युवा कविता पर वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह से बातचीत
(फोटो: जीवन सिंह)
आरा से निकलने वाली पत्रिका 'जनपथ' का अभी-अभी कविता विशेषांक आया है। इस विशेषांक में युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह का एक साक्षात्कार लिया है। इस साक्षात्कार को हम ज्यों का त्यों आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
1-महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी
युवा कविता के परिदृश्य को आप किस रूप
में देखते हैं? इसमें आपको अपनी पूर्ववर्ती
कविता से कथ्य और शिल्प के स्तर पर
किस तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं?
1-जीवन सिंह: आज युवा कवियों
द्वारा लिखी जा रही हिंदी कविता का परिदृश्य
हर समय की तरह मिला-जुला है जैसे पूरे समाज का है। समाज की प्रवृतियाँ
आज की युवा कविता में भी दिखाई देती हैं। कविता का सारा व्यापार कवि के जीवनानुभवों से चलता
है। जीवनानुभव जितने व्यापक और बुनियादी होंगे, कविता की
कला भी उतनी ही व्यापक और असरदार होगी। इस समय की कविता पर मध्यवर्गीय
जीवनानुभवों का वर्चस्व बना हुआ है। उसमें आज के विवेक और आधुनिक बोध
की धार तो है किन्तु वह अयस्क-परिमाण बहुत कम है जो जिन्दगी की खदानों से सीधे आता है। अरुण
कमल की कविता की एक पंक्ति लगभग सूक्ति की तरह उधृत की
जाती है - सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार। आज स्थिति यह है कि धार ज्यादा है और लोहा
बहुत कम रह गया है। इसका कारण है मध्यवर्ग और निम्नवर्गीय
मेहनतकश के जीवन में दूरी का बढ़ते चले जाना। कुछ लोकधर्मी युवा कवि अवश्य हैं जो इस दूरी को
कम करने की कोशिशें लगातार कर रहे हैं इसलिए उनकी कविता
में धार और लोहे का आनुपातिक संतुलन ज्यादा नजर आता है।
2- महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी में
लोकधर्मी कविता की परंपरा बहुत समृद्ध रही
है। इस परंपरा को समृद्ध करने में निराला, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, कुमारेंद्र
पारसनाथ, मानबहादुर सिंह, विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति जैसे कवियों का महत्वपूर्ण
योगदान रहा है। युवा पीढ़ी में इस परंपरा का विकास आप
कहाँ तक पाते हैं?
२-जीवन सिंहः लोकधर्मी कविता को यद्यपि एक आंचलिक
काव्यधारा के रूप में देखा गया
तथापि जीवन के बुनियादी सरोकार हमें इसी काव्यधारा में नजर आते हैं। यह मध्यवर्गीय भावबोध से
सम्बद्ध कवियों की काव्यधारा के सामानांतर एक अतिमहत्त्वपूर्ण
और बुनियादी काव्यधारा है। आधुनिक युग में जिसके प्रवर्तन का श्रेय
निराला को जाता है। आपने जिन कवियों का नाम लिया है वे इस धारा का विकास करने वाले प्रतिनिधि
कवियों में आते हैं। मुक्तिबोध यद्यपि इस धारा से
कुछ अलग से दिखाई देते हैं और उनकी मनोरचना मध्यवर्गीय कविता के ज्यादा समीप नजर आती है
किन्तु जब मुक्तिबोध नयी कविता की दो धाराओं का उल्लेख
करते हैं तो वे भी बुनियादी तजुर्बों को कविता में लाने और रचने की दृष्टि से इसी काव्य-परंपरा
में आते हैं। वे कविता में कवि-व्यक्तित्व के हामी होने
के बावजूद व्यक्तिवाद के विरुद्ध काव्य-सृजन करते हैं। यह भी जनधर्मी काव्य-परंपरा का एक
रूप है। कविता में जिनका बल जनवादी जीवन-मूल्यों
का सृजन करने पर रहता है और जहाँ जन-चरित्र तथा जन-परिवेश अपनी
समग्रता में आता है, वह सब लोक-धर्मी काव्य-धारा
का ही अंग माना जाना चाहिए।
कुमार विकल, शील आदि कवियों की कविता भी
इसी कोटि में आती है। लोकधर्मी
काव्य-धारा की यह विशेषता रही है कि वह उस शक्ति का निरंतर अहसास कराती है जो मानवीय मूल्यों
की दृष्टि से हर युग की सृजनात्मकता का अभिप्रेत
रही है। युवा पीढी में अनेक कवि हैं जो इस काव्य-धारा का विकास कर रहे हैं। एक जमाने में अरुण
कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मदन कश्यप
अपनी जन-संस्कृति-परकता की वजह से
इस धारा का विकास करने वाले कवियों में चर्चित
हुए। इनके बाद की पीढी में एकांत का नाम बहुत तेजी से उभरा और
नए युवा कवियों में केशव तिवारी, सुरेश सेन
निशांत, महेश चंद्र
पुनेठा, अजेय, नीलेश
रघुवंशी, जितेंद्र श्रीवास्तव, नीलकमल, राकेश रंजन, सुशील
कुमार, राघवेंद्र, विजय गौड़, रमेश प्रजापति, मनोज कुमार
झा, शैलेय, अशोक कुमार सिंह, हरेप्रकाश उपाध्याय, कुमार
अनुपम, शंकरानंद, संतोष
कुमार चतुर्वेदी, कुमार वीरेन्द्र, निर्मला
पुतुल, रजत कृष्ण, विमलेश
त्रिपाठी, भरत प्रसाद, अनुज लुगुन, आत्मा रंजन, आदि कवियों
की कविताओं से मैं परिचित हूँ। इस सूची में
इनके अलावा और नाम भी हो सकते हैं क्योंकि दूर जनपदों में ऐसी कविता खूब लिखी जा रही है।
हमारे यहाँ राजस्थान में ही विनोद पदरज यद्यपि छपने-छपाने
में बहुत संकोच बरतते हैं लेकिन जितना और जो उन्होंने लिखा है वह इसी धारा को पुष्ट करने
वाला है।
3- महेश चंद्र पुनेठाः हर काल
में कविता के क्षेत्र में एक से अधिक धाराएं
सक्रिय रही हैं जो अलग-अलग वर्गों और प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इधर की युवा कविता
में आपको कितनी धाराएं दिखाई देती हैं? सबसे सशक्त धारा कौनसी है?
3-जीवन सिंहः निस्संदेह, हर युग में
वर्गीय अनुभवों की सीमाओं में कविता की
जाती रही है। कबीर ने जब अपने वर्ग-अनुभवों के आधार पर कविता की तो तत्कालीन उच्च-वर्ग ने उसे
उसी रूप में शायद ही समझा। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक
अभिप्रायों की वास्तविकता का उदघाटन आधुनिक युग में आ कर हुआ, जब वर्गीय
समझ सामने आई। मीरा ने अपने जीवनानुभवों के आधार पर भक्ति-कविता
को एक नया मोड़ दिया। आज का दलित कवि अपने अनुभवों से काव्य परिदृश्य
में हस्तक्षेप कर रहा है। आज का युवा कवि भी अपने वर्गीय अनुभवों की कविता लिख पा रहा है, जिन कवियों
के पास लोक-जीवन के अनुभव नहीं हैं, वे लोक-जीवन से सम्बद्ध कविता को
आंचलिकता के खाते में डाल देते हैं। नई कविता में
मुक्तिबोध और अज्ञेय की जो दो काव्य धाराएं अलग-अलग नजर आती हैं उसका कारण
वर्गीय दृष्टि है। मुक्तिबोध बेहद वर्ग-सचेत कवि हैं, निम्न मेहनतकश वर्ग की पक्षधरता के
साथ वर्गांतरण की प्रक्रिया को वे कविता की अंतर्वस्तु
बनाते हैं। ऐसा आज तक कोई दूसरा कवि नहीं कर पाया है। इसलिए भी उनकी कविता में दुर्बोधता
दिखाई देती है। आज के युवा कवियों में ये तीनों धाराएं
दिखाई पड़ती हैं। एक अज्ञेय प्रवर्तित मध्यवर्ग की व्यक्तिवादी धार, दूसरी मध्यवर्गीय जीवनानुभवों
तक सीमित जनवादी धारा और तीसरी निम्नवर्गीय लोक-धर्मी
काव्य धारा। मेरा मन इनमें तीसरी धारा के साथ रमता है और मैं इसको सबसे महत्त्वपूर्ण मानता
हूँ।
4- महेश चंद्र पुनेठाः कहा जा
रहा है कि युवा कविता में विचारधारा का प्रभाव कम
होता जा रहा है। यह माना जा रहा है कि किसी आंदोलन या विचारधारा से प्रभावित कविता श्रेष्ठ
नहीं होती है। नितांत निजी अनुभवों को ही रचना का आधार
बनाया जा रहा है। इस प्रवृत्ति के पीछे आप क्या कारण पाते हैं?
4-जीवन सिंहः विचारधारा
का कोई न कोई रूप हर समय की कविता में रहा है । यह अलग
बात है कि उसका सम्बन्ध किसी भाव-वादी विचारधारा से हो। विचारधारा
के बिना तो शायद ही कुछ लिखा-कहा जा सके। जो लोग स्वयं को विचारधारा
से अलग रखने की बात करते हैं , उनकी भी
अपनी छिपी हुई विचारधारा अपना काम
करती रहती है। वे तो वैज्ञानिक-द्वद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा को रोकने के लिए इस तरह की
दुहाई देते रहते हैं, जिससे शोषक अमीर वर्ग की विचारधारा अबाध गति से
फूलती-फलती रहे और शोषित मेहनतकश वर्ग की विचारधारा अवरुद्ध
रहे। आवारा पूंजी का निर्बाध खेल चलता रहे। जिन अनुभवों को निजी अनुभव कहा जाता है, उनमें समाज
के अनुभवों और परंपरा से चली आती मान्यताओं की गहरी
मिलावट रहती है। समाज-निरपेक्ष निजी अनुभवों की बात करना वैसे ही है, जैसे सरोवर
में स्नान करते हुए स्वयं को आर्द्रता-निरपेक्ष बतलाना। यह अलग बात है
कि समाज में प्रचलित अनेक रूढ़िबद्ध विचारों और मान्यताओं के हम विरोधी हों। रचना का आधार तो
कैसे भी बनाया जा सकता है, प्रश्न यह
है कि उस रचना के जीवन-घनत्त्व का
स्तर क्या है? इस प्रवृति के पीछे कवि का मध्यवर्गीय अवसरवाद है और यह
आजकल बड़े-बड़े नामधारियों में देखने को मिल रहा है।
कोई-कोई साबुत बचा कीला-मानी पास। यह सच्चे कवियों का परीक्षा-काल चल रहा है।
5- महेश चंद्र पुनेठाः आप
कविता में जनपदीयता के समर्थक हैं। आपका मानना है
कि लोकल हुए बिना कोई कविता ग्लोबल नहीं हो सकती। इस दृष्टि से युवा कविता की क्या स्थिति है?
5-जीवन सिंहः हाँ, मैं जनपदीय आधार के बिना, फिलहाल की
स्थितियों में, रचना को असंभव तो नहीं मानता किन्तु
बुनियादी जीवनानुभवों तक के संश्लिष्ट और व्यापक यथार्थ की रचना करने के लिए जनपदीयता को उसका
बुनियादी आधार मानता हूँ। दुनिया की बात तो मैं नहीं जानता किन्तु अपने
देश की काव्य-परम्परा में कविता की महान रेखा जनपदीय
आधारों पर ही खींची जा सकी है। भक्ति-काव्य की महान काव्य-परम्परा का मुख्य स्रोत जनपदों से ही
प्रवाहित हुआ है। जो महा-जाति(नेशन),अपने जनपदीय आधारों पर टिकी हो
वहां तो यह बहुत जरूरी हो जाता है। हिन्दी एक महाजाति है, जिसके अनेक
जनपदीय जीवनाधार आज भी प्रभावी स्थिति में हैं। आज भी हमारे
यहाँ किसान-जीवन से उपजी वास्तविकताओं का गहरा असर हमारे मन पर रहता है। हमारे जीवन-संचालन
में उसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका आज भी कम नहीं है। ब्रज, अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मैथिली, भोजपुरी, पहाडी, राजस्थानी
आदि जनपदीय संस्कृति के बिना महान हिन्दी-संस्कृति का भवन बनाना शायद ही संभव हो पाए। रही
वैश्विक और राष्ट्रीय होने की बात,ऐसा यदि जनपदीय आधार पर होगा तो वह
इन्द्रियबोध, भाव और विचारधारा के उन महत्त्वपूर्ण स्तंभों पर टिका
होगा, जो हर युग की कविता को
महाप्राण बनाते हैं। जहाँ तक इस कसौटी पर आज
के युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही कविया का सवाल है तो
इतना ही कहा जा सकता है कि ज्यादातर कवि जनपदों के प्रति रागात्मक
स्थितियों में हैं, उनका विचारधारात्मक आधार बहुत
सुदृढ़ नहीं हो पाया है, लेकिन
संभावनाएं यहीं हैं। इसमें कुछ युवा अभी अधकचरी स्थिति में भी हो सकते
हैं। आकर्षण और प्रलोभन यहाँ बिलकुल नहीं हैं क्योंकि यह खाला का घर नहीं है।
6- महेश चंद्र पुनेठाः
जनपदीयता के साथ भावुकता या रोमानीपन का भी खतरा बहुत अधिक रहता है। युवा
कविता में यह खतरा कितना झलकता है?
6-जीवन सिंहः
निस्संदेह, लेकिन द्वंद्वात्मक भौतिकवादी
विचारधारा का सुदृढ़ आधार हो तो यह
खतरा कम होता जाता है। खतरे कहाँ नहीं होते, नीयत में
खोट नहीं है तो सभी खतरों से निजात पाई
जा सकती है अनुभवों की परिपक्वता और दृष्टिगत प्रौढ़ता
आने पर यह खतरा लगभग मिट जाता है। युवा कवियों में ऐसी संभावनाएं खूब दिखाई दे रही हैं। अपने
मोर्चे पर डटे रहेंगे तो फतेह के बिंदु तक भी पहुँच
जायेंगे। यहाँ विचलन का खतरा, भावुकता से
भी ज्यादा रहता है। कबीर के शब्दों में
कहूं तो यह सिलहली गैल वाला रास्ता है। जहां न यश है, न कोई पुरस्कार है, वर्चस्ववादियों
की प्रताड़ना और उपेक्षा सो अलग।
7- महेश चंद्र पुनेठाः नब्बे के
बाद राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य
में अनेक परिवर्तन आए हैं। दुनिया बहुत अधिक बदल गई है। न केवल विचार के स्तर पर बल्कि
टेक्नोलाजी के स्तर पर भी। यह बदलाव युवा कविता में कितने
वस्तुनिष्ठ और वास्तविक रूप में अभिव्यक्त हुए हैं?
7-जीवन सिंहः कविता की
प्रकृति इतिहास की तरह नहीं होती कि वह हर बात को हूबहू
दर्ज करती चले। उसका काम है हर बदलती परिस्थिति में मनुष्य- भाव की तलाश करना, उसे रचना
और उसकी रक्षा करना। उसका रिश्ता मनुष्य-भाव से है। इस बात में
कोई संदेह नहीं कि नब्बे के बाद राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य
बहुत तेजी से बदला है और उसमें आवारा पूंजी का वर्चस्व लगभग पूरे विश्व पर कायम हुआ है तथा
श्रम-शक्ति की दुनिया को भग्नाशा की स्थितियों से गुजरना
पड़ रहा है। टैक्नोलोजी ने दुनिया को एक दूसरे के बहुत पास कर दिया है किन्तु मानवता के
स्तर पर कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया है, ऐसा नहीं लगता। क्रांति तो तब
होती जब श्रम के पक्ष में कुछ महत्त्वपूर्ण घटित हो गया
होता। जो कुछ घटित हुआ है, वह सब
पूंजी की आवारा आवाजाही के पक्ष में हुआ है
और जिसने विखंडन, अलगाव एवं अजनबीपन पैदा करके
मनुष्य-भाव को क्षत-विक्षत किया है। इससे
वर्ग-वैषम्य की खाई और चौड़ी हो गयी है। एक तरफ अरबों-खरबों
के मालिक हैं तो दूसरी तरफ अस्सी प्रतिशत जनता को जीवन-निर्वाह करने के लाले पड़े हैं। इससे
युवा कवियों में यथार्थ और वस्तुसंगत विचारधारा
के प्रति रुझान में कमजोरी आई है, और अवसरवाद
की प्रवृति बढी है। बहुत कम
लोग हैं जो इन स्थितियों में विचलित नहीं हुए हैं। कवियों की संख्या में इजाफा हुआ है पर
गुणात्मकता के लिहाज से अभी और इंतजार करने की स्थिति
है।
8- महेश चंद्र पुनेठाः अपनी
परंपरा को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण नई पीढ़ी में
दिखाई देते हैं- सर्वस्वीकारवादी और सर्वनिषेधवादी। आप युवा कविता का अपनी परंपरा से कैसा संबंध
पाते हैं?
8-जीवन सिंहः दोनों स्थितियां ही अतिवादी हैं। परम्परा
के प्रति निषेध और स्वीकार का रिश्ता ही द्वंद्वात्मक
संतुलन पैदा करता है। महाकवि कालिदास बहुत पहले कह गए हैं कि न तो पुराना सब कुछ श्रेष्ठ है
और न सम्पूर्ण अभिनव ही वन्दनीय है। पुराने में भी
श्रम से रचित मानव -सौन्दर्य है और नए में भी ।दोनों की सीमायें भी हैं। आधुनिकतावादी कवि
परम्परा के प्रति निषेधवादी रहता है, जो या तो परम्परा से अनभिज्ञ होते हैं
या आधुनिकता के मिथ्या-दंभ में ऐसा करते हैं। लोक-धर्मी
काव्य-परम्परा के कवियों में परम्परा और नवीनता के प्रति संतुलन देखने को मिलता है।
9- महेश चंद्र पुनेठाः सत्ता के
अमानवीय और क्रूर मुखौटे को पहचानने और उसको
उघाड़ने तथा जनता के आक्रोश और असंतोष को पकड़कर उसे एक सही दिशा देने में कविता की भी अपनी एक
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह जनता को क्रांतिकारी
चेतना से लैस करती है। क्या आपको लगता है कि आज की अधिसंख्यक युवा कविता में अपनी
सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों की द्वंद्वात्मक समझ, उसके बदलाव
को लेकर कोई विश्वदृष्टि, जनता के भीतर सुलग रहे विद्रोह को देखने की क्षमता
और सच को कहने का साहस है?
9-जीवन सिंहः आवारा पूंजी
ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है
और इसे वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है, उसका जितनी
तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए
था, वह बहुत कम हो पाया है। बड़े
संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई
को सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग-विमर्श को किनारे करने का काम किया है। स्त्री
और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना
और वर्ग-विमर्श की कीमत पर नहीं। जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो
खंड विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है। अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर आदिवासी और
अल्पसंख्यक विमर्शों की तान भी छेड़ने में लगे हैं। जबकि इन
सभी की जड़ में वर्ग-विषमता रही है। इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई आंच आती हो।
क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी लाना
जैसा लगता है। अभी तो बुर्जुआ जनवादी चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता
में लगता है, जिससे राजनीति में व्याप्त
सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों
का खात्मा किया जा सके।
10- महेश चंद्र पुनेठाः युवा
कविता का मुख्य स्वर क्या है ? उसमें
जन-जीवन से जुड़ने की कितनी ललक एवं आकांक्षा दिखाई देती है?
10-जीवन सिंहः
फिलहाल कोई मुख्य स्वर जैसी बात नजर नहीं आती। जो कुछ है वह मिलाजुला है। वर्चस्व स्त्री
एवं दलित स्वरों का कहा जा सकता है। हाँ, लोक-स्वर
भी आजकल सिर चढ़कर बोलता दिखाई दे रहा है। जन- जीवन से जुड़ा हुआ स्वर आज यदि किसी धारा में
देखा जा सकता है तो वह इसी लोक-स्वर वाली कविता में सबसे
ज्यादा हैं। यों तो, मध्यवर्गीय कविता की
वैचारिकता में भी इस स्वर को
सुना जा सकता है ।मध्यवर्ग में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद ने उसे जन-जीवन से काटने का काम किया
है।
11- महेश चंद्र पुनेठाः कुछ युवा
कवि कविता में जरूरत से ज्यादा कला लाने का
प्रयास कर रहे हैं। उनका जोर कथ्य की अपेक्षा शिल्प पर है जिससे कविता अमूर्ततता, ठसपन और
दुर्बोधता की शिकार होती जा रही है। इसको आप कविता के
भविष्य की दृष्टि से किस तरह देखते हैं?
11-जीवन सिंहः कलावादी
काव्य-धारा कमोवेश हर समय में रहती आई है। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक
और आर्थिक आधार समाज के भीतर ही होते हैं। जो वर्ग मेहनतकश
वर्ग से स्वयं को ऊपर मानते हैं वे कलावाद का औचित्य निरूपण करते हुए उसका एक सौन्दर्य-शास्त्र
भी निर्मित कर लेते हैं। लेकिन यह भी सच है कि, जैसा कि
रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता में कहा है कि जहां कला ज्यादा होगी, वहाँ कविता
बहुत कम होगी। जीवनानुभवों के अभाव में ऐसा होता है। अपने वर्गीय
जीवन की सीमाओं को इसीलिये कवि को निरंतर विस्तृत और व्यापक करते रहना पड़ता है। उन रचनाकारों
का लिखना धीरे-धीरे बंद हो जाता है जिनकी अनुभव-पूंजी
में बढ़ोतरी नहीं होती। ऐसे कवियों में कला-प्रयोगों की प्रवृति बढ़ जाती है। ऐसा वे कवि
ज्यादा करते हैं जो मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर
पाते। मुक्तिबोध की कविता इसीलिये वर्गांतरण की जटिल प्रक्रिया को रचती हुई विस्तृत होती चली
जाती है। ऐसी कविता का भविष्य कलावाद के अंतर्गत ही होगा, जैसे आज
रीति-कविता का है।
12- महेश चंद्र पुनेठाः
नक्सलवाड़ी आंदोलन ने एक समय पूरी भारतीय कविता को
गहराई तक प्रभावित किया। यह आंदोलन आज भी जारी है। युवा कविता में आपको इसका कितना प्रभाव दिखाई
देता है?
12-जीवन सिंहः आज मध्य-वर्ग उपभोक्तावाद में
इतना उलझ गया है कि वह जनवादी तौर -तरीकों और जीवन-मूल्यों
तक के प्रति उदासीन होता जा रहा है। उसका एक बड़ा हिस्सा सत्ता-राजनीति
के सुखों को पाने के लिए लालायित रहता है। फिर आज का नक्सल- आन्दोलन भी वह नहीं है जो
विगत शताब्दी के सातवें दशक में था।
13- महेश चंद्र पुनेठाः अशोक
वाजपेयी का कहना है कि आज के युवा कवि साठ-सत्तर
के दशकों के युवा कवियों की तरह न तो विश्व कविता के बारे में जिज्ञासु हैं और न ही मनचाहे
हिस्सों का अनुवाद करते हैं। यह बात कितनी सही है?
13-जीवन सिंहः जब साहित्य-मात्र
ही हाशिये पर धकेला जा रहा हो तब इसके कारण हमको
उपभोक्तावादी तंत्र में खोजने चाहिए। अब अपने देशी साहित्य में ही जब व्यक्ति क्षीण-रूचि हो
रहा है तो इस सब का असर अन्य स्थितियों पर भी होगा। इसके
बावजूद चयनित और चर्चित विश्व साहित्य के संपर्क में अल्पसंख्यक
युवा आज भी रहता है।
14- महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी
युवा कविता में निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन के रूप में आदिवासी
स्वर का प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। इन कवियों को आप अन्य
हिंदी युवा कवियों से किस रूप में भिन्न पाते हैं? काव्यात्मक दृष्टि से इनकी कविताओं के
बारे में क्या कहेंगे?
14-जीवन सिंहः ये आज के लोक-स्वर
के महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय युवा रचनाकारों
में आते हैं। इन्होने अपने जीवनानुभवों के आधार पर कविता की अपनी एक नई जमीन तोडी एवं बनाई है।
इस जीवन की विशेषता है कि श्रम से जुडा होने से इसकी
प्रकृति में ही काव्यत्व अन्तर्निहित है-राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है की तरह। निर्मला
जी ने मूलत संताली में लिखा और उनका हिन्दी में अनुवाद
अशोक सिंह ने किया। जहां तक मुझे याद है कि निर्मला पुतुल की कवितायेँ २१वी सदी के लगते ही
आने लग गयी थीं। ’नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द’ और ’अपने घर की
तलाश में’ शीर्षकों से आए दो
काव्य-संग्रहों में पुतुल की कविताओं
में अंतर्वस्तु की जो तेजस्विता एवं मौलिकता नजर आती है वह आज की कविता को एक नया आयाम देती
है। यहाँ एक आदिवासी स्त्री का स्वर तो है ही साथ ही
आदिवासी जीवन-मूल्यों और संघर्षों का एक सजीव काव्यात्मक इतिहास भी है। इन कविताओं से गुजरते हुए
लगता है कि हम अपनी बेचैनी के ताप के साथ एक गहरी नदी
में अवगाहन कर रहे हैं। शिल्प भी इनका अपना है, आदिवासी अंतर्वस्तु की तरह आदिवासी
शिल्प, अपनी सहजता में मुखरित। यह
कविता हमको अपने अंधरे के खिलाफ उठने की
सीख देती है। अन्धेरा बाहर इसलिए अपनी बेटी मुर्मू से
ही नहीं है वरन वह हमारे भीतर भी है। इसलिए कवयित्री अपनी बेटी मुर्मू को संबोधित करते हुए
कहती है कि –
उठो, कि तुम
जहां हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी
जब निर्मला
पुतुल का पहला काव्य- संग्रह प्रकाशित हुआ था, उसी समय
मैंने उसकी समीक्षा की थी। इस कविता
से विश्वास हुआ कि हिन्दी कविता का भविष्य इन हाथों में
सुरक्षित है। अनुज लुगुन की दिशा भी यही है। अभी उनकी ज्यादा कवितायेँ नहीं पढ़ पाया हूँ।
15- महेश चंद्र पुनेठाः इधर युवा
कविता में स्त्री स्वर तेजी से उभरा है। आज
पहले से अधिक महिलाएं कविता के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर रही हैं। उनकी कविताओं में स्त्री
वर्जनाओं, पुरुष वर्चस्व और सामंती मर्यादाओं को लेकर तीखी एवं
साहसपूर्ण अभिव्यक्ति देखने में आ रही है। इसको आप किस रूप
में देखते हैं?
15-जीवन सिंहः स्त्री स्वर सभी
विधाओं में तेजी से उभरा है जो रचनात्मकता
के लिए एक स्वस्थ संकेत है। पितृसत्तात्मक स्थितियों से पैदा हुई विषमता को मिटाने के लिए
यह बहुत जरूरी है , लेकिन इसके साथ वर्ग चेतना भी उतनी ही जरूरी है
निम्नवर्गीय स्त्री पितृ-सत्ता और वर्ग-विषमता के दो पाटों में
पिसती है। ऐसा उच्चवर्गीय स्त्री के साथ नहीं है। वह केवल पितृ-सत्ता
के उत्पीडन को झेलती है। वर्ग-विषमता में वह पुरुष का सहयोग करती है। निर्मला पुतुल की
कविताओं में इस दृष्टि से समग्रता आती है।
16- महेश चंद्र पुनेठाः
युवा कविता में स्त्री स्वर की तरह क्या दलित ,अल्न्पसंख्यक
स्वर की भी अपनी अलग उपस्थिति दिखाई देती है?
16-जीवन सिंहः दलित
स्वर तो है, अल्पसंख्यक जैसी कोई राजनीतिक
श्रेणी अभी साहित्य में नजर
नहीं आती। वैसे विखंडन की हवा चल रही है, इसमें जो
हो जाय सो कम है। इतना विश्रंखलित और
विखंडित समय अभी तक नहीं आया था, इसलिए चीजें समग्रता में चर्चित एवं
विश्लेषित हुआ करती थी।
17- महेश चंद्र पुनेठाः कुछ
वरिष्ठ कवि-आलोचकों द्वारा युवा कविता पर यह आरोप
लगाया जाता है कि वह बाहर में इतना उलझ गई है कि उसे अंदर की आवाज सुनाई नहीं पड़ती है। क्या आप
भी इससे सहमत है?
17-जीवन सिंहः सच तो यह है कि अपने भीतर वह
इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर की बड़ी दुनिया बहुत कम नजर आती
है। कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का निर्माण करता है वह उसका जीवन से कटा हुआ
मनोगत यथार्थ होता है। इसलिए मुक्तिबोध ने अन्दर-बाहर
की द्वंद्वात्मक एकता पर विशेष बल दिया है। यदि उसका केवल अंदर ही आता है तो वह विखंडित है, यही बात
बाहर के साथ भी है।
18- महेश चंद्र पुनेठाः आज युवा
कविता में मध्यवर्गीय और महानगरीय भावबोध की
ऐसी कविताओं का बोलबाला अधिक दिखाई देता है जो संघर्ष के मूल प्रश्नों और दमनकारी व्यवस्था
की आलोचना करने से बचती हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से
सामान्य जनों से सहानुभूति रखती है। जिसे व्यवस्था की साजिश नहीं दिखाई देती है। आपके विचार
में इसके लिए कौनसे कारक जिम्मेदार हैं?
18-जीवन सिंहः इसका मुख्य कारक
है कवि में आत्मविस्तार और आत्मसंघर्ष की निरंतर
कमी आते जाना। लक्ष्य का सीमित होना और उसे तुरंत पा लेने की लालसा। यश और कैरियर की
सीमाओं से आगे न निकल पाना। आवारा पूंजी के दर्शन की गिरफ्त
में जाने-अनजाने रहना। अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण न कर पाना। संघर्ष के मूल प्रश्न
ही नहीं होते बल्कि उनसे जुडा आचरण प्रश्नों से कम
महत्त्व नहीं रखता।
19- महेश चंद्र पुनेठाः युवा
कवियों में अपनी आलोचना सुनने का धैर्य चुकता ही
जा रहा है। कवि अपनी प्रशंसा सुनने को बेताब है। जल्दी से जल्दी प्रसिद्धि पा लेना चाहता है।
येनकेन प्रकारेण पुरस्कृत और सम्मानित हो जाना चाहता है।
यह प्रवृत्ति आज के कवि में क्यों हावी होती जा रही है?
19-जीवन सिंहः मध्य वर्ग का
निम्न मेहनतकश वर्ग की जिन्दगी के अनुभवों से लगातार
कटते और दूर होते जाना और अपने ही एक मिथ्या क्रांतिकारी संसार में हवाई किले बनाना। यह
मध्यवर्गीय बीमारी है। इससे मुक्ति तभी सम्भव है जब उसके
जीवन के सैद्धांतिक-विचारधारात्मक सरोकार ही नहीं वरन व्यावहारिक जीवन में भी वह निम्न-मेहनतकश
वर्ग से स्वयं को सम्बद्ध रखे। इससे उसके जीवनानुभव
भी समृद्ध होंगे और उसका व्यक्तित्त्व-निखार भी होगा। फिर उसकी कला का तेज ही कुछ अलग तरह का
होगा। उसमें धैर्य भी आ जायगा और प्रसिद्धी, पुरस्कार
एवं सम्मान पाने की लालसा भी कम हो जायेगी। इसका उदाहरण हमें निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध
और केदार नाथ अग्रवाल के जीवन व्यवहार
में मिलता है। इनके जीवन व्यवहार से हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। ये कवि ही नहीं थे वरन
इन्होने एक समृद्ध कवि जीवन भी जिया था। इसीसे इनकी कविता
में महत्ता और उदात्तता का प्रस्फुटन हुआ।
20- महेश चंद्र पुनेठाः वरिष्ठ
कवि राजेश जोशी युवा कविता में सामाजिक सरोकारों
की कमी देखते हैं। युवा कवियों की राजनीतिक दृष्टि साफ नहीं है। एक खास तरह का एरोगेन्स है।
क्या आप भी कुछ ऐसा महसूस करते हैं?
20-जीवन सिंहः राजेश जोशी के सोच
से मेरी सहमति है यद्यपि यह बात मध्यवर्ग तक सीमित रहने वाले कवियों के लिए ही
ज्यादा सही है।
21- महेश चंद्र पुनेठाः आज
दूरस्थ जनपदों में अनेक युवा कवि बहुत महत्वपूर्ण
कविता लिख रहे हैं पर उन्हें लगातार उपेक्षा झेलनी पड़ रही है। उनकी रचनाशीलता का कहीं कोई
संज्ञान नहीं लिया जा रहा है। अधिकांश संपादकों और आलोचकों
की नजर महानगरों और साहित्य के केंद्रों से बाहर नहीं जाती है। क्या आपको भी ऐसा लगता है? ऐसे में
उन्हें क्या करना चाहिए?
21-जीवन सिंहः उपेक्षा की शिकायत
दूरस्थ जनपदों में रहने वाले और लोक-स्वर
की कविता लिखने वाले कवियों को नहीं करनी चाहिए क्योंकि जिनसे वे अपेक्षा लगाये हुए हैं, जानना
चाहिए कि उनके प्रतिमानों पर उनकी कविता खरी साबित नहीं
होती। यदि वे उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर सकते तो फिर उनको मध्यवर्गीय
चरित्र वाली कविता लिखनी चाहिए। एक जमाने में निराला की लोक-सरोकारों
वाली कविता को किसने मान्यता दी थी? और नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन
आदि की कम उपेक्षा नहीं हुई थी? आप यदि वर्चस्वी धारा से अलग चलने की कोशिश करेंगे तो इस
परिणाम को भोगने के लिए तैयार रहने की आदत डालनी होगी
और अपने अनुसार चलने का अपना रास्ता अलग से बनाना होगा। यही तो संघर्ष है ।
(महेश पुनेठा युवा कवि एवं आलोचक हैं। पिथौरा गढ़ में रहते हुए शिक्षण कार्य से जुड़े हैं। इनका एक कविता संग्रह 'भय अतल में' आ चुका है जिसे पाठकों का अपार स्नेह मिला है।) मोबाईल - 09411707470
ई-मेल: punetha.mahesh@gmail.com
(जीवन सिंह वरिष्ठ आलोचक हैं।) संपर्क- मोबाईल - 09785010072 |
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
अच्छी चर्चा है . समकालीन प्रवृत्तियाँ अब धीरे धीरे क़ेटेगराईज़ होती जा रही हैं . ऐसी चर्चाएं होती रहें तो हम अपनी आवाज़ को परख पहचान कर उसे और आगे ले जा सकते हैं . जीवन सिंह युवा कविता को ध्यान से पढ़ रहे हैं .....युवाओं का सौभाग्य है . वर्ना कच्चे अनगढ़ शिल्प् की तर्फ कोई तवज्जोह नहीं देता. महान आचार्य केवल *परफेक्ट क्रीम * खाने के आदी हो गए हैं .
जवाब देंहटाएंएक संशोधन . निर्मला पुतुल 10 वर्ष पहले केलंग घूमने आई थीं . उस ने बताया था बिटिय़ा मुर्मू एक स्त्री का नाम है . शायद एक लोकप्रिय कवि या थियेटर एक्टिविस्ट . . बिटिया उस का नाम है और मुर्मू उस का टाईटल . वो कविता निर्मला ने उसे समर्पित की है . बेटी को नहीं . निरला की कविताओं पर खुद कवि से विस्तृत चर्चा के दौरान यह तथ्य सामने आया था और हम खूब हँसे थे . क्यों कि मैं भी मुर्मू उस की बिटिया का नाम समझ रहा था . अब कुछ यादाश्त भी कम हो रही है , महेश भाई आप कंफर्म कर लें . मेरे पास अभी निर्मला का फोन नम्बर नहीं है
युवा कविता को समझने की एक पगडण्डी सुझाती है यह बातचीत ..(पगडण्डी इस लिए की लोक-कविता को समझने के लिए सपाट राजपथ की नहीं पगडण्डी की जरुरत होती है.)
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया, व्यापक, सहज साक्षात्कार...आपनी कविता को वर्गीकृत करने का "टूल"...कविता के तीन वर्ग बताकर डॉ। सिंह ने किसी वर्ग को खारिज नहीं किया...यद्यपि तृतीय को उन्होने अधिक पसंद किया..।
जवाब देंहटाएंईमानदारी से कहूँ तो दूसरे वर्ग की कविता लिखना हम निम्न-मध्य-मध्यवर्गीय कवियों की सीमा/बाध्यता है...यदि कंबल ओढ़कर चाय सुड़कता कवि सर्दी से मरते लोगों पर कविता लिखे तो वह स्वयं की दृष्टि से गिर जाता है...मुझे लगता है कि तसलीमा की पीड़ा व्यक्त करने का अधिकार उसे ही है, अनुज लुगुन ही आदिवासी समाज की व्यथा व्यक्त करने का अधिकारी है...हमारा कर्तव्य है उस पीड़ा को महसूस कर सच्ची सहानुभूति रखने का(दर्शाने का नही)। हाँ जब कभी हमारी साझा अनुभूतियाँ हों सरोकार हों , तो अलग बात है....क्या मेरा सोच सही है या इसे बदलने की जरूरत है?
बहुत ही बढ़िया, व्यापक, सहज साक्षात्कार...आपनी कविता को वर्गीकृत करने का "टूल"...कविता के तीन वर्ग बताकर डॉ। सिंह ने किसी वर्ग को खारिज नहीं किया...यद्यपि तृतीय को उन्होने अधिक पसंद किया..।
जवाब देंहटाएंईमानदारी से कहूँ तो दूसरे वर्ग की कविता लिखना हम निम्न-मध्य-मध्यवर्गीय कवियों की सीमा/बाध्यता है...यदि कंबल ओढ़कर चाय सुड़कता कवि सर्दी से मरते लोगों पर कविता लिखे तो वह स्वयं की दृष्टि से गिर जाता है...मुझे लगता है कि तसलीमा की पीड़ा व्यक्त करने का अधिकार उसे ही है, अनुज लुगुन ही आदिवासी समाज की व्यथा व्यक्त करने का अधिकारी है...हमारा कर्तव्य है उस पीड़ा को महसूस कर सच्ची सहानुभूति रखने का(दर्शाने का नही)। हाँ जब कभी हमारी साझा अनुभूतियाँ हों सरोकार हों , तो अलग बात है....क्या मेरा सोच सही है या इसे बदलने की जरूरत है?
पद्मनाभ गौतम
महेश पुनेठा स्वयं सशक्त आलोचक हैं .जीवन सिंह जी जैसे आलोचक से बात करने से पूर्व उन्होंने स्वयं कविता के वर्तमान को आत्मसात किया है .इस वार्तालाप का लाभ साहित्य के हर सहृदय पाठक को होगा .लेखकों की अंतर्दृष्टि को परिमार्जित करने में इस वार्तालाप की भूमिका यक़ीनन अर्थपूर्ण है .पुनेठा भाई और जीवन सिंह जी दोनों ही वधाई के पात्र हैं जिन्होंने कविता के वर्तमान और भविष्य को सामाजिक दृष्टि से समझने की कोशिश की है .इस कोशिश को सलाम .
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