलूओं को किसी लीला पुरुष की तरह उत्यन्त सहजता से जीते हैं। उनका जीवन किसी भी प्रकार की जटिलता, रहस्यमयता से मुक्त है। वे पृथ्वी और आकाश के बीच चल रहे अनंत व्यापारों का किसी कथापुरुष की तरह सरस शैली में वर्णन, विश्लेषण करते चलते है। इसलिए वे अर्थमयजीवन के बजाय जीवन के अर्थ की व्याख्या भी करते हैं। वे हमारे समय में लुप्त होते जा रहे पृथ्वीपुत्रों की स्वर्णिय कड़ियों में से एक अहम कड़ी थे। 



हम केवल देखते हैं, वे श्रद्धा से देखते हैं। हम केवल देखते हैं, पर वे जानने-समझने के लिए देखते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि उनकी आँखों से देखने पर हमें इसी जीवन के विविध आयाम और अपरिमित अर्थ दीखने लगते हैं।



एक पंक्ति में कहूँ, तो हमारे समय में सहजता, सजगता और सरलता के पर्याय, प्रतिमूर्ति थे। उनका लेखन, ज्ञान और व्यवहारिक कार्य उनके व्यक्तित्व का नैसर्गिक अंग था। वे जीवन मार्ग को सरल, सहज, सुगम बनाने वाले अनुपम गजधर थे। उनका व्यक्तित्व और लेखन कही से भी अहंकार, आकर्षण और अपादर्शिता से दूर .... पूर्णतः पारदर्शी, विवेकवान, आत्त्मावान होने की दिशा में बढ़ता है व बढ़ाता है और पाठक को वे अपने सारे संस्कार सहज ही सौंप कर मुस्कुराते हुए बिना किसी अन्य भाव के आगे बढ़ते जाते हैं, बस हम देखते ही रह जाते हैं, वह अनुपम राह।


ब्रज रतन जोशी



सम्पर्क-

असिसटेन्ट प्रोफेसर,
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
राजकीय डूँगर महाविद्यालय, बीकानेर

फोन नं. : 9414020840

ई-मेल : drjoshibr@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. अनुपम जी पानी के महत्त्व को चेताते हुए उन ऋषि-मुनियों के सामान है जो हमे निस्वार्थ पाप और पूण्य के बारे में चेताते हुए अपनी राह में ओझल हो गए, अब हम उनके पैरो के निशानों को ही कुरेद रहे है। अनुपम जी उसी श्रेणी के ऋषि-मुनि है।
    डॉ. जोशी अनुपम जी के उन संस्कारो को जो वे सहज ही सौंप कर मुस्कुराते हुए बिना किसी अन्य भाव के चले गए है, को न सिर्फ सहजते है बल्कि औरो के चेतना की जमीन पर अंकुरित करने का अथक प्रयास भी करते है।
    डॉ. जोशी का इस आलेख के लिए आभार।

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