भगत सिंह और सावरकर की ब्रिटिश सरकार के समक्ष दी गयी याचिकाएँ
भारतीय
स्वतन्त्रता संग्राम से गुजरते हुए हमें तमाम कड़वी सच्चाईयों का सामना करना पड़ता
है। इतिहास इस मायने में निर्मम होता है कि यह सच को सच कहने का हमेशा से पक्षधर
रहा है चाहें वह तथ्य या बात हमारी भावनाओं को ठेस ही पहुंचाने वाली हो। यह हम
सबको मालूम है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी
सरकार
ने क्रांतिकारी भगत सिंह को उनके दो साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को फांसी पर लटका दिया था। भगत सिंह की
उम्र तब महज 23 बरस की थी। उनके सामने एक विकल्प यह था कि वे चाहें तो अंगरेजी
सरकार से माफी मांग कर अपना जीवन बचा सकते हैं। भगत सिंह के घर-परिवार के लोग और
उनके कुछ मित्र भी यह चाहते थे कि जीवन बचाने के लिए उन्हें ऐसा करना चाहिए। लेकिन
इसके उलट अपने आख़िरी वसीयतनामे में भगत सिंह ने अंग्रेज सरकार से यह माँग की कि उन्हें
फायरिंग स्क्वाड द्वारा सज़ा-ए-मौत दी
जाए, फांसी के द्वारा नहीं। वे अपनी शहादत के
जरिये भारतीय युवाओं को एक सन्देश देना चाहते थे कि देश के लिए उन्हें अपनी जान
न्यौछावर करने से भी कोई परहेज नहीं है। यह भगत सिंह का देश था उसके प्रति यह उनकी
अवधारणा थी।
एक और क्रांतिकारी हुए हैं विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर
हिंदुत्ववादी विचारधारा के प्रमुख लेखकों और जन्मदाताओं में से एक माने जाते हैं।
आज हमारे देश की दक्षिणपंथी विचारधारा वाली पार्टियाँ उन्हें अपना आईकन मानती हैं
और उनके नाम का बारम्बार जाप करती हैं। ज्ञातव्य है कि ब्रिटिश सरकार ने वी. डी. सावरकर
को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए 50 वर्षों की कैद की सज़ा भुगतने
के लिए 1911 में अंडमान के
कुख्यात सेल्युलर जेल भेज दिया। सजा शुरू होने के कुछ महीनों के भीतर ही उन्होंने अंग्रेज़ों
के सामने उन्हें जल्दी रिहा
करने की याचिका लगा दी थी। सरकार द्वारा इसे अनसुना किये जाने पर उन्होंने एक बार
फिर 1913 में और फिर 1921 में मुख्यभूमि में स्थानांतरित किये
जाने और 1924 में अंततः क़ैदमुक्त
किये जाने तक की अर्जी
लगायी। उनकी याचिकाओं की भाषा इस प्रकार थी : ‘मुझे छोड़ दें तो मैं भारत की आज़ादी
की लड़ाई को छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार
के प्रति वफ़ादार रहूँगा।’ एक तबका इसे सावरकर का एक रणनीतिक क़दम मानता है जबकि दूसरा तबका सावरकर
के इस कदम की कड़ी आलोचना करता है। इतिहास गवाह है कि सावरकर ने अंडमान की जेल से
बाहर निकलने के बाद, अंग्रेज़ों से किया
गया अपना वादा ईमानदारी के साथ निभाया और स्वतंत्रता
संग्राम की गतिविधियों से पूरी तरह दूर रहे। लेकिन सावरकर ने एक काम जरुर किया। मुस्लिम
लीग की स्थापना और मुस्लिम प्रतिक्रियावाद की प्रतिक्रिया में उन्होंने ‘हिंदुत्व’ के
सिद्धांत की प्रतिस्थापना कर अंग्रेज़ों की अप्रत्यक्ष रूप से मदद ही किया, जो मुस्लिम लीग के ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत को अपरोक्ष रूप से मान्यता
प्रदान करता था। पहली बार के पाठकों के लिए हम शहीद भगत सिंह की आख़िरी याचिका और 1913 में दाख़िल की गयी वी. डी. सावरकर की याचिका को यहाँ पर
प्रस्तुत कर रहे हैं। हम इन याचिकाओं को यहाँ इसलिए भी प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे
कि इतिहास की उन सच्चाईयों से वाकिफ हो सकें जिन पर आज पर्दा डालने की पुरजोर
कोशिशें की जा रही हैं।
भगत सिंह |
अंगरेजी सरकार के समक्ष भगत सिंह की अंतिम याचिका
लाहौर जेल, 1931
सेवा में,
गवर्नर पंजाब,
शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे
हैं-
भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर
षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया
था, जिसने 7 अक्तूबर, 1930 को
हमें फांसी का दण्ड सुनाया।
हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध
युद्ध किया है।
न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-
पहली यह कि अंग्रेज़ जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरी यह है कि हमने निश्चित
रूप में इस युद्ध में भाग लिया है।
अत:
हम युद्धबंदी हैं।
यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया है, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि
ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है। पहली
बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं। हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष
रूप में ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है। हम नहीं जानते कि
युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ
ही इसे इसके ठीक संदर्भ में समझाना
चाहते
हैं।
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली
व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की
आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय
ही हों, उन्होंने
आपस में मिल कर एक लूट जारी कर रखी है।
चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति
में कोई अंतर नहीं पड़ता।
यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधाएँ मिल जाएँ, अथवा समझौते हो जाएँ, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता
है। हमें इस बात की भी
चिंता नही कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे
राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और
वे
समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित
बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से
क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है।
हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास
रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने
अपना सब कुछ बलिदान कर
दिया है। उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर
दिया। उन्होंने अपने आप को भी
न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है। आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां
बना कर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी
की
प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परन्तु
यह युद्ध चलता रहेगा।
हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप
ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले,
कभी
गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि
जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाए। चाहे
कोई
भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर
पड़ेगा। यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को
चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी
रहेगी।
इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। बहुत संभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर
ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब
तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक
वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही
हो जाता।
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद
कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने
प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने
प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के
साथ समाप्त ही होगा। हमारी सेवाएं इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएँगी जिसको
यतीन्द्र नाथ दास और भगवती चरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है। इनके बलिदान महान
हैं।
जहां तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम ज़ोरदार शब्दों
में आपसे यह कहना चाहते हैं कि
आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है। आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार
भी प्राप्त है। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना
रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई
प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार
की दया की प्रार्थना नहीं करते।
हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार
हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति
में हम युद्धबंदी हैं, अत: इस आधार पर हम
आपसे मांग करते हैं कि हमारे
प्रति युद्धबन्दियों- जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया
जाए।
अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया
है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का
प्रमाण
दीजिए। हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली
से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए।
आपका
भगत सिंह
(स्रोत : भगत सिंह और
साथियों के संपूर्ण दस्तावेज, राहुल फाउंडेशन)
विनायक दामोदर सावरकर |
वी. डी. सावरकर की दया याचिका
सेवा में,
गृह सदस्य,
भारत सरकार
मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु
प्रस्तुत करने की याचना करता हूँ:
(1). 1911 के जून में जब मैं
यहां आया, मुझे
अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ
चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया। वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस
(ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’
श्रेणी
में नहीं रखा गया। उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया। दूसरे
क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया। उस दौरान
मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया,
जबकि
मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था। उसके बाद
मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है।
हालां कि, इस दौरान मेरा आचरण
असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल
से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को
रिहा कर दिया गया। उस समय से अब तक मैंने अपना
व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है।
(2). जब मैंने तरक्की के
लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूँ और इस लिए
मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती। जब हम में से किसी ने
अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम
सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही
भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं।’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें
विशेष कष्ट देने के लिए
हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है।
(3). जब मेरे मुक़दमे के
अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया
गया, तब मैंने भी रिहाई की
दरख़्वास्त की। हालांकि, मुझ
पर अधिक से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा
चला है, फिर भी मुझे रिहा
नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार
मुक़दमा चला है। मुझे उनके साथ इसलिए नहीं
रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था। लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश
आया, तब संयोग से कुछ
राजनीतिक क़ैदियों को जेल में
लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद
कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था।
(4). अगर मैं भारतीय जेल
में रहता, तो इस समय तक मुझे
काफ़ी राहत मिल गई होती।
मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझ से मिलने आते। अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की
उम्मीद कर रहा होता। लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई
सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे
हैं। जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का
सामना
करना पड़ रहा है।
(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे
दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस
विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा
करेंगे? मैं किसी तरजीही
व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूँ, जबकि मैं मानता हूँ कि एक राजनीतिक बंदी
होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य
प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था। मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूँ, जिस के हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं। मुझे
स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की
वर्तमान
योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूँ। मियादी
क़ैदियों की स्थिति अलग है। लेकिन श्रीमान मेरी आंखों
के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं।
मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में
गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहाँ से जमा करूं,
जबकि
मैं उन रियायतों से भी वंचित
हूँ, जिसकी उम्मीद सबसे
हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर
सकता है? या तो मुझे भारतीय
जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए)
सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूँ; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा।
जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे
ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है! (सी) सबसे बढ़ कर मेरे
पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो
होगा। या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की
तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी
जाए, 5 वर्ष के बाद
मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं।
अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी
कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का
दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती
का। यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन
सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में
जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो
जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को
न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले
हैं; यह अवश्यंवभावी है कि
इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए। अगर
ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को
ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई
भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती।
अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूँ
कि आप दयालुता दिखाते हुए
सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका
पर पुनर्विचार करें और
इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें।
भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते
को एक बार फिर खोल दिया है। अब भारत और मानवता की
भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों
से भरी राहों पर नहीं
चलेगा, जैसा
कि 1906-07 की नाउम्मीदी और
उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें
शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।
इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं
आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूँगा और अंग्रेज़ी सरकार
के प्रति वफ़ादार रहूँगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।
जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के
सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के
घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता।
अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के
पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना
जानती है, नारे लगाएंगे।
इससे भी बढ़ कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए
नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने
पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस
रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने
वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने
से
होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।
जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है
और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के
अलावा और कहाँ लौट सकता है। आशा है, हुजूर
मेरी याचनाओं पर दयालुता
से विचार करेंगे।
वी. डी. सावरकर
(स्रोत: आर. सी.
मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द
अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
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