नासिर अहमद सिकन्दर का आलेख ‘फिल्मी गीतों का काव्यात्मक स्वरूप’।
हिन्दी फिल्मों की
कल्पना गीतों के बिना की ही नहीं जा सकती। ये गीत हमारी गीतात्मक परम्परा को
उद्घाटित करते हैं। घर हो या दूकान, बस, कार हो या फिर टैम्पो सब में ये फ़िल्मी
गीत अपनी धूम के साथ सुने जा सकते हैं। इनमें से तमाम ऐसे गीत हैं जो हमारी रूह
में बस जाते हैं। तमाम गीत ऐसे हैं जिनके गहरे निहितार्थ हैं। संगीतात्मकता तो
सबसे अहम् है ही। नासिर अहमद सिकन्दर ने इन गीतों को आधार बनाते हुए एक आलेख लिखा
है ‘फिल्मी गीतों का काव्यात्मक स्वरूप’। इस आलेख को पढ़ते हुए आप निश्चित रूप से
अपने कुछ पसंदीदा गीतों से भी जरुर गुजरेंगे जिनका जिक्र नासिर भाई ने अपने इस
आलेख में किया है। तो आज पहली बार पर प्रस्तुत है नासिर अहमद सिकन्दर का आलेख ‘फिल्मी
गीतों का काव्यात्मक स्वरूप’।
फिल्मी गीतों का
काव्यात्मक स्वरूप
नासिर अहमद सिकंदर
गीत-संगीत के जानकार
पुराने फिल्मी गीतों को आज भी ‘सदाबहार’ गीत कहते हैं कालजयी नहीं, क्योंकि यह शब्द साहित्यिक कृति के लिये प्रयुक्त होता है। फिल्मी गीत,
साहित्य की श्रेणी में नहीं रखे गये। यद्यपि उस दौर के सभी गीतकार विशेषतः
- साहिर, शैलेन्द्र, शकील, मजरूह तथा कैफी आजमी आदि साहित्यिक पहचान बनाने के बाद फिल्मों के क्षेत्र
में दाखिल हुए। ये तरक्की पसंद गीतकार साहित्य की प्रगतिशील परंपरा से जुड़े थे और
उस वक्त विचारधारा को जन-जन तक पहुचाने का सबसे बड़ा सशक्त एवं लोकप्रिय माध्यम
सिनेमा ही था।
(एक)
आधुनिक हिन्दी काव्य
की छायावादी काव्य-धारा की समाप्ति के पश्चात भारतीय सिनेमा में गीतों की शुरूआत
हुई। छायावादी काव्य-प्रवृत्ति भले ही ‘मृत देह’ की तरह साहित्यिक जमीन में दफन हुई हो,
पर फिल्मी गीतों की धरा में वह प्रवृत्ति ‘बीज’ की तरह बोयी गई। यही वजह है कि काव्य में जिस छायावादी काव्य-धारा को सन् 30-35 के आस-पास समाप्त मान लिया जाता है, वह फिल्मी
गीतों में बहुत आगे (सन् 70-75) तक बनी रहती है। दरअसल
छायावाद का प्रभाव फिल्मी गीतों पर इतना गहरा रहा कि उसकी समाप्ति के पश्चात भी विषयवस्तु
प्रमुख बनी रही। हालांकि फिल्मी गीतों में छायावादी काव्य की वह संस्कृत-निष्ठ
भाषा तो नहीं मिलती, फिर भी रस, छंद,
अलंकार, श्रृंगार, विरह,
उपमायें, चित्रात्मकता, प्रतीक,
बिम्ब आदि कला-रूप् वही रहे। कहा तो यह भी जाना चाहिए कि जिस तरह
हिन्दी कविता से साहित्य के विद्यार्थी संस्कारित हुए, वहीं
यही साहित्यिक संस्कार बहुत बड़े जन समुदाय ने फिल्मी गीतों से ग्रहण किये। कहना तो
यह भी अनुचित नहीं होगा कि छायावाद की समाप्ति- गीति काव्य परंपरा की समाप्ति भी
थी। आगे चल कर नवगीत आंदोलन भी प्रभावी नहीं रहा था। ऐसे समय में यदि गीति संरचना
का वजूद बच पाया तो केवल फिल्मी गीतों के कारण।
(दो)
छायावाद के बाद हिन्दी
कविता में उभरी काव्य प्रवृत्तियां कालबद्ध रहीं। यथा प्रगतिवाद, नई कविता, अकविता
आदि। इन भिन्न-भिन्न काव्य प्रवृत्तियों में, इनके प्रतिनिधि
कवियों को भी रखा जा सकता है लेकिन सिने-गीतकारों को प्रवृत्तिगत रख पाना कठिन है,
क्योंकि फिल्मी गीतों में यही प्रवृत्तियां कालबद्ध न होकर साथ-साथ
चलती हैं। गीतकार भी सभी प्रवृत्तियों को आत्मसात करते हुए लिखते हैं। जैसे फिल्म ‘‘प्यासा’’ में साहिर के गीत, ‘‘जिस
देश में गंगा बहती है’’ में शैलेन्द्र तथा ‘‘मुगले आजम’’ में शकील के गीत, एक
ही समय में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों को व्यक्त करते हैं। फिल्म ‘प्यासा’ में ‘‘हम आपकी आंखों
में इस दिल को बसा दे तो....’’ छायावादी गीत है तो वहीं ‘‘ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया’’, जैसे
प्रगतिवादी स्वर लिये गीत भी है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’
में एक ओर ‘‘होठों पे सच्चाई रहती है’’
जैसा राष्ट्र गौरव का गीत है तो ‘‘ओ बसंती पवन
पागल न जा रे, न जा’’ जैसा रूमानियत
विरह गीत भी है। इसी तरह ‘मुगले आजम’ में
‘‘प्यार किया तो डरना क्या’’ गीत में
जहां रूढ़िग्रस्त समाज को चुनौती है तो वहीं ‘‘ऐ मुहब्बत
जिन्दाबाद’’ में विद्रोही प्रवृत्ति दिखलाई देती है।
(तीन)
वैसे साठोत्तरी हिन्दी
कविता में ‘‘लोकोन्मुखी
यथार्थ’’ व ‘‘समाजोन्मुखी यथार्थ’’
की जो नई काव्य प्रवृत्तियाँ उभरी, जिसके
आदर्श कवि केदार नाथ सिंह व रघुवीर सहाय रहे। उस रूप में फिल्मी गीतकारों में
शैलेन्द्र व शकील लोक प्रवृत्तियों के
करीब के कवि (गीतकार) हैं। शैलेन्द्र द्वारा रचित ‘‘घड़ी घड़ी
मेरा दिल धड़के... ’’(मधुमती) और ‘‘चलत
मुसाफिर मोह लियो रे, पिंजरे वाली मुनिया... ’’ (तीसरी कसम) तथा शकील के ‘‘गंगा
जमुना’’ में लिखे- ‘‘नैन लड़ जइहें तो
मनवा मा कसक होइबे करी...’’ और ‘‘ढूंढों-ढूंढो
रे साजना मोरे कान का बाला...’’ या ‘‘बैजू
बावरा’’ में ‘‘मोहे छोड़ गये सांवरिया...’’,
लोक संपृक्ति के अनमोल गीत हैं। प्रगतिवादी सामाजिक चेतना के स्वर
साहिर के गीतों में देखे जा सकते हैं। वे अकविता मनःस्थिति तथा इसके बाद की
विद्रोही काव्य प्रवृत्ति के इकलौते कवि हैं। फिल्म ‘‘प्यासा’’
का गीत- ‘‘जिन्हें नाज है हिन्द पर वे कहां
हैं...’’ या फिल्म ‘‘साधना’’ का गीत- ‘‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया...’’ अथवा ‘‘वो सुबह कभी तो आयेगी...’’ फिल्म ‘‘फिर सुबह होगी’’ ऐसे ही गीत हैं।
(चार)
हिन्दी कविता में जीवन
दृष्टि और कलादृष्टि के संघर्ष के दबाव में कई अच्छी कविताएं लिखी गईं- फिल्मों
में भी इसी संघर्ष के फलस्वरूप् आनंद बख्शी,
गुलशन बावरा और इंदीवर ने इस दौर में कई यादगार गीत लिखे जैसे- ‘‘एक था गुल और एक
थी बुलबुल...’’ (आनंद बख्शी),
‘‘चांदी की दीवार न तोड़ी...’’ (गुलशन बावरा), फूल तुम्हें भेजा है खत में...(इंदीवर)। हिन्दी काव्य में
जिस तरह राष्ट्रीय काव्य धारा और हालावादी काव्यधारा की सांसें बहुत कम हैं।
फिल्मी गीतों में भी इस धारा के स्वर अधिकता के बावजूद श्रेष्ठतम कम हैं। हिन्दी
कविता में जिस तरह जीवन के चित्र प्रस्तुत हुए वहीं फिल्मी गीतों में जीवन के
फलसफे को ज्यादा चित्रित किया गया जहां नैराश्य जीवन आशावादी हो उठता है।
(पांच)
प्रेम भाव एवं प्रेम
संबंधी विभिन्न दशाओं के गीत, श्रृंगार, विरह आदि पर प्रायः सभी गीतकारों ने
उत्कृष्ट गीत लिखे हैं, जिनकी संख्या हजारों में हो सकती है। यह स्वर फिल्मी गीतों
का मूल स्वर भी रहा है। इसे फिल्मी गीतों का केन्द्रीय विषय भी कहा जा सकता है।
इसका प्रमुख कारण फिल्मों में सिचुएशन का होना है, जिसके
फलस्वरूप् उक्त भाव की प्रधानता अधिक रही है। दरअसल कविता में जिसे विषय कहा जाता
है फिल्मी गीतों में उसे ‘‘सिचुएशन’’ कहा
जा सकता है। जैसे किसी अच्छे विषय पर कमजोर कविता अथवा कमजोर विषय पर अच्छी कविता
हो सकती है, ठीक इसी प्रकार किसी अच्छी सिचुएशन पर कमजोर
(चालू) गीत या कमजोर (छोटी) ‘‘सिचुएशन’’ पर महान गीत की रचना भी हो सकती है। यह भी कहा जा सकता है जो महान गीतकार
होता है वह कल्पना व शब्द संरचना से ऐसा गीत रच देता है कि वह गीत ‘‘फिल्मी सिचुएशन’’ से अलग होकर भी अपनी सत्ता बना लेता है तथा सामाजिक
परिदृश्य में महत्वपूर्ण हो जाता है। साहिर, शैलेन्द्र,
शकील, मजरूह, हसरत,
राजेन्द्र कृष्ण, राजा मेंहंदी अली खां;
ऐसे गीतकार हैं, जिन्होंने प्रायः सभी सिचुएशन
पर काव्यात्मक गीत लिखे तथा फिल्मी सिचुएशन से अलग गीतों की स्वतंत्र सत्ता
स्थापित की कहते हैं- गीतकार शैलेन्द्र, राजकपूर से फिल्म ‘‘बरसात’’ में गीत लिखने का आग्रह ले कर मिले थे। तब
राजकपूर ने उनसे बहुत छोटी सिचुएशन पर गीत लिखने को कहा था और शैलेन्द्र ने फिल्म
के शीर्षक गीत को अमर कर दिया । नायिका का नायक के प्रति अटूट प्रेम और विरह की
भाव दशा इस शीर्षक गीत में व्यक्त हुई है। इस गीत में फिल्मी सिचुएशन से अलग गीत
की स्वतंत्र सत्ता भी है-
‘‘बरसात में
हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम
प्रीत ने सिंगार किया, मैं बनी दुल्हन
सपनों की रिमझिम में
नाच उठा मन
आज मैं तुम्हारी हुई, तुम मेरे सजन, बरसात
में
(फिल्म बरसात,
गीतकार शैलेन्द्र)
(छः)
फिल्मी गीत साहित्य
में विरह वेदना का स्वर भी बहुलता में है। यहां प्रेम का वह मारग (मार्ग) भी है
जिसे काव्य में घनानंद ने सुझाया। जहां वे हताशा के बावजूद नायिका ‘‘सुजान’’ को
विस्मृत नहीं करते तथा यहां उर्दू काव्य का वह रास्ता भी, जिसे
मीर तैयार करते हैं। मीर अपने कई शे‘रों में अपने महबूब को
कोसते, श्राप देते मिलते हैं। यथा-
हुए हम जिनके लिये
बरबाद
वो चाहें हमको करें न
याद
जीवन भर उनकी याद में
हम गाये जायेंगे
(फिल्म - दीदार,
गीतकार- शकील)
हम वो नहीं जो प्यार
में रोकर गुजार दें
परछाई भी हो तेरी तो
ठोकर भी मार दें
वाकिफ हैं हम भी खूब
हरेक इन्तकाम से
(फिल्म - दिल
दिया दर्द लिया, गीतकार- शकील)
मेरे दुश्मन तू मेरी
दोस्ती को तरसे
मुझे गम देने वाले तू
हर खुशी को तरसे
(फिल्म- आये दिन
बहार के)
(सात)
हिन्दी कविता या
गीत-कला से भिन्न, फिल्मी
गीतों की एक बंदिश या सीमा यह भी रही है कि नायक-नायिका दोनों के मनोभावों को एक
गीत में स्वर देना या कई-कई पात्रों का चित्रांकन; एक ही गीत
में संभव करना अथवा जनगीत शैली का कोरस। फिल्मी गीतों की इस बंदिश शैली में गीतकार
साहिर, शैलेन्द्र, शकील को महारत हासिल
थी। फिल्म ‘‘नया दौर’’ में ‘‘साथी हाथ बढ़ाना’’ का कोरस गीत इस शैली का श्रेष्ठ
उदाहरण है। साहिर ने इस गीत में श्रमिक एकता का जो चित्र खींचा है, वह लाजवाब है। इस गीत का एक बंध गौरतलब है –
‘‘एक से एक मिले
तो कतरा बन जाता है दरिया,
एक से एक मिले तो
जर्रा बन जाता है सहरा,
एक से एक मिले तो राई
बन सकती है परवत,
एक से एक मिले तो
इन्सां बस में कर ले किस्मत,
साथी हाथ बढ़ाना. . . .
. . .
(आठ)
हम काव्य प्रयोजन पर
बात करें तो स्वांतः सुखाय अथवा सामाजिक सरोकार सामने आते हैं। लेकिन यदि यही
प्रयोजन फिल्म के गीतों के लिये इस्तेमाल करें तो कथा क्रम को आगे बढ़ाना, कथानक को जोड़ना या बांधना, नायक-नायिका की मनःस्थिति को घनीभूत करना अथवा फिल्म के दृश्यबंध को इस
रूप् में रचना कि वह भावना-प्रधान गीत की स्वतंत्र सत्ता बना लें तथा जन अभिरूचि
के मनेानुकूल भावाभिव्यक्ति का गौरव प्राप्त कर ले। गीतों के प्रयोजन को भी साहिर,
शकील व शैलेन्द्र ने ही अधिकतर केन्द्र में रखा। ‘‘श्री चार सौ बीस’’ का शैलेन्द्र द्वारा लिखा गीत ‘‘मेरा जूता है जापानी’’ इसी ‘प्रयोजन
मूल्य’ के कारण चर्चित है।
(नौ)
हिन्दी अथवा उर्दू
काव्य-भाषा कभी भी हिन्दी व उर्दू भाषा के मेल से नहीं बनी। लगभग 30-35 तक हिन्दी कविता में संस्कृत-निष्ठ
शब्द तथा उर्दू काव्य में - फारसी युक्त शब्दावलियां थीं। आगे चलकर हिन्दी व उर्दू
काव्य-भाषा सहज-सरल व आमफहम अवश्य हुई पर आज भी हिन्दी व उर्दू के संगम की उस भाषा
का निर्माण नहीं कर पाई जो फिल्मी गीतों की भाषा का आधार है। फिर वह गीत साहिर ने
लिख हों या शैलेन्द्र ने अथवा शकील ने। उदाहरणस्वरूप् फिल्म ‘‘चोरी चोरी’’ में शैलेन्द्र का यह गीत ‘‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले तो वीराने में भी आ जायेगी बहार,
झुमने लगेगा आसमां’’।
(दस)
क्या वजह है कि पुराने
फिल्मी गीत, आज भी विशिष्ट
अवसरों पर सुनाई देते हैं। मसलन ब्याह में, बिदाई में,
तीज-त्योहारों- रक्षाबंधन, भाईदूज या करवाचौथ
में, माँ की लोरियों में, दादी-नानी या
भाभी आदि रिश्तों में प्रेम वात्सल्य भाव में आदि। इसमें प्रकृति के विभिन्न
उपादान और मौसम के उतार चढ़ाव के गीत भी शामिल हैं। इसका प्रमुख कारण है हिन्दी
काव्य-धारा, लोक संवेदना के आग्रह के बावजूद उस भावात्मक-रागात्मक
रिश्तों को अभिव्यक्त नहीं कर पाई जिसका अंतर्सबंध सीधे आंचलिक लोक गीतों या फिर
फिल्मी गीतों से है। ‘‘बाल गीत’’ में
भी जो चेतना फिल्मी गीतों के माध्यम से व्यक्त हुई, वह पूरे
हिन्दी बाल साहित्य में नहीं है।
नफरत जो सिखाये वो धरम
तेरा नहीं है
इन्सां को जो रौंदे, वो कदम तेरा नहीं है
कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा
गीता न हो जिसमें वो
हरम तेरा नहीं है।
(फिल्म- धूल का
फूल, गीतकार- साहिर)
(ग्यारह)
हमारे यहां कविता के
नये प्रतिमान (या नये सौन्दर्यशास्त्र) तो बनते हैं पर गीतों के नये प्रतिमान नहीं
बनते अन्यथा नई कविता के बाद से गीति-काव्य की यह दुर्दशा नहीं होती। साहित्यिक
परिदृश्य में गीतों की जब यह स्थिति रही हो,
तो फिल्मी गीतों के प्रतिमानों पर तो कुछ भी कहना बेमानी होगा। वैसे
फिल्मी गीतों का प्रतिमान ‘‘लोकप्रियता’’ रहा जिसे जनमत द्वारा तैयार किया गया।
(बारह)
हिन्दी कविता की
समकालीन धारा आज भी विकासमान है किन्तु हिन्दी फिल्मी गीत- साहित्यिक धारा से
अलग-थलग होकर अपनी लोकप्रियता खो चुके हैं। जहां हिन्दी कविता समकालीन चुनौतियेां-
भूमंडलीयकरण, उदारीकरण,
बाजारवाद, उत्तर आधुनिकता, संचार क्रांति आदि से संघर्ष करती हुई प्रवाहमान है, वहीं फिल्मी गीत (कार) इनके प्रभाव से बन रहे सांस्कृतिक प्रभा मंडल में
घुटने टेक चुके हैं। यही वजह है कि सदाबहार गीतों का काव्यात्मक सफर अब ‘‘रिमिक्स’’ और ‘‘आइटम सांग’’
जैसी प्रस्तुतियों तक पहुंच चुका है।
(परिन्दे से साभार)
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