राजेश पन्त की कविताएँ

राजेश पन्त

एक अवसर पर प्रख्यात चित्रकार पिकासो ने कहा था - 'मैं जो सोचता हूँ उसे चित्रित करता हूँ. केवल उसे नहीं जो देखता हूँ'. कवि भी कुछ ऐसे ही होते हैं जो अनदेखेपन में से देखना निकाल लेते हैं. यह वह देखना होता है, जो इस दुनिया और इस समाज के इर्द-गिर्द घटित होता रहता है लेकिन सामान्य नजरें उसे देख नहीं पातीं. राजेश पन्त की 'पगडंडिया' इसी तरह की कविता है. यह कविता राजमार्ग के बरक्स उन पगडंडियों की बात करती है जो आज प्रायः उपेक्षित हो चली हैं. उनकी तरफ देखने का वक्त नहीं है, सोचना तो अलग बात है. लेकिन अगर संवेदनशीलता बची है, अगर सद्भाव बचा है, अगर विश्वास बचा है तो इन पगडंडियों के पास ही. राजमार्ग अपने राजत्व के अभिमान में सब भूल चुके हैं. उनके लिए अब संवेदनशीलता, सद्भाव, विश्वास जैसी अनुभूतियाँ कोई मायने नहीं रखते. कवि राजेश पन्त ने इन पगडंडियों को न केवल देखा है बल्कि जिया है. यह पंक्ति वे यूं ही नहीं लिख सकते थे - 'पगडंडियों पर/ कभी नहीं सुनाई पड़ती/ कोई दुर्घटना/ पहले पहल ये शब्द/ गूँजा था हमारे कानों में/ राजमार्गों पर.' तो आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि राजेश पन्त की कुछ नयी कविताएँ.
           




राजेश पन्त की कविताएँ



पगडंडियाँ


पगडंडियाँ
उग आती हैं धरती पर
बिना किए किसी की जमीन का अधिग्रहण
या किसी को विस्थापित
और फैल जाती हैं
बेलों की तरह।

पगडंडियों पर
कभी नहीं सुनाई पड़ती
कोई दुर्घटना
पहले पहल ये शब्द
गूँजा था हमारे कानों में
राजमार्गों पर
तब पूछा था पगडंडियों ने-
"कहीं राजमार्ग खुद ही
कोई दुर्घटना तो नहीं?’’


वे नहीं छोड़ती
हमें अकेला और अजनबी
वे हमारे स्वागत में ओढ़ लेती हैं
वासंती पराग और दूब की चादर
सँवर जाती हैं
किस्म किस्म के फूलों से
महक उठती हैं मिट्टी और घास से
झूमती हैं फसलों के साथ
किलकती हैं जलस्रोतों की कलकल में
वे हमें आमंत्रित करती हैं
मुस्कुराते अनजान चेहरों में

इस दुनिया में
जहाँ हथिया लेना चाहते हैं
कुछ लोग सभी कुछ
वे सिखाती हैं हमें
जगह छोड़ देना
ताकि दूसरे भी आगे बढ़ सकें

उन्होंने छिपा रखे हैं
दराँती उध्याने वाले
पत्थरों के नीचे
पत्तों पर लिखे
न जाने कितने प्रेम पत्र
जो पढ़ाने हैं हमें
प्रेम से रिक्त होती
इस दुनिया को

पगडंडियाँ
आख्यान हैं
धरती की पीठ पर
एक अनवरत समूह नृत्य का
वे हैं
एक विलम्बित लय
धरती के कंठ में
एक आदिम राग की


धूप में स्वेटरें बुनती औरतें


जाड़ों की धूप में
गौरयों के झुंड सी
इकट्ठा हो गई हैं औरतें
ऊन सलाइयाँ और अधबुनी स्वेटरें लिए
उनकी चहचहाहट से
कुछ बढ़ गया है
धूप का ताप दिन का उजास
उनकी बातों से
खुश्क हवा में
उतर आई है
कुछ नमी

एक गहरी ठंड
उतर गई है उनकी रीढ़ में
जिसे नहीं हर पाती
रोज-रोज की धूप
अपने हिस्से की धूप से मिला ताप
वे सौंप देती हैं ऊन को
उनके हाथ उतार देते हैं उस पर
नमूने
गर्म और उजास भरे दिनों के
उनके पास है
उल्टे सीधे फंदों के पीछे
जिंदगी की तमाम उथल पुथल को
छिपा देने का हुनर


ऊन के गोले
थिरकते हैं उनके चारों ओर
धीमी पड़ जाती है पृथ्वी
उलझे हुए धागों को सुलझाते हुए
वे बीन लेती हैं
थोड़ा सा हँसता खिलखिलाता वक्त
काश वे अपने हाथों में ले लेती
पृथ्वी का उलझा हुआ गोला
और सुलझा देती
रेशा-रेशा
खोल देती हर गाँठ

बीच बीच में रुक कर
वे बाँध लेती हैं
अपने पैरों की
ठंड से सूजी हुई
दर्द से भरी अंगुलियाँ
और फिर चुभो देती हैं उनमें सुइयाँ
बूँद-बूँद चू रहे खून के साथ
बहने लगता है दर्द
दर्द से दर्द को हरने की कला
अनोखा ईजाद है उनका

कभी घड़ी भर को
धूप में ही लग जाती है आँख
तो उनकी थकी हुई देह
धँस जाती है
पृथ्वी के गोले में सलाई की तरह
कभी-कभी
वे नींद में भी बुनती हैं
नए नमूने
और अक्सर ही
आधी-आधी रात में उठ कर
उधेड़ देती हैं उन तमाम नमूनों को
जो रचे थे उन्होंने तब
जब उनके जीवन में नहीं उतरे थे
उल्टे सीधे फंदे

धूप में स्वेटरें बुनती औरतें
पीठ किए रहती हैं
सूरज की ओर
लेकिन एक दिन
वे पलटेंगी
और नजरें मिलाएंगी सूरज से
वे देखेंगी
कि कुछ औरतें ही
जलाए रखती हैं
हर रोज सूरज में चूल्हा
वे देखेंगी
कि कुछ औरतें ही बुन रही हैं
आकाशगंगाओं के भव्य नमूने
थिरकाते हुए ग्रहों उपग्रहों तारों को
कुछ औरतें ही सजाए रखती हैं
अंतरिक्ष में
निहारिकाओं के गुलदस्ते
और सुपरनोवा के फूल
कुछ औरतें ही
कमर में दराँतियाँ खोंसे
सँवार रही हैं धरती के बाल
कुछ औरतें ही अपनी धोती के छोर में
किस्म किस्म के बीज बॉध कर
हाथों में कुदाल लिए
बचाए रखती हैं
धरती की देह


एक दिन वे भर लेंगी
अपनी सलाइयों में
चूल्हे की आग
और लोहे का पैनापन
और तब कुछ बदल जाएगी
इस दुनिया की बुनाई
उभरेंगे नए नमूने
नए ताप और उजास से भरे हुए।



ओ मेरी सूर्य! ओ धरती मेरी!


ओ मेरी सूर्य!
ओ धरती मेरी!
मैं परिक्रमारत तुम्हारे गिर्द
पाता हूँ तुमसे
ताप और रोशनी
तुम्हारे गुरूत्व में बँधा
मैं महसूस करता हूँ
समूचा ब्रह्मांड

ओ मेरी सूर्य!
ओ धरती मेरी!
मैं अंकुआता हूँ
तुम्हारे ताप और नर्माई में
तुम्हारी द्युति में नहाया
मैं उठाता हूँ अपना सिर
हवाएँ चूमती हैं मेरा माथा

ओ मेरी सूर्य!
ओ धरती मेरी!
मैं कपास तुम्हारे प्रेम का
तुम्हारी गति से ऊर्जावान
उठता हूँ ऊपर
मुझे उगना है वहाँ
जहाँ खिला नहीं है
अभी भी प्रेम



हिदायत


ये स्कूल एक अनुशासित जगह है
यहाँ हर चीज बँधी है
अनुशासन में
यहाँ तक कि तुम्हारा सोचना भी
मगर तुम्हारे पैर!
तुम्हारे पैर बहुत अनुशासनहीन हैं मोहन
तुम्हारी अनुशासनहीन एड़ियाँ
हमेशा झाँकती रहती हैं
तुम्हारी घिसी चप्पल से
इस अनुशासित जगह में
वे क्या ढूंढ रही हैं मोहन


ये एक सुथरी जगह है
और यहाँ के कुछ कायदे हैं
पर तुम्हारे पैर
इन कायदों का
मखौल उड़ाते हैं मोहन
कहॉ से भर लाते हो
अपने नाखूनों में
ताजा जुते हुए खेत की
इतनी सारी मिट्टी


यहाँ सिखाया जाता है
हर चीज को करीने और नफासत से रखना
पर तुम्हारे बेडौल पैर
क्यों रहते हैं हमेशा
रूखे और खुरदुरे
वे क्यों सिसकते रहते हैं
जबकि दर्द के लिए यहाँ
नहीं है कोई जगह


इस जगह की स्मृति में
तुम्हारे पैरों के लिए कोई जगह नहीं है
पर तुम हमेशा रखना इस जगह को
अपनी स्मृति में
साफ-सुथरा नफीस और अनुशासित



सम्पर्क –

राजेश पन्त
सतीश भवन
निकट क्वाण्टम कोचिंग
पिथौरागढ़ उत्तराखंड

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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