विमल चन्द्र पाण्डेय
विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के ऐसे युवा रचनाकार हैं जिन्होंने बेहतरीन कहानियों के साथ-साथ कवितायें भी लिखी हैं. अभी हाल ही में विमल ने अपना उपन्यास 'भले दिनों की बात थी' पूरा किया है जो आधार प्रकाशन से शीघ्र ही आने वाला है. इसी उपन्यास का एक अंश आप सबके लिए प्रस्तुत है.
शहर में इधर पुलिस की सक्रियता कई मामलों में बढ़ी थी. अपराध पर अंकुश
लगाने के प्रयासों में कामयाब न हो पाने की स्थिति में पुलिस ने अपराध को जड़ से
मिटा देने की सोची थी. दुर्भाग्य से अपराध को जड़ से ख़त्म करने की कोई सर्वसम्मत
विधि नहीं थी इसलिए फिलहाल पुलिस ‘ऊपर’ के ऑर्डर से अपराधियों को जड़ से ख़त्म करने
में लगी थी. शहर को अपराध से मुक्त करने की इच्छा जता रही और अपराध ख़त्म करने के
मकसद से अपराधियों को ख़त्म करती पुलिस अपनी इच्छा और अपनी हरकतों दोनों से ही जनता
में भय का संचार करती थी. पुलिस के आला अधिकारियों का कहना था कि सांस्कृतिक नगरी
काशी में जल्दी ही न्याय का राज्य कायम होगा. यह बयान जनता ने कई दशकों से केंद्र
और राज्य के नुमाइन्दों से सुन रखा था और ऐसे बयानों पर काफी कम लोग प्रतिक्रिया
देते थे. हर रोज़ अख़बारों में एक-दो युवा अपराधियों के मुठभेड़ में मरने जाने की खबर
आम होती जा रही थी और अखबार ऐसी ख़बरें लिखते वक़्त अपनी तरफ से यह ज़रूर जोड़ते थे कि
लगता है बनारस जल्दी ही अपराध मुक्त हो जायेगा. मुठभेड़ के अगले कुछ दिनों तक एकाध
अख़बारों में ऐसी भी ख़बरें निकलतीं कि मुठभेड़ में मारे गए लड़के के परिजनों, दोस्तों
और अध्यापकों के अनुसार वह एक सीधा साधा लड़का था जो सिर्फ अपने काम से काम रखता था
लेकिन जल्दी ही ऐसी ख़बरें उन अख़बारों से गायब हो जातीं. मुठभेड़ में मारे गए
ज़्यादातर लड़कों में कुछ समानताएं होतीं जो अक्सर सरसरी निगाह से खबर पढ़ने पर दिखाई
नहीं देती थी. ज़्यादातर मरने वालों के पास से एक ही तरह के कट्टे बरामद होते और
उनकी लाश अमूमन एक ही तरह से लेटी रहती थी. जानकर लोगों का कहना था कि ये वित्तीय
वर्ष २००५-०६ समाप्त होने का दबाव है. मार्च का महीना आने वाला था और ३१ मार्च से
पहले देश की सभी कंपनियों की तरह पुलिस को भी कुछ लक्ष्य हासिल करने थे.
पूरी कॉलोनी तो ऐसी ख़बरों को वीतरागी भाव से पढ़ती थी लेकिन शुक्ला जी
का नजरिया अब बदल गया था. उन्हें वह रात याद आ जाती थी जब पुलिस की एक जीप एक लाश
को धीरे से रख कर भाग गयी थी और फिर कुछ पलों बाद वे हवा में गोलियाँ चलते हुए आये
थे. उसके अगले दिन भी अख़बारों में ऐसी ही खबर छपी थी जिसमें पुलिस टीम गर्व से
अपना सीना ताने फोटो में मुस्करा रही थी. ऐसी किसी एक मुठभेड़ के बाद पुलिस को
पिछले तीन-चार साल के बीसों केस हल कर देने का श्रेय मिलता था. ऐसे बड़े मामलों में
व्यस्त रहने वाली पुलिस के कुछ सिपाही आजकल एक लड़की से एक लड़के के संबंधों के बारे
में पता लगाने की कोशिश में थे. वह लड़की सविता थी जिसकी छठी इन्द्रिय प्रेम में
पड़ने के बाद खासी तेज़ हो गयी थी और लड़के रिंकू के मालगोदाम के पास मिलने वाले
प्रस्ताव को उसने यह कह कर ठुकरा दिया था कि उसे कुछ खतरा महसूस हो रहा है.
सविता के तौर तरीकों में बदलाव आ गया था जिसे अनु के अलावा कोई और
नहीं समझ सकता था. वह कोई काम करती-करती अचानक शून्य में देखने लगती और थोड़ी ही
देर में उसकी आँखें गीली हो जातीं. वह अक्सर रसोई के काम निपटा कर कोई पुराना
एल्बम निकाल कर देखने लगती और किसी ऐसी तस्वीर पर घंटों ठहरी रहती जिसमें वह अपने
पिता और माँ की गोद में बैठी होती. किसी तस्वीर को देखने पर उसे अचानक लगता जैसे
वह इसे पहली बार देख रही है और वह तस्वीर में घुस कर उस पल को पकड़ने दूर चली जाती.
चित्रों में एक खुशगवार दुनिया आबाद थी और पुरानी श्वेत श्याम तस्वीरें यह बताती
कि हम इस जालिम दुनिया से दूर किसी दूसरी खूबसूरत दुनिया की पैदाईश हैं. उन
तस्वीरों में एक ऐसे ज़माने की याद आबाद थी जहाँ सब कुछ आसान और सहज था, लोग अच्छे
और सरल थे, टीवी मासूम था और सविता एक छोटी सी बच्ची के रूप में अपने पड़ोसियों के
घर लेमनचूस चूसती घूम रही थी. सविता अचानक ही उठती और कटोरी में तेल गरम कर माँ के
पैरों की मालिश करने लगती. माँ के नहाने के दो मिनट बाद बाथरूम में जाती और माँ के
छोड़े सारे कपड़े धुल देती. इस बदलाव को शुक्लाईन ने पता नहीं कैसे ग्रहण किया था कि
जब एक रात खाना खाने के बाद सविता बिना कहे शुक्लाईन के घुटनों की मालिश करने के
लिए सरसों और नूरानी तेल मिला कर लाई तो शुक्लाईन कुछ देर तो उसकी ओर देखती रहीं
फिर धीरे से बोलीं, “सुन सवितवा.”
“हाँ अम्मा, कहिये.” सविता ने सामान्य भाव से कहा था.
“तूं भगबे ना न ?”
सविता के मालिश करते हाथ रुक गए थे और उसकी आँखें तुरंत भर आई थीं.
उसने छिपाने की कोशिश तो बहुत की लेकिन शुक्लाईन की अनुभवी आँखों ने कुछ पढ़ लिया
था. उन्होंने सविता का हाथ पकड़ कर उसे अपने पास खींचा और उसके बालों में हाथ फेरने
लगीं. सविता अब अपनी रुलाई नहीं रोक पाई और बरसों बाद माँ के सीने से लग कर फफक
पड़ी.
“हमनी के घर के इज्जत अब तोरे हाथ में बा.” शुक्लाईन इतना कह कर चुप
हो गयीं और सविता के माथे को दबाने लगीं. हालाँकि सविता को सिरदर्द नहीं था लेकिन
माँ के दबाये जाने से उसे इतना आराम मिला कि उसे लगने लगा कि उसे सिर-दर्द था
लेकिन उसका ध्यान उस तरफ नहीं गया था. माँ कितनी अपनी होती है जो बिना कहे सारे
कष्टों को समझ लेती है, सविता ने सोचा. वह माँ अगर शुरू से सविता के साथ रहती तो
वह कभी उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ नहीं सोचती लेकिन माँ तो ऐसी इसलिए हुई है क्योंकि
सविता इस घर में कुछ ही दिनों की मेहमान है. बाकी बहनों से माँ का रवैया वैसा ही
है.
शुक्लाईन ने सविता से इधर उधर की बातें करनी शुरू कीं तो उसे समझ में
आ गया कि उसकी माँ उसके इरादों और उसके भीतर आये परिवर्तनों की टोह लेना चाहती हैं.
उसने एक समझदार लड़की की तरह शादी की बात छेड़ दी और कहा कि उसे शादी से काफी डर लग
रहा है. माँ को लगने लगा कि शादी का सनातन डर ही बेटी को डरा रहा है और उन्होंने
एक परंपरागत माँ की तरह बेटी को सीखें देनी शुरू कर दीं जिनसे सविता को ससुराल में
जा कर वहां के लोगों का दिल जीतने की कठिन क्रिया साधनी थी.
लड़कियों की ससुराल पृथ्वी से बाहर कोई दुनिया थी जहाँ के निवासी बहुत
कम ख़ुश हुआ करते थे और वे इतने भुक्खड़ हुआ करते थे कि उन्हें कोई स्वादिष्ट व्यंजन
खिला कर उनका दिल जीता जा सकता था. लड़की के ससुराल में जो सास हुआ करती थी वह एक
अजीब प्राणी हुआ करती थी जिसके बारे में लड़की को मायके में बहुत सारी बातें बता कर
डराया और उसका सामना करने को तैयार किया जाता था. सास हमेशा भृकुटी टेढ़ी करके रहने
वाली प्रजाति मानी जाती थी जिसका मुख्य काम अपनी बहुओं के कामों में कमी निकालना
होता था. सासों के कई प्रकार होते थे. कुछ सासें बहुओं से दोस्ताना व्यवहार बना कर
रखती थी और इस बात का रोना रोया करती थीं कि उनकी पूरे मोहल्ले में सबकी बहुएं
अपनी सासों से थरथर कांपती हैं और उनकी बहुएं उनकी भलमनसाहत का नाजायज़ फायदा उठाती
हैं. बहुएं अपनी सासों का रोना सुन कर आपस में यह कहतीं कि इससे अच्छा तो होता कि
अम्मा जी भी और सासों की तरह हम लोगों को डांट लिया करतीं मगर इस तरह कुढ़ती नहीं.
कलपने वाली सासों के अलावा डांटने और कमी निकाल कर बहुओं को झिड़कने वाली सासें
अधिक मात्रा में थीं और इनकी प्रजाति सबसे सामान्य मानी जाती थी. सास और डांट
(पढ़ें ताना) एक दूसरे के पर्यायवाची थे और बहुएं ऐसी सासों का सामना करने के लिए
आवश्यक मानसिक तैयारी के साथ ही ससुराल में कदम रखती थीं लेकिन कुछ जटिल प्रकार की
सासें जिनके बारे में कम जानकारियां उपलब्ध थीं, अपनी बहुओं के लिए परेशानी का सबब
बनती थीं. बहुएं ऐसी सासों के बारे में आवश्यक शोध नहीं कर पाने के कारण उनका
सामना करने में परेशानी महसूस करती थीं. कुछ सासें अंग्रेज़ी न जानने के बावजूद
अंग्रेजों की मुरीद थीं और फूट डाल कर राज करने की नीति में विश्वास रखती थीं. राज
करने वाला साम्राज्य हालाँकि उनका ही हुआ करता था लेकिन उसमे बहुओं के अतिक्रमण से
खुद को मानसिक रूप से तैयार न कर सकने वाली ये सासें बड़ी बहू को छोटी के खिलाफ और
छोटी को बड़ी के खिलाफ भड़काया करती थीं. समझदार बहुएं आपस में सास के विचारों का
आदान-प्रदान कर मजे से ‘एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो’ की नीति पर अमल करती
थीं और सास के जाल में फंस चुकी बहुएं आपस में पहले एक दूसरे से जलना शुरू करती
थीं और बाद में स्थिति ऐसी हो जाती की वे एक दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं
चाहतीं. कुछ दरियादिल सासें थीं जो बहुओं के ऊपर किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं
लगातीं और इस एहसान को हमेशा याद दिलाया करतीं.
“हमारी हिम्मत नहीं थी कि हम इनके साथ बाहर जाने को सोचें भी, अम्मा
जी आगबबूला हो जाया करती थीं.” ऐसा कहने के बाद वे अपनी उस बहू की ओर देख कर
मुस्कराया करतीं जिसे वह अपने बेटे के साथ बाहर घर के लिए कुछ खरीददारी करने की
इजाज़त देकर फूले समा रही होती थीं. लब्बोलुआब यह कि पति के मुख्य खिलाड़ी होने के बावजूद विरोधी टीम में जिस
खिलाड़ी का सामना करने की सबसे अधिक तैयारी लड़कियों को कराई जाती वे सासें ही होती
थीं.
सविता में मन में सास की कोई छवि नहीं थी लेकिन अब उसने रिंकू के घर
के बारे में सोचना शुरू कर दिया था. रिंकू ने बताया था की उसकी एक बहन है और उसकी
माँ बहुत अच्छी है. सविता के मन में काले कपडे और बुर्के में ढकी एक बूढ़ी औरत की
छवि आती और वह थोड़ी घबरा जाती. रिंकू ने कहा था कि दिल्ली में शादी करने के बाद
उसको उसके एक दोस्त के यहाँ कुछ दिन रुकना पड़ेगा जिसकी शादी भी हो चुकी है और उसकी
दो साल की एक छोटी सी बेटी भी है. सविता के मन में आता कि शादी के बाद उसकी जो
बेटी होगी, वह उसका नाम क्या रखेगी.
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जोगिन्दर तिवारी को उसके सिपाही ने खबर दे दी थी कि जिस लड़की के बारे
में उन्हें पता लगाने को कहा गया था उसकी कॉलोनी के ही किसी लड़के से चक्कर है.
लड़के के बारे में अभी पूरी जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन कुछ लड़कों पर शक है और
संभावित आशिक उन्हीं में से एक होगा. अब तक की सूचना काफी परेशानियों और खर्च के
बाद निकली गयी है और अब आगे की जानकारी निकलने के लिए कुछ और पैसों की ज़रुरत पड़
सकती है. तिवारी ने कहा कि हालाँकि गुरूजी से पैसा तो नहीं लेना चाहिए क्योंकि
उनकी मदद करना हमारा फ़र्ज़ है लेकिन अब अगर बहुत ज़रुरत पड़ गयी है तो फिर किया ही
क्या जा सकता है.
“तुम लोग गुरूजी के घर चले जाओ, हम उनके मोबाइल पर फ़ोन कर देते हैं.”
यह आदेश पाते ही एक की जगह तीन खाकी वर्दियां कॉलोनी के लिए निकल पडीं.
शुक्ला जी नहा धो कर पूजा में बैठे ही थे कि मनु ने बताया कि तीन
पुलिसवाले दरवाज़े पर खड़े हैं और उनको बुला रहे हैं. शुक्ला जी अपनी याददाश्त में
पहली बार पूजा में बैठने के बाद बिना पूजा ख़त्म किये उठे और धड़कते दिल के साथ बाहर
निकले. सिन्हा के साथ दो और हवलदार थे.
“जी, बताइए.” शुक्ला जी ने उसी सम्मान से पूछा जो एक आम आदमी को खाकी
वर्दी देख कर जगता है और जिसमें दस प्रतिशत सम्मान में नब्बे प्रतिशत डर मिला होता
है.
सिन्हा ने बाकायदा झुक कर शुक्ला जी के पांव छुए और उन्हें विस्तार से
समझाया कि उनके कहे अनुसार कुछ पुलिस वाले अपना और थाने का सारा कामकाज छोड़-छाड़ कर
उन्हीं की समस्या हल करने में लगे हैं. वैसे तो दरोगा जी का सख्त हुक्म था कि आपसे
पैसे न लिए जाएँ लेकिन कुछ पैसे खाकी वर्दी की जेब से निकल जाने के बाद हमने सोचा
है कि अगर आपको बुरा न लगे तो आपसे कुछ मदद ले ली जाये. शुक्ला जी सोच में पड़ गए,
इसलिए नहीं कि पुलिस वाले सामने से पैसे मांग रहे थे तो उनके पास न देने का भी कोई
विकल्प था बल्कि उन्हें पुलिसियों की बोली-बानी से न जाने क्यों इस बात का अंदेशा
हो रहा था कि उन्होंने यह केस पुलिस में दे कर एक बड़ी गलती कर दी है जिसकी सजा
उन्हें भुगतनी पड़ेगी. उन्होंने संकोच के साथ सिन्हा से राशि पूछी और सिन्हा ने
उन्हें गुरू जी और जोगिन्दर तिवारी का मित्र होने की छूट देते हुए सिर्फ पांच हज़ार
रुपये की छोटी सी राशि बताई जो शुक्ला जी ने भीतर से ला कर उनके हवाले कर दिया.
इसके लिए उन्हें शुक्लाईन से घर के खर्चे के रखे दो हज़ार रुपये लेने पड़े.
खरचा पानी ले कर जब पुलिस वाले चले गए तो शुक्ला जी का मन घर में
बैठने का नहीं हुआ. दिन रविवार था और आज उनके पास करने को कोई खास काम नहीं था. वह
भीतर गए, चुपचाप पूजा की, थोड़ा खाना खाया और कॉलोनी में यूँ ही टहलने चले गए.
कॉलोनी में बेमकसद टहलना उन्हें पसंद नहीं था लेकिन उस वक़्त उन्हें वही करने की
इच्छा हो रही थी जो उन्हें पसंद नहीं था. जैसे उन्होंने जीआरपी थाने के पास जाकर
एक सिगरेट पी और ब्रांड पूछने पर मुस्करा कर दूकानदार से कहा, “कैप्टन तो कैप्टन
ही पीता है बस.” गुमटी वाले ने ‘बाह गुरू जी, का बात कहलीं” कह कर उन्हें एक
कैप्सटन सिगरेट पिलाई और उनकी बेटियों का हालचाल पूछा. उन्होंने कहा कि उनकी बेटियां
हमेशा उनका कहना मानती हैं और वह अपनी ज़िन्दगी से बहुत संतुष्ट हैं. उन्होंने पान वाले
के बिना पूछे उसे अपनी जवानी की एक घटना सुनायी कि लगातार बेटियां पैदा होने से जब
वह निराश एक दिन दोपहर में अपने गाँव के एक शिव मंदिर में आराम कर रहे थे कि
उन्हें एक सपना आया था. भगवान शिव ने डायरेक्ट उनके सपने में आकर उनसे कहा कि उनकी
लडकियाँ विभिन्न देवियों का अवतार हैं और तीसरी बेटी सविता अन्नपूर्णा देवी का
अवतार है. पान वाले ने हामी भरते हुए कहा कि उनका परिवार वाकई कॉलोनी के कुछ
चुनिन्दा सुसंस्कृत परिवारों में से है. शुक्ला जी कॉलोनी की जगह शहर सुनना चाहते
थे लेकिन चुप रहे. पान वाला कहता रहा कि कॉलोनी के परिवार अब संस्कारिक नहीं रह गए
हैं और पहले के लड़के इतने शरीफ हुआ करते थे कि पान वाले को भी चचा कह कर पुकारते
थे. इसके बाद उसने मुस्करा कर ये भी कहा कि उसके पास पूरी कॉलोनी के लड़के लड़कियों
की खबर रहती है क्योंकि वह एकदम चौराहे पर यानि ऐसी जगह पर बैठता है जहाँ से वह हर
तरफ नज़र रख सकता है. उसने हँसते हुए कहा कि वह चाहे तो बता सकता है कि कॉलोनी के
कितने लड़के अपने घर वालों से छिप कर सिगरेट पीते हैं या फिर पान खाते हैं. शुक्ला जी
के मन में एक घबराहट सी होने लगी कि कहीं वह सविता के बारे में भी कुछ न जानता हो.
जिस दिन से उनके मित्र अमरमणि ने इशारों में बताया था कि सविता कॉलोनी के एक लड़के
से कॉलोनी के बाहर खड़ी परिचित अंदाज़ में बातें कर रही थीं, शुक्ला जी कॉलोनी में
यूँ ही टहलने निकल जाया करते थे. एक तरफ उन्हें डर भी लगता था कि कोई उनकी बेटी के
बारे में कुछ कहे न और दूसरी ओर वह यह भी सोचते थे कि अगर उस बात में सच्चाई हो तो
क्या पता उन्हें देख कर कॉलोनी का उनका कोई शुभचिंतक उन्हें कुछ बता सके.
वह सिगरेट पी कर वहां से निकलने ही वाले थे कि सामने से चतुर्वेदी आते
दिखाई दिए. चतुर्वेदी की छवि बड़ी उम्र के लोगों और लड़कों में एकदम अलग-अलग थी. बड़ी
उम्र के लोग उन्हें एक राजनीतिक पहुँच वाला आदमी मानते थे और लड़के उन्हें लड़कों के
पीछे लार टपकाने वाले अधेड़ के रूप में जानते थे. लड़कों ने उनके बहुत सारे नाम रख
छोड़े थे जिनमें से कई नाम इस तरह रखे गए थे कि चार लोगों के बीच में भी लिये जा
सकें, जैसे ‘पिछलग्गू’, ‘बैकडोर एंट्री’ या फिर ‘खूनी खंजर’ लेकिन लड़कों के बीच
उनका ‘गांडू’ नाम ही सर्वसम्मति से पारित हुआ था और पूरे सम्मान से लिया जाता था.
चतुर्वेदी जी ने पहुंचते ही शुक्ला जी को नमस्कार कहा और एक लड़के के
बारे में बताया जिसने पिछले दिनों रेलवे में टिकट चेकर बनने में सफलता पाई थी.
रेलवे, पुलिस और इनकम टैक्स जैसे विभागों में नौकरी लगने पर लोग तनख्वाह और नौकरी
के प्रकार के बारे में बातें नहीं करते थे बल्कि कुछ और सुविधाएँ चर्चा का केंद्र
बनती थीं. चतुर्वेदी ने बताया कि लड़के के साथ-साथ उसकी सात पुश्तों का भविष्य भी
सुरक्षित ओ गया है क्योंकि अब वह मुगलसराय रूट पर चला करेगा जहाँ बस माल ही माल
है. चतुर्वेदी ने जब बताया की लड़का ब्राह्मण है तो शुक्ला जी के भीतर की
‘बाप-बत्ती’ जल गयी.
बाप-बत्ती वह बत्ती थी जो जवान बेटियों के बापों के दिमाग में
स्वतः-स्फूर्त तरीके से विकसित होती थी और उन्हें कानोंकान खबर भी नहीं होती थी.
बाप की जितनी अधिक बेटियां होती थीं बत्ती की पॉवर उतनी तेज़ होती थी और कहीं भी
किसी योग्य लड़के की बात सुनते ही यह जल उठती थी. जैसे चालीस चोरों वाली गुफा का
पासवर्ड सिमसिम हुआ करता था वैसे ही ऐसे बापों की बाप-बत्ती का पासवर्ड ‘लड़का’ हुआ
करता था जिसके कुछ शर्तों कर खरे उतरने के बाद बाप सब काम छोड़ कर दुनिया का सबसे
बड़ा माना जाने वाला दान देने की तैयारी में जुट जाना चाहते थे. चतुर्वेदी ने बताया
कि लड़के का बड़ा भाई पहले ही बैंक में क्लर्क है और अब पाठक जी का परिवार पूरी तरह
सेट हो गया. लड़का ब्राह्मण है, इस तथ्य से शुक्ला जी परिचित हो ही चुके थे, उसका
परिवार भी अच्छा है, यह जानते ही उनकी बाप-बत्ती और तेज़ दमकने लगी. उन्होंने धीरे
से चतुर्वेदी से पूछा कि क्या पाठक जी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं. चतुर्वेदी ने पान वाले
को जीवित इंसान मानने से सरासर इनकार करते हुए आसपास सरसरी नज़र से देख कर किसी
इंसान के न होने की आश्वस्ति की और शुक्ला जी के चेहरे के पास अपना चेहरा लाते हुए
बोले, “अरे नहीं, सकलदीपी हैं साले सब.”
“अच्छा !” शुक्ला जी ने कहा. उनके ‘अच्छा’ में कुछ इस तरह का भाव था
जैसे वह परिवार शाक्यद्वीपीय ब्राह्मण न होकर अमेरिका में हुए ९/११ का जिम्मेदार
हो और इसी कॉलोनी में पिछले दस साल से रहने के बावजूद शुक्ला जी इस बात से अनभिज्ञ
हों. इसमें उनकी गलती नहीं थी क्योंकि ब्राह्मणों के जिस तरह इंसानों में श्रेष्ठ
होने का भ्रम था वैसे ही ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठता की लड़ाईयां थीं और जिनका
बहुमत था या जिनकी शक्तियां अधिक थीं वह श्रेष्ठ था.
पान वाले ने चतुर्वेदी द्वारा अपनी उपेक्षा का बुरा नहीं माना और दो
पान लगा कर पहला पान शुक्ला जी की तरफ बढ़ाया. शुक्ला जी ने पान हाथ में लेने के
बाद उसे चतुर्वेदी की तरफ बढ़ाया और अपने पक्के बनारसी न होने की पुष्टि की.
“अरे आप लीजिये, हम ले रहे हैं.” चतुर्वेदी की बात में उपहास था कि
शुक्ला जी पान और चाय में फ़र्क नहीं समझते.
उस लड़के के छूट जाने के सांस्कृतिक आघात में शुक्ला जी पता नहीं कितनी
देर खड़े रहते अगर चतुर्वेदी ने उन्हें यह न बताया होता कि वह अगले महीने दिल्ली जा
रहा है. वह वहां से जाने को उद्यत थे लेकिन बिना मन के ही उन्हें चतुर्वेदी से
पूछना पड़ा कि उसका दिल्ली जाने का प्रयोजन क्या है. उसने वही बात बताई जिससे पूरी
कॉलोनी परिचित थी. उसने कहा कि वह एक पेंटिंग बना रहा है जो देश के भावी
प्रधानमंत्री श्री राहुल गाँधी जी की है. ‘श्री राहुल गाँधी’ कहने के बाद उसने
पूरे सम्मान के साथ अपनी उँगलियों से अपने दोनों कानों को स्पर्श किया. कॉलोनी में
एक दूसरे की नक़ल करने वाले लोगों की संख्या बहुतायत में थी और एक आदमी की नक़ल करते
हुए दूसरा आदमी यह नहीं सोचता था कि यह नक़ल कहाँ और किस संदर्भ में की जानी चाहिए.
‘नक़ल के लिए भी अकल की जरूरत होती है’ वाली कहावत पर यहाँ कोई कान नहीं देता था
जिसका दुष्परिणाम यही था कि चतुर्वेदी राहुल गाँधी का ज़िक्र आने पर अपने कान छू
रहा था.
“राहुल गाँधी की...?” शुक्ला जी ने उसी तरह पूरी बात स्पष्ट सुनने के
बावजूद पूछा जिस तरह कॉलोनी के और लोग सामने वाले की किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया
न सूझने पर पूछा करते थे.
“हाँ गुरु जी, लगभग बन गयी है, बस हफ्ता दस दिन और लगेगा. उन्हीं को
देने जाना है. पिछली बार माता जी की बनाये थे और ले गए थे तो बाबा ने कहा था कि
हमारी भी बना दो....” चतुर्वेदी ने एक
पुश्तैनी कांग्रेसी की तरह सोनिया और राहुल को अपने परिवार का अघोषित सदस्य घोषित
करते हुए कहा.
शुक्ला जी के भीतर का भाजपाई जाग गया था और वह चाहते थे कि महंगाई बढ़ा
रही केंद्र सरकार को कोसते हुए चतुर्वेदी को घेरें लेकिन उनका दिमाग इस मुद्दे पर
पूरा उत्साह प्रदर्शित नहीं कर रहा था. वह कभी सविता की तरफ भागता, कभी कॉलोनी के
आवारा लड़कों की तरफ और कभी पुलिस थाने की तरफ. उन्हें लगा कि कोई भी चीज़ उन्हें
शांति प्रदान नहीं कर सकती और उसी समय उन्हें याद आया कि उन्हें ध्यान लगाये बहुत
दिन हो गए हैं.
“चलिए आपको भी दिल्ली घुमा लायें.” चतुर्वेदी ने वही पासा फेंका जो
कॉलोनी के लोग यात्रा के दौरान अपना अकेलापन काटने के लिए सामने वाले को बिना उसकी
मजबूरी, राजी-ख़ुशी और हाल-खबर जाने फेंका करते थे और अक्सर एक तरह के जवाब प्राप्त
करते थे.
“अरे कहाँ समय है इधर.....हो आइये आप आराम से फिर बताइयेगा.” शुक्ला
जी वहां से निकलना चाहते थे कि चतुर्वेदी ने एक बार फिर उसी अंदाज़ में उनके पास
चेहरा लाकर धीरे से पूछा, “आपके घर पुलिस काहे आयी थी गुरूजी ?”
शुक्ला जी एक पल को सन्न तो हुए लेकिन अब वह पहले जैसे मासूम आम शहरी
नहीं रह गए थे, पुलिस के संपर्क में आने पर उनके काईयाँपने में अच्छा खासा इज़ाफा
हुआ था. उन्होंने एक पल को सोचा और फिर अचानक पैंतरा बदल एक नए अवतार में आते हुए
ऐसी आवाज़ में बोले जिसे उन्होंने अट्टहास में लपेट रखा था, “अच्छा वो, हा हा हा
हा, अरे वो साले पुलिस वाले बाद में हैं पहले तो दोस्त हैं. आये थे हमको एक पार्टी
के लिए इनवाइट करने.”
चतुर्वेदी ने इस सवाल को जिस गरम मसाले में लपेट कर पूछा था वह फीका
साबित हुआ था. वह चुपचाप अपनी उँगलियाँ पुटकाने लगा और पान वाले के सामने बाकी बचे
पैसों के लिए हाथ फैला दिए. पान वाले ने पान के दो रुपये काट कर चतुर्वेदी को आठ
की बजाय गलती से नौ रुपये दे दिए.
“कितना हुआ ?” चतुर्वेदी ने पान घुलाते हुए पूछा.
“मालूम नहीं है का आपको, पहिली बार पान खा रहे हैं का हमारा ?”
“अरे कितना लौटाए हो देखो.” चतुर्वेदी की जिरह से पान वाला ऊब रहा था.
वह समझ नहीं पा रहा था कि चतुर्वेदी कहना क्या चाहता है. उसने चतुर्वेदी की फैली
हथेली, जिस पर फुटकर पैसे रखे थे, की और देखने से कतई इनकार करते हुए पूछा, “का
हुआ, कम है का ?” उसे लगा उसने एकाध सिक्के कम दे दिए हैं. तब तक चतुर्वेदी एक
रुपये का सिक्का पान वाली चौकी पर रखते हुए मुस्कराया.
“एक रूपया ज्यादा दे दिए हो.” यह कहने के बाद उसने शुक्ला जी की और
देखा और घोर बेईमानी के इस ज़माने में उनकी नज़रों में अपने ईमानदार होने की पुष्टि
चाही. शुक्ला जी निरापद भाव से इस घटना को देख रहे थे और उन्हें इसमें कुछ भी
विशेष नहीं लगा था. चतुर्वेदी उनके चेहरे के भाव पढ़कर निराश हुआ. अपने इस अप्रतिम
त्याग को हलके में लिया जाता देख चतुर्वेदी ने एकाध कहानियाँ सुनाईं जिसमें उसकी
ऐसी ही ईमानदारियों का ज़िक्र था. पान वाला अपनी गति से पान फेरता रहा जैसे उसे
मतलब ही न हो कि गोभी या हॉर्लिक्स खरीदने पर चतुर्वेदी ने वापसी में गलती से दिए
गए अधिक पैसे लौटा दिए थे और वह हमेशा ऐसा करता है. कई देसी कहानियाँ सुनाने के
बाद वह अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान की गयी ईमानदारी के बारे में बखानने ही वाला
था कि पान वाले ने उसे रोक दिया, “अरे ठीक है भईया, एक रुपैया के ईमानदारी दिखा के
आप तो अइसा चाह रहे हैं कि आपके लिए जान दे दिया जाए. का गुरू जी ?” पानवाला अपनी
बात पर मुहर लगवाने के लिए शुक्ला जी की तरफ मुखातिब हुआ और शुक्ला जी दिल खोल कर
हँसे. चतुर्वेदी खिसिया गया और थोड़ी दूरी पर जाकर पान थूकने लगा.
शुक्ला जी विजेता टीम के कप्तान की तरह वहां से विदा हुए. उनके जाने
के बाद चतुर्वेदी पान वाले से मुखातिब हुआ और बताने लगा कि पिछले दो सालों में
उसने बारह पेंटिंग्स बनाई हैं और जल्दी ही वह इनकी एक प्रदर्शनी लगवाएगा.
“उंहा का होई ?” पान वाले ने अनभिज्ञ अंदाज़ में पूछा.
“लोग पैसा देकर खरीदेंगे रजा और क्या होगा ?”
“लोगो बकचोदै हैं, का करिहें उ सब खरीद के...? पानवाले ने एक जायज़
शंका उठायी. उसने जितनी पेंटिंग्स देखी थीं या चतुर्वेदी से उनके बारे में सुना
था, उसे लगने लगा था कि पेंटिंग कोई ऐसी चीज़ होती है जो किसी को बिना खर्चे वाला
उपहार देने के लिए बनाई जाती है.
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राजू प्यार करने के मामले में बहुत आज़ादख़याल था और सभी दोस्तों में
सबसे ज्यादा किताबी था. ग्रुप के सारे लोग उसे इस बात के लिए कोसते रहते कि वह ज़रा
भी प्रेक्टिकल नहीं था. किसी भी लड़की से उसे किसी भी परिस्थिति में प्यार
हो सकता था और जब भी वह प्यार में पड़ता था, पूरी शिद्दत में पड़ता था और जीने मरने
को उद्यत रहता. नए प्यार में पड़ते ही वह पूरी तरह से पुराने प्यार को भूल जाता और
कहता कि इस बार वाला प्यार उसका सच्चा प्यार है. यह वही प्यार है जिसकी उसे कई
जन्मों से तलाश थी और और अब वह इसके लिए पूरी दुनिया छोड़ सकता है. उसकी किस्मत खराब
थी क्योंकि उसकी ज़िन्दगी में आयी लड़कियां उसका साथ अलग-अलग कारणों से लम्बे समय तक
निभा नहीं पाती थीं. लेकिन एक बात तय थी की राजू में सभी दोस्तों की तुलना में
सबसे अधिक साहस तो था ही, लड़की या प्यार का मामला होते ही ये साहस बिना समय गंवाए
दुस्साहस में बदल जाता था.
अनु से प्यार होने से पहले राजू पागलों की तरह कविता के प्यार में था
जिसके घर से उसका पारिवारिक सम्बन्ध था. वह कविता के पिता से समाज की विभिन्न
समस्याओं पर अक्सर बहस भी किया करता था और समय मिलते ही कविता के साथ प्यार पर बहस
करने लगता. कविता को जब उसने प्रपोज किया तो उसे बहुत ख़ुशी हुई जब कविता ने भी उसे
प्यार करने की हामी भरी. जल्दी ही उनका प्यार समय की सीढ़ियों की मदद से परवान चढ़
गया और राजू कविता से शादी के सपने देखने लगा. कविता ने भी कहा कि वह अपनी ज़िन्दगी
उस जैसे पति के साथ ही गुज़ारना चाहेगी. गणित और विज्ञान से डरने वाला राजू अपने
पिता की मर्ज़ी से गणित पढने को बाध्य था और पिता के बताये अनुसार उसे लगता था कि
बी.एससी. करने के बाद वह अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा. स्नातक होने के बाद उसने
कविता से शादी की योजना बना रखी थी कि एक दिन उसे पता चला कि कविता की शादी की बात
चल रही है. कविता ने दो लगा कर उसे ३७०८२८ पर फोन किया और बताया कि उसकी शादी तय
हो रही है. अगर राजू ने कुछ नहीं किया तो वह ज़हर खा कर जान दे देगी. राजू घबरा गया
और आपात-स्थिति में सभी सदस्यों की एक बैठक बुला कर रास्ता निकाला गया. सबने कहा
कि चूँकि राजू के सम्बन्ध कविता के पिता से बहुत अच्छे हैं, वह उनके घर जा कर उनसे
सिर्फ इतनी इल्तिज़ा करे कि कविता की शादी सिर्फ दो साल के लिए रोक दी जाए. दो साल
के बाद जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा तब खुद उनके पास कविता का हाथ मांगने
आएगा. ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ ग्रुप के ज़्यादातर सदस्यों की पसंदीदा
फिल्मों में से थी और उन्हें लगता था कि अगर उन्हें ये फिल्म इतनी अच्छी लगी है तो
लड़कियों के पिताओं को भी थोड़ी तो ठीक लगी ही होगी. समस्या यह थी कि अमरीश पुरी और
अनुपम खेर जैसे पिता सिर्फ फिल्मों में थे और वास्तविक जीवन में जैसे पिता थे उनके
बारे में असली अंदाज़ा तब लगता था जब मामला लड़की के प्रेम और शादी पर आ कर रुकता था
जो बकौल उनके घर की इज्ज़त का मामला हुआ करता था.
राजू जब कविता के घर पहुंचा था तो कविता के पिता और उसके चाचा को यह
खबर लग चुकी थी कि राजू क्या बात करने आया है. कविता ने घर पर अपनी शादी की बात की
थी और परंपरा के अनुसार ही माँ की गालियाँ और पिता के झापड़ खा कर घर के किसी
अँधेरे कमरे में सुबक रही थी. लेकिन कविता के चाचा ने उसके पिता को समझाया था कि
लड़के से ठन्डे दिमाग से बात करनी है, गरम होकर मामला बिगाड़ना नहीं है. कविता की
माँ ने कविता को पता नहीं किस तरह समझाया था कि वह उस अँधेरे कमरे में रोती हुई
किसी फैसले पर पहुँच रही थी.
राजू ने ग्रुप के समझाने के अनुसार ही एकदम ठन्डे दिमाग से अपने भावी
ससुर को ससुर समझ कर ही दुनियादारी की कुछ बातें बताईं जिनमें उसने अपनी कानून की
जानकारी होने का भी इशारा किया कि अगर दो बालिग लोग चाहें तो कानूनन वे शादी कर
सकते हैं और उन्हें कोई रोक नहीं सकता. कविता के पिता थोड़ी देर तक राजू की बात
गंभीर मुद्रा बना कर सुनते रहे जिससे राजू को लगा कि उसकी बात असर कर रही है लेकिन
यह एक सबक था जो राजू जैसे नौजवान को पुरानी पीढ़ी दे रही थी कि कैसे अपने मन की
बात कहने के लिए सामने वाले को संयत तरीके से घेरा जाता है. राजू की शादी विषयक
बातों को अलबत्ता कविता के चाचा ने बीच में कई बार ‘मारेंगे साले होश में आ जाओगे’
और ‘बाप मरे अंधियारे में बेटा क नाव पॉवर हाउस’ जैसी गालियों और गैर-वाजिब
कहावतों से काटने की कोशिश की तो उनके बड़े भाई ने चुप रहने का संकेत देकर हवा में
हाथ खड़ा किया था.
राजू ने अपनी बात पूरी कर ली तो कविता के पिता ने उसे कुर्सी पेश की.
राजू को लगा कि अमरीश पुरी और अनुपम खेर जैसे पिता सिर्फ भारतीय सिनेमा के परदे पर
ही नहीं हैं बल्कि हमारे बीच में भी महापुरुष बन कर बैठे हुए हैं. कुर्सी पर बैठने
के बाद उसे लगा कि उसके लिए बिस्कुट और पानी भी मंगाया जाएगा लेकिन कविता के पिता
ने सिर्फ इतना ही कहा, “यह सब तो ठीक है बेटा लेकिन अगर वह तुमसे प्यार करती होगी
तब न ?”
राजू सन्न रह गया. उसे किसी अनहोनी की गंध आने लगी. तब तक आधुनिक
अनुपम खेर ने दरवाज़े की ओट से झांक रही अपनी पत्नी रीमा लागू को इशारा किया जो
पायल खनकाती हुई भीतर चली गयी. जब वह कुछ पलों बाद वापस आयी तो उनके साथ डरी-सहमी
कविता भी थी जिसकी आँखें सूजी हुई थीं. कविता के पिता ने उससे पूछा, “तुम राजू से
प्यार करती हो ?”
कविता ने कातर नज़रों से एक बार राजू की तरफ देखा और एक तरफ अपने पिता
की तरफ. उसे लगा कि राजू से शादी करने पर अगर उसकी माँ ज़हर खा कर मर जाती हैं तो
यह वाकई बहुत महंगा सौदा होगा और वह कभी अपने आप को माफ़ नहीं कर पायेगी.
“जवाब हाँ या ना में दो.” पिता जी ने कविता के सामने पेश किये गए सवाल
के जवाब को वस्तुनिष्ठ बनाते हुए कहा.
“नहीं.” कविता ने विकल्प नंबर दो पर टिक लगाया और चुपचाप भीतर चली
गयी.
तूफ़ान आ कर अचानक और एकदम झटके से चला गया. राजू ने एक बार उस दरवाज़े
की ओर देखा जिधर से कविता भीतर गयी थी, एक बार उसके पिता जी की तरफ जिनके चेहरे पर
‘गेट आउट’ लिखा था और फिर एक बार आसमान की ओर देख कर अंदाज़ा लगाया कि तापमान कितना
होगा.
मौसम विभाग ने गर्मी के अभी और बढ़ने की भविष्यवाणी की थी.
संपर्क-
मोबाईल- 09820813904
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