गुजराती दलित कविताएँ (अनुवाद : मालिनी गौतम)
गुजराती दलित कविताएँ (अनुवाद : मालिनी गौतम)
दलित कविताएँ कहीं की भी हों, उनकी कथा-व्यथा लगभग एक जैसी होती है. कमोबेस पश्चिम में बदले हुए रूप में यह रंग भेद के रूप में दिखाई पड़ती हैं. ये कविताएँ उस दस्तावेज की तरह हैं जिसमें मनुष्य को मनुष्य न समझे जाने की पीड़ाएँ मुखर शब्दों में व्यक्त हुई हैं. ये कविताएँ बताती हैं कि मनुष्य अभी भी मनुष्य नहीं हो पाया है बल्कि उसको अभी भी मनुष्य होना है. कवयित्री मालिनी गौतम इधर गुजराती दलित कवियों की कविताओं पर गंभीर काम कर रही हैं. इसी क्रम में मालिनी ने पहली बार के लिए तीन गुजराती दलित कवियों (नीरव पटेल, प्रवीण गढ़वी और भी. न. वणकर) की कविताएँ अनुवादित कर उपलब्ध कराईं हैं जिसे हम आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.
नीरव पटेल |
नीरव पटेल की कविताएँ
परिचय
नाम- नीरव पटेल
जन्म- 2 दिसम्बर 1950
जन्म स्थान- भुवालड़ी, गुजरात
कविता संग्रह- बर्निंग फ्रॉम बोथ एंड्स (अंग्रेजी), बहिष्कृत फूलों (गुजराती)
एक कुत्ता ब्राह्मण हुआ
शास्त्रों में भले जो भी कहा गया हो
मैं तो कहता हूँ कि जो ब्राह्मण कहे वही ब्रह्मवाक्य!
वह अंजुरी भर जल छाँटेगा
तो गोबर भी पवित्र हो जायेगा
और लोग उसका प्रसाद भी लेंगे!
जनेऊ तो जानवर को भी पहनाई जा सकती है-
अगर वह ज्ञानेश्वर की भैंस की तरह गीतागान कर सके तो!
थाली भर कर स्वर्ण मुहरे देने पर
वह शूद्र शिवाजी को भी
क्षत्रिय शिवाजी घोषित कर सकता है!
फिर इस अल्सेशियन कुत्ते की तो बात ही अनोखी है :
इसे गोमाँस नहीं,
बल्कि यवन-मलेच्छ-चांडाल जैसे
सारे अधर्मियों-विधर्मियों का माँस बहुत भाता है
जरुरत पड़ने पर यह मनु के धर्मशास्त्र के श्लोक भौंक सकता है,
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आयतें भी गुर्रा सकता है,
ये वफादार श्वान तो अपना सनातनधर्मी सेवक है,
अरे! स्वयंसेवक है
और गाय व ब्राह्मणों का रक्षक भी,
मैं गीगोभट्ट इस ब्रह्मसभा में आदेश देता हूँ
कि इसके गले का पट्टा तोड़ दो
और इसका यज्ञोपवित संस्कार कर इसे खुल्ला छोड़ दो
मैं इसे ब्राह्मणों मे श्रेष्ठ घोषित करता हूँ
शास्त्रों में भले जो कहा गया हो -
ब्राह्मण कहे वही वेदवाक्य है!
(नोट- गोधरा कांड से चर्चित एक शूद्र मंत्री के यज्ञोपवित का समाचार पढ़ने से स्फुरित कविता)
पोस्टमार्टम
उसकी नाभि में से नहीं मिली कस्तूरी
उसकी त्वचा को खूब गर्म किया गया
पर एक भी सोने का वरक न मिला
अरे! सिर्फ चमड़े की बनी हुई थी उसकी चमड़ी!
उसके बड़े से पेट में से
सच्चे मोती का चुग्गा नहीं मिला,
उसके श्रेष्ठ मस्तिष्क में से
पुराण का एक भी पन्ना नहीं मिला।
उसके सड़े हुए कलेजे में से
नहीं मिला सूर्यवंश का शौर्य।
उसके ज़हर हो चुके हृदय में से
पुण्य के द्वारा कमाया हुई अमृत नहीं मिला
उसके अणु जितने छोटे-छोटे टुकड़े किये गये
पर उसकी छठी इन्द्रि नहीं मिली तो नहीं मिली।
हाँ, उसके विशाल हृदय में से
मिला भेड़िये का सुंदर हृदय,
उसकी उँगलियों के किनारे से
मिले नाखुनों के निशान
उसके स्फ़टिक जैसे चौकठे के नीचे से
मिले त्रिशूल जैसे दाँत,
उसकी आँखो में
मगर के आँसुओं का अंजन था,
उसकी रूढ़िवादी रक्तवाहिनियों में
जम गया था हराकच्च अल्कोहल,
यह एक आर्यपुरुष की ममी का
पोस्टमार्टम था।
अनपढ़ होता तो अच्छा होता
विज्ञान पढ़ते-पढ़ते
न्यूटन का सेब गिरते देख
मुझे पहला विचार उसे खाने का आया था।
समूह जीवन का पाठ सीखने जाते समय
हरिजन आश्रम रोड पर काँच के आलीशान मकानों को देख कर
मुझे पहला विचार
उन पर पत्थर मारने का आया था।
रिसेस में लगती प्यास को दबाते-दबाते
सीवान पर प्याऊ के मटकों को देख कर
मुझे पहला विचार
कुत्ते की तरह एक पैर ऊँचा कर के
उनमें मूतने का आया था।
सियार घूमते-घूमते शहर में जा पहुँचा
अचानक ही रंगरेज के हौज में गिर गया
रंगीन होने से खुश-खुश हो गया
और जंगल में जा कर राजा की तरह रौब करने लगा
पकड़े जाने पर सीख मिली -
- इस विषय के
एक से अधिक अर्थ निकलते हैं
ऐसी कहानी लिखने के बजाय
मुझे आखिरी विचार अनपढ़ रहने का आया था।
पढ़-लिख कर अपमान के प्रति चेतनायुक्त होना
और निष्क्रियता को पोषित करना – इसके बजाय
अनपढ रहता तो अन्यायी के सिर पर प्रहार तो करता
या दारू पी कर अपमान का घूँट तो निगल जाता!
स्वपरिचय
किसी दिन अतिथि बन कर आओ, सवर्णा*
मेरी व्यथा जाननी हो तो
अछूत का स्वांग रच कर आओ, सवर्णा।
देखो तुम्हारे शहर से मेरे गाँव का रास्ता --
सबसे ऊँची हवेली को टालते हुए आना,
वहाँ बार-बार भोगी जाती हैं
हमारी निराधार अबलाएँ!
वह जमींदार गाँव का राजा है
वह अस्पृश्य तो क्या
युवान कुत्ती को भी छोड़े ऐसा नहीं है!
गाँव की सीवान पर बनी प्याऊ पर पानी मत माँगना
तुम्हें ओक से पानी पीना आता है?
देखो वहाँ मेरा पता-ठिकाना मत पूछना
नहीं तो किसी की नाक सिकुड़ जायेगी,
और किसी की आँखों में घृणा भर आयेगी
दाँये-बाँये देखते हुए
मत सोचना कि
यहीं-कहीं होगा मेरा घर
यहाँ तो रहते हैं
ब्राह्मण, पटेल, कोली, कुम्हार,मोची,
बस अब इस खाई को पार कर
सामने टेकरी पर
झाड़ में दबे हुए झोंपड़ें दिखाई देंगे
जिनके कवेलू पर बैठा होगा
एक-आध गिद्ध या कलील
या आँगन में दो-तीन कुत्ते
चबाते होंगे हड्डी,
काला रंग, छोटी देह,
और आधा-उघड़ा शरीर!
हाँ, सवर्णा ये सब मेरे भाई-बंधु हैं,
माँ घर में गाय का माँस सेक रही है,
बापू खारे पानी के कुंड में चमड़ा फिरा रहे हैं
ये जो चौगान में चमड़ा काट रहे हैं, ये काका हैं,
भाभी आँक और आवल (सनाय/ सोनामुखी) तोड़ने गई हैं
और छोटी बहन गागर ले कर तालाब पर गई है।
बस सवर्णा, अब नाक मत दबाओ
गंदगी में दम भी घुटता है
और घिन भी आती है
पर देखो मैं तो यहाँ दूर
नीम के नीचे खटिया बिछा कर
पढ़ रहा हूँ पाब्लो नेरुदा की कविताएँ!
मैं भी इस टापू का एकाकी मनुष्य हूँ।
*सवर्णा- सवर्ण लड़की
फुलवारी
हुकुम हो तो सर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जायेगी?
और इनको फूल कहेंगे?
गंध थोड़े ही खत्म हो जायेगी?
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी ही
ये फूल सदियों से अंधकार में सड़ रहे थे
कभी चाँदनी रात नसीब होती तो कुमुदनी की तरह पनपते
कभी रातरानी की तरह चुपके-चुपके खुशबू फैलाते
कभी छुईमुई की तरह चुपचाप रोते
लेकिन इस सदी के सूरज ने जरा दया-दृष्टि की
इसलिये टपाटप खिलने लगे
रंग तो इनका ऐसा निखरा कि तितलियों को भी प्रेम हो जाये
सुगंध तो इन्होंने ऐसी फैलाई कि मधुमक्खी भी डंक मारना भूल जाये,
सर्वत्र फैल गई है इन जंगली फूलों की खूशबू
संसद में, सचिवालय में, स्कूल-कॉलेजों में
जैसे इनके उच्छवास से ही
सारा वातावरण प्रदूषित है।
यह तो ठीक है कि
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी
पर अब यह फूल-फजीहत ज्यादा सहन नहीं होगी
राष्ट्रपति के मुगल गार्डन में भले ही ठाठ-बाट से रहें ये फूल
पर ये फूल नाथद्वारा में तो नहीं ही रह सकते
गाँधीजी ने भले इन्हें माथे पर चढ़ाया हो
कुचल दो, मसल दो, इन अस्पृश्य फूलों को।
लेकिन फूलों के बिना पूजा कैसे करेंगे?
इच्छाओं के झूले कैसे झूलेंगे?
भद्र पेट देवता को कैसे रिझायेंगे?
इन फूलों की महक से तो पुलकित है
अपना पैखाना जैसा जीवन
ये तो पारिजात हैं इस पृथ्वी के
रेशम के कीड़े की तरह
खूब जतन से सँभालना पड़ेगा इस फुलवारी को
गाँव-गाँव और शहर-शहर में
इसलिए माई-बाप सरकार का हुकुम हो तो सर-माथे पर
लेकिन फिर फूलों को क्या कहेंगे?
महक थोड़े ही मर जायेगी?
और इनको फूल कहेंगे? ?
गंध थोड़े ही खत्म हो जायेगी?
गाँव होगा वहाँ फुलवारी तो होगी ही
नोट - गुजरात में दलितों के लिए पूर्व में "ढेढ" शब्द प्रचलित था जिसे बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसी शब्द पर एक कहावत "गाँव होगा वहाँ ढेढ़वाडा तो होगा ही" पर आधारित यह कविता है।
भी न वणकर |
भी. न. वणकर की कविताएँ
परिचय
नाम- भी. न. वणकर
जन्म- 1 मई 1942
जन्म स्थान- सुंदरपुर, गुजरात
कविता संग्रह- याद, ओवरब्रिज, मौन ना मुकाम पर (गुजराती)
घबराहट
मेरा घर है,
गाँव है,
प्राचीन देश है,
मैं विश्व नागरिक हूँ,
विशाल समुद्र है,
खुला आकाश है,
परन्तु, मेरा एक प्रश्न अलग है सबसे
जिसकी अनुगूँज
मौन के सागर तले भी
चैन नहीं लेने देती मुझे,
गले में घुटते
लावारिस शब्दों को
मैं निगल जाता हूँ
और अंदर-अंदर
अकेला-अकेला
भड़भड़-भड़भड़ जलता हूँ,
ऊँचे शिखरों के हिस्से में ही
गहरी खाईयाँ होती हैं न?
सन्दर्भ विहीन
ये खाली-खाली शब्द
बाँझ आदर्शों की तरह
मनुष्य को आखिर क्या देंगे?
मन होता है कि
बन्द कर दूँ लिखना
और गाँव के आखिरी छोर पर
बने झोंपड़े में
भूख से बिलखते शिशु को
धीरे-धीरे झूला झुलाते हुए
प्यार से गाऊँ
ला ला.... ला ला.... ला
ला ला... ला ला.... ला
परंपरा
इसी रास्ते पर?
हाँ, इसी रास्ते पर
यहाँ-वहाँ, हर जगह
बिखरे हुए हैं
हमारे सपनों के भग्न अवशेष,
मंत्रोच्चार करता हुआ
धड़ विहीन मस्तक,
खून से लथपथ कर्मठ अँगूठा,
धीर-वीर, महाप्राण पुरुषों के
कवच-कुंडल, बाण, रथ....
और गूँजती है चारो दिशाओं में
हमारे पूर्वजों की जमीन में दबी हुई
बलि दी गई खोपड़ियों की
तड़पती चीखें,
इसीलिए तो आज हम
वैताल बन कर
उनके द्वारा सहन किए गये
अत्याचारों के इतिहास की
भयानक ऋचाएँ जप रहे हैं
और पहाड़ बन कर खड़े हैं,
परम्पराओं के प्रलय के लिए
आज हम कालभैरव भूकम्प बन कर
डमरू बजा रहे हैं!
इसी रास्ते पर?
हाँ, इसी रास्ते पर!
मृत्यु का घोषणा पत्र
तुमने मुझसे
शस्त्र गढ़वाये
शास्त्र लिखवाये
घर और मन्दिर चुनवाये
खेत और कुँए खुदवाये
कपड़े बनवाये
चमड़े कटवाये
गलियाँ और पैखाने साफ करवाये
फिर मुझे धिक्कारा, तिरस्कृत किया
और गुलाम बनाया
मेरे होने के
सारे सबूत नष्ट करने के लिए
मुझे जीते जी कत्ल कर दिया
परछाई सहित मुझे जलाया
बस इसी तरह
तुम मुझे मारते रहे
और मैं मरता रहा
अफसोस!
तुम्हारी इन वीभत्स रस्मों को
चुपचाप सहने के बजाय
यदि मैंने
जोर-जोर से चीख कर
बगावत की होती तो
आज इतिहास को खून की स्याही से
मेरी "मृत्यु का घोषणापत्र"
लिखने की जरूरत नहीं पड़ती।
अंतिम छोर का मानवी
यूँ तो कुछ भी नहीं
लेकिन फिर भी सब कुछ हूँ
अंतिम सिरे पर खड़ा हुआ आदमी हूँ
धड़, माथा,और हाथ बिना का
आकाशी टुकड़ा हूँ;
घूरे पर फेंका हुआ
ईंट-पत्थर,चिथड़ा और काँच का टुकड़ा हूँ
यातना, आकांक्षा
और उपेक्षित सूर्यमुखी हूँ
अपने अस्तित्व के सजग क्षणों में
गरजता सागर हूँ
लंगर डाल कर खड़ी हुई
एक अकेली नाव की अनुगूँज हूँ
जिस नाव में तुम हो
उस नाव का प्रवासी हूँ
मैं ही पाल हूँ, मैं ही नाविक हूँ
टोर्पीडो भी मैं ही हूँ
संदर्भों की साँस ले कर
जिंदा रहने वाले लोगों के बीच,
मैं युगों से अकेला हूँ
इसलिए चुपचाप हूँ
यूँ तो कुछ भी नही
लेकिन फिर भी सब कुछ हूँ
अंतिम सिरे पर खड़ा हुआ आदमी हूँ
सेतु
भले ही
तुम्हारे और मेरे मोहल्ले
अलग-अलग हैं,
पर धरती और आकाश तो
एक है न?
ज्योतिषी भले ही कहते हों
कि भाग्योदय अवश्य होगा
लेकिन आज तो मैं
बिल्कुल खालीखम आकाश के नीचे
जिंदगी के अभाव लिए
खड़ा हूँ
चारो ओर
दोपहर की धूप,
जंगल की तपती लू
और वैशाखी चक्रवात का गर्जन है
लेकिन फिर भी
मैं तुम्हें दूँगा
मुट्ठी में बंद मीठी सुगंध,
अतृप्त होठों का तड़पता मौन,
और व्याकुल हृदय के वैभवी गीत
लेकिन, कहो न
तुम मुझे क्या दोगे?
प्रदीप गढवी |
प्रवीण गढवी की कविताएँ
परिचय
नाम- प्रवीण गढवी
जन्म- 13 मई 1951
जन्म स्थान - मोढेरा, गुजरात
कविता संग्रह- आसवद्वीप, मधु वाताऋतायते, बेयोनेट निषाद, तुणीर (गुजराती)
कॉकरोच से बातचीत
(नेल्सन मंडेला के साथ संवाद)
कालकोठरी के अंधेरे में
मेरे लिए आशा ही एक मात्र किरण थी
सूरज हर रोज उग कर
इस बात का साक्षी बनता,
पृथ्वी का चक्र घूमता रहा
एक वर्ष, दो वर्ष, पाँच वर्ष
पच्चीस वर्ष....
जवानी में कोमल घास-सा फूटा मूँछ का बाल
सफेद वृद्ध हो चुका था
उम्र हो चुकी थी पचास पार
लेकिन श्रद्धा भरी साँसे निरन्तर चलती रहीं
'हम होंगे कामयाब
एक दिन
...एक दिन'
की लय पर...
काला-गोरा, छूत-अछूत, मालिक-गुलाम,
ऊँच-नीच, समृद्ध-दरिद्र,
ये सभी अंतर खत्म हो जाएँगे, मिट जाएँगे,
जरूर मिलेगी हमे,
प्राप्त कर के रहेंगे हम
मुक्ति और समानता,
नहीं चाहिए हमें धन
हमें चाहिए है सिर्फ स्वाभिमान,
नहीं चाहिए हमें सिंहासन
हमे चाहिए है सिर्फ मनुष्य होने का अधिकार।
रात-दिन करता रहता कॉकरोच से बात
कॉकरोच भाई, तुम्हारे यहाँ
काले-गोरे का भेदभाव है?
नहीं-नहीं, नेल्सन मंडेला भाई,
तिरस्कार है?
ना रे ना, नेल्सन मंडेला भाई,
हम तो सारे कॉकरोच मिलने पर
एक-दूसरे से मूँछ मिलाते हैं,
कॉकरोच भाई
तुम्हारे यहाँ
कोई गरीब, कोई अमीर है?
नहीं-नही नेल्सन मंडेला भाई
हमारे यहाँ तो यह गटर सब कॉकरोचों की है,
तुम्हारे यहाँ
कोई राजा, कोई प्रजा है?
नहीं-नहीं भाई नेल्सन मंडेला भाई
हमारे यहाँ तो सब प्रजा है
न राजा, न रानी...न कोई कहानी,
कॉकरोच भाई, तुम्हारे यहाँ विश्वयुद्ध
शीतयुद्ध, गृहयुद्ध, गुप्तयुद्ध होते हैं?
ना रे भाई ना, नेल्सन मंडेला
हमारे यहाँ तो न किसी की बड़ाई
न कोई लड़ाई
इस गटर में ही सबको रहना है
और मौज-मस्ती करना है
न कोई जेल...न कोई सजा!
पच्चीस बरस मैंने बात की
कॉकरोच के साथ
कॉकरोच था मेरा मित्र, मेरा हमदम
मेरे सुख-दुःख का
मेरे एकांत का
और मेरे अंधेरे का साथी
स्पर्श मत करो
दूर रहो
मत स्पर्श करो हम अस्पृश्यों को,
अक्षत रहने दो हमारी कन्याओं का कौमार्य
तुम्हारी हिंसक वासनाओं से,
अस्पृश्य रहने दो हमारे पिताओं की तपती पीठ
तुम्हारे क्रूर चाबुकों से,
दूर रखो तुम्हारे खून से सने हाथ
हमारी ज्वार-बाजरे की रोटियों से,
हत्यारों के साथ बैठ कर भोजन करना
अपने ही शिशुओं के कलेजे के व्यंजन खाने जैसा है,
अस्पृश्य ही रहने दो
हमारे खेतों में झूमती फसलों को
तुम लुटेरों के स्पर्श से,
भले ही अस्पृश्य रह जाएँ हमारे गाँव
तुम्हारे द्वारा जलाई हुई सर्वनाश की अग्नि ज्वालाओं से
सदियों से तुमने नहीं छुआ
सूर्य की आत्मा जैसे हमारे श्याम वर्ण को,
तो अब छूने की कोई जरूरत नहीं है
हमें स्पर्श करेगा
मध्याह्न के सूर्य का उज्ज्वल प्रकाश
खेतों की मिट्टी
और नदी का बहता जल......
दूर रहो,
मत स्पर्श करो हम अस्पृश्यों को।
अछूत सीता
तुम कहो तो
एक ही रात में
कछोटा कस कर नाखून से
कुआँ खोद डालूँ
तुम कहो तो
सुबह का तारा उगने से पहले
लाइन में सबसे आगे
अपना मटका रख आऊँ
तुम कहो तो
अकेले-अकेले ही
रहट चला कर
पूरे गाँव को पानी पिला दूँ
लेकिन इस तरह लाइन में अलग बैठा रहूँ
और सबसे अंत में
कोई ऊपर से पानी डाले मटके में
यह सहन नहीं होता
इससे तो बेहतर है कि
गर्मी भर पानी को तरसता रहूँ
प्यास की यह भीख माँगते समय
लगता है कि
धरती क्यों नहीं रास्ता देती मुझे अपने हृदय में
सीता जी की तरह।
हम लोग वे लोग
हम लोग
मिट्टी के कुल्हड़ में महुआ
वे लोग
फ्रांस के अंगूरों की मदिरा,
हम लोग
ढोलक की थाप और बाँसुरी की फूँक
वे लोग
डिस्को की धुन,
हम लोग
मक्की के आटे का गोला
वे लोग
कॉर्न-सूप,
हम लोग
ढिबरी की रोशनी में भोजन
वे लोग
कैंडल डिनर,
हम लोग
मक्की की रोटी और भाजी-पत्ता
वे लोग
मक्के दी रोटी ते सरसों दा शाक,
हम लोग
आकाश के ढेरों तारे
वे लोग
सिर्फ होटल फाईव स्टार!
शस्त्र सन्यास
आओ, हम शस्त्र नीचे रख देते हैं
और गोलमेज परिषद करते हैं,
हमारा कोई देश नहीं, वेश नहीं
जोतने को खेत नहीं, रहने को घर नहीं
आर्यवर्त से ले कर आज तक तुमने
घास का एक तिनका तक
हमारे लिए नहीं छोड़ा
चलो, हम वह सब भूल जाते हैं।
क्या तुम गाँव में खड़ी की हुई दीवार तोड़ने को तैयार हो?
हम दूध में मिश्री की तरह घुलने को तैयार हैं,
तुम्हारी द्रौपदी अगर स्वयंवर में
हमारे गलिया को वरमाला पहनायेगी
तो क्या सह सकोगे?
और अगर हमारी रवली, चित्रांगदा की तरह
नूतन रूप में आयेगी तो
तुम्हारा अर्जुन उसे स्वीकार करेगा?
आओ, हम मरे हुए जानवर को बारी-बारी से खींचेंगे, तैयार हो?
आओ, हम तुम्हारा झूठा खाने के लिए तैयार हैं
क्या तुम हमारे शादी-ब्याह में जूठन खाने आओगे?
आओ, संविधान में से आरक्षण की व्यवस्था मिटा देते हैं
हमारे मगनिया, छगनिया सामान्य परीक्षाएँ (open compete) देंगे
लेकिन क्या तुम उनको कॉन्वेंट स्कूलों में प्रवेश लेने दोगे?
आओ, हम शस्त्र नीचे रख देते है
और देश की रसवंती ज़मीन को
साथ मिल कर जोतते हैं
क्या दोगे हमें फ़सल का आधा हिस्सा?
******************
मालिनी गौतम |
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