जयनंदन की कहानी 'लंघीमार'

 
जयनन्दन


सदियों से चली आ रही किसी परम्परा या रुढि को तोड़ना आसान नहीं होता। खासकर तब जब मामला किसी धर्म से जुड़ा हुआ होधार्मिक कट्टरता मनुष्य को हैवान तक बना देती है। प्रगति की आकांक्षा रखने वाले लोगों के सामने धर्मभिरुओं ने तमाम दिक्कतें खड़ी कीं और अपनी दकियानूसी सोच को समानांतर रखने की कोशिश कीआज भी यह सिलसिला अबाध रूप से चल रहा है। धर्म का इस्तेमाल बढ़ा ही है। ढोंग बढ़ा है। साहित्य अपने समय की इन विसंगतियों को दर्ज करता है कहानीकार जयनन्दन की कहानी लंघीमार में हम इस विसंगति को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। तो आज पहली बार पर प्रस्तुत है जयनन्दन की कहानी 'लंघीमार'। 

लंघीमार

जयनंदन


एक दिन अचानक शहर के लोग कब्रिस्तान को ले कर स्थानीय अखबारों में अनिकेत कबीर द्वारा दायर जनहित याचिका की खबर पढ़ कर अचम्भित रह गये। लिखा था - ‘‘शहर के बीचोबीच वेशकीमती 150 एकड़ के भूखंड पर कब्रिस्तान का होना एक बहुत ही घटिया प्रशासकीय दृष्टि का नमूना है। जिन्दा आदमी को रहने की जगह एकांत में, किनारे, दूर और बियावान जैसे स्थल पर और मुर्दों को रहने के लिए इतनी अरबों-खरबों की कीमत वाले इतने महंगे इलाके में? इसके कारण अक्सर मुख्य बाजार से जुड़ी अतिव्यस्त सड़क पर जाम की स्थिति बन जाती है। फ्लैट बन जाये तो हजारों लोग रह सकें या कमर्शियल मार्केट बन जाये तो हजारों को रोजी-रोटी मिल जाये। इसे क्यों नहीं कहीं किनारे और आबादी से दूर शिफ्ट कर दिया जाये? घनी आबादी के बीच भूतों का डेरा सरासर एक विवेकहीन सच्चाई है।’’



‘‘ये कौन है अनिकेत कबीर नाम का आदमी जो इस तरह कम्युनल (फिरकापरस्त) तथा भावनाओं को भड़काने वाली राय दे रहा है? शहर की शान्ति को भंग करने वाला पागल, अहमक यह कौन है? यह कब्रिस्तान आज नहीं बना, कोई पचास साल से यह इस जगह पर है। उस समय तो इसके आसपास कोई आबादी नहीं थी। अब यह हमारे पूरे कौम की अकीदा का सवाल है। जब यहां पहले से कब्रिस्तान था तो यहां आबादी बसी ही क्यों?’’ किसी फारुक मदरसे के मौलवी मो. इदरीश का जवाब साया हुआ।


‘‘ठीक है, जब बना था तो उस समय यह जगह लाजिमी रही होगी। लेकिन आज की परिस्थिति में इसका यहां होना सरासर अनुपयुक्त और गैरमुनासिब है। वक्त के साथ हमें बदलना आना चाहिए। जो चीजें आगे चल कर अपने गलत होने का एहसास देने लगती हैं, उसे तो बदलता ही है आदमी। यह तो कोई स्थापत्य धरोहर कला है नहीं कि इसे बदला नहीं जा सकता। मुर्दे ही तो दफन हैं इसके अंदर, जो कब के मिट्टी में मिल चुके होंगे। जगह बदल लेने से ऐसा तो है नहीं कि मुर्दे बेघर हो जायेंगे और उनकी सेहत खराब हो जायेगी।’’ अनिकेत ने जवाब पर फिर सवाल मारा।


‘‘यह तो सीधा हमारी जज्बात पर हमला है। दफ्न होने वाले सिर्फ मुर्दे नहीं, वे हमारे पुरखे हैं। हम यहां उनकी कब्रों पर फातिहाखानी करते हैं, कलमा पढ़ते हैं, उन्हें याद करते हैं। हम अपने कुरान के इस पैगाम में यकीन करते हैं कि एक दिन कयामत के बाद ये सारे पुरखे (मुर्दे) जीवित हो उठेंगे।’’ इदरीश ने अपने पक्ष की जिरह को आगे बढ़ाया।  


कुछ तटस्थ किस्म के बुद्धिजीवी लोग अनिकेत को समझाने में लग गये, ‘‘अल्पसंख्यक हितों की रक्षा करना एक अघोषित दायित्व होता है समाज के बौद्धिकों और अमनपसंदों का। उनकी गैरमुनासिब और नाजायज हरकतों या कारगुजारियों को भी नजरअंदाज कर देना सभ्य समाज का चरित्र होता है। इसलिए अगर आँख में खटकने वाला कोई गलत काम भी दिख जाये तो उसे बख्श देना ही एक स्वस्थ रिवाज है।’’





‘‘यह तो सरासर तुष्टिकरण का मामला हो गया। ऐसा तो वोट मांगने वाले नेता लोग करते हैं। हम कौम और मजहब देख कर किसी प्रसंग को नहीं उठाते। हम तो बस आम आदमी और पूरे समाज की बेहतरी को ध्यान में रख कर बातें कर रहे हैं। हम यहां इसलिए कब्रिस्तान हटाने की बात नहीं कर रहे कि वह मुसलमानों से जुड़ा है। इस जगह पर हिन्दुओं का श्मशान घाट होता तो हम उसे भी स्थानांतरित करने की मांग करने से पीछे नहीं रहते। इसके स्थानांतरित होने से जो लाभ और सहूलियत मिलेगी, उनसे मुसलमान भी लाभान्वित होंगे। यहां जाम जब लगता है तो उस में मुसलमान भी फंसते हैं। हमने तो सड़क पर बना दिये गये मंदिर को भी हटाने का अभियान चलाया है।’’






अनिकेत और उसके साथी इस नगर के ही नहीं बल्कि इस सूबे के अति सुपरिचित और लोकप्रिय चेहरे बन गये थे। बुराई को मिटाने और सच्चाई को बचाने की अनेक मिसालें और मुहिम इनकी थाती बनती चली गयी थी। एक संस्था बना कर उसका नाम इन लोगों ने सेवकरखा हुआ था।


कब्रिस्तान पर अनिकेत का ध्यान तब एकाग्र हो गया जब कब्र से एक लाश निकाल कर स्यारों ने मेन रोड पर बिछा दिया। सड़क पर दुर्गंध और घृणा बहुत देर तक बजबजाती रही और लोग इसे देखकर विचलित होते रहे। जनाजा जुलूस निकलने के समय तो अक्सर जाम का मंजर नमूदार हो ही जाया करता था। यह समस्या अक्सर फिजां में तैरती रहती थी। किसी एक के मरने से हजारों राहगीरों की गति को थम जाना पड़ता। कई लोगों की ड्यूटी छूट जाती, कई लोगों की ट्रेनें छूट जातीं, कई मरीजों को जल्दी अस्पताल पहुंचना मुहाल हो जाता। यह परले दर्जे का एक हास्यास्पद चलन नहीं था तो क्या था कि जिसका जीवन खत्म हो गया और जिसे अब खाक में मिल जाना है, उसके कारण चलते-फिरते आम अजनबी लोगों को ठहर जाना पड़े? लोगों को आये दिन का यह तमाशा बुरा लगता था और उन पर यह दृश्य नागवार गुजरता था, लेकिन अपनी भीरुता और सिले हुए होंठ की चादर से बाहर निकलने की मानसिकता वे नहीं बना पाते थे। 


अनिकेत को भी खटक तो रहा था बहुत अर्से से, कई बार वह भी फंसा था भीड़ में। बस इसे छेड़ इसलिए नहीं पा रहा था कि अपने कुछ निकट के साथी की सहमति नहीं हो रही थी। ऐतराज करने या कुछ खास किस्म के लोगों के अपच होने का जहां तक सवाल है, कोई भी मामला हो, कैसा भी लोकोपयोगी योजना हो, कुछ लंघीमार तो सामने आ ही जाते हैं। अनिकेत कबीर और उसके साथी ऐसे लंघीमारों की क्षुद्रताओं और संकीर्णताओं की कतई परवाह नहीं करते थे। 


कब्रिस्तान के बारे में जब उसने सोचना शुरू किया तो लगा कि मखमल में टाट का पैबंदकहावत फिर भी ठीक है, लेकिन यह तो ठीक ऐसा है जैसे शादी के जोड़े में दूल्हे के सर पर कफन की पगड़ी बंधी हो। रंग-रोगन, हर्ष-उल्लास और तमाम तरह की मौज मस्तियों से भरे शहर के बीचोबीच ऐन छाती पर कब्रिस्तान का मातम तथा कब्रों और मजारों की पैदावार! कब्रिस्तान की चारदीवारी के बाहर चारो ओर जीवन के संगीत बज रहे थे और अंदर स्यारों का हुआ-हुआ हो रहा था, चीलें मड़रा रही थीं, मुर्दे सड़ रहे थे।


इस मुद्दे को ले कर शहर में पक्ष-विपक्ष में जोरदार वाद-विवाद शुरू हो गया। अखबारों में बयान छपने लगे। गोष्ठियां, सभायें, रैलियां, जुलूस, प्रदर्शन होने लगे। समाज दो वर्गों में सीधे-सीधे बंट गया। एक वर्ग इसके कायम रखने पर तरह तरह की दलीलें देने लगा तो दूसरा वर्ग इसे हटाने की मांग को सही ठहराने पर उतारू हो गया। वोट की राजनीति करने वाली पार्टियाँ भी इसके पक्ष-विपक्ष में तलवारें भांजने लगीं। अनिकेत ने एक अपील जारी की कि कृपया इसमें नेता लोग अपनी टांग न घुसेड़ें और अपनी रोटी सेंकने की कोशिश न करें।


शहर की सबसे बड़ी और अग्रणी इस्पात कंपनी के प्रबंधन का भी ध्यान इस तरफ आकृष्ट हुआ। शहर के अपने लीज एरिया वाले हिस्सों में, खासकर जहां उसके अधिकारियों के बंगले, गेस्टहाउस, क्लब, मजदूरों के क्वार्टर, अस्पताल, स्कूल, खेल के मैदान, पार्क, बाजार, होटल, पोस्टऑफिस आदि थे, नागरिक सुविधायें, बिजली, पानी, सड़क, सीवेज, सफाई आदि उपलब्ध कराने का जिम्मा कंपनी ने ली हुई थी और पूरी दुनिया में अपनी सेवा की श्रेष्ठता का ढोल बजाया करती थी। वह दावा करती थी कि उच्च गुणवत्ता के जिस मानक का वह स्टील बनाती है, उसी मानक की वह अपनी अन्य सेवायें भी मुहैया कराती है। कंपनी के संस्थापक के नाम बने इस शहर की बेहतरी को वह अपनी साख से जोड़ कर देखती थी और इसे अधिकतम सुविधासंपन्न और खूबसूरत बना कर अपनी कारपोरेट सामाजिक जवाबदेही (सी. एस. आर.) निर्वाह के मामले में एक मिसाल के तौर पर पेश होने की नीति का बखान करके अपनी पीठ ठोकती रहती थी।


कंपनी चाहती थी कि यह शहर एक प्लांड तथा स्मार्ट सिटी के तौर पर विकसित हो और अपनी एक अलग पहचान बनाये। लेकिन इस रास्ते में जो चंद ड्रॉबैक थे, उनमें शहर के जिगर पर कब्रिस्तान का होना ऐसा मर्ज था जो एकदम लाइलाज सा लगता था। मूल्यांकन (असेसमेंट) करने वाली केन्द्रीय टीम और आर्किटेक्ट जब विजिट करने आते तो बस इसी निशान पर उंगली रख कर हाथ खड़े कर देते। मतलब इसके रहते इस शहर का कुछ भी भला करना या संशोधित करना संभव नहीं हो सकता। मन मसोस कर रहने के सिवा कंपनी के पास कोई चारा नहीं था। कभी उसी के पूर्व निजामों ने अपने लीज एरिया में कब्रिस्तान बनाने की अनुमति दी थी। 


अब वे इस नाजुक और संवेदनशील मुद्दे को कैसे डील करें और कैसे कहें कि इसे यहां से शिफ्ट कर लिया जाये। जिला प्रशासन भी इस विषय पर कुछ भी कहने-करने के लिए सहमत नहीं। हालांकि वह महसूस जरूर कर रहा था कि इसका यहां होना निहायत ही एक गलत और अदूरदर्शी सोच का नतीजा है। कोई मकान, दुकान जैसी चीज तो है नहीं कि इसे शिफ्ट कर दिया जाये, सैकड़ों-हजारों वैसी कब्रों को भला कैसे शिफ्ट किया जा सकता है, जिनसे जुड़ाव में हर साल रिश्तेदारों द्वारा शबेबारात मनाया जाता हो। उनके लिए ये कब्रें दिल पर खुदी हुई यादों का एक अमिट कुतबा है। लिहाजा न कंपनी प्रबंधन ने और नाहीं जिला प्रशासन ने कभी बर्रे के छत्ते में हाथ डालने की जोखिम उठायी।


अब जब अनिकेत और उसकी टीम ने यह तान छेड़ दिया तो कंपनी प्रबंधन और जिला प्रशासन दोनों को लगा कि बस यही वक्त है कि सुर में सुर मिला दिया जाये। खुद की हिम्मत तो कभी हुई नहीं। अनिकेत और उसकी संस्था सेवकको वे एक अर्से से जानते रहे थे। इनके आंदोलन और संघर्ष करने की जीवटता से उनका कई बार पाला पड़ चुका था। आम आदमी से जुड़े अनेक मामलों में उनका जुझारू तेवर सामने आ चुका था। कई बार वे धरना, घेराव और भूख हड़ताल के बीहड़ मार्ग से गुजर चुके थे और कई बार जेल भी भेजे जा चुके थे। लेकिन आखिरी दम तक डटा रहना उनकी फितरत थी। जनहित में उठा लिये गये कुछ वैसे मुद्दे, जो नियम और कानून से परे होते थे, को लेकर संस्था हारती भी थी तो आसानी से नहीं, बल्कि अपनी ताकत और प्रभाव की तरकश के आखिरी तीर छोड़ने तक वह उम्मीद की डोर को थामे रहती थी।


कंपनी प्रबंधन के वाइस प्रेसिडेंट पदनाम का एक शीर्ष अधिकारी सौरभ चोपड़ा ने अनिकेत को मिलने के लिए सूचना भिजवायी। अनिकेत ताज्जुब में घिर गया। आज तक उसने प्रबंधन के समक्ष न जाने कितने मामले उठाये, कई तरह की गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए कई आवेदन दिये, कई बार गेट के सामने प्रदर्शन किये, नारेबाजी की, लेकिन जरा सा भी उसे भाव नहीं दिया गया, ना ही कभी बातचीत के लिए बुलाया गया। प्रशासन और उसके सुरक्षाकर्मी ही उससे निपटते रहे, कभी प्रेमभाव से तो कभी बलपूर्वक। उसे हमेशा एक छिछला टाइप का फुटपाथी आदमी की संज्ञा दी गयी। फिर आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया




आदर मान देकर वह तोप अधिकारी अपने कक्ष में बुला रहा था, जो नागरिक सुविधाओं की देखरेख का शहर में सबसे पावरफुल और हाईप्रोफाइल हाकिम समझा जाता था। उससे फेवर लेने के लिए सरकारी अधिकारी और बड़े नेता तक उसके मुखापेक्षी रहा करते थे। जरूर कोई बड़ा पेंच है जिसे वह उसकी मार्फत सुलझाना चाहता होगा। तो जब जब अनिकेत ने मिलना चाहा तो उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगी और अपने भव्य रौब-रुतबे के खोल से जरा भी खिसकना उसे उचित नहीं जान पड़ा, फिर आज जब वह मिलना चाहता है अपने किसी गर्ज के लिए तो अनिकेत क्या दौड़ लगा दे? काफी जोड़-घटाव करने के बाद अंततः तय हुआ कि उसे जाना चाहिए।


अगले दिन अनिकेत अपने एक साथी सुजीत बेसरा के साथ जब कंपनी के जेनरल ऑफिस गेट पर पहुंचा तो जो सुरक्षाकर्मी अब तक उसे भगाने का काम करता रहा था, उसने जोरदार सैल्यूट मार कर उसका अभिवादन किया और अगवानी करते हुए चोपड़ा के आलीशान कक्ष तक पहुंचा आया। चोपड़ा ने अपनी कुर्सी से उठते हुए उसका वेलकम किया और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। चोपड़ा के साथ तीन और शीर्ष अधिकारी वहां उपस्थित थे। उन लोगों ने भी उससे मिलने में पूरा उत्साह दिखाया। उसे याद नहीं कि इसके पहले इस स्तर के किसी अधिकारी ने उसे ऐसा भाव दिया हो। कुर्सी पर बैठते हुए उसे कक्ष की साज-सज्जा और नफासत देख कर लगा कि राजाओं का राजदरबार भी कुछ इसी तरह का होता होगा और कुर्सी पर बैठते हुए उसने महसूस किया कि सिंहासन नाम का राजसी वैभव की तख्त भी कुछ इसी तरह आरामदेह और अपने में धंसा लेने वाली होती होगी। 


चाय-पानी और आप कैसे हैंकी औपचारिकता के बाद चोपड़ा ने अधिकारी वाले रौब से नीचे उतरकर दोस्ताना लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘कब्रिस्तान को ले कर आप लोगों ने शहर में जो बहस छेड़ी है, हम उसे रोज अखबारों में पढ़ रहे हैं। एक अर्से से कंपनी प्रबंधन और जिला प्रशासन एक पसोपेश में घिरा रहा है कि इस नाजुक मसले को कैसे उठाया जाये। चूंकि यह सच है कि ये जगह अब बिल्कुल इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है। इसके होने से शहर के सबसे बड़े बाजार की कद्र कम होती है और शहर के चेहरे की चमक पर धब्बा लगता है। शहर को बढ़ाने और इसे सुंदर बनाने की हमारी कई योजनाएं इसकी वजह से आगे नहीं बढ़ पा रही। शहर का विकास रुक सा गया है। हम आपकी संस्था की सराहना करते हैं कि इस सच को आपकी टीम ने महसूस किया और इस तरफ आम लोगों का ध्यान आकृष्ट किया।’’





‘‘चोपड़ा साहब, हम कोई बड़ा काम करने का मुगालता नहीं पालते, लेकिन जो सच है, जो होना चाहिए, उसके लिए लड़ने-भिड़ने की हॉबी है हमारी। इसे हम समाज सेवा के खयाल से नहीं, बस एक आदत और संस्कार के तहत करते हैं। ज्यादातर हम अपने प्रयास में असफल ही रहते हैं, फिर भी हम हार नहीं मानते। इस तरह के काम से कई बार आपका प्रबंधन हम से नाराज हो जाता है, कई बार जिला प्रशासन तो कई बार समाज का कोई तबका। चलिए, मुझे खुशी है कि आप हमारी इस पहल के पक्ष में बात कर रहे हैं।’’ अनिकेत ने खुल कर अपनी औकात बता दी।


‘‘हम ही नहीं, कलक्टर साहब से भी मेरी बात हुई। जिला प्रशासन भी पूरी तरह आपका सपोर्ट करना चाहता है। मैंने उनसे कहा है कि दो-चार दिनों के भीतर उनके साथ भी हम सब की एक मीटिंग हो, जिसमें आगे की रणनीति बनायी जाये कि कैसे हम मोमिनों की जज्बात का खयाल रखते हुए और उन्हें बिना ठेस पहुंचाये उन्हें इसके लिए राजी करें।’’




‘‘आप की और जिला प्रशासन की इसमें क्या मदद मिल सकती है?’’ इस बार सुजीत बेसरा ने पूछा।


‘‘कलक्टर साहब अनाराडैम के पास एक बड़ा सरकारी भूखंड अलॉट करने के लिए तैयार हैं। कंपनी प्रबंधन उसमें वे सारी सहूलियतें, जो यहां है, पानी, बिजली, बाउंड्रीवाल आदि उपलब्ध करा देगी। बात सिर्फ विरोध को कम करने की है और सबकी रजामंदी हासिल कर सबको साथ ले चलने की है, ताकि कोई बड़ा वितंडा खड़ा न हो और सब कुछ शांति से निपट जाये।’’





‘‘यह काम इतना आसान नहीं है चोपड़ा साहब, यह तो आप समझ ही रहे होंगे। देख ही रहे हैं कि इसके पक्ष से ज्यादा विपक्ष में शोर उठना शुरू हो गया है। यह तो तय है कि बहुतेरे ऐसे दूरंदेशी क्रिएटिव काम होते हैं, जिन पर आम राय कभी नहीं बनती। उल्टे लंघीमारों का एक दल पटकनी देने के लिए प्रकट हो जाता है। अंत में प्रशासन को सख्ती बरत कर ही उसे अंजाम तक पहुंचाना पड़ता है। फिर भी होना यह चाहिए कि विरोध को यथासाध्य कम किया जाये। लोग इसे अपनी आस्था पर हमला न समझें, समय की मांग के तौर पर लें।’’ अनिकेत ने कहा।


‘‘आप क्या सोचते हैं, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?’’




‘‘उन्हें भरोसे में लेने के लिए पहले आप के कंपनी प्रबंधन को कुछ ऐसे काम करने होंगे जिससे यह धारणा पुष्ट हो कि वाकई शहर को बेहतर बनाने और बढ़ती आबादी को समायोजित करने के तहत ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं।’’




‘‘आपके विचार में वे कदम क्या हो सकते हैं?’’ चोपड़ा ने पूछा।


‘‘शहर के मुख्य-मुख्य स्थलों पर आपकी कंपनी ने अपने ऑफिसरों के लिए सैकड़ों बंगले बनवा रखे हैं। एक-एक सिंगल स्टोरी बंगले में पाँच-पाँच एकड़ की जमीनें घेरी हुई हैं। बड़ा सा लॉन, जिसमें बेमतलब की घासें और बेमतलब के गमले वाले पौधे उगाये जाते है। बेइंतहा पानी खर्च किया जाता है, चार-चार बड़े कमरे, हॉलनुमा ड्राइंगरूम, आगे-पीछे बड़ी-बड़ी बालकनी, बड़ा सा गैराज, पीछे सर्वेंट क्वार्टर, जो अक्सर खाली ही रहता है और अपराध का अड्डा बना रहता है। आखिर एक परिवार के लिए इतने बड़े क्षेत्रफल का खर्च किया जाना, सिर्फ रुआब और रुतबा दिखाने के लिए, क्या आपको नहीं लगता कि इस पुराने कंसेप्ट पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए? एक-एक बंगले की जगह मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट बना दिये जायें तो एक परिवार की जगह दर्जनों परिवार एकोमोडेट हो सकते हैं। ये बंगले उसी तरह अप्रासंगिक और शहर पर बोझ हैं, जैसे कब्रिस्तान है। तो पहले आपको अपनी कार्रवाई से यह बड़प्पन प्रदर्शित करना चाहिए कि समय बदल गया है, जिसके अनुरूप बंगलों को हटा कर उस जगह का अधिकतम यूटीलाइज किया जा रहा है।’’ अनिकेत ने बेबाकी से अपनी राय जाहिर कर दी।


अनिकेत कहता जा रहा था और चोपड़ा के चेहरे पर कभी लाल, कभी पीले, कभी हरे रंग उभरते जा रहे थे। उसने कल्पना तक नहीं की थी कि कब्रिस्तान हटाने के तहत इस तरह का प्रस्ताव लाया जा सकता है। वह भी तो एक बड़ा अधिकारी है और एक बहुत बड़े बंगले में रहता है, जिसका घेरा पाँच एकड़ ही नहीं, कम से कम सात एकड़ होगा। उसके कैम्पस में तो एक छोटा स्वीमिंग पुल भी बना हुआ है और फब्बारा लगा हुआ नुमाइशी मछलियों का एक पौंड भी है। विचार के इस पहलू ने उसे कुछ पल के लिए अवाक कर दिया। उसके साथ के अन्य अधिकारी की घिग्घी भी बंध गयी और पेशानी पर पसीने चुहचुहा आये। वे पानी पी कर गला तर करने लगे। 


चोपड़ा ने इस कोण से सोच कर देखा तो लगा कि बात तो सच है, इसे बेजा नहीं ठहराया जा सकता। बेशक जिस जमीन की जहां भारी किल्लत हो, मारामारी हो, कीमत मुंहमांगी दी जा रही हो, बड़े से बड़ा आदमी एक छोटा टुकड़ा हासिल करने के लिए लालायित हो, वहां बंगला-कोठी के नाम पर लंबी-चौड़ी फिजूल की घेरेबंदी पर सवाल तो खड़ा किया ही जा सकता है। अब चूंकि चोपड़ा एक बड़ा अधिकारी है तो बचाव में मोर्चा संभालना उसका फर्ज था। 


उसने कहा, ‘‘अनिकेत जी, आप जो कहते हैं उससे असहमत होना मुश्किल है, लेकिन सहमत होना भी संभव नहीं है। अधिकारियों के लिए बंगले का कंसेप्ट कोई आज का नहीं है। और फिर वर्कर तथा ऑफिसर एक समान तो हो नहीं सकते। उनके रहन-सहन, रख-रखाव आदि में फर्क तो होता ही है। अपना यह देश कोई साम्यवादी प्रणाली का देश तो नहीं है कि सब एक समान बराबरी में बसर करें?’’ 





‘‘क्यों मिस्टर चोपड़ा, ऐसा क्यों नहीं हो सकता? क्या अधिकारी हो जाने से उसका आयतन, उसका घनत्व इतना बड़ा हो जाता है कि उसे पन्द्रह-बीस मजदूर के क्वार्टर या फ्लैट के क्षेत्रफल के बराबर की जगह की जरूरत हो जाती है? अधिकारी हो कर वह आदमी ही रहता है या कुछ और हो जाता है, जो समाता ही नहीं है आम आदमी के घर जितनी जगह में?’’ अनिकेत ने अपने तेवर को और भी सख्त कर लिया।


अब सुजीत बेसरा ने जिरह के आगे का सिरा पकड़ लिया, ‘‘सारे बंगलों को मिला कर जितनी जमीनें लगी हुई हैं, उन्हें जोड़ा जाये तो कब्रिस्तान से कम से कम दस गुनी ज्यादा होंगी। फिर आप सिर्फ एक कब्रिस्तान ही खाली करने के पक्ष में क्यों हैं? क्यों न दस और कब्रिस्तान खाली हो जाये ?’’




‘‘बेसरा जी, आपने राष्ट्रपति भवन देखा होगा, प्रधानमंत्री आवास देखा होगा, अन्य मंत्रियों, सांसदों की कोठियाँ और राज्यपालों के राजभवन देखे होंगे, आपलोगों की राय में क्या इन सबको छोटा कर देना चाहिए ?’’




‘‘बेशक कर देना चाहिए महोदय। जिस देश में चालीस प्रतिशत लोगों के पास अपना सर छुपाने की भी जगह न हो, वहां इस तरह का लाटसाहबी प्रदर्शन और ठाट लोकतंत्र का मजाक है। और फिर आप इतर संदर्भ ले कर राजधानियों और हुक्मरानों की बात क्यों कर रहे हैं, वहां तो कब्रिस्तान जैसी भूमि को खाली करने की बात नहीं हो रही है। आप अपने इस शहर की जरूरत के हिसाब से बात कीजिए। यहां से अगर कब्रिस्तान हटाना है तो माहौल बनाने के लिए और उस पूरी बिरादरी को भरोसे में लेने के लिए यह कदम उठाना ही होगा।’’



‘‘इस तरह की शर्त रख कर आपने हमारी दुविधा बढ़ा दी है। हम चाहते हैं कि आपके पास युवा लड़कों की एक मजबूत टीम है जो इस अविश्वसनीय और असंभव से बड़े काम पूरे करने में हमारी मदद करे। हमारी मजबूरी है कि हम एक कारपोरेट हाउस हैं, इसलिए सामने से नहीं पीछे से अपना रोल अदा कर सकते हैं।’’




‘‘हम पीछे नहीं हट रहे हैं मि. चोपड़ा, लेकिन सबको लगना यह चाहिए कि हमारा रवैया इस मामले में सबके साथ एक समान है और हम किसी दुराग्रह से मोटिवेटेड हो कर पक्षपात नहीं कर रहे किसी के साथ। इसीलिए हम चाहते हैं कि इस दिशा में शुरुआत आपकी कंपनी की तरफ से हो, जो कारपोरेट दुनिया का एक दैत्य और इस शहर का पालनहार माना जाता है।’’




‘‘सभी बंगलों को खाली करा कर एकबारगी ध्वस्त करना.......।’’




‘‘मैं कहां कह रहा हूं कि सभी बंगलों को एक साथ ध्वस्त करें। दो-चार से शुरुआत तो करें, ताकि एक बड़ा मैसेज जा सके।’’




‘‘हम एमडी और बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर के सामने इस इशू को रख कर देखते हैं, इतना बड़ा निर्णय तो मेरे लेवेल से नहीं हो सकता। ठीक है अगली बार हम कलक्टर साहब के साथ उनके ऑफिस में मिलते हैं।’’




अनिकेत ने अपनी संस्था सेवकके साथियों की एक मीटिंग बुलायी।


संस्था के एक साथी असदुल्ला खान ने अपनी राय रखी, ‘‘हम एक ऐसे तार को छूने जा रहे हैं, जिसमें हाई वोल्टेज करंट बह रहा है, जिसका झटका सहना आसान नहीं होगा। हम एक पूरे कौम से अदावत मोल लेने जा रहे हैं। उसके जमीर, गैरत और अकीदत को ललकारने जा रहे हैं। हम पहली बार आम आदमी के हितों से ज्यादा एक कारपोरेट और प्रशासन के हितों की लड़ाई का औजार बनने जा रहे हैं।’’ यह वह असदुल्ला खान था जो संस्था का स्थायी सदस्य और हर मुहिम में आगे रहने वाला चेहरा था। शायरी करता था और आसपास होनेवाले मुशायरों में अनिवार्य सहभागी हुआ करता था। 


असदुल्ला की बात सुन कर सबके चेहरे पर विस्मय की रेखाएं खिंच गयीं। अनिकेत ने महसूस किया कि धर्म-कर्म की खाई को लांघ लेने वाले यह उसके वर्षों के साथी असदुल्ला की वेष में कोई मौलवी या मुल्ला बोल उठा है।


‘‘ये तुम क्या कह रहे हो असद? हमने हमेशा मुद्दों को उठाने में आम आदमी का भला-बुरा सोचा, सार्वजनिक हितों को ध्यान में रखा। उससे कौन सा कौम या संप्रदाय खुद को जोड़ता है और उससे किस कौम का कितना बनता-बिगड़ता है, इसकी परवाह तो हमने कभी नहीं की। फिर तुम ऐसा कैसे कह गये कि हम किसी को ललकारने जा रहे हैं?’’ नीरज शर्मा ने कहा, जिसका एक विशेष परिचय था रंगकर्मी होना। साझी संस्कृति और भाईचारे का संदेश प्रसारित करने वाले नाटकों के मंचन में उसकी विशेषज्ञता हासिल थी। सेवक संस्था का वह एक तेजस्वी नक्षत्र था।


‘‘मैंने ऐसा इसलिए कहा कि कई जगह, मस्जिदों में, दरगाहों में, कब्रगाहों में, जलसों में तथा कई मजलिसों में इसे ले कर एक आक्रोश व उबाल देखने में आ रहा है। साफ लग रहा है कि वे इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं। इसे एक फिरकापरस्ती का रंग दे कर वे किसी भी हद तक जा कर इसका मुखालफत करने का माहौल बना रहे हैं।’’ असदुल्ला ने सफाई देने के अंदाज में कहा।


‘‘तो फिर तुम्हारी क्या राय है, हमें क्या करना चाहिए?’’ कड़क आवाज में सुजीत बेसरा ने पूछा।


‘‘ऐसा लगता है कि मेरे कहे को मेरे मुसलमान होने से जोड़ कर देखा जा रहा है। अगर ऐसा है तो मैं अपनी बात वापस लेता हूं।’’




‘‘ये क्या हो रहा है असद, हम हिन्दू और मुसलमान कब से होने लग गये यार? हम तो कलक्टर से सड़क पर स्थित मंदिरों को भी हटाने की बात करने वाले हैं। कई बार तो पहले भी कर ही चुके हैं, लेकिन इस बार चूंकि पेंच फंसा है, इसलिए उसे हमारी बात माननी होगी। पहले वह मंदिर हटाये और हर मोहल्ले में होने वाली दुर्गापूजा तथा रामनवमी अखाड़े को सीमित करने के लिए एक नियम बनाये ताकि शोरगुल और भीड़भाड़ से पूरा शहर नक्कारखाना बनने से बच सके।’’ अनिकेत ने आपस में उभर रहे मतभेद की धुंध को छांटने की कोशिश की।


‘‘कब्रिस्तान को लेकर मेरा मशविरा है कि इसे हटाने पर जोर डालने के पहले उस जगह पर एक नया कब्रिस्तान बना दिया जाये, जिसे प्रशासन ने विकल्प के तौर पर चिन्हित कर रखा है। आसपास के लोग नये में दफनाना शुरू कर देंगे तो फिर धीरे-धीरे सभी लोगों को उसमें भेजना आसान हो जायेगा। पुराना वाला अपने आप ही बेअसर, निर्जन और बेसंभाल होता चला जायेगा।’’ असदुल्ला ने सुझाव दिया।


वहां उपस्थित एक स्थानीय साथी शोधन मंडल सुन कर गदगद हो गया। चहकते हुए कहने लगा, ‘‘वाह असद मियां, क्या बात है यार। देखो दोस्तो, जिसे अभी-अभी संदेह की नजर से देखा जा रहा था, समाधान उसी के दिमाग से निकल कर बाहर आया। बहुत ठीक कहा कि जिस रास्ता को बंद करना होता है, उसके बगल से पहले एक डायवर्सन रास्ता बना देना पड़ता है। कंपनी का यही स्टाइल तो अब तक रहा है। जिस चारदीवारी या भवन का उसे अधिग्रहण करना होता है, उसका रिप्लेसमेंट वह पहले तैयार कर देती है।’’





‘‘चलो, फिर ठीक है, हम इसी लाइन पर बात करेंगे।’’ अनिकेत ने कहा।


जिलाधिकारी सुधीर चौबे ने विशेष रुचि ले कर अपनी तगड़ी अनुशंसा लिखी और नगर विकास मंत्रालय से अनारा झील के पास कब्रिस्तान के लिए डेढ़ सौ एकड़ जमीन आवंटित करा ली। 


कंपनी की तरफ से चारदीवारी देने तथा अन्य आधारभूत सुविधायें बहाल करने का काम शुरू कर दिया गया। इसी के साथ छह-सात जर्जर और पुराने बंगलो भी ढाहे जाने लगे। कंपनी ने इसे लेकर एक लंबी-चौड़ी और बेहद जज्बाती विज्ञापन साया करवाया। इसमें बताया कि शहर को खूबसूरत और स्मार्ट बनाने तथा प्राइम लोकेशन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बसर करने के लिए अपार्टमेंट मिल सके, इसे ध्यान में रख कर कंपनी अपनी ऐतिहासिक धरोहर, जिनमें कंपनी के कई दिग्गज पूर्व डायरेक्टर रह चुके हैं, को भी ध्वस्त कर रही है।


युद्ध स्तर पर कंपनी ने नयी जगह का काया-कल्प कर दिया। इस्तेमाल के लिए नया कब्रिस्तान तैयार हो गया।


जब कुछ अर्सा गुजर गया तो वरीय पुलिस अधिकारी दशरथ चौहान ने पुराने कब्रिस्तान को स्थायी तौर पर स्थगित करने के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए कहा, ‘‘नये को बने हुए काफी दिन हो गये। पता चला है कि आसपास के रहने वाले कुछ लोग अपने मरहूमों को दफ्नाने के लिए वहां जाने भी लगे हैं। पुराने को पूरी तरह बंद करने के पहले खास-खास और मोतवर लोगों से संपर्क कर के उन्हें समझाने और उन्हें रजामंद करने की एक मुहिम चलायी जाये ताकि वे इसका अन्यथा ले कर कोई नकारात्मक मानी न निकालें और इसे वक्त का तकाजा की तरह लें। यह काम आपके उन साथियों के हवाले से हो सकता है जो उस बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं। पिछले दिनों चौबे साहब से बात हो रही थी, तो उन्होंने इस तरफ मुझे ध्यान दिलाया।’’




‘‘मैंने इसे भुलाया नहीं चौहान साहब। पुराना कब्रिस्तान ऐसे मुहाने पर है कि प्रायः रोज ही गुजरना होता है वहां से। दिमाग में एक घंटी बज जाती है। मैं जान-बूझ कर वक्त ले रहा था ताकि नये कब्रिस्तान से सभी आगाह हो जायें। साथ ही उनके सामने कुछ ऐसी मिसालें भी नमूदार हो जाये जिनसे वे समझ सकें कि ऐसा सिर्फ उन्हीं के साथ नहीं हो रहा है, बल्कि सब के साथ हो रहा है। यह धारणा अब स्थापित भी हो चुकी है - सड़क से मंदिर हटाये गये, सड़क से किसी भी धर्म के जुलूस का निकलना बंद किया गया, संकीर्ण जगहों पर किसी भी प्रकार के पंडाल बनाने पर रोक लगायी गयी, कंपनी ने खामखा जगह छेंकने वाली कई कोठियों को ध्वस्त कर दिया। इन मिसालों को देखते हुए इसे एक रचनात्मक कदम के रूप में लिया जायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। जैसा आप कह रहे हैं, मैं अपने साथी असदुल्ला खान को इस मुहिम में लगाता हूं।’’




असदुल्ला ने तय किया कि शहर में जो प्रमुख मस्जिदें हैं बारह-पन्द्रह, उनमें नमाज शुरू होने या फिर खत्म होने के समय जा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक गुजारिश पहुंचा दी जाये।


सबसे पहले वह इम्तियाज मस्जिद चला गया, जहां उस्मानी तुर्रम हयात जाफरी इमाम थे। जाफरी पहले कब्रिस्तान से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ करने के बिल्कुल खिलाफ थे। बाद में जब वे सेवक संस्था की साफगोई और निष्पक्ष नियत से पूरी तरह अवगत हुए तो कब्रिस्तान हटाने के अभिप्राय से सहमत हो गये। कब्रिस्तान का रकबा, तमाम सहूलियतों की मौजूदगी और ऊंची चारदीवारी उन्हें खास तौर पर पसंद आयी।


असदुल्ला को आया देख जाफरी ने पास बुला कर कहा, ‘‘नमाज जब खत्म होगी तो मैं सब को रुकने के लिए कह दूंगा। आप अपनी तकरीर शुरू कर देना।’’




जब नमाज के लिए सब खड़े होने लगे तो असदुल्ला भी खड़ा हो गया। हालांकि सेवक संस्था से जुड़ने के बाद उसने आज तक न कभी रोजा रखा, न नमाज पढ़ी। आज चूंकि उसे दिखाना था कि वह उन्हीं लोगों के कौम में उन्हीं लोगों की तरह है, ताकि लोग उसकी बात ध्यान से सुनें और भरोसा करें, वह लाइन में खड़ा हो गया। नमाज जब खत्म हुई तो जाफरी ने सबको एक जरूरी पैगाम के लिए रुकने की दरख्वास्त कर दी। असदुल्ला झट लाइन से निकल कर सामने खड़ा हो गया और कहने लगा -


‘‘इस शहर फर्राटानगर को बदला जा रहा है। जो चीजें दिक्कत पैदा कर रही हैं और शहर की खूबसूरती पर असर डाल रही है, जिस जगह पर वह है, उसका वहां होना अब लाजिमी नहीं रह गया है और शहर की बढ़ती आबादी के मद्देनजर जरूरी सहूलियतों को जगह देने के लिए जगह की किल्लत हो रही है, उन्हें हटाया जा रहा है। थोड़ा ही वक्त कबल मुख्य सड़क पर बने दो मंदिरों को जमींदोज कर दिया गया। कंपनी ने अपने कई बंगले तोड़वा दिये। आप सब मोहतरम हाजरीन से इल्तिजा है कि आप भी बड़ा दिल दिखाइये और मुख्य बाजार के नजदीक मुख्य सड़क पर बने कब्रिस्तान को छोड़ दीजिये और इसके एवज में जो नया बनाया गया है उसका इस्तेमाल शुरू कर दीजिये। यहां अब मरहूमों को दफ्नाने की जगह जिंदगी को बसाने के मसौदे तैयार किये जा रहे हैं।’’




सुनने वालों में कुछ देर एक खामोशी छायी रही। फिर खुसुर-फुसुर शुरू हो गयी।


एक लड़का अपनी आवाज में तुर्शी भर कर बहुत बदतमीजी से कहने लगा, ‘‘कुछ रोज बाद यह भी कहा जायेगा कि हम मोमिनों के रहने से यहां के निवासियों को बहुत दिक्कत आ रही है, तो क्या हम लोग बड़ा दिल कर के शहर छोड़ देंगे?’’




असदुल्ला जवाब देना ही चाह रहा था कि एक दूसरा लड़का पहले वाले से ज्यादा अकड़ और तैश के साथ शुरू हो गया, ‘‘इस तरह की दलाली करने और बरगलाने के एवज में आपकी कितनी कीमत लगायी गयी है? बताइये, उतना हम लोग आपको चंदा कर के दे देते हैं।’’




‘‘देखिये, मैं जो कह रहा हूं, उसे आप अपने मजहब से ऊपर उठ कर एक इंसान के जानिब से.......।’’




‘‘बस.....बस, बहुत हो गया, अब आगे एक लफ्ज हम सुनना नहीं चाहते। जाफरी साहब! किस-किस सिरफिरे को इजाजत दे कर यहां बकवास करने के लिए बुला लेते हैं।’’




असदुल्ला ने भांप लिया कि यहां कुछ शोहदे किस्म के बेदिमाग लौंडे मौजूद हैं। इन्हें कुछ भी कहना बेकार है। वह अल्ला हाफिज कह कर वहां से निकल गया।


असद जानता था कि लोगों को समझा कर राजी कर लेना आसान काम नहीं है। आदमी की यह फितरत होती है कि वह बनी-बनायी रवायत से जल्दी डिगना नहीं चाहता। लड़कों की बेअदबी का उसने अपने ऊपर असर पड़ने नहीं दिया। 


अगले दिन एक और मस्जिद में वह हाजिर हो गया। इम्तियाज मस्जिद में जो बातें उसने कही थी, उसे तो दोहराया ही, यहां कुछ और बातें जोड़ीं, ‘‘हमें भी दूसरे मजहब वालों की तरह ब्रॉड माइंड और ऐडजस्टेबल होना चाहिए। हमें इस हकीकत को कुबूल करने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि यह जगह अब मुर्दों, कब्रों, मैयतों और जनाजों के लिए बिल्कुल मुफीद नहीं है। चारदीवारी के बाहर चारों ओर जिंदगी के तमाम कारोबार चल रहे हैं, तमाम घरों के बावर्चीखाने से तेल, मसाले की खुशबुएं फैली हैं और उनके ठीक तीन-चार गज के फासले पर जमीन के अंदर मुर्दे सड़ रहे हैं। इसे इस तरह देखना वाजिब नहीं है कि इसका यहां से हटाया जाना हमारे साथ बेइंसाफी है। हमें स्पोर्ट्समैन स्पिरिट दिखाना चाहिए और खुद ही आगे आ कर कहना चाहिए कि अगर ऐसा करने से इस शहर को नया चेहरा मिलता है और शहरवासियों को फायदा पहुंचता है तो हमें ऐसा होने देने से कोई ऐतराज नहीं है। जो नयी जगह मुकर्रर की गयी है, हम उसके लिए तैयार हैं।’’




पूरी बात सुन कर एक आदमी ने सवाल किया, ‘‘हमारे पुरखों की उन कब्रों का फिर क्या होगा, जिन पर सालों से हम फातिहा पढ़ते रहे हैं, उनकी याद में लोबान और अगरबत्ती जलाते रहे हैं। क्या नये कब्रिस्तान में उनकी कब्रों को शिफ्ट करना मुमकिन है?’’



‘‘कब्रें जितना जमीन पर होती हैं उससे ज्यादा हमारे दिलों में होती हैं, हमारे तसब्बुर में होती हैं। दिलों में खुदी हुई यादों को न बाढ़ बहा सकती है, न जलजला मिटा सकता है और न कयामत कुछ बिगाड़ सकती है। जमीनी कब्रें सिर्फ एक निशानदेही और हमारा एक वहम है। अन्यथा जिस्म तो कब की मिट्टी में तब्दील हो गयी रहती हैं। तो लोबान और अगरबत्ती जलाने व फातिहा पढ़ने के लिए आप यादों को कहीं भी जगा लीजिए।’’



एक दूसरे आदमी ने कहा, ‘‘बातों में आप हमें नहीं जीतने देंगे। आप एक शायर हैं, हमें पता है। चलिये ठीक है, अपना अंजुमन और तंजीम जो राय बना ले, हम उसी में राजी हैं।’’




इसी तरह कई मस्जिदों में भ्रमण के बाद असदुल्ला ने फारूक मदरसा के प्रिंसिपल मो. इदरीश से मुलाकात की। इदरीश कई अंजुमन कमिटियों और तंजीमों में सक्रिय था और वह लोगों में खासा मकबूल था। असदुल्ला की दलीलें सुन कर वह बुरी तरह झुंझला गया और कहने लगा, ‘‘तुम एक फालतू संस्था के मेंबर हो और अनिकेत कबीर नामक खुदमुख्तार समाज सेवक, समाज सुधारक और अपने आपको बहुत बड़ा युगपुरुष समझने वाला घटिया आदमी का भोंपू बने हुए घूम रहे हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए कि वह चतुर शेखचिल्ली तुम्हें अपने ही कौम और बिरादरी के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है और तुम घूम-घूम कर अपने ही लोगों के दिमाग में जहर भर रहे हो। अपने को शायर कहते हो लेकिन अक्ल के बिल्कुल अंधे हो।’’




‘‘इदरीश मियां, गुस्से का इजहार करने का भी एक सलीका होता है। आप तो खामखा मवालियों और शोहदों की जबान बोलने लग गये। हमारी संस्था और अनिकेत कबीर पर उंगली उठाने के पहले आपको अपनी औकात का खयाल कर लेना चाहिए। आप जो फिरकावराना जबान बोल रहे हैं उससे कभी मुस्लिमों का भला नहीं हो सकता। आप जैसे कठमुल्लों के कारण ही मुसलमान संदेह की नजर से देखे जाते हैं।’’



‘‘तुम्हारा लेक्चर मुझे नहीं सुनना है असदुल्ला खान। जाओ, चंठ किस्म के हिन्दू रहनुमाओं की जाकर गुलामी करो। कब्रिस्तान जहां है, वहीं रहेगा। कोई माई का लाल इसे हटा नहीं सकता। पहले भी इस बारे में तुम्हारे आका अनिकेत को मैं अपना इरादा बता चुका हूं। पूछ लेना उससे।’’




इदरीश के कुछ चट्टे-बट्टे भी वहां मौजूद थे। उनमें एक खूंखार चेहरा वाला टेढ़ा सा आदमी इदरीश की हां में हां मिलाते हुए कहने लगा, ‘‘इदरीश साहब, मां कसम, अगर कब्रिस्तान को कुछ हुआ तो आप सिर्फ इशारा कर देना, पूरे शहर को कब्रिस्तान में तब्दील कर दूंगा।’’



‘‘चलता हूं इदरीश मियां। सोच कर आया था कि एक सुलझे हुए दानिस्वर से गुफ्तगू होगी, लेकिन बहुत अफसोस ले कर जा रहा हूं कि यहां जो मंसूबा बना हुआ है, उसमें इंसानियत और भाईचारे की कोई जगह नहीं है।’’




बिना धैर्य खोये असदुल्ला ने और भी कई तरह के लोगों से मिलने का सिलसिला जारी रखा। काफी ऐसे भले और खुले दिल वाले लोग मिले जिन्हें इस कार्रवाई में किसी प्रकार का कोई नुकसान या दुर्भावना या जज्बात को ठेस पहुंचाने जैसा पेंच नजर नहीं आया। उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि ऐसा करने से शहर का भला होने वाला हो तो जरूर किया जाना चाहिए। कब्र का क्या है? जब आदमी मर गया तो उसे कहीं भी दफ्ना दो, क्या फर्क पड़ता है। 


कुछ ने तो यह भी माना कि जिस तरह इसके आसपास आबादी फैल गयी है और मेन मार्केट इसके मुहाने पर है, इसका यहां होना कहीं से भी उचित नहीं है। कब्रिस्तान तो ऐसी जगह होना चाहिए जहां एकांत हो, जहां मातम मातम की तरह लगे, जहां मायूसी और उदासी को महसूस करने का स्पेस मिल सके। यहां तो आप किसी सगे को गमजदा हालत में दफ्ना रहे हैं और बाहर से लाउडस्पीकर से गाने बज रहे हैं - मेरे फोटो को सीने से यार, चिपका ले सैंया फेविकोल से।आप अंदर मजार पर फातिहाखानी कर रहे हैं, बाहर बस की कानफाड़ू हॉर्न की आवाज आ रही है और चारदीवारी से सटे घर से रेडियो बज रहा है -गोरी तेरा झुमका बड़ा फंकी फंकी टाइप का।




जहां ऐसे आला खयाल और सेक्यूलर मिजाज लोग मिले, वहीं कुछ बेहद तंगखयाल के दुराग्रही, चुगद और दहशतगर्द किस्म के लोगों से भी टकराना पड़ा। उनके पास दिमाग के नाम पर एक ही शैतानी हथियार है - मरेंगे या तो मार देंगे लेकिन कब्रिस्तान को एक इंच कहीं खिसकने नहीं देंगे। इसे बचाने के लिए हमें जिस हद तक जाना होगा, जायेंगे। अगर जोर-जबर्दस्ती की गयी तो हम उसे किसी हाल में नहीं बख्शेंगे जिसके खुराफाती दिमाग की यह उपज है। इतने सालों से चले आ रहे कब्रिस्तान की बुनियाद को कल के एक मामूली लौंडे ने हिला कर रख दिया। उसे इस जुर्रत और हिमाकत के लिए सजा तो मिलनी ही चाहिए।


असदुल्ला ने अपना सिर पीट लिया। वह बुरी तरह उलझन में घिर गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने-इतने लोगों से मिलने के बाद निष्कर्ष क्या निकाला जाये। हां इतना जरूर समझ में आया कि अच्छे, उदार और रचनात्मक विचार रखने वाले लोग ज्यादा मिले और दुष्ट, नकारात्मक और क्रिमिनल किस्म के लोग कम मिले..... बहुत कम। लेकिन ये जो बहुत कम होते हैं, भले ही चंद होते हैं, ताहम जन-जीवन को असंतुलित और अस्थिर बनाने के लिए काफी होते हैं।



सारा वृत्तांत सुन-समझ कर अनिकेत ने कहा, ‘‘हम उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते असद। गालियों और धमकियों की परवाह मत करो। दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं हुआ, जिसकी सिर्फ प्रशंसा ही प्रशंसा हुई। नदी पर पुल बनता है तो उससे रोज पार करने वाले भी किसी दिन पैर और जूते के बीच एक कंकड़ के आ जाने से पुल के एक हजार नुक्स निकाल देते हैं। कहते हैं कि बालू में ठीक से सीमेंट नहीं मिलाया ठेकेदार ने, इसलिए सीमेंट से मुक्त हो कर कंकड़-पत्थर सतह पर आ गया है।’’ अनिकेत ने एक लंबी सांस ली और निस्पृह भाव से कहा, ‘‘असद भाई, तुमने बहुत मेहनत की, लोगों के बहुत गुस्से झेले। हम सभी तुम्हारे शुक्रगुजार हैं दोस्त।’’




उस दिन किसी ने आकर सूचित किया कि किसी ने बुलडोजर चलवा कर कब्रिस्तान के मेनगेट को तोड़ दिया और भीतर की सारी कब्रों को बुरी तरह रौंद डाला। अनिकेत और उसके दोस्तों का कलेजा धक से रह गया। किसने कर डाला इतना बड़ा अनर्थ?



सुबह के दस बजे थे। अनिकेत अपने साथी रंगरेज दुबे और मौज ठाकुर के साथ अपने ऑफिस में बैठ कर इस गुत्थी के बारे में माथापच्ची कर रहे थे। तभी बाहर से नारेबाजी की आवाजें आने लगीं - अनिकेत कबीर मुर्दाबाद..... सेवक संस्था मुर्दाबाद......अनिकेत कबीर मुर्दाबाद....... सेवक संस्था मुर्दाबाद......। अनिकेत देखने के लिए बाहर जाने लगा। रंगरेज दुबे ने उसे रोक दिया और कहा, ‘‘तुम चौहान साहब को फोन करो। इन्हें मैं जा कर देखता हूं।’’




बाहर लफाड़ी किस्म के दस-बारह लौंडे और साथ में तीन-चार लंबी दाढ़ी वाले अधेड़ खड़े थे। वे बहुत आक्रामक मुद्रा में थे और अनिकेत को चेताने या फिर उससे मारपीट करने आये थे। वे यह मान कर चल रहे थे कि यह काम अनिकेत और उसकी संस्था सेवक ने ही कराया है।


रंगरेज दुबे ने उनसे पूछा, ‘‘क्या आपलोगों ने अपनी आँखों से देखा है कि अनिकेत ने या हमारी संस्था सेवक ने ऐसा कराया है?’’




किसी ने गुस्से से चीखते हुए कहा, ‘‘देखना क्या है? शुरू से इसी आदमी ने पलीता लगा कर आग भड़कायी है। हमारी जान के दुश्मन तो जगह-जगह पर बैठे हैं ही, यह आदमी हमारे मरहूमों को भी नहीं बख्शना चाहता। उन्हें भी दो गज जमीन देने से इसे ऐतराज है। जब देखा कि ऐसे बात नहीं बन रही है तो इसने रात के अंधेरे में बुलडोजर चलवा दिया। हम भी इसे छोड़ेंगे नहीं।’’



‘‘आप लोग खामखा मनगढ़ंत इल्जाम मढ़ रहे हैं। हम लोग इस तरह की जोर-जबर्दस्ती करने में बिल्कुल यकीन नहीं करते। हम खुद हैरान हैं कि ऐसा किसने किया।’’



आँखों से शोले बरसाते एक और बंदा ने दलील पेश की, ‘‘चंद रोज पहले इसी के भेजे एक एजेंट, जो बदकिस्मती से मुसलमान कहता है खुद को, हमारे तंजीम के कुछ खास खास लोगों को समझाने और राजी करने के बहाने धमकाने, ललकारने और चेताने में लग गया था। जब सबने पलट कर उसे दुत्कार-फटकार दिया और बता दिया कि यह कतई मुमकिन नहीं है तो इस तरह की सीनाजोरी से कब्रों को कुचलने-मिटाने का तरीका अपना लिया गया। जिन्दा अक्लीयतों पर तो जुर्म होता ही है, अब उनकी कब्रों पर भी सितम ढाया जाने लगा।’’



रंगरेज ने समझाने की कोशिश जारी रखी, ‘‘देखिये, आप लोग नेकनीयत को बदनीयत के तौर पर तजबीज रहे हैं। हमारा दोस्त असदुल्ला खान बहुत नेक इरादे से अपनी बात कहने और आपकी राय जानने गया था। किसी के दिल को ठेस न लगे, इसका शुरू से पूरा खयाल रखा गया है। एक नया कब्रिस्तान बनाया गया ताकि आपके मरहूमों को भीड़ भाड़ और शोरगुल से दूर सुकून की जगह मिले। बावजूद इसके, पुराने को हटाने में दादागिरी और जबर्दस्ती करने के पक्ष में हम कभी नही रहे। आपलोग यकीन कीजिये, इस बर्बर कार्रवाई पर हम खुद सकते में हैं। आपलोगों से गुजारिश है कि मेहरबानी करके कानून अपने हाथ में न लें। आपको लगता है कि हम झूठ कह रहे हैं तो आप जाकर थाने में रिपोर्ट लिखवायें।’’



‘‘तुम लोगों के सिवा किसी और को गर्ज क्या पड़ा है ऐसे गैर जरूरी मुद्दे की जड़ खोदने की। कब्रिस्तान के भूत तुम्हीं लोगों की गर्दनें दबा रहे थे। तुम्हीं लोग इस शहर के हातिमताई और रोबिन हुड बनने चले हो। कभी मंदिर ढहवाते हो, कभी गाय पकड़वाते हो, कभी कंपनी के पीछे लग जाते हो।’’



‘‘यही तो हमें भी जानना है,’’ रंगरेज ने अपना संयम बनाये रखा, ‘‘कि यह तीसरा कौन है जो अपनी टांग घुसेड़ कर आपको भी भरमा दिया है और हम लोगों को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। रही बात हातिमताई बनने की, तो आपलोग नहीं समझ पायेंगे कि समाज सेवा और जन कल्याण के क्या मानी-मकसद होते हैं। आज आपको हमारी अच्छाई और भलाई की मंशा में भी खोट दिखाई पड़ रही है, इसलिए कि खुदगर्जी के चश्मे को आप उतारना नहीं चाहते। सड़कें चौड़ी हों, सुरक्षित हों, कोई भेदभाव और ज्यादती न करे..... यह सब आपको अच्छा नहीं लग रहा?’’



कुछ भी न समझने और न मानने की जिद लिये इस गुस्सैल समूह की थेथरई यहीं रुक गयी। एक दर्जन सशस्त्र पुलिसकर्मियों को ले कर पुलिस जीप आ गयी। इंस्पेक्टर ने वहां से उन्हें हटाया और थाने जा कर रिपोर्ट करने को कहा। भनभनाये हुए से वे देख लेने की धमकी दे कर वापस हो गये।


वरीय आरक्षी अधीक्षक चौहान ने अनिकेत को फोन किया, ‘‘जानता हूं कि बहुत हैरान मनःस्थिति से गुजर रहे होगे। मैंने यह पूछने के लिए कॉल नहीं किया कि बुलडोजर किसने चलाया, बल्कि यह कहने के लिए किया कि आज रात से हमारा एक विशेष सर्च ऑपरेशन चलने वाला है। आप जहां सोते हो, वहां न सो कर जगह बदल लेना। मेरी इन हिदायतों से घबराने की जरूरत नहीं है, बस एक एहतियात बरतने के खयाल से कह रहा हूं। अभी इतना ही। मैं जरा जल्दी में हूं। गुडनाइट।’’





अनिकेत को बिना कुछ पूछने-बोलने का मौका दिये, फोन डिस्कनेक्ट कर दिया गया। उसकी आँखों में हैरत का चंदोवा और भी बड़ा हो गया कि आखिर कौन है वह तत्त्व जो बीच में घुस कर उसे बदनाम कर गया और अपनी घृणित मंशा की लीद से पूरे शहर की आवोहवा को दूषित कर गया।


अगले दिन सभी अखबारों के पहले पन्ने की पहली खबर -

पुराने कब्रिस्तान पर बुलडोजर चलाया गया। 

चलाने वाले की खोज कर ली गयी। लेकिन पुलिस मौजूदा सरकार के दबाव में नाम उजागर करने से बच रही है। विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि इस कारगुजारी के पीछे सत्ताधारी पार्टी से जुड़े वे लंघीमार मुस्टंडे हैं जो कभी गाय, कभी लव जेहाद, कभी वेलेन्टाइन डे, कभी राम मंदिर आदि के नाम पर हुड़दंग और उत्पात मचाते रहते हैं।


 फारूक मदरसा के प्रिंसिपल मो. इदरीश के एफ.आई. आर. और शीर्ष सत्ता के निर्देश  के आधार पर अनिकेत कबीर को पुलिस ने हिरासत में ले लिया 


सम्पर्क 

ए - 4/6, चन्द्रबली उद्यान 
रोड नं. 1, काशीडीह, साकची 
जमशेदपुर (झारखंड) - 831001. 

मोबाइल - 9431328758


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-05-2017) को     "रखना सम अनुपात" (चर्चा अंक-2971)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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