अमीर चंद वैश्य
करुणामूलक सात्विक क्रोध की कविताएँ
अमीर जी हर महीने एक संग्रह पर पहली बार के लिए विशेष तौर पर समीक्षा लिख रहे हैं। इस कड़ी में आप अशोक कुमार तिवारी, नित्यानन्द गायेन और सौरभ राय पर अमीर जी की समीक्षाएं पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में इस बार प्रस्तुत है शंभू यादव के दखल प्रकाशन से अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘एक नया आख्यान’ पर अमीर जी की समीक्षा।
आजकल हिन्दी-काव्य-संसार में कई पीढ़ियों के अनेकों कवि सर्जना-सलग्न हैं। पहली पीढ़ी वरिष्ठ कवियों की है, जो वयोवृद्ध हैं। दूसरी पीढ़ी कनिष्ठ कवियों की हैं, जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान अर्जित कर ली है। और तीसरी पीढी उन विपुल कवियों की है, जिनकी अवस्था लगभग बीस-बाईस से चालीस-बयालीस वर्ष की है। इस पीढी के कुछ कवि तो अपनी पहचान बना चुके हैं। यथा- एकांत श्रीवास्तव, अष्टभुजा शुक्ला आदि. और अनेकों युवा कवि अपनी-अपनी पहचान के लिए निरंतर रचनाएं रच रहे हैं. यथा- सुरेश सेन निशांत, केशव तिवारी, संतोष कुमार चतुर्वेदी आदि।
लेकिन कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो कविताएँ तो बीसियों सालों से लिख रहे हैं. लेकिन उनके संकलन प्रकाश में नहीं आए हैं। हाँ, ऐसे किसी-किसी कवि का पहला संकलन प्रकाशित भी हो गया हैं। ऐसे एक कवि हैं श्रीयुत शम्भु यादव। 11 मार्च, सन 1965 को बड़कौदा ग्राम में जन्मे शम्भु यादव का पहला संकलन ‘नया एक आख्यान’ सन 2013 में प्रकाश में आया है। हरियाणा राज्य के जिले महेंद्रगढ़ के मूल निवासी शम्भु सम्प्रति दिल्ली-वासी हैं। लगभग 20-22 वर्षों से रचनाएं रच रहे हैं। पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा रहे हैं. ब्लॉगस पर भी उनकी कविताएँ देखी-पढ़ी जाती हैं।
तीनों कोटियों के कवियों में अधिकतर कवि ऐसे हैं, जो पद-पुरस्कार और यश के लिए कोरे कागज़ कविताओं से भर रहे हैं। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए नेपथ्य में दुरभिसंधियाँ बनाई जाती हैं। परिणाम में अच्छा सामने आता है। कवि को उसके दूसरे संकलन पर ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हो जाता है। वयोवृद्ध लेखक\कवि टापते रह जाते हैं। ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ काव्य-संकलन मेरी बात की पुष्टि का सबूत है। एक समय था, जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने आलोचना-कर्म से ‘अध्यात्म’ शब्द के बहिष्कार की बात निर्भीक भाव से कही थी। लेकिन आज का आलोचक ‘अशोक बाजपेयी की कविता के स्वराज्य का आध्यात्मिक पक्ष’ देख-परख रहे हैं। (दे.- जनपथ, जुलाई 2012, प्र. 47-52)
केदार नाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि सत्ता की सीकरी से कवियों के मधुर सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं। वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल कविताओं में शाब्दिक क्रीडा और चमत्कार का समावेश अवश्य करते हैं। उनकी कविताओं की तुलना में शम्भु बादल की कविताएँ अधिक लयात्मक और प्रभावपूर्ण प्रतीत होती हैं। कुँवर नारायण ‘हाशिए का गवाह’ में एक मात्र ‘नट’ को पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं।
कुछ कवि ऐसे भी हैं, जिनकी कविताएँ गद्यात्मकता से बोझिल मालूम होती हैं. लम्बे-लम्बे वाक्य कविता को अपठनीय बना देते हैं ऐसे कवियों में कुमार अम्बुज और बद्रीनारायण के नाम अग्रगण्य हैं।
लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो निराला-केदार नाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध की संघर्षशील लोकधर्मी कविता-धारा को निरंतर प्रवहित कर रहे हैं ऐसे कवियों की सर्जना की धार व्यवस्थ-विरोधी होती हैं। जनपक्षधर होती है। वरिष्ठ कवि विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति, शम्भु बादल ऐसे ही कवि हैं। ‘कृति ओर’ के माध्यम से लोकधर्मी युवा कवियों को प्रकाश में निरंतर लाया जा रहा है। शम्भु यादव भी ऐसे ही कवि हैं, जो अपने अतीत वर्तमान और भविष्य को वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। उनका संकलन ‘नया एक आख्यान’ इस वैशिष्ट्य का प्रमाण है।
उपर्युक्त संकलन की कविताएँ अवधानपूर्वक पढ़ने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शम्भु यादव का कवि व्यक्तित्व सात्विक क्रोध से सम्पन्न है, जिसके मूल में मानवीय करुणा है। अत: कवि ने अपने सामाजिक-राजनैतिक दुष्ट परिवेश की तीखी आलोचना की है और भविष्य के समाज की सुषमा का सपना भी देखा है।
संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार अनायास याद आने लगते हैं –
“रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहाँ हैं क्षणिक उत्तेजना है”
शम्भु यादव के संचित सात्विक क्रोध की झलक अमर्ष के रूप में पहली कविता ‘बिगड़ा आसपास’ में लक्षित हो रही है-
“यह कैसी गाद फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार
जहाँ भी पैर रखो, धंसते हैं
न इसमें पानी की तरलता
ठोसपन के कुछ सबूत भी नहीं
मायूस है संसार
यह कैसी फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार.” (प्र. 09)
हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण विशुद्ध रहे और साथ ही साथ हमारे मन भी निर्मल रहें। लेकिन क्रूर पूंजीवाद ने अपने लाभ-लोभ के लिए क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर को तो प्रदूषित किया ही है, साथ –ही-साथ समाज में चारों ओर बीहड़-बदबूदार गाद फैला दी है। यह गाद है क्या। यह है विश्व व्यापी भ्रष्टाचार; जिससे आम आदमी परम दुखी है। वह स्वतंत्र होने हुए भी परतन्त्र है। उसे अपना प्राप्य करने के लिए भी सफेदपोश नेताओं-दलालों-अधिकारियों और उनके लगुओं-भगुओं को लाचार हो कर रिश्वत देनी पड़ती है। रिश्वत के दुष्ट प्रचलन ने निरन्न-निर्वस्त्र-निरीह जनों को मायूसी से लाचार करती रहती है। दुष्यंत ने भी जन-जन की यह लाचारी व्यंग्य के लहजे में इस प्रकार व्यक्त की है-
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है
भ्रष्टाचार ही वह ‘कीचड़’ अथवा ’बीहड़ और बदबूदार’ गाद है, जिसके कारण आम आदमी लाचार है। संसार मायूस है। आज व्यवस्था के प्रत्येक बड़े-छोटे कार्यालय में सफेदपोश माननीय महान अधिकारी विराजमान हैं। ऐसे महानों के दान की चर्चा तो घर-घर होती है. लेकिन लूट की दौलत छिपी रहती है। भ्रष्टाचार ही सम्पन्नों को और अधिक सम्पन्न बना रहा है. विपन्नों को और अधिक विपन्न।
शम्भु यादव ने यह ज्वलंत यथार्थ का निरूपण आत्मीयता और व्यंग्यात्मकता से कई कविताओं में किया है। ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ में शम्भु ने कई वर्गों के सुख-दुःख का वर्णन किया है। कविता के अंत में गरीबों अर्थात किसानों-मजदूरों की लाचारी का आत्मीय वर्णन इस प्रकार किया है-
“थकाता रहा है शरीर को सुबह से शाम (तक)
गरीब मजदूर –किसान
परन्तु उसे मिला ही क्या
एक आना सुख
वो भी काई लगा
बाकी पांच आना दुःख।” (प्र. 28)
लेकिन कंजूसों-अमीरों पर सटीक व्यंग्य भी किया है-
“कंजूस को चवन्नी खोने का दुःख
साहूकार रंग वदले है बार-बार
कभी करता व्यापार
कभी दलाल कभी ठेकेदार
काइयां पाता है सुख ही सुख.”(प्र. 27)
कवि ने सुख-दुःख के और भी कई रूप अंकित किए हैं, जो सामाजिक विषमता से जन्मे हैं। लेकिन वर्तमान पीढी ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ का पुराना मुहावरा तुरन्त नहीं समझ सकती है।
‘नया ज़माना’ कविता में भी लक्ष्मीपतियों पर व्यंग्य-प्रहार किया गया है। लोक-मान्यता है कि दिवाली के दिन घर के द्वार खुले रखने चाहिए, जिससे लक्ष्मी जी घर में प्रवेश कर सकें। घर को प्रकाशमान रखना चाहिए। लेकिन होता क्या है-
“अब एक ज़माना है
लक्ष्मी कुछ ही घरों में कैद
कंप्यूटराइज्ड तालों में बंद इन घरों के द्वार
बाकि(बाकी ) अधिकतर को भी भ्रम नहीं
लक्ष्मी आ जाएगी उनके घर सेंत-मेंत.” (प्र.36).
वास्तविकता तो यही है कि लक्ष्मी धनकनों के ही घर में प्रवेश करती है। धनवान तो धन से और धन कमाता है। अपनी चालाकी से। हेराफेरी से। टैक्स की चोरी करके। लाचारों का शोषण करके। अधिकतम सूद-दर से।
वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के स्वामी इतने महत्वाकांक्षी हो गए हैं कि वे अब चन्द्र-लोक में ‘प्लाट्स’ बनाने का सपना देखने लगे हैं, जबकि चंद्रमा अंधेरी रात में मार्ग आलोकित करना चाहता है-
“महानगर महत्वोन्माद से पीड़ित है
.......... महानगर अटकल लगा रहा
चाँद का किसी तरह प्रत्यक्ष दोहन कर सके
खोजता जीवन के स्रोत चाँद पर
काट रहा है प्लाट्स ....”(प्र. 46)
आजकल दोहन खूब हो रहा है. किनका. प्राकृतिक सम्पदाओं का। खनन माफिया धनबल और बाहुबल से जल, जंगल, जमीन, रेत, कोयला, आदि का निरन्तर दोहन कर रहे हैं. मंत्रियो, नेताओं, बेईमान अधिकारियों को मोटी रकम दे कर। यदि कोई ईमानदार अधिकारी उन के रास्ते का पत्थर बनता है तो उसे किनारे लगवा देते हैं अथवा उनका काम तमाम कर देते हैं।
( चित्र- कवि शंभू यादव )
दुनिया को उम्मीद थी कि बीसवीं सदी में उसकी तस्वीर बदलेगी. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। सोवियत संघ का त्रासद विघटन हुआ। समाजवाद पर से लोगों का विश्वास उठ गया। शताव्दी के अंत से पूर्व संचार क्रांति अस्तित्व में आई। एक ध्रुवीय दुनिया होने के कारण अमरीका का वर्चस्व बढ़ने लगा। भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने भारत जैसे देश में पूंजी की जड़ें और मजबूत कर दीं पूंजीपति ’भाड़ में जाय दुनिया, हम बजाएं हरमुनिया’ को चरितार्थ करते हुए करोडपति से अरबपति बनने लगे. मध्यम वर्ग भी पैसे के पीछे दौड़ने-भागने लगा। ऐसी त्रासद दुनिया के कुछ भीषण वास्तविकताएं शम्भु यादव ने ‘बीसवीं सदी के अंत में अर्थात इस जहन्नुम में’ प्रत्यक्ष की हैं। एक अंश देखिए और कवि का आक्रोश समझिए-
“ ठगी सबसे बड़ा नियम बीसवीं सदी के अंत में
एक छलांग लगाओं पहुँचो पृथ्वी के उस छोर
जो मर्जी तरीका अपनाओ
बस एक ही इच्छा रहनी चाहिए सुप्रीम
जेब भर जाए गिन्नियों से
वापस छलांग, आ जाओ इस छोर
चाहो तो न आओ, वहीँ आनन्द मनाओ.’” (पृ. 43).
कवि का आक्रोश उचित है। 20वीं सदी के अंतिम दशक से आजतक धन की भूख निरंतर बढ़ती रही है। करोड़ों-अरबों के घोटाले उजागर हुए हैं। अमरीका में क्रूर पूंजी के विरुद्ध प्रदर्शन भी हुए हैं। अन्य देश में भी क्रूर व्यवस्था के खिलाफ जनशक्ति का प्रदर्शन हुआ है।
भारत जैसे विकासशील राष्ट्र ने लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा त्याग दी है। अमरीकी साम्राज्य की पूंजी का निवेश किया जा रहा है। भारत के जन-गण स्वयं को परतन्त्र समझ रहे हैं। लेकिन व्यवस्था मुक्ति का ‘दृश्य जारी है’ का अनुसरण कर रही है। अब उसने
‘खुद चित्रकारी छोड़
भाड़े का चित्रकार नियुक्त किया
चित्रकार का काम
चिड़ियों को मुक्त करना हर चित्र में
जारी है बेखटके
मुक्ति का यह दृश्य।” (पृ. 49).
आशय यह है कि अपना शासन चलाए रखने के लिए कोटि-कोटि अकिंचनों की गरीबी दूर करने के लिए व्यवस्था मुक्ति का नाटक करती रहती हैं। जब तक भारत में विदेशी पूंजी आती रहेगा, कुछ पूंजीपति घरानों में लक्ष्मी कैद रहेगी, बेईमान नौकरशाहों का वर्चस्व रहेगा, लोकतंत्र धनतंत्र रहेगा, तब तक भारत क अकिंचन जन मुक्ति का सच्चा बोध समझ ही नहीं पाएँगे।
शम्भु यादव वर्तमान भारत की जन-विरोधी व्यवस्था के दुष्ट चरित्र से भली भांति परिचित हैं और अमरीकी साम्राज्यवाद की कुटिल नीतियों से भी। अत: उन्होंने कई कविताओं में पूंजीवादी लोकतंत्र और अमरीकी युद्धनीति की तीखी आलोचना की है।
‘जय बोलो महात्मा गांधी की’ शीर्षक लम्बी कविता में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल से वर्तमान भारत की विसंगतियों और श्रमशील जानो के अभावों का निरूपण आत्मीय ढंग से करते हुई आज के भारत की वास्तविकता चलचित्र के रूप में प्रत्यक्ष की है। इस कविता में शीर्षक के नीचे भगत सिंह का यह कथन ( ) में उद्धृत किया है- ‘किन्तु उसके बाद जो भी होगा, वह भी लूट और स्वार्थ का राज होगा।’
आठ अंशों में विभक्त यह कविता पढने-समझने के बाद भगतसिंह कथन सत्य लगने लगता हैं। आजादी के बाद से राजनेताओं, पूंजीपतियों, उच्च अधिकारियों आदि ने लूट-मार का जो सिलसिला शुरू किया था, वह आज सर्वाधिक भयंकर और त्रासद रूप में दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचंद के प्रतिनिधि चरित्र होरी-धनिया-गोबर आज भी जस के तस हैं। कर्ज के बोझ से झुके हुए दुखी किसान आत्महत्या करने लगे हैं वे अपने अपने शरीर के अंग बेचकर ऋण-मुक्त होना चाहते हैं। अपनी जायज़ मांगों की पूर्ति के लिए वे प्रदर्शन भी करते हैं। कवि ने इस लम्बी कविता में ‘लोक’ की व्यथा और ‘तन्त्र’ की लूट का उल्लेख निर्भीक भाव से किया है। कुछ अंश पढ़िए और कवि का मूल मनोभाव समझिए।
सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद स्वदेश में क्या घटित हुआ, उसे समझिए-
“गाँधी टोपी पहन मंत्री ने ढोल पिटवाया
’अभी से जनता के काम होंगे’
जिलेदार का सैल्यूट खनका
फिरंगी पिंजड़े से आज़ाद चिड़िया हर्षित
मैना ने गाया मधुर गीत
खूंटे बंधी गाय रंभाई
गधा मस्ताया
होरी की आत्मा भी झूम गई
’हाँ, हम सब खुशहाल होंगे’.”(पृ. 84).
लेकिन होरी का सपना साकार नहीं हो सका, क्योंकि
“मंत्री रंगा सियार हुआ
बजवाया जो ढोल
खुल गई उसकी पोल
घूमता देश-विदेश
अपने लिए बनवाया बड़ा बाग़
बाग़ बीच ऊँची अटारी
जहां साथ उसके दमड़ी सेठ
शिकार को आया विदेशी व्यापारी
चारों ओर चौकस पहरेदारी.”(पृ. 85, 86)
विदेशी व्यापारियों की पूंजी आज के भारत में तो और अधिक फल-फूल रही है। यह विदेशी पूंजी अंग्रेजी भाषा उसकी अपसंस्कृति का वर्चस्व बढ़ा रही है। भारतीय जन अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति का महत्व भूलते जा रहे हैं। विशेष रूप से हिंदी जाति के लोग. कवि ने निर्भीक ढंग से बेधक भाषा में ‘आवारा पूंजी’ की आलोचना करते हुए नाना प्रकार के अभावों और ज्वलंत प्रश्नों से झुलसते रहनेवाले आज के भारत की चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है-
“अनेकों तिमिराच्छादित गड्ढे भारत में
दुर्गन्धित नदी-नाले
स्लम बस्तियां विस्तारित
पानी की चिर तलाश में पनिहारिन
कोसों बालू में जले हैं पैर
.....तपेदिक का झाला पहने फेफड़े
पाताल लोक में धंसी खाप पंचायतें
जनता में समता चाहने वालों के जातिवादी टोटके
भटकन और भटकन
लाल परचम की सलवटों में दबी
जनता की चाहत की उम्मीद
‘हम सब कब खुशहाल होंगे’.(पृ. 93).
मानवीय करुणा से उद्भूत सातिव्क क्रोध से संकलित यह लम्बी कविता कवि को शोषित जनों का पक्षधर सिद्ध करती हैं। सम्पूर्ण प्रबल भावावेग से अन्वित है। अतएव प्रभावपूर्ण है।
शम्भु यादव की यह लम्बी कविता यह सद्भावना व्यक्त करके समाप्त होती है-
“सब को रोटी मिले, मिले रोजगार
भूख से न दुखे जनता की आँतें
शोषण न हो किसी का.”(पृ.94)
यह पढ़ते हुए एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सद्भावना कैसे पूरी होगी। कवि ने इस कविता में कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन कुछ अन्य कविताओं में व्यवस्था-परिवर्तन की ओर संकेत अवश्य किए गे हैं। ’संहार’ शीर्षक कविता में खून पीनेवाल मच्छर के मृत शरीर के माध्यम से शोषकों के सचेत किया गया है। ऐसा संकेत पर्याप्त नहीं है। एक व्यक्ति का प्रतिरोध अकेले कंठ की पुकार सिद्ध होता है। फिलहाल तो ’निर्दयी तेंदुआ’ निरीह हिरन की जिजीविषा पर’ झपट पड़ता है। बार-बार। ‘नाटक के अंतिम अंश में’ कवि की सामूहिक प्रतिरोध का भी उल्लेख किया है-
“नाटक के इस अंतिम अंश में
मैं विचार रहा हूँ
सहस्र (सहस्रों) आशाओं की ताकत का एक सजीला वार
और
ध्वंस खलनायक की बहरूपिया अदाओ का.”(पृ. 83)
विश्व में अपनी दादागिरी का डंडा चलाने वाले ‘अमरीकी हुक्मरान’ के ‘जंग-अनुराग’ की तीखी आलोचना करते हुई ठीक कहा गया है-
“उनकी मनोभूमि में जंग से भुलोक का राज
जंग ही के बात तो किया जा सकता है दान-दक्षिणा का महाकाज
जंग उनके लिए(है) थकानहरणी स्टिमुलस डोज़”(पृ.81)
प्रसंगवश, शमशेर की प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अमन का राग’ याद आ रही है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय शान्ति के लिए वैश्विक सदभाव और संस्कृति दोनों व्यक्त किए गए हैं। लेकिन साम्राज्यवादी अमरीका कम ताकतवर मुल्कों पर आक्रमण करता रहता है, जिससे उसके स्वार्थ पूरे हो सकें। आज कोई भी समझदार राष्ट्र नहीं चाहता है कि क्यूबा जैसे समाजवादी देश पर अमरीका की गिद्ध दृष्टी पड़े. अत: शम्भु यादव अमरीका की कूटनीति की तीखी आलोचना करते हैं। ‘अंकल सैम का अपनापन’ में वह अमरीका के चालाक और दुष्ट चरित्र का उदघाटन व्यंग्य रूप में करते हैं।
भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आर्थिक निवेश से आर्थिक पराधीनता बढ़ रही है और किसानों को सर्वाधिक नुकसान हो रहा है। संकलन की कविता ‘आंशका’ के माध्यम से विदेशी चूहों की कुतर-कुतर से आर्थिक हानि की आंशका उत्पन्न हो गई है। इसीलिए कवि ने चिंता व्यक्त करते हुए ठीक लिखा है-
“समय के इस गहरे अंधियारे में
चिंता की बात है यह ‘कुतर–कुतर’
घर की बहुमूल्य चीज़ों को
कहीं कर न ले गपक हज़म।”(पृ.37)
संचार क्रांति ने दुनिया इतनी बदल दी है कि आजकल बच्चे अपने परिवेश-पर्यवेक्षण से तो कम सीखते हैं, लेकिन टी.वी. के माध्यम से बहुत अधिक जानते पहचानते हैं। कवि के अनुसार यह ‘बदलाव’ चिंताजनक है, क्योंकि आजकल के अबोध बालक-बालिकाएं टी.वी. सीरियल और विज्ञापनों की गिरफ़्त में आ चुके हैं। अत: उन्हें नहीं ज्ञात हो पाता है कि
“आसपास कौन से पेड़ लगे हैं
किसी पक्षी की आवाज़ सुन
उसे पहचानने की चाह नहीं (है)।”
वर्तमान विषमता के त्रासद दौर में असमानता की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि
“दुल्हन की एक जूती की कीमत इतनी है कि
भारत देश के सौ गरीब
जीवन भर के लिए
अपने खान-पान का जुगाड़ कर लें.”(पृ. 75)
आजकल के पूंजीपतियों और अन्य धन-लोलुपों ने जल-जंगल-जमीन का इतना दोहन किया है कि प्राकृतिक परिवेश मनुष्य के प्रतिकूल हो गया है. उत्तराखण्ड के भयंकर प्रलय काण्ड ने यह वास्तविकता उजागर कर दी है। शम्भु यादव भी प्राक्रतिक परिवेश के चिंतातुर हैं। उनका ‘संकल्प’ है कि चिड़ियों के नीड़ों की रक्षा होती रहे और इसीलिए ‘हरे-भरे दरख्तों को बचाकर रख जाए।’(पृ. 78) और प्रत्येक ‘चिड़िया’ पानी पीने के लिए न तरसे, क्योंकि पूंजी ने ‘पानी’ को बोतलों में कैद कर दिया है। प्यासी चिड़िया अब अस्तित्व से संघर्ष कर रही है। इसीलिए
‘वह नज़र मार रही है
बंद पानी की बोतल के कमजोर हिस्सों पर
वह तलाश में उचित समय की
वह इकट्ठा करना चाहती है बहुत साथी
एक साथ साधा जा सके निशाना.”(पृ. 77).
यह है सामूहिक प्रतिरोध का संकल्प एक छोटी सी चिड़िया के माध्यम से। दुष्यंत कुमार ने भी ऐसा आशय अभिव्यक्त किया है-
परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं,
हवा में सनसनी घोले हुए हैं।
भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के उत्तर आधुनिक के क्रूर दौर में पूंजी का वर्चस्व और उसकी चमक तो और अधिक चमत्कृत कर रही है। महानगरों में तो सबसे से अधिक. नगरों में कुछ कम। ग्रामों में भी झिलमिला रही है। महानगरों में तो संपन्न जन गगनचुम्बी भवनों के मालों में रहते हैं। शान से। अपने पड़ोसियों से लगभग अपरिचित। ऐसे भव्य भवन कैसे बनते हैं। इस प्रश्न का उत्तर कवि ने ‘यहाँ दसवें माले पर मेरा घर है’ में लिखा है-
यह कोई बस्ती नहीं है
यह कोई मोहल्ला नहीं है
यह मल्टी स्टोरी एयरकंडीशन अपार्टमेंट्स हैं
सुना है पहले इस जमीन बसी
झुग्गियों में रहते थे जो
अब महानगर से बाहर, विस्थापित
और यह भी सुना है पहले जितने बाशिन्दे थे यहाँ
उसका (उनके) चौथाई ही नए बाशिन्दें (हैं).”(पृ.82)
शोषण की बुनियाद पर खडी इस दुखद व्यवस्था में आम आदमी परेशान हैं। संत्रस्त है। उसे आशंका सताती रहती है कि उस के अभावग्रस्त जीवन में कहीं भी कुछ भी दुर्घटित हो सकता है. ऐसी ही वैयक्तिक मनोदशा कवि ने ‘खौफज़दा मैं’ में इस प्रकार की है-
“खौफजदा मैं
आजकल अपने में ही बंद हूँ
टटोल रहा हूँ अपने उन मजबूत शब्दों को, जिसमें
भाई-भतीजावादी तंत्र के खिलाफ़
संघर्ष की बुलंद आवाज़
जीवन की हेठी जहालत में
कम से कम ‘संघर्ष की बुलंद आवाज़’ वाले शब्द तो बच जाएँ।”(पृ.62)
इस छोटी सी कविता के वाचक “मैं” में वैसे ही खौफ़ की झलक है, जिसका विस्तृत वर्णन मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ की फैंटेसी में किया हैं।
आचार्य शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में कविता में ‘चमत्कारवाद’ और माननीयों की अनावश्यक प्रशंसा दोने की निंदा की है। उनके अनुसार मनुष्य ‘लोकबद्ध’ प्राणी है। अत: कविता को भी लोकनिष्ठ होना चाहिए। शम्भु यादव की कविताएँ शुक्ल जी के प्रतिमानों का सम्मान करती हैं। वह ‘कविता में जादू’ का अस्तित्त्व अस्वीकारते हुए ‘चमत्कारवाद’ का निषेध करते हैं। उनकी सजग दृष्टि पसीना बहानेवाले लोगों की जीवंत क्रियाओं पर केन्द्रित होती है। अनायास। अपने स्वाभाविक रूप में। वहीँ से उन्हें प्रतिरोध का बल प्राप्त होता है। ‘कवित में जादू और सजग मैं’ में वह अपनी ठीक जीवन-दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-
“पढ़ते-सोचते सजग हुआ जब मैं, पाया
गुजर रहा हम एक लुहार बस्ती से
चिलचिलाती धूप
गर्मी का भीषण प्रकोप
तेज साँसों की धौंकनी
भभकी हैं भट्ठी की लपटें
जीवन के काम आने लायक आकर रूप ग्रहण करता सुर्ख लोहा
खिचड़ी ढाढी वाला सचेत बोलता है- ‘घन मार घन’.”(पृ.64)
ऐसी कविताओं का आकर्षक रूप निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ जैसी प्रसिद्ध कविता के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, विजेंद्र जैसे कवियों के काव्य में परिलक्षित होता है। अग्रवाल जी की एक कविता ‘एक हथौड़ा वाला और हुआ’ अनायास याद आ रही है. विजेंद्र की चरित्र प्रधान कविता ‘अल्लादी शिल्पी है’ भी. विजेंद्र तो श्रमशील कृषक और श्रमिक को अपनी कविता का नायक मानते हैं। वह श्रम-सौन्दर्य के समर्थ स्रष्टा हैं। शम्भु यादव भी मानते हैं कि
‘यही रहे गाथा के केन्द्र में भी’.(पृ.65)
‘यही’ अर्थात कारखाने में सक्रिय श्रमिक. क्योकि
“फैक्टरी में
गतिशील गरारी से रगड़ता है जब बर्तन
बिखरता हवा में बदबूदार काला जहर
श्रमिक के फेफड़ों पर ढहता कहर
.........याद रखा जाए कि
इतिहास में इसी के हिस्से आया है
सब से ज्यादा विषवमन
यही रहे गाथा के केंद्र में भी।”
समीक्ष्य संकलन में एक श्रेष्ठ कविता है : ‘बीरबानी’, जिसमें कवि ने हरियाणवी गाँव की श्रमशील गृहिणी की दैनिक सक्रियता का वर्णन बांगरू बोली के अनेक शब्दों से अन्वित आधुनिक हिन्दी से समृद्ध किया है। कविता का स्थापत्य कलात्मक है। सम्पूर्ण कविता की भाषिक सरंचना में स्थानीय वोली के अनेक शब्दों- तुड़े, थाण, कूड़ी, चूची, चरड़-चरड़, गोटेवाली लुगड़ी, धणी, छाय, गंठी, लावणी, बांकली, गुड़धाणी, भरौटा, साथ हाथ उन्डें कुएं, हारे, टाबर, मौटियार का सार्थक प्रयोग करके कवि ने अपनी विशेष पहचान प्रत्यक्ष की है। इन शब्दों और पदों की अर्थ सम्पूर्ण कविता अवधान पूर्वक पढने के बाद समझ में आते हैं. इस कविता का अंश पदिये और समझिए-
‘टाबरों को थपेड़
वह काजल लगाती
भीतरवाले कोठे में लेटी है
मौटियार के बगल
चुड़ियों की खन-खन
बस-बस
अब वह सो जाना चाहती है
दो घड़ी के लिए।’(पृ.11)
यह कवितांश वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ भी अभिव्यक्त कर रहा है। दाम्पत्य जीवन का स्वाभाविक अनुराग. ‘टाबरों’ का अर्थ है बच्चों को। ‘मौटियार’ का अर्थ है ‘पति अथवा भरतार।
शम्भु यादव अपने विवेक से पुरातन स्वार्थी मूल्यों का तिरस्कार करते हैं। उन्हें अपने ‘पिता की सीख’ स्वीकार नहीं है कि
‘सच बड़ा पेटखोर ही बेटा!
झूठ के व्यापार में हाथ आजमाना.’(पृ.12)
यह कविता पढ़ते हुए प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ याद आने लगती है. ‘पृथ्वी, मेरी माँ और भूकम्प’ के अंत में कवि सोचता है कि
“इस देश में करोड़ों लागों के अनेक विश्वास
और अनेक प्रभुत्वशाली अंधविश्वास
कुछ अनायास बने हैं
कुछ को अपनाया गया है सोच-समझ
कुछ का तो धंधा ही जोर पकड़ें है
अंधविश्वासों के बैनर तले
क्या अंधविश्वास फैलाना हिस्सा है सत्ता की सोच का?”(पृ.15)
शम्भु यादव का प्रश्न तर्कसंगत है। जीवन-जगत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि से देखना-समझना अनिवार्य है। सम्यक ज्ञान की धार से आम लोगों के बंधन कटते हैं।
भारतीय भाववादी दर्शन की यह अवधारणा कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है। व्यक्ति अपने जीवन में पूर्व-जन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगता है। यदि कोई गरीब है तो पूर्व जन्म के दुष्कर्मों के कारण। अत: वह भाग्यवादी हो जाता है। सत्ता-व्यवस्था इस अंध-विश्वास का लाभ उठाती रहती है। लेकिन अब विचार बदल गए हैं। अब यह माना जाता है कि गरीबी-अशिक्षा-अस्वास्थ्य शोषक व्यवस्था के कारण हैं। भाग्य के दुष्परिणाम नहीं।
आज़ादी के बाद जो पूँजीवाद लोकतंत्र की व्यवस्था आई, उसने विषमता को बढ़ाया ही है। घटाया नहीं है। इस व्यवस्था के ‘जाल’ में प्रत्येक व्यक्ति लाचार है। इसीलिए शम्भु यादव ने लिखा है-
“अभी मेरे मुक्त होने का
इन्तजार मत करो माँ
अभी तो इनके रंग में रंगा बन्दा मैं
कैंडल लाइट डिनर में सजा
जलता मोम गलता (हूँ).”(पृ.17)
आजकल यह ‘जाल’ ‘देश में आर्थिक सुधार और विश्व बैंक के कर्ज’ के कारण जी का जंजाल बन गया है. ‘कर्ज’ के लिए पांच सितारा होटल में ‘बैठक’ आयोजित की जाती है और अधिकारियों के लिए शानदार कॉन्टिनेंटल भोजन के साथ ‘आयातित विदेशी शराब का प्रबंध भी’ किया जाता है.(पृ.22)
कवि को अपना ‘समय’ ‘क्रिकेट की गेंद सा’ प्रतीत होता है, जिसे मनुष्य निरन्तर खेल रहा है। वह कभी महानायक के रूप में चौके-छक्के लगाता है। और कभी ‘बोल्ड’ हो जाता है। समय का महाचक्कर कब तक चलता रहेगा। शायद निरन्तर. लेकिन प्रश्न यह है कि इस खेल से अर्थात पूंजी के दुष्कृत्यों से आम आदमी को राहत कैसे प्राप्त होगी। संवेदनशील कवि महसूसता है कि ‘दुखिया दास कबीर’ के समान तर्कशील होकर कुछ सोचना होगा। और जोखिम भी मोल लेना होगा। लोकतंत्र में भी माननीयों को अपनी आलोचना अरुचिकर लगती है। तर्कशील कवि को लगता है कि
‘सब तरफ ‘घपला’ शब्द सुनने को आता है
फासिस्ट सोच का कायल उसका पड़ोसी डाक्टर
क्यों हुई उसे इसकी जरुरत!?
संसद की सीढ़ियों पर चढ़ते सांसद की गलीज़ नैतिकता
पिशाचनी-पूंजी के विकराल मुँह में ज़ज्ब इतना बड़ा लोकतंत्र!”(पृ.24)
कवि की यह प्रश्नवाचक मुद्रा उनके बेचैन मन की साक्षी है। कहावत मशहूर है कि सबसे भले हैं वे मूढ़, जिन्है व्यापै न जगत गति. लेकिन संवेदनशील कवि मूढ़ नहीं है, अपितु तर्कशील है. तभी तो वह उस दुखिया दस कबीर को याद करता है, जो गागता है और रोता है. अपने दुःख के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक दुःख-निवारण के लिए. कबीर का निर्भीक कथन है-
कबीरा सोई पीर है, जो जानै परपीर।
जो परपीर न जानही, सो काफ़िर बेपीर।।
शम्भु यादव भी ‘परपीर’ आत्मसात करके अपनी संवेदना निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। ‘अभिलाषा’ में सड़क-किनारे चूल्हा जलाने का प्रयास कर रही है। लक्कड़ गीला है. और वह परेशान हो रही है, क्योंकि
‘देखो तो
उगला है धुआं ही धुआं
गूंज रही है फूंकनी की आवाज़
फेफड़ों में धांस.”(पृ.35)
‘एक ताजा वाकया ‘ में दुर्बल कायावाली अनाम स्त्री के परिवार को एक सम्पन्न परिवार ‘हिकारत भरी दृष्टि भी’ नहीं डालता है. लेकिन उसके बाद अचानक घटना घटी-
“और जब वह आदमी
अपनी छोटी सी गाड़ी के पास पहुंचा
एक तेज रफ़्तार बड़ी आगे निकली
उस आदमी को पीछे धकेल
बड़ी गाड़ी का ऊँचा बम्पर
उस आदमी की आँखों में खटक गया.”(पृ.39)
‘एक ताजा वाकया’ से स्पष्ट व्यक्त हो रहा है कि इस विषमतापूर्ण समाज में प्रत्येक ‘बड़ी गाडीवाला’ ‘छोटी गाड़ीवाले’ की उपेक्षा करता है। उसे देखता तक नहीं है. छोटी गाड़ीवाला पैदल चलनेवाला विपन्न परिवारों की उपेक्षा करता है। यह सामजिक व्यवहार वर्गीय दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है, जो कवि की जीवन-दृष्टि है। साहिर लुधियानवी ने यही कहा है –
ले दे के अपने पास फकत इक नज़र तो है,
क्यों देखें जिन्दगी को किसी नज़र से हम।
शम्भु यादव भी अपनी निजी विवेक दृष्टि से समाज के निम्न वर्ग, मध्यमवर्ग, उच्चवर्ग को देखते-परखते हैं। अर्थ की प्रधानता से पारिवारिक संबंधों का विश्लेषण करते हैं। मानवीय सभ्यता के इतिहास के साथ-साथ अपने देश की ऐतिहासिक घटनाओं की परख करते हैं। लोलुप राजनैतिक सत्ता और धार्मिक सत्ता के स्वार्थी गठबंधन की आलोचना करते हैं। साम्राज्यवाद का दुष्चक्र भी समझते हैं। फिलिस्तीन की भी चिंता करते हैं।
‘दांव’ शीर्षक कविता में अपनी माँ के देहांत के बाद दोनों भाई मन-ही-मन जो सोचते हैं, वह अर्थ प्रधान युग के अनुरूप है. वे रात में एक-दूसरे के ‘दिल’ की टोह लेते हैं-
“वो भी कम से कम संवाद में
कैसे बाटने हैं खेत
कौन सा कोठा किसका होगा
छप्पर पर होगा किस का अधिकार
घाघ दिमाग में लालची दांव
प्रकट न हो बनाव
दोनों मानते हैं माँ के साथ ही
सिधार गया है गाँव से उनका सम्बन्ध” (पृ.48)
प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गाँव से शिक्षित और अर्ध शिक्षित युवकों का सम्बन्ध-विच्छेद अमंगलकारी सिद्ध हो रहा है। गाँव की पिछड़ी दशा में सार्थक सुधार तभी संभव होगा, जब दृष्टि-सम्पन्न शिक्षित युवक निर्भीक भाव से प्रगति के लिए समता-बंधुता-स्वतंत्रता की दिशा की ओर उसे प्रेरित करेंगे। जातिवाद और सम्प्रदायवाद की काट किसानों-मजदूरों की एकजुटता अनिवार्य है। अत: शम्भु यादव जन-गण से अपेक्षा करते हैं कि वह अन्याय का प्रतिरोध करे। लेकिन ऐसा कम हो रहा है, क्योंकि
‘वह अन्याय का प्रतिरोध करने में चूकने लगे हैं
निष्क्रियता का लिबादा पहन बैठ गए हैं
परन्तु हुआ कुछ ऐसा, वो
बच्चियों को गर्भ में ही
मारने के इंतजाम में शामिल हो गए.”(पृ.76)
मानव जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण की अनुकूलता अनिवार्य है। मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह अपने प्राकृतिक से अनुराग करे। उस की निरन्तर रक्षा करे. शम्भु यादव ने ऐसा ही शुभ संकल्प माँ की ‘बरसी’ में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“गूंजती है माँ की आवाज़
जीवनदायक जितनी भी चीज़ें प्रकृति में(हैं)
अदा हो उनका शुक्रिया
घर में बसी तुलसी को सहलाता
आज माँ की बरसी है.”(पृ.79)
संकलन की अंतिम कविता ‘नया एक आख्यान’ में शम्भु यादव ने ‘छायादार विशाल बरगद’ के प्रतीक के माध्यम से मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विकास का संक्षिप्त इतिहास संकेतित करके प्रतिरोध-भावना भी व्यक्त की है। ‘बरगद’ समाजवादी व्यवस्था का प्रतीक है। इस प्रतीक का सम्यक प्रयोग ‘अंधेरे में’ भी किया गया है। मानव-सभ्यता के प्रारम्भ में गण-व्यवस्था थी। भारत में भरत गण की प्रधानता थी। इसीलिए हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऐसा अभिमत डा. रामविलास शर्मा का है। यह भी माना जाता है कि प्रारम्भ में समतामूलक व्यवस्था थी. सम्पत्ति के कारण समाज समता से विषमता की ओर बढ़ने लगा। शम्भु यादव ने विशाल छायादार बरगद को समतामूलक सामजिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया है कि
“जहाँ बैठ हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग
राजनैतिक चेतनशीलता जन-जन को समझाते
मानव की कहानी में सौन्दर्य को (?) बढ़ाते।” (पृ.95)
लेकिन कालान्तर में सत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए उस विशाल बरगद पर ‘भूतनी का वास’ मान कर भ्रम फैलाने का कूट प्रयास किया. परिणामस्वरूप समाज में सत्ता के लिए ‘सन्धि’ और ‘विग्रह’ प्रारम्भ हो गया। उस बरगद और चबूतरे का अस्तित्व समाप्त हो गया। दोनों जमीन में धंस गए। अर्थात समाज में विषमतामूलक सत्ता का वर्चस्व कायम हो गया। शोषण का ‘दानव’ अपने प्रपंच के लावे से आम आदमी को झुलसाने लगा। वर्तमान काल की पूंजीवादी व्यवस्था भी ऐसी ही है। आज कल दुनिया में मनुज अथवा इंसान का नहीं अपितु दनुज अथवा क्रूर आदमी का वर्चस्व है। लेकिन कवि प्रतिरोध की भाषा में कहता है कि
कुछ उग्र नजरों के कारक रूप
आख्यान की व्याख्या की कलम तोड़ने की फ़िराक में हैं.”(पृ.96)
अर्थात कुछ ज्ञानी जन सभ्यता-संस्कृति की मिथ्या बातें समाप्त करके मानव-इतिहास का प्रगतिशील आख्यान लिखना चाहते हैं। हम जानते हैं कि समाज में पूर्ण समानता संभव नहीं है। तर्क दिया जाता है कि हाथ की अंगुलियाँ भी समान नहीं होती हैं. ठीक है. लेकिन मनुष्य के दोनों हाथों की अंगुलियाँ समुपात रूप में कुछ छोटी-बड़ी होती हैं. उनमें जमीन-आसमान का अन्तर नहीं होता है। वर्तमान समाज में तो जमीन-आसमान का फर्क है, जो सुषमा के लिए बाधक है। यह अन्तर जन-शक्ति ही मिटा सकती है. वह सक्रिय है. इसीलिए साहिर लुधियानवी ने कहा है-
माना कि इस जमीं को न गुलज़ार कर सके ,
कुछ खार कम तो कर गए, गुजरे जिधर से हम।
साराश यह है कि वर्गीय जीवन-दृष्टि से अपने समय, समाज और इतिहास को आलोचनात्मक ढंग से निरख-परख करके शम्भु यादव ने ‘नया एक आख्यान’ संकलन के माध्यम से उपर्युक्त प्रयास किया है। उनकी कविताओं में करुणामूलक सात्विक क्रोध एवं अमर्ष की अभिव्यक्ति व्यंग्य के रूप में हुई है। उनकी भाषिक संरचना में सहज बोधगम्य पदावली के साथ-साथ स्थनीय बोली और अंग्रेजी भाषा के सार्थक शब्दों का प्रयोग हुआ है। हाँ, कहीं-कहीं न्यून पदत्व दोष आ गया है। उस कमी की ओर, संकलन से उद्धृत अंशों में अभीष्ट क्रियापद ( ) में लिखकर किया गया है। दूसरी बात है कि बोल-चाल की हिंदी में ‘हजार’ शब्द ने तत्सम पर्यायवाची ‘सहस्र’ शब्द को प्रचलन से बाहर कर दिया है। शम्भु यादव ने ‘सहस्र का प्रयोग एक-दो बार किया है। बोल-चाल में सैकड़ों-हजारों-लाखों-करोड़ों बोला जाता है। अत: अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए ‘सहस्र’ के स्थान पर ‘हजारों’ पद का प्रयोग ही उचित है। संकलन की कविताओं में उस अमूर्तन का अभाव है, जो आधुनिकतावादी कवियों की रचनाओं में लक्षित होता है। वस्तुत: शम्भु यादव ने अपनी सम्यक जीवन-दृष्टि से कविताएँ रचकर स्वयं को निराला- केदारनाथ अग्रवाल- नागार्जुन- मुक्तिबोध- शील, विजेंद्र आदि लोकधर्मी कवियों की प्रमुख धारा से जोड़ा है। पूरी उम्मीद है कि वह और अधिक श्रेष्ठ कविताएँ रच कर अपने व्यक्तित्व का विकास निरन्तर करते रहेंगे। लेकिन संकलन में कुछ कविताएँ हैं जिनकी सरंचना कलात्मक नहीं है।
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
संपर्क
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08533968269
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकविता संग्रह हाथ में हो तो उसे पढ़ने का हुनर भी होना चाहिए. इस समीक्षा से इसे सीखा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंशंभू यादव की कविताओं पर एक जरूरी टीप. लेकिन कुछ अन्वाश्यक विवादों को जन्म देती हुई सी.
टीप के शुरू में यह कहा जाना पचता नहीं है कि संतोष चतुर्वेदी और केशव तिवारी ऐसे कवि हैं जो अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं. शंभू यादव को भी जिस श्रेणी में रखा है वह भी असहमति दर्ज कराने वाला है. दुश्चक्र में स्रष्टा पर लिखी गयी बात भी विवाद को जन्म देने जैसी लगी.
sameeksha shastreey paddhati par likhee gayee hai aur sundar hai. parantu kavi ke moolyankan par meri alochak mahoday se asahmati hai. unke vishay me yahee mat hai ki ek eemaandaar aur shaandaar dost hain. main ramakant roy ke kathan ke is hisse ke roop me apnee bhi aapatti darz karaanaa chahoonga.
जवाब देंहटाएं"टीप के शुरू में यह कहा जाना पचता नहीं है कि संतोष चतुर्वेदी और केशव तिवारी ऐसे कवि हैं जो अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं. शंभू यादव को भी जिस श्रेणी में रखा है वह भी असहमति दर्ज कराने वाला है."
शम्भू यादव की कवितायेँ जीवन, संघर्ष और उम्मीद की कवितायेँ हैं. समीक्षा में उनकी कविताओं पर काफी संतुलित ढंग से बात कही गयी है, लेकिन शुरुआत में ऐसे सामान्यीकरण किये गये हैं जो अनावश्यक और असंगत हैं.
जवाब देंहटाएंअमीर चंद जी ने बहुत सुंदर और सटीक समीक्षा की है | उनकी आदत है कि वे किसी भी पुस्तक को कई बार पढ़ने के बाद ही उस पर कुछ लिखते हैं | शम्भू भैया को बहुत -बहुत बधाई | अमीर चंद जी के प्रति सम्मान और पहलीबार के प्रति आभार प्रकट करता हूँ |
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
अच्छी समीक्षा ...बधाई मित्र शंभू को |
जवाब देंहटाएंसमीक्षा ठीक है, लेकिन कविताओं के साथ न्याय करते हुए भी कुछ अच्छे कवियों के साथ क्यों अन्याय करती है, इसका कारण समझ से बाहर है।... तुलनात्मक अध्ययन किस्म की समीक्षा पद्धति ने हिंदी साहित्य का कितना नुकसान किया है, इसका जिस दिन हिसाब होगा तो विश्वयुद्ध में मारे गए लोगों के बराबर कवियों की लाशें निकलेंगी... इससे जो समीक्षक बचेगा, वही रचेगा और अंतत: बचेगा आलोचना में...
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अनुपात-बोध खो देती है तो पूर्व-नियोजित और स्वेच्छा-जनित बन जाती है.
जवाब देंहटाएंशम्भू कि कविताओं पर गंभीरता से विचार हुआ, इसके लिए शम्भू को बधाई और वैश्य जी को धन्यवाद! लेकिन समीक्षक अगर खुद 'अमर्ष' जैसा शब्द लिखते हैं तो कवि को 'सहस्र' लिखने से मनाही क्यों?
जवाब देंहटाएंमित्रों की अनुपात-बोध वाली शिकायत से भी सहमत हूँ .