हिमांगी त्रिपाठी का आलेख 'मार्कण्डेय की समीक्षा पद्धति'।
मार्कण्डेय का नाम लेते ही कई
अर्थ-छवियाँ मेरे मन-मस्तिष्क में आज भी गूँज जाती हैं। नयी कहानी आन्दोलन के
प्रमुख कथाकार होने के साथ-साथ वे एक कवि, एक उपन्यासकार, एक आलोचक, एक समीक्षक,
एक एकांकीकार, एक सम्पादक भी थे। साथ ही उनका व्यक्तित्व बेमिसाल था। कथकड़ी में
उनका कोई सानी नहीं था। उन्हें निकट से जानने वाले उनकी विनम्रता के आज भी कायल
हैं। हिमांगी त्रिपाठी ने मार्कण्डेय की रचनाधर्मिता पर अभी-अभी अपना शोध कार्य परिश्रम
के साथ पूरा किया है। 18 मार्च 2010 को मार्कण्डेय का निधन हो गया था। आज उनकी पुण्यतिथि
पर उन्हें नमन करते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं कवयित्री हिमांगी त्रिपाठी का आलेख 'मार्कण्डेय की समीक्षा पद्धति'।
'मार्कण्डेय की
समीक्षा पद्धति'
हिमांगी
त्रिपाठी
बतौर कथाकार के रूप में अपनी अमिट पहचान
बनाने वाले मार्कण्डेय का जन्म 2 मई 1930 ई. को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के बराई
नामक एक छोटे से गांव में हुआ। बाल्यावस्था से ही मार्कण्डेय के हृदय में समाज एवं
देश के प्रति अनुराग था। ग्रामीण-जन की
विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं उनकी
आर्थिक तंगी को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा था और यही नजदीकीपन उनके कथा-साहित्य और
अन्य रचनाओं में बडे़ पैमाने पर दिखाई पड़ती है। गरीब वर्ग के प्रति मार्कण्डेय की
प्रतिबद्धता उनकी हरेक रचना में दिखाई पड़ता है, फिर चाहे वह कहानी हो, या कविता या फिर उपन्यास या आलोचना।
मार्कण्डेय ने कविता एवं कहानी को छोड़ कर अन्य विधाओं में कम ही लिखा है। जहाँ एकांकीकार के रूप में उनकी मात्र एक ही एकांकी पुस्तक 'पत्थर और परछाइयाँ' नाम से प्रकाशित हुई, वहीं आलोचक रूप में वह केवल 'कहानी की बात' के माध्यम से ही पहचाने गए। यदि उपन्यासकार के रूप में देखा जाये तो मात्र दो ही उपन्यास उनके खाते में जमा है - एक है असफल प्रेम कथा की अभिव्यक्ति 'सेमल के फूल' तो दूसरा है आजादी के बाद के परिदृश्य को उजागर करने वाला उपन्यास 'अग्निबीज'। कवि रूप में भले ही मार्कण्डेय के दो ही कविता-संग्रह क्यों न हों किन्तु कविता से लगाव होने के कारण मार्कण्डेय समय-समय पर कविताएँ लिखा करते थे, जिनमें से कुछ तो आज भी अप्रकाशित हैं।
आजादी के तत्काल बाद साहित्य-जगत में कहानी चर्चा का केन्द्र बनी और अनेक प्रकार की कहानियों को बड़ी तादाद में लिखने वाले युवा लेखकों की पांत में कुछ आलोचक ऐसे थे जो वैयक्तिक एवं सैद्धांतिक स्तरों पर कहानियों की समीक्षाएं करते भी नजर आए। उन प्रमुख कथाकारों की पांत में युवा कहानीकार मार्कण्डेय भी थे जो आलोचना के साथ-साथ अपने समय के कुछ कथाकारों की गिनी-चुनी कहानियों की समीक्षा करते हुए दिखाई पड़े। स्वयं मार्कण्डेय इस विषय में कहते हैं - "कथा-समीक्षा वैयक्तिक रुचियों के मकड़जाल वाली समीक्षा के साथ ही राजनीतिक लफ्फाजी वाली आत्मप्रक्षेपित समीक्षा के घिसे-पिटे मार्ग से हट कर सामाजिक सन्दर्भों के यथार्थ के विश्लेषण से जुड़ गयी।" मार्कण्डेय ने कुछ कहानियों की समीक्षा भी की है, किन्तु उनकी छवि समीक्षक के रूप में बहुत ही कम दिखाई पड़ती है। उन्होंने अपने समीक्षात्मक रूप को अधिक विस्तार न देते हुए मात्र तीन कथाकारों की ही गिनी-चुनी कहानियों को अपनी वक्र दृष्टि का शिकार बनाया है। इस क्रम में उन्होंने राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और उपेन्द्र नाथ अश्क की कुछ कहानियों की समीक्षा की जिसे 'हिन्दी कहानी : यथार्थवादी नजरिया' में संगृहित किया गया है। उपर्युक्त कहानीकारों की कहानियों की समीक्षा करते हुए कहीं मार्कण्डेय का व्यंग्यात्मक रूप दिखाई पड़ता है तो कहीं लेखक के प्रति सहानुभूति दिखाई पड़ती है।
मार्कण्डेय जी नयी कहानी आन्दोलन के प्रमुख कथाकार राजेन्द्र यादव की कुछ कहानियों पर अपनी समीक्षा दृष्टि डालते हुए उनकी 'जहाँ लक्ष्मी कैद है', 'एक कमजोर लड़की की कहानी', 'लंचटाइम' कहानियों को मूल्यांकन का केन्द्र बनाते हैं। 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' नामक कहानी के शीर्षक को ले कर मार्कण्डेय का कहना है कि "संग्रह का नाम पढते ही एक झटका लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी धर्म-निरपेक्ष राज्य में हिन्दुओं के देवता विष्णु की पत्नी को कैद कर लिया गया! और लेखक इस झटके से अवगत है, इसलिए कहानी शुरू करते ही वह कहता है, 'ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णु की पत्नी के बारे में नहीं' किसी ऐसी लड़की के बारे में है, जो अपनी कैद से छूटना चाहती है और जिसे सिर्फ वही जानता है।" राजेन्द्र यादव की इस कहानी में उपर्युक्त वक्तव्य को पढ़ कर व्यंग्यात्मकता का रोचक भाव तो परिलक्षित होता ही है साथ ही इस कहानी में रहस्यात्मकता का भाव भी दिखाई पड़ता है। मार्कण्डेय का मानना है कि कथा-शिल्प और वस्तु-संयोजन की खामी राजेन्द्र यादव की 'एक कमजोर लड़की की कहानी' में भी दिखाई पड़ती है। इस कहानी में सविता और प्रमोद की प्रारम्भिक चुहल का चित्रण इस प्रकार से किया गया है जिसको पढ कर पाठक के मन में ऊबन होने लगती है। भले ही इस कहानी में राजेन्द्र यादव का अपना रंग खुल कर सामने आता है किंतु यह कहानी पाठक को बहुत अधिक आकृष्ट नहीं कर पाती है। 'लंचटाइम' कहानी को मार्कण्डेय ने एक सामान्य स्तर की कहानी माना है क्योंकि इस कहानी में जो स्थान मानवीय पात्रों को मिलना चाहिए वह स्थान इसमें कुत्ते, कुतियों एवं पिल्लों को मिला है। इसी कारण पाठक के मन में एक झुंझलाहट सी दिखाई पड़ती है। मार्कण्डेय का मानना है कि राजेन्द्र यादव की कहानियों का सबसे बड़ा दोष है - प्रत्यक्षदर्शी का अनुभव। यादव मात्र परिस्थितियों को देख कर कहानी नहीं लिखते। कहानी लिखने के लिए जीवन के विस्तृत अनुभवों का होना आवश्यक है जो शायद राजेन्द्र यादव की दृष्टि से छूट गया है। राजेन्द्र की इन्हीं खामियों के कारण उनकी कहानियों पर मार्कण्डेय का ध्यानाकर्षित हुआ।
आलोचक आनन्द प्रकाश के साथ मार्कण्डेय |
राजेन्द्र
यादव के बाद मार्कण्डेय ने अपनी नजर कमलेश्वर की 'राजा निरबंसिया', 'पानी की तस्वीर', 'धूल उड़ जाती है', 'सुबह का सपना', 'मुर्दों की दुनिया', 'आत्मा की आवाज' कहानियों डाली है। 'राजा निरबंसिया' को मार्कण्डेय ने 'नयी भाव-भूमियों का सृजन' माना है, जब कि शेष कहानियों के शीर्षक पर उन्हें इस
बात की आपत्ति है कि उनका शीर्षक काव्यात्मकता का भान कराता है। 'देवी की माँ' नामक कहानी में एक स्टेशन मास्टर की
तिरस्कृत पत्नी का चित्रण किया गया है। वह अपने पति के दुर्व्यवहार के बावजूद उसकी सोने की
घड़ी की चेन को देख कर उसे स्मरण करती है और भाव विभोर हो जाती है। कहने का
तात्पर्य यह है कि परिस्थितियों की मारी
उस नारी के चरित्रांकन में मार्कण्डेय ने जो खामियाँ देखी उसी को उन्होंने अपनी
समीक्षा दृष्टि का विषय बनाया है। 'धूल उड़ जाती है' नामक कहानी में नारी चरित्रों को जय शंकर
प्रसाद के नारी चरित्रों से भी चुस्त बताया है और काल्पनिकता अधिक होने के
कारण इस कहानी को नयी कहानी से
बिल्कुल
अलग माना है। जहाँ इन दोनों कहानियों में मार्कण्डेय को खामियां नजर आती हैं वहीं 'आत्मा की आवाज' और 'मुर्दों की दुनिया' कहानी की कथावस्तु को उन्होंने सफलतापूर्वक माना है। अन्त में
कमलेश्वर की सभी कहानियों के विषय में
कहते हैं - "कुल मिला कर 'भाव-भूमियों का सृजन' ही इन कहानियों का सबसे बड़ा दोष है, जो कहीं तो इन्हें 'पानी की तस्वीर' की तरह गद्य काव्य
बना देता है, कहीं सूत्रात्मक बना कर रहस्यात्मक खोल
पहना देता है और कहीं अच्छे-खासे चरित्रों की रेखाओं पर गहरे रंग उडेल कर चुपड़
देता है। लेकिन मात्र यही एक विशेषता
कमलेश्वर के पास है! अगर वह इस भावावेग को पात्रों के हृदय में डाल सकें, तो उनके कथाकार की सम्भावनाएं और मुखर
हो जायें।" मार्कण्डेय की यह
खासियत थी कि लेखकों की कहानियों में कमियां निकालने के बावजूद भी वह कहीं न कहीं, किसी न किसी माध्यम से अपनी विचार
पद्धति को रखते हुए उसे
श्रेष्ठता के चरम पर पहुंचा ही देते हैं।
तीन
कथाकारों की समीक्षा में मार्कण्डेय अन्तिम समीक्षा करते हैं - उपेन्द्र नाथ अश्क की कहानियों की। अश्क
की 'मेमने' नामक कहानी में
कोकरनाग की यात्रा का पूरा
विवरण है, जिसमें यात्रा के बीच
ही एक कथा प्रारम्भ होती है। पूरी कथा
चोर के इर्द-गिर्द घूमती है जो मेमना चुरा कर भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर उसे मार
पड़ती है। चोर की मार को देख कर कहानी
के पात्रों का हृदय द्रवित हो जाता है और वह चोर के प्रति करुणा का भाव दर्शाते हैं। यही करुणा पाठक को
उदासी से भर देता है। कहने का तात्पर्य है कि पूरी कहानी में करुणा ही करुणा
दिखाई पड़ती है। कुछ ऐसी ही सादगी और सहजता 'नेता के नगर में' भी दिखाई पड़ती है। 'दालिये' और 'जेहलम के सात पुल' इन दोनों कहानियों में एक ही बात को
कहने में इतना परिश्रम लगा दिया है
कि उसका सौंदर्य-बोध लुप्तप्राय हो गया है। मार्कण्डेय का मानना है कि कथाकार के पास अपनी बात को कहने का इतना
सहज माध्यम होना चाहिए कि पाठक को पता
ही न चले किन्तु अश्क जी में इस बात की खामी पायी जाती है। एक समीक्षक के रूप में मार्कण्डेय कहानियों का
मूल्यांकन करते हुए कहते हैं कि "अश्क की इन कहानियों को पढ़ते हुए इसी पुस्तक
में प्रकाशित उनके लेख 'मेरी अलोकप्रिय कहानियां' पर बार-बार ध्यान जाता है तो लगता है कि
'काल्पनिक और यथार्थ जीवन से अनुप्राणित कहानियों' को उठा कर उन्होंने 'कहानी लेखिका और जेहलम के सात पुल' की विशेषता समझाने का प्रयत्न किया है।
इतना लिख कर भी मुझ जैसे अनेक लोगों को वह आश्वस्त नहीं कर पाते।" इस वक्तव्य
को पढ़ कर ऐसा लगता है कि
मार्कण्डेय अश्क की कहानियों से सन्तुष्ट नहीं हो पाये हैं फिर भी वह कहते हैं कि
"अश्क एक सफल नाटक लेखक हैं, लेकिन उनकी कहानियों में नाटकीय स्थितियों का दर्शन मुश्किल
से ही होगा।" इस तरह हम देखते हैं कि मार्कण्डेय एक ओर कहानीकार की
कहानियों में कमियां गिनाते हैं तो दूसरी ओर उनकी सराहना भी करते हैं।
भले ही मार्कण्डेय को एक समीक्षक के रूप में ख्याति नहीं मिली, फिर भी उन्होंने कुछ कहानियों के माध्यम से अपने समीक्षक रूप को स्पष्टता के साथ उजागर किया है। हिन्दी कथा-जगत में इतनी विधाओं में सशक्त रूप से अपनी लेखनी चलाने वाले मार्कण्डेय जैसा व्यक्तित्व कम ही देखा जा सकता है।
हिमांगी त्रिपाठी |
सम्पर्क
ई-मेल : tripathihimangi@gmail.com
मार्कण्डेय जी के साहित्यिक योगदान पर आपका आलेख उनके आलोचना पक्ष का रोचक विवरण है. उनके लिखे उपन्यास पढने की उत्सुकता है, अवश्य पढूंगा ।
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