रतीनाथ योगेश्वर
आम आदमी की आज भी सबसे बड़ी जरूरत रोटी है. लेकिन इस पूँजीवादी व्यवस्था की साजिश देखिए कि अब ये रोटी भी उसकी पहुँच से दूर होने के कगार पर पहुँच गयी है. आखिर आम आदमी क्या करे? लेकिन यही आम आदमी जब अपने पर आ जाता है तब उसे रोक पाना नामुमकिन हो जाता है. रोटी का एक और चित्र ये है कि रोज सुबह-सुबह शहर की सडकों के किनारे मजदूर वर्ग रोटियाँ बनाना शुरु कर देता है, उसे दिन भर के हाड़तोड़ काम के लिए जाना होता है. रतिनाथ इसे देखते हैं और अपनी कविताओं में रोटी की इस जद्दोजहद को करीने से काव्यांकित करते हैं. तो आईए आज पहली बार पर पढ़ते हैं युवा कवि रतिनाथ की कविताएँ.
।। एक लालटेन की तरह थी माँ ।।
कहाँ गई अपनी वह टुटही लालटेन ?
दिया-बाती की पर्याय
साँझ ढले... सिर पर अचरा धरे
बालती बत्ती... साफ करती
चिमनी की कालिख
जो कल जम गई थी भीतर-भीतर
काटती बत्ती अर्ध-चन्द्राकार
भरती तेल ...रहती चूल्हे के आसपास
काँख में दबाये माचिस; हरदम तैयार
सेंकती- छोटे बच्चो की
सर्दी खाई छाती
अपनी गर्म खोपड़ी पर
कपडा़ धर धर....
साथ-साथ जाती बाहर
कभी घट जाये कोई घटना
हाथ में सिर तक उठी हुई हिलती थी
बूढ़ी आँखों को करती मदद
बहुत सालों बाद आये
दूर के रिश्तों के चेहरे पहचानने में-
”ओ! तो तू है रमजनमा का बरा लरिका“
गाय को दुहते समय-
छप्पर से लटकी टुकुर-टुकुर ताकती थी
सानी-भूसी देते बखत
बछड़े को चाटती थी....
वह अपनी टुटही लालटेन कहाँ गई ?
।। अधकपारी ।।
न जाने कैसे घुस जाता
जूतों में पानी
रेतीले पाँव हो जाते गीले
धूप गुनगुनी चिकोटी काट
दूर फुनगी पर नाचती....
हवा का एक तेज़ झोंका आता
पत्तों.....धूल का तेज़ बवंडर लिये
दरवाज़ों की साँकल हिलाता
सूनी ख़ामोश लम्बी
बहुत दूर तक गली में खो जाता
सीढि़याँ उतरते पाँव
दरवाज़े के पीछे खड़ी
बूढ़ी छड़ी दीवार से सिर टिका
सो जाती....
और खाँसी की आवाज़ के साथ
फिर सुबह हो जाती.....
दादी की अब एक ही निशानी
शालिग्राम की काली-सफ़ेद धारियों वाली
पत्थर के अंडे जैसी वह मूर्ति
पीतल की नन्हीं डिबिया में बंद
अम्मा की सफ़़ेद बालों वाली पसंद
सारे बर्तनों के बिकने के बावजूद
बचा रह गया एक काँसे का गिलास
जो उल्टा करने पर
मन्दिर के घन्टे जैसा लगता....।
।। रोटी-एक।।
बड़े-सबेरे जल उठा
काली ईंटों वाला चूल्हा
सिकने लगी रोटियाँ
खुले-आकाश के नीचे
नमक मिर्च
लहसुन औ धनिया
पिसकर आ गई रोटी पर
‘काम पर जाना है
पहूँचना है आट से पोहले
मूंसी काट लेगा मजूरी
लगा देगा अपसेन्ट’
अबेर हो जाई
जल्दी करा भाई
सात मील जाना है...
हिल रही है पीठ पर
गमछे में बंधी रोटी ।
।। रोटी-दो ।।
रोटी की घनात्विक शक्ति
कम कर दी है तुमने
रोटी हमारे कद से
दुगनी ऊँचाई की छत से
टेढी़ चिपक गई है
गैस के गुब्बारे की तरह
चूल्हे में आग है
आग पर तवा है
रोटी पक रही है
चिपक रही है छत से
हमारे बौने हाथ
रोटी तक नहीं पहुँच रहे हैं
पर मुझे मालूम है
रोटी कैसे मिलेगी
मैं तवे पर चढ़कर
रोटी पा लूंगा ..
आग ; बाँस के पिंजरे में
कैद नहीं होती।
सम्पर्क
-500 ई0डब्ल्यू0एस0
नीम सरायँ कालोनी,
नीम सरायँ कालोनी,
फेज-II, इलाहाबाद-211011
(उ0 प्र0)
मोबाइलः09616316140(उ0 प्र0)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आभारी हूँ ---"पहली बार" में प्रकाशित होकर बहुत भला लग रहा है, सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है की इन कविताओं के साथ वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की पेंटिंगें बहुत सुंदर हैं -----आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएं---रतीनाथ योगेश्वर
आग बांस के पिंजरे मे कैद नहीं होती से समाप्ति...अच्छी कविताएँ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद बंधू पद्मनाभ जी
हटाएंधन्यवाद दिव्या जी
हटाएंआभार सहित ----रतीनाथ योगेश्वर
मर्मस्पर्शी रचनायें हैं!! कवि को बधाई!! टटके बिंब और सटीक भाषा प्रभावित करती है...
जवाब देंहटाएंआपका भी धन्यवाद बन्धु
हटाएंsabhi kavitaen achchi lagi..badhai.
जवाब देंहटाएंअपर्णा मनोज जी
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
रतिनाथ जी आपकी रचनाएँ पढ़कर प्रसन्नता हुई। साथ ही आपके दर्शन पाकर। रतिनाथ जी कवि के साथ साथ नाटककार भी हैं। कारवां देहरादून की टीम आपकों याद करती है।
जवाब देंहटाएंविजय मधुर
विजय जी धन्यवाद]
हटाएंअपना मोबाइल नंबर दें
वार्ता करनी है
---रतीनाथ योगेश्वर
रतिनाथ जी आपकी रचनाएँ पढ़कर प्रसन्नता हुई। साथ ही आपके दर्शन पाकर। रतिनाथ जी कवि के साथ साथ नाटककार भी हैं। कारवां देहरादून की टीम आपकों याद करती है।
जवाब देंहटाएंविजय मधुर
बेहतरीन कवितायेँ , अधकपारी और रोटी सृंखला की दोनों रचनाएँ अधिक पसंद आई | कविवर को बधाई | संतोष जी की टिप्पणी और आदरणीय विजेन्द्र जी की पेंटिंग का अनोखा संगम ...बहुत सुंदर | आभार
जवाब देंहटाएंनित्यानंद गायेन
सादर
धन्यवाद नित्यानंद जी
हटाएंबेहतरीन कवितायेँ. नयी अनुभूतियाँ अद्भुत हैं - श्रीनिवास
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरतीनाथ योगेश्वर समकालीन हिंदी कविता के एक जोरदार कवि हैं . पहलीबार में उनकी कविताओं को प्रकाशित देखकर सुखद अनुभूति हुई बधाई - श्रीरंग
जवाब देंहटाएंएक आंचलिक मिठास लिए हुए, सीधी-सरल मनछूती कविताएँ-शैल अग्रवाल।
जवाब देंहटाएंदर्शन जांगर जी आभारी हूँ
जवाब देंहटाएं----रतीनाथ योगेश्वर
ठेठ आंचलिकता को वहन करती बहुत मार्मिक कविताएँ हैं .. मैं तवे पर चढ़कर .. तो भीतर तक कंपा देती है .. बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद लीना जी
हटाएं---रतीनाथ योगेश्वर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा कवितायें हैं . अन्दर तक हिला देती हैं.कामगार की रोटी, तवे पर चढ़ कर रोटी पाना... आग बांस के पिंजरे में कैद नही होती.. बहुत ज़बरदस्त है.ज़िंदगी बहुत दुरूह हो चली है और सरल , सहज चीज़ें, जज़्बात छूटने लगे हैं. लालटेन तो पुरानी स्मृतियों का खजाना है. एक नास्टेल्जिया रचती है. बाती को अर्धचन्द्राकार काटा जाना, सर तक ऊंचा करके देखना ..क्या बात है कवि बंधु, आपने तो अँधेरे से भरी उस दुनिया की रोशन किरचें यहाँ बिखेर दी हैं. इसके लिए बधाई छोटा शब्द है. सम्पादक संतोष चतुर्वेदी अपनी विधा में माहिर हैं.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद एवं आभार नवोदिता जी
हटाएं----रतीनाथ योगेश्वर
आपकी कविताएं पढ़ने का शयद पहली बार अवसर मिल रहा हॆ। आपकी इन कविताओं म्रें संवेदना को विभोर करने ऒर हिला देने की ताकत हॆ। बिम्ब ऒर भाषा पर आपकी पकड़ देखते ही बनती हॆ। लोक की ताकत से सम्पन्न ये कविताएं बहुत ही रचना-प्रेरक हॆं। सभी कविताएं सशक्त हॆं ।बधाई। रोटी-एक ऒर रोटी-दो के लिए विशेष बधाई। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंतवे पर चढ़कर रोटी पा लूँगा ....क्या बात है रतिनाथ जी ....सरकार का खाद्य सुरक्षा बिल जाए भाढ़ में ... दिल को छु लेने वाली कवितायेँ हैं ...बधाई ....पारखी संतोष जी भी बधाई के पात्र है ... नीलम शंकर
जवाब देंहटाएंआपकी कविताएं मन को छू लेती है और रेखांकन भी गजब के हैं। आज जनसत्ता में भी प्रकाशित हुए हैं। आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंरतीनाथ योगेश्वर की कविताओं का प्रशंसक रहा हूं. उनकी एक सीडी में कैद कविताएं मैंने कई बार सुनी हैं. वे कविताओं में जनजीवन का जैसा बिंब उकेरते हैं, वैसा हुनर बहुत कम कवियों को आता है. आप इन कविताओं को पढ़ेंगे तो लगेगा कि एक ऐसे जीवन का चित्र उभर का आ रहा है, जो सर्वथा उपेक्षित है. इस उपेक्षा के बाद भी उसमें असहनीय किस्म की सहिष्णुता और संतोष—भाव है. लोग अपनी दुरवस्था से इतना अनुकूलित हैं कि स्वयं तवे पर चढ़कर रोटी पाने का धैर्य रखते हैं. देखा जाए तो हमारे समाज की सचाई भी है. यहां धर्म, जाति, क्षेत्रीयता के ऐसे अनेक खाने हैं, जो व्यक्ति को आत्ममुग्धता के शिखर पर ले जाते हैं, जिनके पीछे वह अपनी रोजमर्रा के संघर्ष को भी बिसरा देता है. कवि के लिए जरूरी नहीं कि वह क्रांति और लाल सलाम के ही गीत गए. स्थितियों को ज्यों का ज्यों र्इमानदारी से परोस देना भी साहित्यकर्म के दायरे में आता है.
जवाब देंहटाएंमेरी ओर से कवि को ढेर सारी बधाई.
बेहतरीन कवितायें. टटके बिम्ब. दरअसल गाँव और गवईं जीवन इस तरह से हमारे अनुभव से गायब होता जा रहा है कि रतिनाथ जी की कवितायें एक चमत्कार की तरह लगती हैं. थोड़ा स्पेस में घुसकर समझा जा सकता है कि शीर्षक और समूची कविता में कड़ी कहाँ है. यह उनकी विशिष्टता कही जाएगी. आखिरी कविता में तवे पर चढ़कर रोटी पा लेने के साहस को देखना चाहिए. वह यानि कवि जलने को तैयार है. तवे पर खड़ा होना न जाने कितनी-कितनी व्यंजनाओं तक ले जा सकता है.
जवाब देंहटाएंरतिनाथ जी एक रेखांकनकार भी हैं. उनकी कविताओं में उसके असर को भी देखा जा सकता है.
Kavitayen vaastvik evam yatharthparak hain. Bimb etne jyada clear hain ki drishya aakhon ke samne chitrit ho uthte hain.vishesh roop se "Roti 1 aur Adhkapari " Roti-1 to mahsoos karati hai jaise ham Pachmarhi ke Bison Lodge ke samne maidan me rahne wale aadivaasiyon ke beech swayam upasthit hon. Badhai Ratinaath ji. "Ajay Kamavisdar Betul"
जवाब देंहटाएं.....बेहतरीन कविताएँ, माँ पर लिखी गई कविता स्मृतियों के झरोखों को खोलती है तो रोटी को लेकर लिखी गई दोनों कविताएँ पूँजीवादी व्यवस्था पर करारा तमाचा है !
जवाब देंहटाएंये पूँजीवादी लोग
बनाना और बेचना चाहते हैं -
मोबाइल , कंप्यूटर,कार ब्रांडेड कपड़े,महंगी ज्वैलरी ,
उन लोगों को
आजादी के इतने सालों बाद भी
जिनकी रोटी
छोटी होती जा रही है
और काम पहुँच से बाहर !
लाजवाब कवितायें...पढ़ती जा रही हूँ और बचपन को जीती जा रही हूँ..सारे दृश्य सजीव हो उठे हैं...घटित हुए हैं मेरे पास पड़ोस अपने घर में भी ..
जवाब देंहटाएंआग बांस के पिंजरे मे कैद नहीं होती ..अद्भुत लगा यहाँ...!
तवे पर चढ़कर रोटी पा लूँगा ....लाजबाब ...
रोंगटे सिहरने को मजबूर करती कवितायें...आज पहली बात आपकी कविता पढ़ रही हूँ और बस पढ़ती जा रही हूँ..बार-बार..कई बार...बधाई आपको बहुत-बहुत !
हिल रही है पीठ पर
जवाब देंहटाएंगमछे में बंधी रोटी...कितनी बारीकी से कवि की आँखे अपने आस पास होते हुए क्रिया कलाप को चिन्हित करती है..बधाई ..
बहुत बहुत आभार वसुंधरा जी /धन्यवाद --अच्छा लगा आपकी टिप्पड़ी पढ़कर ----मेरी रचनाधर्मिता पर विश्वास और मजबूत हुआ ---
हटाएं