निर्वासन में कविता : तिब्बती कविताएँ (अनुवाद : अनुराधा सिंह)
तिब्बत का नाम लेते ही हमारे सामने एक ऐसा परिदृश्य उभरता है जो अपने
अस्तित्व के लिए आज भी लगातार संघर्ष कर रहा है। तिब्बत के लोग निर्वासित जीवन
जीने के लिए अभिशप्त हैं। निर्वासन किसी
भी मनुष्य के लिए पीड़ादायी अनुभव होता है। अपनी मिट्टी, हवा, पानी, परम्परा,
संस्कृति की बात कुछ अलग ही होती है। इन सबसे कट कर मनुष्य उस बोनसाई में तब्दील
हो जाता है जिसका एक आकार तो हमेशा दीखता है लेकिन जो विकसित होने की अपनी क्षमता गंवा
चुका होता है। तिब्बत पर भले ही चीन का आधिपत्य हो, दुनिया भर के तिब्बती लोग उसकी
परिकल्पना एक स्वतन्त्र भूमि के तौर पर ही करते हैं। तिब्बती रचनाकारों की रचनाओं
में तिब्बत आज भी शिद्दत के साथ आता है। यह तिब्बत के लिए संजीवनी की तरह है। आज
पहली बार पर हम ऐसे ही कुछ तिब्बती कवियों की कविताओं से रु ब रु होने जा रहे हैं
जिनकी कविताओं में तिब्बत सांस की तरह हर पल धड़कता है। इन कवियों की कविताओं का
अनुवाद अंग्रेजी से किया है कवयित्री अनुराधा सिंह ने। कविताओं के पश्चात कविताओं
पर एनरिक गाल्वान अल्वारेज का एक गंभीर आलेख प्रस्तुत किया गया है। इस आलेख का
हिन्दी अनुवाद भी अनुराधा ने ही किया है। अनुराधा के अनुवाद की रवानगी कुछ ऐसी है कि ये कविताएँ और आलेख पढ़ते
हुए कहीं भी यह अहसास नहीं होता कि ये कविताएँ या आलेख अनूदित हैं। इन कविताओं को
हमने नया ज्ञानोदय के 2018 की साहित्य वार्षिकी से साभार लिया है।
निर्वासन
में कविता
तिब्बत
की समकालीन कविताएँ – अनुवाद
अनुराधा सिंह
भुचुंग
डी सोनाम
भुचुंग डी सोनाम |
भुचुंग डी सोनाम का जन्म तिब्बत में हुआ था. देश
निर्वासन के बाद वे धर्मशाला, भारत में तिब्बती बच्चों के स्कूल में पढ़े. उनकी
प्रमुख कृतियाँ हैं, ‘डैन्डेलियन्स
ऑफ़ तिबेत, म्यूज़ेज़
इन एक्ज़ाइल: एन एन्थोलॉजी ऑफ़ तिबेतन पोएट्री, कॉनफ्लिक्ट
ऑफ़ डुएलिटी एवं सांग्स फ्रॉम अ डिस्टेंस’.
कब हुआ
था मेरा जन्म?
माँ कब हुआ था मेरा जन्म?
उस साल
जब नदी सूख गयी थी
कब हुआ था वैसा ?
उस साल जब फसल बर्बाद हुई थी
हम रहे थे भूखे कई- कई दिन
और
भयाकुल थे कि तुम बचोगे नहीं
क्या यही था वह वर्ष जब हम आये थे एक नये घर में?
हाँ, यही था वह वर्ष जब उन्होंने हमारे घर को हथिया लिया था
बाँट दिया था उसे देशभक्त पार्टी सदस्यों के बीच ।
और हम
निर्वासित कर दिये गये थे गौशाला में जहां जन्मे थे तुम
कौन सा था वह साल माँ?
वही जब उन्होंने बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया था
पिघला दी थीं ताँबे की तमाम मूर्तियां बन्दूक के छर्रे बनाने के लिए
और तुम पैदा हुए थे जब आकाश धूल से आच्छादित था
मां, क्या यही था वह साल जब दादा हमसे दूर चले गए थे ?
हाँ, वही साल कि जब तुम्हारे दादा को बंदी बना लिया था उन्होंने
मल साफ़ करते थे वे वहाँ
और खेतों में कीड़ों को मारते थे
तुम
जन्मे और घर में कोई मर्द नहीं था
माँ, क्या मैं जन्मा था उस साल जब दीवारें गिराई गयीं थीं ?
हाँ, वही था यह साल जब उन्होंने प्रार्थना घर को नेस्तानाबूद कर दिया था
खपच्चियाँ उड़ा दीं थीं छत की धन्नियों की, भित्तिचित्र मटमैले कर दिए थे
कौन सा था वह साल माँ ?
वही जब उन्होंने जला दिया था धर्म ग्रंथों को
गाँव के चौराहों पर
और अपने दल की तारीफ में गाये थे क्रांति गीत
तुम पैदा हुए थे और घास के तिनकों ने उगना बंद कर दिया था
माँ, क्या यही था वह साल जब तुमने गाना बंद कर दिया था?
हाँ, यही था वह साल जब वे पड़ोसन को ले गये थे
डाल दिया
था श्रम शिविर में
क्योंकि नहर खोदते समय वह गुनगुना रही थी एक लोकगीत
तुम
जन्मे जब लोग एक एक कर गायब होते जा रहे थे
कब हुआ था यह ?
उसी साल था जब उन्होंने दीवारों पर
बड़ा सा लाल नारा लिख दिया था -
‘जो सर बाहर निकले, कुचल दिए जायेंगे‘
तुम पैदा हुए थे
जब सूर्य आकाश से
तिरोहित हो गया
था
कब माँ?
उसी साल जब तुम्हारे पिता.....तुम्हारे पिता......
निर्वासन
घर
से दूर
अपने
छत्तीसवें किराये के कमरे में
मैं
एक फँसी हुई मधुमक्खी
और
तीन टांगों वाली मकड़ी के साथ रहता हूँ
मकड़ी
दीवार पर रेंगती है
मैं
फर्श पर
मधुमक्खी
खिड़की बजाती है
मैं
मेज़
अक्सर
हम अपने अपने एकाकीपन की
राशि
बाँटते हुए एक दूसरे को घूरते हैं
वे
दीवारों को बीट और जालों से
रंग
देती हैं
मैं
उन्हें अलग-
अलग नाम दे देता हूँ
मसलन
जाल, व्यूह, फंदा,
पंख, भुनभुनाहट, फड़फड़ाहट
दूर
घर से
मेरे
मिनट घंटों के समान हैं
मकड़ी
जिस खिड़की से छत तक की यात्रा करती है
मधुमक्खी
जिस खिड़की से कूड़ेदान तक उड़ती है
घूरता
हूँ उसी खिड़की से बाहर
नहीं
बोल सकता हममें से कोई दूसरे की भाषा
मैं
चाहता हूँ
काश! मेरे
चुप होने से पहले
बहरे
हो जाओ तुम
एक
गीत
मेरे
सारे पल तुमसे बावस्ता हैं
फिर
भी एकाकी हूँ
तुम्हारी
प्रतिछाया को धूम्र सा लपेटे
जैसे
तरुवर के नीचे उगा एक सिंहपर्णी
मेरा
मानस तुम्हारे विचारों से संतृप्त
और
ह्रदय अब तक रीता
जैसे
घोड़ियों के झुण्ड से छूटा हुआ
एक
खुरविहीन गर्दभ
तुम
निष्कलंक दूरस्थ चन्द्रमा
मैं
तुम्हारे
नूर में नहाई अगली लहर की
प्रतीक्षा
में लीन
तट
पर पड़ा रोड़ा
मैं
एक पतित पर्ण से अधिक कुछ नहीं
या
हपुषा वृक्ष में अटका हुआ एक पंख भर
लेकिन
घेरे रखता हूँ तब तक तुम्हारी पुतली को
जब
तक नक्षत्र चन्द्रमा से अधिक कांतिवान नहीं हो जाते
तुम्हारी
गर्माहट पाने के लिए
मैं
गिद्ध सी उड़ान भरता हूँ
और
मेरे गौरैय्या से पंख
मुझे
मेरे कमरे के निर्जन कोने तक ही ले जा पाते हैं
मैं
अपने लैपटॉप के धूमिल स्क्रीन को
अनवरत
घूर रहा हूँ
कि
शायद उस ठंडी बयार का गीत लिख सकूं
जो
आप्लावित हो तुम्हारी
मोहक
सुगन्धि से .
सेरिंग
वांगमो धोम्पा
सेरिंग
वांगमो धोम्पा ‘माय राइस टेस्ट्स लाइक द लेक’, ‘इन द एब्सेंट एवरीडे’, और ‘रूल्स ऑफ़ द
हाउस’ (अपोजी प्रेस, बर्कले अमरीका) आदि महत्वपूर्ण पुस्तकों की लेखिका हैं. उनकी ‘रूल्स ऑफ़ द
हाउस’ वर्ष २००३ में
एशियन अमरीकन लिटरेरी अवार्ड्स स्पर्धा के अंतिम चरण तक पहुँच गयी थी. सेरिंग का पालन पोषण नेपाल और भारत के शरणार्थी समुदायों में हुआ
था और अब वे केलिफोर्निया में रहती हैं.
जलावतनी
फ़ासले
से दिखते हैं भूदृश्य कुछ अधिक स्पष्ट
मसलन
‘मैं
जिस जगह से हूँ वह अब नहीं है’
बावज़ूद
उन तमाम सिद्धांतों और प्रयोगों के
जहाँ
लाल रंग संवेगों का प्राक्कथन है
रक्त
सम्बन्ध नहीं है नातेदारी की पहली शर्त
चयन
की कूटनीति में एक विचार दूसरे को उखाड़ फेंकता है
(अतः, भूख एक
चौखटे में अंट जाने की युक्ति है) हम पिंजरों में छड़ें
संहिताओं
के प्रभुत्व की संपुष्टि के लिए लगाते हैं: प्लास्टर और कॉर्क
तैरने
में हमारे सहायक हैं
आवश्यकताएँ
आवाज़ों को ख़त्म करने का मंसूबा हैं
जैसे
कीलों ने ही इस घर को सीधा थाम रखा है
जिन
शहरों के पास अपनी पंचवर्षीय योजनायें हैं
वे
देखते हैं खरीदने का सपना
सफलता
का सर्वांगीण आवंटन है
बस
खिड़की से दीखता हुआ नीला समुद्र
या
एक स्थिर पर्वत
जिन्हें
दूसरे शब्दों में ‘व्यू’ कहा जाता है
हम
रेत पर करते हैं निर्माण
फिर
भी बहुत दृढ़ होते हैं कहीं अपना स्थान सुरक्षित करते हुए
कभी
नहीं भूलते कि अपने पीछे क्या- क्या छोड़ा
जबकि
नवागमन हमें देता है
ससमय, वायदानुसार, प्रचुर
वृद्धि के अवसर
बूचड़खाना
शामिल नहीं किया जाता
पर्यटकों
की नगर भ्रमण योजना में
क्योंकि
लोग मृत्यु नहीं देखना चाहते
वे
अटकलें लगाते हैं कि दरिद्र होने के कारण
स्थानीय
लोगों में लालसाएँ भी नहीं
निर्धन
प्रसन्न हैं,
यह वे एक फासले से निहारते हैं
मूक
रहना ही यातना का आधार है
वंचित
ही स्वर्ग की कामना करते हैं
या
कम से कम स्वर्ग की अवधारणा में विश्वास रखते हैं
हम
साग सब्जियाँ हथिया कर बेचने के लिए
जिंदा
गाय भैंसों का क़त्ल कर देते हैं
एक
सूफी ने कहा कि युवक तुम्हारा इस्तेमाल शहर की
टैक्सी
की तरह करेंगे. तुम्हारी नियति अकेले रहना है
स्त्रियों
द्वारा लाल आवरण की तरह
बिछाए
हुए पुष्पों को बन्दर झपट्टा मार उठा ले जाते हैं.
तेनज़िन
त्सुन्दे
तेनज़िन त्सुन्दे |
तेनज़िन
त्सुन्दे एक सक्रियतावादी लेखक हैं. इनका जन्म उत्तर भारत के मनाली
में एक शरणार्थी परिवार में हुआ था. उन्होंने मुख्यतः तीन पुस्तकें
लिखी हैं: ‘क्रासिंग
द बॉर्डर’, ‘कोरा: स्टोरीज
एंड पोयम्स’ और
‘सेमशूक: एसेज
इन तिबेतन फ्रीडम स्ट्रगल’. उनकी
रचनाएँ अनेकों पत्रिकाओं व दैनिक पत्रों में प्रकाशित हो चुकी हैं. सन २००१ में उन्होंने ‘आउटलुक पिकाडोर अवार्ड फॉर नॉन-फिक्शन’ जीता. इन सबके बावज़ूद त्सुन्दे का अब तक
कोई स्थायी निवास या पता नहीं है.
मैंने
अपना लोज़ार (नया वर्ष) कहीं
खो दिया है
कहीं
बीच राह में, इसे
गुमा दिया,
न
जाने कहाँ और कब
यह
नहीं किसी एक दिन का वाकया
बड़े
होने के दौरान कहीं पीछे छूटता गया क्रमशः
और
मैं लौटकर इसके पास नहीं गया
यह
था, यह
था बहुत बचपन में
जब
मैं सालाना मोमो पार्टी की प्रतीक्षा करता था
यह
तब भी था जब हम शरणार्थी स्कूल में
अखबार
में लिपटे उपहारों को पाने के लिए कतार में लगे थे
यह
तब भी था जब हम साथ- साथ एक और साल बड़े हुए
तब
तक जन्मदिन का मतलब केक और मोमबत्तियाँ नहीं था
कहीं
बीच राह में, मैंने
खो दिया इसे.
पता
नहीं कहाँ और कब
जब
नये कपड़े चुभने लगे, पटाखे
आतंकित करने लगे
जब
हमारे बंदी नायक खा रहे थे वहाँ सूअर के दड़बों में,
उन्हें
मार डाला जा रहा था उनके सर दीवार से फोड़ कर
और
यहाँ हम नृत्य कर रहे थे बॉलीवुड के लोकप्रिय गीतों पर.
जब
छात्रावास और वर्दी हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे,
जब
परिवार का मतलब बस अच्छे मित्र रह गया था
उन्हीं
दिनों जब लोज़ार का अर्थ रह गया था
बस
नया साल
या
कुछ पवित्र परम्पराएँ भर
मैंने
अपना लोज़ार कहीं खो दिया
कहीं
बीच राह में, मैंने
खो दिया इसे.
पता
नहीं कहाँ और कब
एक
समुद्री शहर के महाविद्यालय में पढ़ते हुए,
जो
तब तक कहलाता था बॉम्बे, बहन
का परिवार तीर्थयात्रा पर,
चाचा
बनारस में, माँ
दक्षिण भारत में कहीं गाय चराती,
धर्मशाला
पुलिसस्टेशन में हाजिरी देना ज़रूरी था,
रेल
का टिकट नहीं मिल सका, प्रतीक्षा
सूची संशयात्मक.
और
यह पूरे तीन दिन की यात्रा है
वापसी
जोड़कर एक सप्ताह. यदि मैं चला भी जाऊँ
बाकी
भाई बहन समय नहीं निकाल पाएंगे
इसी
समायोजन में बीस साल बिना लोज़ार गुज़र गए
कहीं
बीच राह में, खो
दिया इसे.
पता
नहीं कहाँ और कब
लोज़ार
तब होता है जब हम बालअपराधी और हरामी
अपने
घर फोन करते हैं हिमालय के उस पार
और
उस तार में रोते हैं
लोज़ार
प्लास्टिक के फूल और एक मोमो पार्टी है.
और
२००८ में
जब
हमारे अश्वारोही लोग गड़गड़ाती मशीनगनों के सामने
चिल्ला
रहे थे ‘आज़ादी’, और ओलंपिक प्रदर्शन की तरह मक्खियों से मर रहे थे
हमने
अपने सर घुटाये
और
उपवास कर मर जाने की धमकी दी.
मैं
नहीं मर सका.
कहीं
बीच राह में, गुमा
दिया इसे.
पता
नहीं कहाँ और कब
कहीं
तो, मैंने
अपना लोज़ार खो दिया .
(*लोज़ार
तिब्बती नववर्ष है जो सामान्यतः फ़रवरी या मार्च में मनाया जाता है)
प्रस्ताव
अपनी
छत को कमरे के मध्य तक खींचो
तो
बना सकोगे तुम मेरे लिए भी एक दुछत्ती
तुम्हारी
दीवारें अलमारियों में खुलती हैं
क्या
मेरे लिए शेष है वहाँ कोई दराज़
मुझे
बढ़ने दो
गुलाब
और नागफनी के साथ अपने बागीचे में
मैं
तुम्हारे पलंग के नीचे सो लूँगा
और
देख लूँगा आईने में टीवी
क्या
तुम्हारा ध्यान अपनी बालकनी पर है
कि
मैं तुम्हारी खिड़की में गा रहा हूँ
दरवाज़ा
खोलो
आने
दो भीतर
तुम्हारी
दहलीज़ पर ही सो रहा हूँ
जागो
तो बुला लेना
धर्मशाला
में बारिश
जब
धर्मशाला में बारिश होती है
बूँदें
हजारों की संख्या में
मुक्केबाज़ी
के दस्ताने पहन
करतीं
हैं आक्रमण
और
पीटतीं हैं मेरे कमरे को
अपनी
टीन की छत के नीचे रोता है मेरा कमरा
भीतर
ही भीतर
गीला
कर देता है बिस्तर, कागज
कभी- कभी
सयानी वर्षा
पीछे
से प्रवेश कर लेती है मेरे कमरे में
धोखेबाज़
दीवारें अपनी एडियाँ उठा कर
कमरे
में छोटी सी बाढ़ लाने की अनुमति दे देतीं हैं
मैं
द्वीप राष्ट्र सी शय्या पर बैठ कर
अपने
जलाप्लावित देश को देखता हूँ
आज़ादी
पर लिखी टिप्पणियाँ
जेल
के दिनों के वृत्तान्त
कॉलेज
के मित्रों के पत्र
डबलरोटी
का चूरा
और
मैगी नूडल्स
सतह
पर आ जाते हैं फुर्ती से
जैसे
अकस्मात याद आ जाना किसी भूली हुई बात का
यंत्रणा
के तीन महीने,
सुई
सी नोक वाले चिनार में मानसून
धुला
झिमिलाता हिमालय
गोधूली
घाम में चमक रहा है
जब
तक शांत नहीं हो जाती वर्षा
पीटना
बंद नहीं करती मेरे कमरे की छत को
मुझे
सांत्वना देनी होगी अपनी टीन की छत को
जो
डटी है ब्रिटिश राज के दिनों से अपनी कर्तव्यवेदी पर
यह
कमरा बन चुका है शरणस्थली कई बेघर लोगों की
अब
इस पर कब्ज़ा है नेवलों, चूहों,
छिपकलियों
और मकड़ियों का
आंशिक
रूप से किराये पर लिया गया है मेरे द्वारा
घर
के नाम पर भाड़े का एक कमरा
अभिमानरहित
अस्तित्व है
मेरी
कश्मीरी मकान मालकिन नहीं लौट सकती
अस्सी
साल की उम्र में अपने घर
हम
अक्सर प्रतिस्पर्धा करते हैं
कश्मीर
और तिब्बत के
नैसर्गिक
सौन्दर्य की
हर
साँझ
मैं
लौटता हूँ अपने किराये के कमरे में
लेकिन
मरूंगा नहीं ऐसे
कोई
तो रास्ता होगा यहाँ से बाहर निकलने का
मैं
नहीं रो सकता अपने कमरे की तरह
बहुत
रो चुका हूँ
जेल
और हताशा में
कोई
तो रास्ता होगा यहाँ से बाहर निकलने का
मैं
नहीं रो सकता
पहले
ही बहुत नम है मेरा कमरा.
पेड्रो
की बाँसुरी
पेड्रो, पेड्रो
क्या
है तुम्हारी बाँसुरी में
क्या
वह छोटा बच्चा जो माँ की मौत के बाद
पूरे
कस्बे में भागता फिरता था
करते
हुए गीले कंकड़ों पर नंगे पाँव थपथप ?
पेड्रो, पेड्रो
बताओ, तुम्हारी बाँसुरी में क्या है?
क्या
वह उस किशोरी का मंद विलाप
जो
पेट से रह गयी सोलह में
फेंक
दी गयी घर के बाहर
अब
रहती है पब्लिक पार्क में शौचालय के पीछे?
अचंभित
हूँ कि
तुम
एक प्लास्टिक पाइप के ठूँठ में फूँकते हो
और
वह वंशीधुन बन जाती है
वंशी
जिसके नहीं हैं आँख कान और मुँह
बज
रही है
एक
पल रोती एक पल विहँसती
वंशीस्वर
जो परिवर्तित हो जाता है छोटे सुइया बाणों में
बाण
जो डँसते हैं
उल्लुओं
का ह्रदय तक डँस सकते हैं
उल्लू
वही जिनके कानों में बाल हैं
पेड्रो, पेड्रो
बताओ
क्या है तुम्हारी बाँसुरी में?
क्या
खिड़की के कब्ज़ों में बजती यह सीटी की अवाज़
विलाप
है उस किशोरी का?
या
छोटे लड़के की साँस का स्वर
जो
सो रहा है अब थक कर पुलिस स्टेशन में?
पेड्रो, पेड्रो
बताओ
क्या है तुम्हारी बाँसुरी में?
तेनज़िन
डिकी
तेनज़िन
डिकी का जन्म उत्तर भारत में एक शरणार्थी तिब्बती परिवार में हुआ था. उनकी
शिक्षा तिब्बती बच्चों के लिए बने ग्रामीण
विद्यालय में हुई थी और बाद में उन्होंने हारवर्ड विश्वविद्यालय से बीए किया. सम्प्रति
वे कोलंबिया विश्विद्यालय से क्रिएटिव राइटिंग की पढाई कर रही हैं.
युथोक
लेन
यह
कुछ ऐसे होगा
कि
हम चलेंगे नीले टाइल्स की बजाय कंक्रीट पर
तुम
दिखावा करोगे निराश होने का
यह
सब एक अनुष्ठानिक गुणधर्म वाला होगा
सूर्य
सुबह आकाश से नीचे गिर पड़ेगा
हम
बचायेंगे स्वयं को इसकी ज्वाला से
यह
ऐसा असह्य भी नहीं
फिर
भी हमने सचेत रहना सीख लिया है
पूर्व
की तरफ से आने वाली चीज़ों से
हम
असुंदर माने जाते हैं
हमारे
मैदानी प्रवास ने हमें ऐसा बना दिया है
लेकिन
अब फुसफुसाहटों में लाड़ प्यार है
और
हम इसे ऐसे ही स्वीकार करेंगे
पूजास्थल
के बाहर हम संयत करेंगे स्वयं को
तब
प्रवेश करेंगे इस कृपालु कवच के भीतर
यहाँ
हमें कुछ भी भयभीत नहीं करता
हम
निकालेंगे अपना चढ़ावा, नया निकोर
वे
वहीँ चले जायेंगे इस बार जहाँ के लिए निकले हैं
पूजास्थल
निशाना नहीं अब उनके आक्रमण का
देवता
का स्वरूप पुनः पा लेगा महत्त्व
सब
कुछ परस्पर सम्बद्ध है
पहले
वर्ष उसके कपोल कुछ अधिक ही उन्नत दिखते हैं सबको
फिर
भी नहीं होती वह ग़ैरहाज़िर
वह
जल के लिए सीखती है ध्वनि –पानी
मुँह
में भँवर खाते हैं अपरिचित शब्द
दिन
में दो बार भात खाती है हाथ से
इससे
उछाह समाप्त हो जाता है भात के प्रति
एक
छोटा लड़का उसे बताता है कि हिमालय और बढ़ रहा है
वह
सोचती है घर लौटने का रास्ता और लम्बा हो जायेगा अब
वह
खाना बनाना शुरू कर देती है अपरिचित मसालों से
लौंग
और धनिया, सौंफ
और सरसों
अनिच्छापूर्वक
अंगीकार करती अपनी पाक दक्षता को
विविध
स्पर्शों का अर्थ समझते हुए बड़ी हो रही है
विविध
ईश्वरों के नाम सीखती हुई
अंतिम
वर्ष में
स्वीकार
कर लेती है छल की सम्भाव्यता को.
उत्तर औपनिवेशिक प्रतिमान से परे
(अंग्रेजी में कविता करते
तिब्बतवासी)
एनरीक गाल्वान अल्वारेज़
मूल अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद - अनुराधा सिंह
यह आलेख तिब्बत के निर्वासित लेखकों द्वारा सन 1959 के बाद
अंग्रेजी में लिखे गए मिश्रित (संकर) साहित्य की प्रणालीगत मीमांसा के उद्देश्य
से लिखा गया है। इस अपेक्षाकृत नवीन साहित्य, खासतौर पर इसके पद्य का सबसे रोचक पक्ष
मीमांसा के पूर्वविरचित नियामक वर्गीकरण का प्रतिरोध है। एक तो चोग्यम
द्रन्ग्पा (1939-1987), जाम्यांग नॉर्बू (1949) सेरिंग वान्ग्मो
धोम्पा (1969 तथा तेनज़िन त्सुन्दे (1970 जैसे अंग्रेजी
में लिखने वाले प्रमुख तिब्बती लेखक भी तकनीकी कारणों से समकालीन अंग्रेज़ी साहित्य
की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, यहाँ तक कि उसकी परम
उत्तरऔपनिवेशिक श्रेणी में भी समाविष्ट नहीं होते उस पर ये तिब्बती भाषा में
साहित्य रचना भी नहीं करते ताकि तिब्बती साहित्यिक अध्ययन में ही इनका शुमार कर लिया जाये। अतः मोटे तौर पर, मेरा यह परचा इस
तिब्बती अंग्रेजी स्वर को विविध व्याख्यायित तकनीकी रूपरेखाओं के अंतर्गत अध्ययन
करने की संभाव्यता को खोज कर उसे स्थापित या विस्थापित करने का एक प्रयास है। भले
ही वे स्वयं इन उत्तरऔपनिवेशिक तकनीकी मापदंडों से सहमत, असहमत या उन्हें ख़ारिज कर देने को तत्पर ही क्यों न हों।
इस आलेख का उद्देश्य तिब्बती निर्वासितों द्वारा अंग्रेजी में रचित
संकर पद्य का प्रणालीगत अध्ययन करना है। ये कविताएँ, जिनका उद्गम बीसवीं
शताब्दी के आरम्भ में चिन्हित किया जा सकता है और जो पिछले दशक के दौरान बड़ी तेज़ी
से विकसित हुई हैं, इनका सबसे रोचक पक्ष यह है कि इन्होंने
किसी भी पूर्वस्थापित समीक्षा प्रणाली के खाँचे में अटने से इंकार कर दिया है। इस प्रकार की प्रणालीगत चुनौतियाँ
जो अंग्रेजी तिब्बती कविता हमारे सामने खड़ी कर रही है उन्हें किसी हद तक साहित्यिक
आलोचकों का समर्थन भी प्राप्त है। चोग्यम द्रन्ग्पा (1939-1987), जाम्यांग नॉर्बू (1949), सेरिंग वान्ग्मो धोम्पा (1969) तथा तेनज़िन त्सुन्दे (1970) आदि लेखक सिद्धांततः समकालीन अंग्रेज़ी साहित्य की कसौटी पर खरे
नहीं उतरते, इसकी सर्वाधिक उत्तरऔपनिवेशिक श्रेणी में
भी नहीं। ये लेखक तिब्बती भाषा में साहित्य रचना नहीं
करते अतः तिब्बती साहित्यिक अध्ययन में भी इनका
शुमार कदाचित ही किया जाता हो। सो अभी यह ज़रूरी है
कि इस अंग्रेज़ी तिब्बती कविता का व्याख्यात्मक प्रणाली से और विश्लेषण की कुछ
मौलिक विधियों से उचित मूल्यांकन किया जाये भले ही वे मूल्यांकन प्रणालियाँ
उत्तरऔपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य से कुछ भिन्न ही क्यों न हों।
‘समकालीन तिब्बती
कविता’ यानी तिब्बती मूल के कवियों द्वारा हाल में
लिखी गयी कविताओं तक पहुँचने से पहले हमें मैकोनी द्वारा उल्लिखित चीनी गणराज्य
में लिखी जा रही तिब्बती कविता के लिए ‘समकालीन’ लेबल के स्थान पर ‘उत्तर स्वातंत्र्य’ लेबल का प्रयोग करने के आधारभूत कारणों पर
ध्यान देना चाहिए:
“मैंने ‘उत्तर स्वातंत्र्य’ निरुक्त का प्रयोग ‘समकालीन’ (चीनी : दांग्दाई) शब्द के साधारणीकृत
प्रयोग से बचने के लिए किया है, क्योंकि समकालीन वह शब्द है जो चीनी गणराज्य में राजनैतिक और
सांस्कृतिक सन्दर्भों में भी न केवल कालिक अर्थ में बल्कि निर्देशात्मक संकेत के
लिए भी प्रयोग में लाया जाता है। मसलन समाजवादी विकासवादी सिद्धांतों के अनुसार दांग्दाई का अर्थ
केवल समकालिक (वर्त्तमान काल) ही नहीं है बल्कि नवसमाजवाद युग का आरंभ भी है, अर्थात क्रांति के
पथ पर अगला कदम । इसी प्रकार ‘दांग्दाई वेंक्स्यू’ से अभिप्राय केवल
समकालीन साहित्य न होकर 1950 के बाद का ‘नूतन’ और ‘आधुनिक’ समाजवादी साहित्य भी
है।“ (2002:108)
इस प्रकार यह शब्द ‘समकालीन’ मूल तिब्बती तथा निर्वासित लेखकों के
सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न अभिप्रायों में प्रयुक्त होता रहा
है। मुझे इस शब्द के अभिप्राय के विषय में अधिक चिंतित होने की आवश्यकता तो नहीं
लेकिन चूंकि मेरा यह आलेख तिब्बत के निर्वासित लेखकों को ही प्रस्तुत कर रहा है तो
इस प्रकार की चर्चा ऐसी प्रणालीगत पद्धतियों के अध्ययन में महत्वपूर्ण है जिन्हें
आज, उनके गठन के समय की गई उनकी परिकल्पना से
सर्वथा भिन्न प्रयोजन में प्रयोग किया जा रहा हो। चीनी गणतंत्र में रह रहे तिब्बती लेखकों का अध्ययन करने के टूल्स
की बुनियाद सन्दर्भों और संकेतार्थों के ऐसे विधान पर आधारित है जो निर्वासन में
रह रहे रचनाकारों पर लागू नहीं होता, विशेष तौर पर उन पर जिन्होंने विमुक्तिकरण के दौरान तिब्बत छोड़ा (जैसे द्रंग्पा) या जिनका जन्म ही निर्वासन में हुआ (त्सुन्दे, धोम्पा)।
निर्वासन में लिखी
हुई, खासतौर पर अंग्रेजी
में लिखी गयी कविता का तुलनात्मक अध्ययन करते समय अंग्रेजी भाषी संसार के
सन्दर्भों को भी याद रखना आवश्यक है। यिदाम सेरिंग नामक
एक तिब्बती कवि न केवल चीन में रह कर बल्कि चीनी भाषा में भी लिखते हैं तथा हमारे
चुनिन्दा कवियों से अलग वे चीनी भाषा का आशोधन भी कर लेते हैं। उन पर शोध कर रही मैकोनी, कहती हैं “और ऐसा करके वे श्रावित्र चीनी भाषा के
तिब्बतीकरण के लिए आवश्यक विषयवस्तु और भाषा दोनों में योगदान देते हैं” (मैकोनी 190)। यही बात द्रंग्पा, त्सुन्दे और धोम्पा
के विषय में कही जा सकती है जो न केवल वाक्य रचना की दृष्टि से अंग्रेजी का
तिब्बतीकरण कर रहे हैं बल्कि वे अंग्रेजी में तिब्बत की चिंताओं से सम्बंधित
मुद्दे भी उठा रहे हैं। तिब्बती अंग्रेजी
साहित्य का यह पक्ष न केवल तिब्बती चीनी भाषा के लेखकों की अवस्था को प्रतिबिंबित
करता है बल्कि तिब्बती अंग्रेजी को उत्तरऔपनिवेशिक अध्ययन
प्रतिमानों की परिधि में स्थापित करता है।
इसी क्रम में क्या
हम मंडाला ऑफ़ शेरेलक होम्स जैसे उपन्यास को उत्तरऔपनिवेशिक लेखन
प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली प्रमुख पुस्तक मान सकते हैं? या हम नॉर्बू द्वारा किये गए होम्स के
तिब्बतीकरण को मात्र एक पुरालेख के पढ़े जाने और इसके आख्यानों का पुनर्लेखन किये
जाने जैसे दृष्टान्त की तरह ही ग्रहण करते हैं? वेंतुरिनो दलील देते हैं कि उत्तरऔपनिवेशिक
मतानुसार किया जाने वाला पुरालेखों का यह पाठ न केवल उत्तराधुनिक काल द्वारा दिए
गए पुनर्लेखन के विचार का बल्कि इस विश्वास का भी खंडन करता है कि हर प्रकार की लिखित सामग्री
ऐतिहासिक स्मृति और समकालिक राजनीति को बल प्रदान करती है। (2008:316) मसलन नॉर्बू, होम्स के आख्यानों का इस्तेमाल चीनी
औपनिवेशिकता को उजागर करने के लिए कर रहे हैं। वे किसी भी औपनिवेशिक संग्रह में दिलचस्पी इसलिए लेते हैं ताकि
उसके माध्यम से किसी दूसरे औपनिवेशिक संग्रह का प्रतिवाद कर सकें। साहित्यिक प्रतिरोध का यह आड़ा- तिरछा तरीका दूसरे उत्तरऔपनिवेशिक
प्रकल्पों में भी प्रतिध्वनित होता है। मजेदार बात यह है कि
एक ब्रिटिश औपनिवेशिक आख्यान किसी अन्य औपनिवेशिक आख्यान के प्रतिरोध का माध्यम बन
जाता है और इस प्रक्रिया में उसकी मौलिक औपनिवेशिक पहचान तक छिन्न भिन्न हो जाती
हैं। “इससे यह अनुमान
लगाया जा सकता है कि तिब्बत का इतिहास जानने के लिए शाही शासन के अभिलेखागारों में
पश्चिमी नजरिये से लिखे गए तिब्बती अभिलेखों और आख्यानों के साथ-साथ किम और होम्स की कथाओं जैसी लिखित
सामग्री भी उपयोगी है”(317)।
इस प्रकार, तिब्बती अभिलेखागार में परिलक्षित यह
संवादात्मक सामग्री हमें तिब्बती साहित्य को ऐसे उत्तरऔपनिवेशिक साहित्य की तरह
जानने का अवसर देती है जो अन्य वैश्विक आख्यानों और इतिहासों के साथ संभाषण (या तर्क-वितर्क) में संलग्न है। यद्यपि तिब्बत कभी ब्रितानी उपनिवेश नहीं
रहा तथापि संभवतः 20वीं सदी के आरम्भ में तिब्बत और ब्रिटिश साम्राज्य के मध्य
अर्धऔपनिवेशिक सम्बन्ध विकसित हुए होंगे। भले ही तिब्बत का
इतिहास भारत एवं पूर्व ब्रिटिश अफ्रीका के इतिहास से बहुत भिन्न रहा हो फिर भी “तिब्बत के इतिहास का
उत्तर औपनिवेशिक सिद्धांतों के आधार पर अध्ययन करने के लिए हमें पूर्व और पश्चिम
की अव्यवस्था एवं सामाजिक उपनिवेशन की चर्चा भी करनी होगी” (वेंतुरिनो: 304)। तिब्बती साहित्य को उसके उत्तरऔपनिवेशिक
स्वरूप में जानने के लिए हमें उपनिवेशन के गैर पश्चिमी स्वरूपों पर भी अपना ध्यान
केन्द्रित करना होगा। मैकोनी यही करती हैं
जब वे तिब्बत-चीन मामले में ‘उत्तरऔपनिवेशिक’ जैसे असममित समकक्ष की बजाय ‘उत्तर स्वातंत्र्य’ निरुक्त का प्रयोग करती हैं। जहाँ चीनी गणतंत्र में लिखा गया अधिकांश
तिब्बती साहित्य चीनी उपनिवेशवाद का प्रत्युत्तर प्रतीत होता है वहीँ निर्वासन में लिखा गया तिब्बती
साहित्य चीनी उपनिवेशवाद और आंग्ल भाषी (आंग्ल-अमरीकी) साम्राज्यवाद दोनों के प्रति प्रतिक्रियात्मक है।
हालाँकि दोनों
संबंधों के समीकरण की परस्पर तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक तरफ चीन है जो एक
प्रतिकारणीय दमनकारी शक्ति है (जो तिब्बत के लिए किंचित लाभकारी रहा है) और दूसरी ओर वह आंग्लभाषी विश्व है, जिसे तिब्बत के सन्दर्भ में एक राजनैतिक व आर्थिक सहयोग के स्रोत
के तौर पर देखा जाता है। यह तुलना एक प्रकार
का सरलीकरण है। तिब्बती लेखक चीनी और अंग्रेजी दोनों ही
भाषाओँ में अपने बारे में और अपने लिए लिख ज़रूर रहे हैं फिर भी जो गतिकी प्रकट रूप
से इन दोनों अनुकूलनों को अनुप्राणित कर रही है आंतरिक तौर पर परस्पर बहुत भिन्न
है। और इन सब कारकों ने तिब्बती साहित्य के
पारंपरिक उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन को बहुत प्रभावित किया है। उत्तर औपनिवेशिक प्रवृत्तियों को ‘मंडाला ऑफ़ शेरेलक होम्स’ जैसी गद्य रचनाएँ ही
अधिक मुखर तरीके से प्रतिबिंबित करती हैं क्योंकि जैसा
द्रन्ग्पा का अंग्रेजियत से एक ज़ाती और अनूठा संबंध है और धोम्पा की ‘तिब्बती और अमरीकन साहित्य के मध्य जो एक एक समास चिन्ह (हाइफन) यानी संधिक्रम (बीफ्लावर) जैसी भूमिका है’ वह उत्तर (-) औपनिवेशिक संकीर्णता में कहीं नहीं अटेंगे।
यह ध्यान रखने की भी
आवश्यकता है कि उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धांतों का विकास बहुधा ब्रितानी और फ्रांसीसी
औपनिवेशिक प्रकल्पों के मद्देनज़र हुआ है और उनका वाग्विस्तार एक सीमा और सीमित
गहनता तक ही हुआ है, उदाहरण के तौर पर इसमें पुर्तगाली
औपनिवेशिक प्रकल्प का दृष्टिकोण सम्मिलित नहीं है। इस प्रकार की त्रुटियों से यह संदेह उत्पन्न होता है कि क्या यह एक
उत्तर औपनिवेशिक प्रतिमान सभी प्रकार के औपनिवेशिक प्राबल्य क्षेत्रों पर लागू
होता है और क्या इस एक तरह के प्रतिमान को पूरे विश्व में समान रूप से लागू करना
भी एक तरह का नव- उपनिवेशवाद नहीं है? एक विकल्प यह है कि साहित्यिक मीमांसा के
उत्तर औपनिवेशिक प्रतिमान के इस संकीर्ण खांचे को ही नष्ट कर दिया जाये जिससे कि
यह अन्य प्रकार के उपनिवेशवाद और उनसे उत्पन्न साहित्य को भी स्वीकार और समाहित कर
सके। हमें उन दूसरी प्रणालियों की ओर भी रुख
करना चाहिए जो संभवतः तिब्बती अंग्रेजी कविता की प्रकृति के अधिक अनुकूल हों। यद्यपि
मंडाला जैसी रचनाओं ने उत्तर औपनिवेशिक आख्यानों को बहुत प्रभावित किया है तथापि
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दौरान बहुत कम औपनिवेशिक समागमों ने ब्रितानी और
तिब्बती कविता को अपने में सम्मिलित किया है। एक प्रमुख कारण यह है कि अंग्रेजी को तिब्बत में दूसरी भाषा की
मान्यता मिली हुई है और इसे किसी औपनिवेशिक वर्चस्व की उभयवादी विरासत की तरह नहीं
ग्रहण किया जाता है। अतः, हमें तिब्बती अंग्रेजी कविता के अध्ययन के
लिए मात्र पारंपरिक उत्तरऔपनिवेशिक प्रतिमानों को लागू न करते हुए दूसरी व्याख्या
पद्धतियों को भी खोजना चाहिए।
पेमा भूम का आलेख ‘हार्टबीट ऑफ़ द न्यू जनरेशन’। समकालीन तिब्बती
काव्यात्मकता में एक निर्विवाद दिग्दर्शन है। हालाँकि यह आलेख चीनी गणतंत्र में रह कर तिब्बती कविता लिख रहे
रचनाकारों के सरोकारों पर आधारित है तथापि (नकार और विरोध के
माध्यम से ही सही) यह निर्वासन में रह कर
लिखी हुई कविता के अध्ययन के लिए भी एक ठोस आधार प्रस्तुत करता है। भूम के द्वारा लिखे इस आलेख को 1991 में
पहली बार पढ़ते ही इटली के निर्वासित तिब्बती समुदाय में सनसनी फ़ैल गयी। इसमें उन्होंने निर्वासित सरकार के
प्रधानमंत्री सामधोंग रिन्पोचे की रूढ़िवादी पूर्वाग्रहयुक्त मानसिकता का खुलासा
किया है। उनके अनुसार रिन्पोचे (1983 में) विश्व साहित्य में
तिब्बत की कविता के पिछड़ने पर तो अप्रसन्नता दर्शाते हैं लेकिन तिब्बती साहित्य की
हालिया उपलब्धियों पर ध्यान नहीं देते। (2008:113)। मसलन उसी वर्ष 1983
में धोंदुप ग्याल की कालजयी रचना ‘वाटरफॉल ऑफ़ यूथ’ प्रकाशित हुई थी लेकिन सामधोंग उससे
असम्पृक्त रहे। सामधोंग का सांस्कृतिक तौर पर यह रूढ़िवादी
नजरिया तब से अब तक ज़रा भी नहीं बदला है, यह हम तिब्बत सुंदरी स्पर्धा के प्रति उनके रवैये से समझ सकते हैं। (नाम्ग्याल 2006:74)। एक रोचक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि निर्वासन में रची गयी कविता पर तिब्बत से
आने वाली कुलीन मठाधीशों की प्रतिक्रिया ही भावी निर्वासित कविता की पृष्ठभूमि का
काम करती है। चलिए मैं भूम की बहस का तिब्बती अंग्रेजी
कवियों के सन्दर्भ में विश्लेषण करता हूँ ।
भूम नयी पीढ़ी के
कवियों का यह विशिष्ट लक्षण देख रहे हैं कि वे मार्क्सवाद और बौद्ध धर्म से निराश
हो चुके हैं।(115), एक ऐसा युग्म जिसे वह अक्सर ‘धर्म और राजनीति’ कहकर संबोधित करते हैं। राजनीति का धर्म के साथ गठजोड़ तिब्बत की
पारंपरिक शासन व्यवस्था को अनुनादित करता है, जो विचार का राजनैतिक क्रियाकलाप के साथ गठबंधन करने जैसा है। हालाँकि जिस राजनीति से भूम के कवि अघाये
हुए हैं वह तिब्बत की अपनी पारंपरिक राजनीति नहीं वरन चीन का मार्क्सवाद है। दूसरी ओर कुछ तिब्बती कवियों (उदहारणतः यिदाम सेरिंग) ने ‘तिब्बत के
शांतिपूर्ण स्वातंत्र्य’ के उपलक्ष्य में क्रन्तिकारी कविता लिखी। सांस्कृतिक क्रांति के बाद परिदृश्य में
आयी पीढ़ी इस प्रकार के कृत्यों से ऊब चुकी है। यद्यपि भूम राजनीति शब्द का इस्तेमाल मात्र चीनी मार्क्सवाद के लिए
समानार्थी शब्द के तौर पर करते हैं, हमें इसमें राजनीति की इतर परिभाषाओं को शामिल कर लेने की गुंजाइश
भी रखनी चाहिए, खासतौर पर जब हम भूम के दृष्टिकोण को
निर्वासित लेखकों के सन्दर्भ में भी लागू करना चाह रहे हों। क्योंकि बहुत संभव है कि निर्वासित कवियों का अपने समुदाय की
नियामक राजनीति से भी मोहभंग हो गया हो, भले ही वह चीनी प्रभुत्वयुक्त या मार्क्सवादी वर्चस्ववादी राजनीति
न हो।
उनकी हताशा का दूसरा
बड़ा कारण बौद्ध धर्म है। जबकि निर्वासन में यह पूज्यनीय हो और द्रन्गपा, ज्यून्द्यू और धोम्पा जैसे कवि भी इस
धार्मिक व्यवस्था में निष्ठा रखते हों तो हमें सोचना पड़ेगा कि क्या बौद्ध धर्म से
अनासक्ति वास्तव में तिब्बती अंग्रेजी कविता का एक लक्षण है भी या नहीं? इस परिस्थिति में हमें यह प्रश्न भी पूछना
चाहिए कि यहाँ बौद्ध धर्म से भूम का क्या तात्पर्य है, या दूसरे शब्दों में वह कौन सा बौद्ध धर्म
है जिससे युवा पीढ़ी को शिकायत है? स्पष्ट है कि भूम के
लिए बौद्ध धर्म मात्र मठ सम्बन्धी बौद्ध धर्म ही है:
“जब भी पारंपरिक तिब्बती कवि दुनिया को और अपने स्वयं के जीवन
को देखते थे, वे अपने मानव नेत्रों से नहीं बल्कि एक केसरिया आँख से देखते थे (केसरिया रंग मठवाद
का रंग माना जाता है), यहाँ तक कि वे अपने मस्तिष्क को इसी रंग में रंगा देखते थे। क्योंकि उनकी आँख
सदा केसरिया रंग देखती थी तो उनके रचना की विषयवस्तु भी केसरिया ही होती थी” (120)।
संभवतः इस धर्म के प्रति अपनी अनिच्छा के चलते या उत्तर
स्वातंत्र्यवादीवादी विचारधारा के प्रभाव में भूम
ने तिब्बती बौद्ध धर्म की अपनी व्याख्या को महज़ इसके मठवादी और राजनैतिक नियामक
स्वरूप तक ही सीमित कर दिया। उन्होंने तिब्बती
बौद्ध धर्म का गैर मठवादी पक्ष यानी ‘योगिन’ को अप्रस्तुत और उनकी कविता को विरूपित छोड़ दिया। यदि हम बौद्ध धर्म को पूरी तरह राजनैतिक
रूप से रूढ़िवादी और मठवादोन्मुखी रूप में ही देखें तो हाँ, तिब्बत के युवा कवियों (तिब्बतवासी या निर्वासित दोनों) का बौद्ध धर्म से मोगभंग हो चुका है।
परन्तु यदि हम गैर
मठवादी बौद्ध विचारधारा - जिनका मठवादी
संस्थावाद से संवादात्मक प्रतिरोध है, पर दृष्टिपात करें- तो हम नए कवियों से उसकी अद्भुत समरूपता देखेंगे। पहली समानता हम भूम द्वारा प्रयुक्त ‘निर्वस्त्र करने’ वाले रूपक में देखते हैं जहाँ वे कहते हैं
कि “उनके पूर्वज तिब्बती
लोगों के मस्तिष्क के वास्तविक रंग को केसरिया रंग से ढँक देने में सफल हुए। अब उनके इन प्रयासों में कुछ समय के लिए
बाधा पहुंची है, नव साहित्य आ चुका है, आवरण उतर चुका है” (122) ‘निर्वस्त्र करने’ यानी आगे जाने, बढ़ने आदि के लिए प्रयुक्त यही रूपक गैर
मठवादी बौद्ध धर्म में भी प्रचलित है। इसके ही अनुरूप
बुद्ध ने भी एक सादा जीवन जीने के लिए राजसी जीवन और वस्त्रों का त्याग कर दिया था। बाद में उनके अवलम्बियों ने भी उन
अतिसंस्थावादी बौद्ध विहारों की कैद से स्वतंत्र होने का निर्णय लिया जो बुद्ध के
उपदेशों का अनुसरण करने के लिए एक अलग प्रकार की जीवन शैली की व्यवस्था करते हैं। इसी क्रम में बुद्ध के परिव्रज्र (आगे बढ़ने) को मठवादी संस्थाओं के विरोध के मॉडल के तौर पर अपनाया गया। इसलिए विहारों की सत्ता और उनकी परम्पराओं (उदाहरण के तौर पर ब्रह्मचर्य, कठोर व जटिल सामाजिक पदक्रम आदि) को अस्वीकृत करने का अर्थ बौद्ध धर्म को
अस्वीकृत करना कदापि नहीं है।
मठवादी विचारधाराओं
से कहीं आगे के इस आन्दोलन की जड़ें भारत में (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में) महायान पंथ के अभ्युदय में देखी जा सकती हैं। भारत में तांत्रिक बौद्ध धर्म का उदय (छठी शताब्दी में) भी बौद्ध विहारों का
त्याग करने तथा अपरम्परागत जीवनशैली के मार्फ़त इस धर्म की शिक्षाओं को और अधिक
समझने के प्रयास से सम्बद्ध था। दरअसल ये बौद्ध मठ
और उनका केसरिया दृष्टिकोण उनके अवलम्बियों के जीवन को सरल करने के स्थान पर उसकी
बाधा बन गए थे; वे बुद्ध के विभ्रमकारी राजप्रासाद बन गए। यह निरावरण और मठवादी रूढ़ियों को तोड़ना आदि
कार्य बौद्ध धर्म के अपराम्परावादी योगिन पंथ की दृष्टि से भी सार्थक हैं। बाद में इस प्रकार की गतिविधियाँ और उनके
आख्यान भारत से तिब्बत में भी प्रतिरोपित हुए, जहाँ अनेक योगिक निर्वस्त्रीकरण संपन्न हुए, लेकिन सत्ता केंद्र से निकट सम्बन्ध के
कारण तिब्बत का मठवादी पहलू अधिक प्रभावशाली एवं सामाजिक रूप से अधिक शक्तिशाली
बना रहा। एक कवि और बौद्ध भिक्षु द्वारा अपने वस्त्र
त्यागने का हालिया उदहारण चोग्यम द्रन्ग्पा के रूप में है, जिनकी कविता तो ज़बर्दस्त रूप से निर्वस्त्र
तथा केसरियामुक्त थी, लेकिन वह स्वयं बौद्ध धर्म को त्यागने की
बजाय संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में इसके प्रसार में लगे थे (देखिए द्रन्ग्पा)।
अंत में, तिब्बती अंग्रेजी कविता के द्वारा उत्पन्न
प्रणालीगत चुनौतियों के मद्देनज़र सबसे पहले हमें तिब्बती, अंग्रेज़ी और बौद्ध साहित्य को पृथक वर्गों
में रखना बंद करना होगा। आंग्ल-तिब्बती साहित्य और विशेषकर इसका पद्य एक
ऐसा संपर्क बिंदु है जहाँ ये तीनों प्रजातियाँ आपसी सम्मिश्रण से वर्ण संकर हो
जाती हैं, अतः आवश्यक है कि हम इसके अध्ययन के लिए
ऐसी नयी प्रणालियाँ ईज़ाद करें जिनकी बुनियाद इनके ही जटिल सन्दर्भों में खड़ी हो। इस उद्देश्य की पूर्ति हम उत्तरऔपनिवेशिक
प्रणाली जैसी यांत्रिक पद्धति के द्वारा करने की बजाय तिब्बती साहित्यकारों द्वारा
ही अन्य भाषाओँ में किये गए लेखन के दर्पण प्रतिबिम्ब प्रतिमान की तरह कर सकते हैं। उनके भिन्न सामाजिक सन्दर्भों तथा तिब्बती
संस्कृति के प्रति अलग नज़रिये के बावजूद, तिब्बती साहित्य का गैर तिब्बती भाषा के माध्यम से हुआ यह
पुनर्जन्म जिस एक समान विशिष्टता से युक्त है, वह है इसका केन्द्रीय ट्रेडमार्क यानी विस्थापन। यह वही विशिष्ट चिन्ह है जो एक तिब्बती
लेखक की विशिष्ट पहचान को पुनर्प्रतिपादित और पुनर्गठित करता है।
प्रभावशाली कविताएँ
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