प्रेम शंकर सिंह
डूबते सूरज को प्रणाम करती कहानियां
(प्रियदर्शन मालवीय की कहानियों पर एक नोट्स)
हिन्दी के कहानी संसार में पिछले सालों मे जिन लोगों ने चुपचाप
अपनी जगह बनाई है, उनमें प्रियदर्शन मालवीय प्रमुख है. उनकी कहानियां हिन्दी की कई
पत्रिकाओं, मसलन कथादेश, तद्भव, नया ज्ञानोदय, बहुवचन आदि में छपी हैं और खासी
चर्चित और विवादित भी रही हैं. अभी पिछले दिनों आधारशिला से "सुनिये घोड़ों की टापें" नाम से उनकी
कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें कुल आठ कहानियां संकलित है. ये कहानियां
विषय वस्तु, भाषा और शिल्प की विविधता के कारण ध्यान आकर्षित करती है.
पिछले दो दशकों में भारतीय समाज कई तरह के संक्रमण और
सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के बीच आगे बढ़ा है. 1990 के दौर से उदारीकरण की आहटें
सुनाई पड़ने लगी थी. दूसरी तरफ सोवियत व्यवस्था के विघटन के कारण समाजवादी और
पंथनिरपेक्ष समाज निर्माण की आकांक्षा रखने वाली ताकतें पस्त हिम्मती का शिकार
हुई. ऐसी ही स्थिति में सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था अलोकतांत्रिक, साम्प्रदायिक
होते हुए क्रमशः फासीवादी परिणति को प्राप्त हुई है. बाबरी विध्वंस, गोधरा जैसी
बड़ी साम्प्रदायिक घटनाएं इसी का परिणाम है. विडम्बना यह है कि यह सब तथाकथित
'विकसित भारत' बनाने की इच्छा का परिणाम है जबकि 'भूमंडलीकरण' और 'मुक्त बाजार'
इसके प्रयोग की भूमि. लेकिन इस पूरी विकास प्रक्रिया ने भारतीय समाज के यथार्थ को
बहुत अधिक उलझा दिया है. मानवीय संबन्धों, मूल्यों, सामाजिक सद्भाव, और प्रेम सबकी
जगह एक गलाकाट प्रतियोगिता ने ले ली है. इस संग्रह की कहानियों से जहां स्थितियों
की भयावहता का पता चलता है वहीं क्रमशः क्षीण होती जा रही मानवीय उपस्थिति के
रचनात्मक पुनर्वास की कोशिश भी दिखाई पड़ती है.
संग्रह की पहली कहानी ''प्रेम न हाट बिकाय" है. कबीर ने
बाज़ार को उसकी शक्ति और सम्भावनाओं के बीच खोजा था लेकिन उसकी सीमाओं को समझते
हुए. आखिर उन्होंने पुरानी समाजव्यवस्था के ध्वंस और नव निर्माण की आकांक्षा के
लिए ही यह घोषित किया था कि - कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ/ जो घर जारे
आपना चले हमारे साथ. लेकिन हमारे दौर का बाजार साथ चलने नहीं बल्कि साथ तोड़ने की
जगह है. प्रेम को जिस मानवीय गरिमा के सन्दर्भ में कबीर आदि कवियों ने महत्त्व
दिया था वह बाजार में अब सिर्फ उपभोग किए जाने और खरीदे जाने की वस्तु बन गई है.
और हमारे मनों के भीतर फैली साम्प्रदायिकता का इस बाजार से बडा गहरा रिश्ता है.
इलाहाबाद के एक मुहल्ले के भीतर जवान होते दो युवाओं के भीतर पैदा हुए प्रेम और
उसकी परिणति के जरिए लेखक इसका जायजा लेता है. कहानी इस तरह शुरू होती है - 'यह उस
वक्त की बात है जब इस देश में साम्प्रदायिक दंगे होते थे, कत्ले आम नहीं. चुंकि तब
सरकारों में इतनी शर्मो-हया रहती थी कि वह खुलकर किसी सम्प्रदाय का साथ नहीं देती
थी, इसलिए मामला एकतरफा नहीं होता था. दोनों तरफ हत्याएं होती थी.' ऐसे हे हत्या और कर्फ्यू के दौर खत्म हो जाने के
बाद हाईस्कूल के दो किशोर परीक्षार्थी आपस में मिलते है जिनका नाम सोनी और मजहर
है. एक पंजाबी और दूसरा मुसलमान. दोनो एक दूसरे की कौम के बारे मे सही जानते थे - "लड़का
समझ गया कि यह पंजाबियों की कुड़ी है. अब्बा कहते हैं कि 'पक्के स्वार्थी होते हैं
बड़े बिजनेस माइंडेड (व्यापारी स्वभाव के) होते है. मगर यह लड़की ऐसी नही है सीधी मालूम पडती है'. और लड़की भी समझ
गई कि ' लड़का मियाओं की औलाद है बहुत दुष्ट होते हैं, गुंडे होते हैं,ये मुसलमान',
ऐसा मां कहती है,मगर यह लड़का ऐसा नहीं है." लेकिन
यह भाव आकर्षण बहुत दिन टिक नही पाता. विश्वविद्यालय की पढ़ाई खत्म होने के साथ ही किशोरावस्था
में पैदा हुए इस प्रेम पर झटका ''गमे रोजगार" का लगता है. यह सूर की गोपियों
का प्रेम तो था नहीं कि 'लरिकाई को प्रेम कहो अलि कैसे करिके छूटत. सोनी का अपना
कैरियर बनाना था और मजहर को उसके प्रेम में फना होना था. शायद इसीलिए दिल्लीकी एक
बड़ी कम्पनी के मैनेजिंग डाएरेक्टर के रूप में पचास लाख का पैकेज पाने वाली महिला दिल्ली
के ही एक घनी बस्ती वाले हिस्से चांदनी चौक में इलेक्ट्रॉनिक्स गुड्स की दुकन पर
मुहमांगा दाम तो मिल जाता है पर मनमांगा प्यार नही. इस कहानी में कहीं-कहीं एक
चुहलबाजी भाषा के स्तर पर देखने को मिलती है जो विषयानुकूल ही है.
आगे की दोनो कहानियां ' सच क्यों देखा पुत्तर" और
"सुनिये घोड़ों की टापें" सिक्ख दंगों और गोधरा की त्रासदी को आधार बना
कर लिखी गयी है. ''सच क्यों देखा पुत्तर" कहानी प्रीतम सिंह नामक एक ऐसे
सरदार की है जो पेशे से किसान हैं और शरणार्थी के तौर पर उत्तर प्रदेश के तराई
क्षेत्र में आकर बस गये थे सिख दंगे की विभीषिका से बचने के लिए. और बाद में
पीलीभीत से भी अपनी जमीन जायदाद बेंच कर दिल्ली में अकेले रहने लगे थे. कहानी में
प्रीतम सिंह नरेटर को यह बताते हैं कि कैसे उनके 10 साल के पोते को 15 लोगों की
फर्जी मुठभेड़ देखलेने के कारण पुलिस ने मार दिया था. याद आते हैं मुक्तिबोध कि-
'हाय, हाय ! मैने उन्हे देख लिया नंगा,इसकी मुझे और सजा मिलेगी.' पूरी कहानी
पंजाबी लोकगीतों की करुण धुनों से सजी है जिससे कहानी के भीतर कारुणिकता का पूरा
वातावरण जीवित हो उठा है. अपने पूरे तनाव मे कहानी पाठक को बांधे रखने में सफल है
जो अंततः यह सन्देश दे जाते है कि कैसे एक पूरी जगह या कि कोई एक पूरी कौम
आतंकवादी नही हो सकती. यह शासन सत्ताओं की क्रूरता है जो कि अपनी वैधता को बचाने
के लिए इस तरह के दुष्प्रचारों के जरिए फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देती है. दिल्ली
के बाटला हाउस से लेकर आज़मगढ़ सहित पूर्वी उत्तरप्रदेश और गुजरात तक फैले फर्जी मुठभेडों तक यही
मानसिकता काम करती है. कहानी के अंत में एक दोषी सिपाही द्वारा अपने गुनाह का
स्वीकार और प्रीतम सिंह के पक्ष में अपने को बतौर गवाह पेश किए जाने का प्रस्ताव
उस आखिरी आदमी के बचे रहने का सुबूत है कि अभी उम्मीद बाकी है और सब कुछ अभी खत्म
नही हुआ है.
"सुनिए घोड़ों की टापे" गुजरात दंगों को केन्द्र बना कर
लिखी गई कहानी है. बहुत पहले इस विषय पर प्रसिद्ध कहानीकार असगर वजाहत की कहानी ' शाह
आलमकैम्प की रूहें" आई थी जिसमें भूत के आत्मा का बयान उस पूरी त्रासदी को
बयान करता है जो दंगों का शिकार मानवीयता को उठाने पड़े थे. प्रियदर्शन इस कहानी
में एक इनसाइडर का पक्ष रचते हैं जो कि आदर्शवाद के कारण कभी संघ की शाखाओं में
जाने लगा था और बाद में उसे पता चलता है कि कैसे यह पूरी प्रक्रिया एक शाखामृगी
साम्प्रदायिक और हिंस्र और फासीवादी व्यवस्था की आहट मे बदल चुकी है और उसके पास
अपने को उस पूरी प्रक्रिया से अलग करने का कोई मौका नही है. यह कहानी उस अहमदाबाद
की है जिसे बापू नगर नाम से जाना है और दंगों के समय जिसकी हालत के बारे मे एक कवि
का बयान है कि- 'बापू नगर की यह मुस्लिम गली है/. कल देर रात तक इसमें गोली चली
है.( शिवदान सिंह भदौरिया) कहानी का नायक भावेश पेशे से पत्रकार है अपनी पत्नी
निरंजना के साथ अहमदाबाद में पार्टी के काम-काज से गया कार्यकर्ता है.भावुकता और
उत्तेजना उसके व्यक्तित्त्व के लक्षण है.अपने मित्र के यह कहने पर कि तुम्हारी
पार्टी दंगाई पार्टी है,भावेश सिरे से उखड़ जाता है. लेकिन बाद में जब वह सचमुच
गुजरात दंगों की विभीषिका से रूबरू होता है तो भोला और कोमल मन बड़े आघात का शिकार
हो पागल हो जाता है. उसने अपनी डायरी में उन्ही दिनों यह पंक्तियां नोट की थी -'
ऐसे योजना बद्ध तरीके से किया जा रहा कत्लेआम और लूटपाट जनसाधारण का स्वतःक्रोध
नही हो सकता. .... तेरे रहते चमन को लूटा बागवां, कैसे मानू कि तेर इशारा नहीं.'
पागलपन की स्थिति में भावेश अक्सर गुस्से में आसपास की चीजों को अपने आक्रोश का
शिकार बना लेत है. उसके इलाज के लिए साइक्रियाटिक की मदद लेनी पड़ती है. भावेश की स्थिति को डॉक्टर के इन शब्दों से
समझा जा सकता है- यह उलझी हुई मनोदशा का केश है. आदमी अपनी आस्था और विश्वास को
खंडित होते देखता है पर उसे पूरी तरह छोड भी नहीं पाता. इसके दो कारण होते है-
पहला तो लम्बे समय का लगाव.यह लगाव उसे हमेशा भुलावे में रखता है कि वह जो देख रहा
है पूरी तरह सच नहीं है. सच्चाई इतनी भद्दी और अश्लील नही है. मगर नंगी आंखें जो
कह रही है वह? यही इस आदमी की त्रासदी है. इससे भी ज्यादा दिक्कत पैदा करती है यह
भावना कि हम इतने दिन तक बेवकूफ बने रहे. बेवकूफ बनाये जाने की यह भावना हताशा
पैदा करती है. हताशा ही अक्सर क्रोध पैदा करती है.
"संगत के गुण" कहानी एक संगीतज्ञ किशन गुरू की है जो
व्यवस्था के दावपेंच का शिकार होकर प्रतिभावान होने के बावजूद सफलता से दूर रह
जाते है. अकादमिक और साहित्य जगत के दावपेच पर बहुत सी कहानियां देखने को मिलती है
पर दूसरी कलाओं की दुनिया में भी प्रतिस्पर्द्धा की और गलाकाट प्रतियोगिता कम नहीं
है. यह कहानी किंचित व्यक्तिगत भी जान पड़ती है. संगीत की विधागत खूबियों और
पारिभाषिक चीजों पर भी कहानीकार जिस सिद्ध तरीके से कलम चलाता है इससे यह भी पता
चलता है कि कहानीकार साहित्य के साथ-साथ दूसरी कलात्मक विधाओं से बहुत गहरे जुडा
हुआ है.
'गोलकीपर' कहानी ऊपर से देखने पर तो किसी को स्त्री के सशक्तिकरण
की कहानी लग सकती है पर इसकी नायिका मिसेज पांड्या, जो कि हॉकी खिलाड़ी रहीं हैं,
की स्थिति बहुत कुछ उस आम भारतीय मध्यवर्गीय नारी की है जो परिवार का संतुलन साधते
हुए अपनी तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढ़ा देती है. पति और पुत्र उसके तनाव
के दो छोर है. उनके ससुर का यह कहना उसकी स्थिति के बयान के लिए प्रयाप्त है-
गोलकीपर और हाउस कीपर में कोई फर्क नहीं है दोनो ही बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं,
दोनो ही न्यूक्लियस होते हैं. टीम का न्यूक्लियस गोलकीपर होता है और हाउस का
न्यूक्लियस स्त्री (हाउसकीपर) होती है,परिवार उसीके इर्द-गिर्द ही घूमता है. बेटाजैसे
तुम गोलकीपर की जिम्मेदारी बखूबी निभाती रही हो, वैसे ही हाउसकीपर की जिम्मेदारी
भी निभाना, मेरे लड़के के घर को हमेशा बनाये रखना.'
'विकास पर्व में जग्गू फग्गू की भुमिका' आवारा पूंजी और शेयर
मार्केट के जरिए सम्भ्रांत जीवन का स्वप्न देखने वाले जग्गू और फग्गू के त्रासदी
का बयान करने वाली कहानी है. नदी पर पुल बनाने हेतु अपनी जमीन देकर मुआवजा पाये
जग्गू और फग्गू एक सुखीजीवन जीने का स्वप्न देखते है. किंतु यहें से उनके शोषन का
दुष्चक्र शुरू होता है. उनके शोषण का एक छोर बैंक और शेयर के दलाल है तो दूसरे छोर
पर नाटे जैसा सूदखोर महाजन. इसके बीच पिसते जग्गू को आत्महत्या कर लेता है. फग्गू
को अपनी और जग्गू की बेटियों की शादी के लिए जगदीश नाटे से कर्ज लेना पड़ता है जो
बहुत बुरी तरह उसे कर्ज़ वापस करने के लिए जलील करता है. अपने भीतर की समूची ताकत
का इस्तेमाल करते हुए फग्गू नाटे से न खुद
को मुक्त कराता है बल्कि उसकी हत्या भी कर देता है. कहानी का सन्देश है कि अपने
भीतर की समोची ताकत का सही समय पर इस्तेमाल कर व्यवस्थाजनित इस दमन चक्र से आमजन
अपनी मुक्ति का रास्ता खोल सकते हैं.
कुल मिलाकर इन कहानियों से गुजरना भारतीय समाज के एक व्यापक
यथार्थ से रूबरू होना है. लगभग वे सारी समस्याएं जिनसे हम अपने दैनन्दिन जीवन में
दो चार होते है, उनका रचनात्मक साक्षात्कार यहा होता है. सामंती और पूजीवादी विकास
की समस्याओं तले पिसते भारतीय समज का यथार्थ इन कहानियों मे व्यक्त होता है.
कहानीकार ने ठेठ और शिष्ट भाषा का और मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग़
प्रसांगानुकूल बहुत अच्छी तरह किया है जो कि अपनी भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ को
दर्शाता है. जब कि सामन्य तौर पर हमारे समय के कई नए कथाकारों की भाषा से ठेठपन और
मुहावरे देश निकाला पा चुके है. लेकिन कहीं-कहीं ''संकलन त्रय" का अभाव खलता
है.लेखक कहीं-कहीं व्यंग्य, विडंबना और भावावेश आदि को व्यक्त करते हुए जब भाषा के
किसी खास रूप का इस्तेमाल करता है तो साथ ही उसका सामन्य अर्थ भी दे देता है. यह
उसकी अतिरिक्त सजगता है या पाठक की क्षमता पर यह अविश्वास कि पता नही अर्थ समझ
पायेगा या नही? लेकिन इससे कथा का सौन्दर्य थोड़ा प्रभावित अवश्य होता है.एक बात और
खटकती है कि कई कहानियों का अंत लगभग निबन्ध की तरह होता है, बेचैनी के बजाय
संतुष्टि के भाव से.
सुनिए घोड़ों की टापें( कहानी संग्रह)- प्रियदर्शन मालवीय, आधारशिला प्रकाशन,
नैनीताल,2012
प्रेम शंकर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई लिखाई,
दयालबाग डीम्ड विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन.
Mob- 09415703379
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