सन्तोष कुमार चतुर्वेदी


पिछले रविवार को हमारी राजधानी दिल्ली में एक तेईस वर्षीया पैरामेडिकल छात्रा के साथ जिस तरह की शर्मनाक घटना घटी वह हतप्रभ कर देने वाली थी। आखिर किस सीमा तक हम संवेदनहीन हो सकते हैं। किस सीमा तक हमारा पतन हो सकता है। दरिन्दगी किस सीमा तक बरदाश्त की जा सकती है? क्या वाकई परिस्थितियॉ कुछ ऐसी हो गयीं हैं जो बेलगाम हैं या जिन पर रोक लगायी ही नहीं जा सकती।

इस घटना पर जिस तरह के देशव्यापी प्रदर्शन हो रहे हैं वह अप्रत्याशित नहीं है। यह आम जनता का एक अरसे से संचित गुस्सा है। एक एक चीज के लिए अपना जान तक लड़ा देने वाली जनता रोज किसी ऐसे घोटाले के बारे में सुनती है जिसकी राशि की गणना अब आम आदमी तमाम माथापच्ची के बाद भी नहीं कर सकता। वही जनता जो एक गैस सिलेण्डर के लिए, एक राशन कार्ड बनवाने के लिए मारी-मारी फिरती है जबकि देश और राज्य के इससे सम्बद्ध विभाग और मन्त्री और नौकरशाह क्या गुल खिला रहे हैं इसके बारे में कोई अन्दाजा तक नहीं लगाया जा सकता।

इस जघन्यतम घटना को अंजाम देने वाले दरिन्दों के लिए फांसी की सजा भी बहुत कम पड़ेगी। सवाल तो यह भी है कि मात्र फांसी दे देने से क्या हम अपराधियों के जेहन में इस तरह का डर पैदा करने में कामयाब हो सकते हैं कि आगे वे इस तरह की घटना अंजाम देने के पहले हजार बार सोचे। इस तरह की घटनाएं भविष्य में कैसें रोकी जा सकती हैं आज यह सोचने की जरूरत है। क्या यह जरूरी नहीं कि इस तरह की अपसंस्कृति पैदा करने वाले विचार के जड़ मूल पर ही प्रहार किया जाय। इसके लिए उच्चतम से निचले स्तर तक हम सबको एकजुट हो कर सुनियोजित तरीके से कार्यवाही करनी होगी। एक ऐसा भय जो स्वयं व्यक्ति के अन्दरं पैदा हो न कि दिखावटी और उपरी तौर पर। हमें पैदा करना होगा खुद अपने अन्दर वह संकोच जो कभी हमारी एक निधि हुआ करता था। वही संकोच जो कभी एक बेहतर नागरिक के तौर पर हमारा आचरण निर्मित किया करता था। उसी शील-संकोच को हमें फिर से जगाने का यत्न करना होगा। तभी हम एक बेहतर समाज स्थापित करने की तरफ बढ सकते हैं। और सोच सकते हैं।  अन्यथा इस तरह की घटनाएॅ रोक पाना हमारे वश की बात नहीं। 

सवाल यह है कि हम कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं। दिल्ली और उसके आस-पास के राज्यों में जिस व्यापक पैमाने पर गर्भस्थ मादा भ्रूण की हत्या जारी है उसकी परिणति गिरते महिला अनुपात के रूप में साफ दृष्टिगोचर हो रही है। उपर से रही सही कसर हमारी कूड़ा कचरा फिल्में और दिन रात चलने वाले वाहियात टी वी सीरियल पूरा कर दे रहे हैं। द्विअर्थी और अश्लील गाने लाउडस्पीकरों पर दिन रात कस्बे से ले कर महानगरों तक में कानफोड़ू अन्दाज मे बजते रहते हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। सड़कें इतनी असुरक्षित कि एक महिला अकेले चलने के बारे में सोच तक नहीं सकती। आवारा पूॅजी ने भी हमारे युवकों को बहुत हद तक गुमराह किया है। एक से एक महॅगे मोबाइल सेट और उस पर दिन रात चलने वाली उनकी निरर्थक बातचीत। एक से बढ कर एक गाड़ियॉ जिनके लिए सड़क पर किसी को कुचलना ही सार्थकता है। हमने पिछले दिनों में जो बोया है वही अब काट रहे हैं। क्या इन सब बिगड़ी हुई स्थितियों में दिल्ली के बलात्कार और छेड़खानी की राजधानी बनने पर हमें अब भी आश्चर्य है। क्या हमारी सरकार उन अमानवीय चिकित्सकों, नर्सिंग होम संचालकों, फिल्म निर्देशकों और इन सबकी व्यवस्था से जुड़े नौकरशाहों, दलालों के सुनियोजित तन्त्र पर कोई कड़ी कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा सकती है। जाहिरा तौर पर जवाब नकारात्मक ही होगा। अपनी तरफ के एक प्रचलित मुहावरे में इस विडम्बना को परिभाषित करने की हिमाकत कर सकता हॅू - ‘चाम का घर कुकुर रखवार’।

दिल दहला देने वाली घटना पर मैं मानसिक रूप से अभी तक विचलित और हतप्रभ हॅू। इस घटना की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम है। एक पुरूष होने के नाते और अपने इसी समाज का होने के नाते मैं खुद आज बहुत शर्मिन्दा हॅू। हमें आगे बढकर एकजुट होकर नेताओं, दलालों, ठेकेदारों, नौकरशाहों के इस सुनियोजित तन्त्र और षडयन्त्र पर प्रहार करना होगा तभी कोई उम्मीद की जा सकती है। यह उम्मीद अघाए हुए लोगों से नहीं बल्कि आम आदमी से ही की जा सकती है। क्या पता घटना के विरोध मे होने वाले जनप्रदर्शन मे ही इस भविष्य के प्रहार और प्रतिरोध के बीज छुपे हुए हों।

पहली बार पर प्रस्तुत है आज ही इस वैचारिक उद्वेलन के फलस्वरूप लिखी गयी मेरी एक कविता


अपनी घृणा को मरने मत देना शिखा

तुम्हारा वास्तविक नाम तो कुछ और था न शिखा
धधकती ऑच से भले ही झुलस गया हो तुम्हारा तन-मन
लेकिन तुम्हारी असल पहचान को
उजागर नहीं होने दिया अन्ततः हमारे इस तन्त्र लोक ने
और अपनी सहूलियत के लिए गढ लिया तुम्हारा यह कल्पित नाम
आखिर कब तक दुनिया की नजरों से ओझल रख पाता अपनी यह करतूत

गढने को तो गढी गयी हमारी यह राजधानी ही
कहते हैं एक नहीं पूरे सात बार
लेकिन तब भी अपनी मलीनता से नहीं उबर पायी यह
अरसे से भुलावे में पड़ी दिल्ली
आज भी अक्सर भुलावे में डाल देती है
बड़े बड़े विद्वानों और महारथियो तक को

चकाचौंध से उपजी इस हजार अन्धेरी रातों वाली दिल्ली में
यह जो भागमभाग है
वह दरअसल ठहराव का ठाट है
खजूर के पेड़ से भी उची दिल्ली की इमारतें हैं ये
इनमें दूब बराबर भी संकोच नहीं शील नहीं
इनकी उचाई मापने की भूल मत करना
अन्यथा तुम्हारा गिरना तय
और यहॉ गिरने वाले का बच पाना मुश्किल

अब यहॉ दिल्ली में या तो प्रधानमन्त्री रहते हैं या और सब किसिम किसिम के मन्त्री
अब यहॉ दिल्ली में या तो नेता रहते हैं या प्रणेता
अब यहॉ दिल्ली में या तो नौकरशाह रहते हैं या दलाल
अब यहॉ दिल्ली में या तो ठेकेदार रहते हैं या हत्यारे
अब यहॉ दिल्ली में या तो डाकू रहते हैं या लुटेरे
अब यहॉ दिल्ली में या तो भड़ुवे रहते हैं या लगुए-भगुए

दिलवालों ने यहॉ रहना छोड़ दिया एक जमाने से
और जो बचे हैं लुप्तप्राय प्रजाति वाले
वे भूल चुके हैं आज खुद अपने को ही
ऑखें खुली होने पर भी वे नहीं देखते
जुबान होने पर भी वे कुछ नहीं बोलते
श्रवणशक्ति होने पर भी वे कुछ नहीं सुनते
वे चुपचाप काम पर जाते हैं
और फिर घर लौट आते हैं चुपचाप ही
उनकी चुप्पी देखकर लोग डर जाते हैं
सिहर जाते हैं हम भी उनकी चुप्पी देख कर

बड़ा काम अंजाम देने के मुगालते में डूबे कुछ कवि भी
शिकारियों के अन्तिम शिकार बन जाने तक
कविता लिखने में जुटे हैं यहॉ
समूचा ताप खो कर आभाहीन हो जाने वाले दौर में
कविता का तिलिस्म रचने में गंभीरता से जुटे हैं ये कवि
तेजी से चक्कर काटती पृथिवी पर जिस वक्त
प्रलय से जूझ रही थी तुम
ये कवि या तो पुरस्कारों की जोड़-तोड़ में जुटे थे
या फिर किसी कवि सम्मेलन में शामिल होने की जुगत में व्यस्त थे
इनसे कैसे की जा सकती है कोई भी उम्मीद
जबकि इन्हें नीरो की बासुरी का राग निर्लज्ज बहुत अच्छा लगता है
किसी रोम के जलने से इन्हें क्या मतलब

तुम्हारा नाम बचा लिया गया
इसके आगे जान की क्या बिसात
देखना ही है तो देखो
कैसे बचा रहे हैं अपनी इज्जत
बिरादरी वाले और गॉव वाले
और यह भी तो देखो रिश्तेदार कैसे संबंधों से कन्नी काटते फिर रहे हैं बेचारे
इसी बीच अचानक ही निकल आया तुमसे मेरा जनपदीय रिश्ता
वही जनपद जिसके साथ छेड़खानियों का अनन्त सिलसिला जारी है बदस्तूर
तब भी अगर जिन्दा है यह तो अपनी जिजीविषा के दम पर
जैसे कि तुम

इतना तो पता ही होगा तुम्हें
कि अकेलेपन की काई पर टिक नहीं पाते
मजबूत रिश्तों के भी पॉव
जबकि संभावनाओं के फूल को उसकी कलियों और पत्तियों समेत तोड़ कर
हम पहले ही विसर्जित कर चुके हैं नदियों में

जितना आधुनिक हुए हैं हम
उतना ही बढता जा रहा है डर हमारा
अपने समय के एक मशहूर अभिनेता का यह डायलाग
कि ‘जो डर गया समझो मर गया’
मुझमें तनिक भी भरोसा नहीं जगा पाता
और अब तो आलम यह कि जीते जी
अब रोज मैं थोड़ा थोडा मरता जा रहा हॅू
जैसे हमारे देश के किसान और मजदूर
बहरहाल इस सवाल को लेकर हमारी संसद चिन्तित है
और एक संकल्प पारित करने के लिए गंभीरता से प्रतिबद्ध है

हमें पूरा भरोसा है कि तुम बच जाओगी जरूर अपने अन्तस को मार कर
लेकिन अपनी घृणा को तुम कभी मत मरने देना शिखा
उस दिन तुम्हारे सारे अपराधी मर्द ही तो थे
और आखिरकार हम भी एक मर्द ही
जीवन में एक दौर ऐसा भी आता है जब
लगता है जैसे जिन्दा हो कर भी मर गया हमारा सब
जबकि मर मर कर भी मैं जिन्दा  हॅू
कैसे कहूॅ कि इस कृत्य पर कोटिशः शर्मिन्दा हॅू
माफ मत करना कत्तई हमें
अपनी बेगुनाही का हजार सबूत दें हम तब भी
देश की हर उपलब्धि में बढ चढ कर हाथ बॅटाने वाले हम सबका
इस गुनाह में भी तो बराबर का हाथ है ही

आजकल मैं खुद ही अपनी राजधानी होता जा रहा हॅू
जहॉ संसद एक संकल्प पारित कराने को ले कर प्रतिबद्ध है आज भी
इन दिनों जिसके लिए विदेशी निवेश ही अहम मुद्दा है
और बाकी जो कुछ है वह सब गल चुका केले का गूद्दा है



सम्पर्क-
3/1 बी, बी के बनर्जी मार्ग
नया कटरा
इलाहाबाद उत्तर प्रदेश
211002
 
मोबाइल- 09450614857

     

टिप्पणियाँ

  1. apne samay, swal aur sankaton se do-do haath kane wale kargar hathiyaron men se kavita bhi ek hai. is vakt santosh ji ki kavita men kalatmakta khojana gairjimmedrana jidd hai. yah kavita gangreep se pidit yuvti ki ghayal atma par marham hai. ummid hai, hamare vakta ke sajag yuva kavi , santosh ji hamare pet aur peeth par jame huye har prahar ka javaab apni aisi hi samay -sapeksh kavitayon se dete rahenge. bharat

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  2. कविता पसंद आयी ...अपनी कला के साथ-साथ अपने कथ्य के कारण भी |आपने इस घृणित अपराध पर बहुत ही बोल्ड और मुखर तरीके से अपना पक्ष रखा है , हम इसलिए भी इस कविता की सराहना करते है | यह आवाज और मुखर हो , यह कामना करते हुए पहली बार का आभार |

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  3. क्या कहें! यह घटना इस कदर शर्मिंदा करने वाली है कि सोच कर मन सिहर जाता है. आपने सही रेखांकित किया है कि दिल्ली में दो तरह के लोग हैं, जिनसे दिल्ली थी वे बस चुप हैं और समय को गुजरते हुए देख रहे हैं और इतिहास को जी रहे हैं.
    हम सब शर्मिंदा हैं ! इस अतीतजीविता का हिस्सा बनकर क्योंकि जो चुप हो गये हैं उनके अलावा जो हैं उनके लिए पूँजी जुटाना ही एक मुद्दा है और पूँजी का वितरण प्रमुख काम..
    यह प्रतीक नाम(शिखा) शायद हमें एक दिन क्षमा कर दे लेकिन वह मासूम दर्द हमारे सीने में सदैव बना रहेगा जो उसे मिला है और हम महसूस कर रहे हैं..
    यह सिर्फ आपका जनपदीय दुःख नहीं है हम सबका दुःख है, जनपद, राज्य और देश के सीमाओं से परे का दर्द!!
    अच्छी कविता..

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  4. अपनी घृणा को मरने मत देना शिखा' कविता में दर्ज़ हुआ आक्रोश और विरोध वाजिब है।इधर फेसबुक पर अरुण देव,विशाल श्रीवास्तव के साथ-साथ कुछ और युवा पीढ़ी के कवियों की कविताओं में इसी तरह के आक्रोश और विरोध का स्वर चिन्हित किया सकता है।हिंदी की युवा पीढ़ी की कविता नयी दिशा में मुड़ रही है।
    चंद्रेश्वर पाण्डेय

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  5. आक्रोश से भरी कविता जो आज के व्यथित करने वाले माहौल में स्वाभाविक है .यह आक्रोश हम सभी का आक्रोश है .संतोष भाई ने इसे स्वर दिया उन्हें साधुवाद.

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  6. जायज आक्रोश ..और यह आक्रोश जारी रहना चाहिए उचित न्याय और सुरक्षा मिलने तक .दिलवालों ने यहाँ रहना छोड़ दिया है एक जमाने से .....बहुत सठिक . सादर .

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