शैलेंद्र शांत की कविताएँ

शैलेन्द्र जी
यह पृथिवी अपने विविधवर्णी रंगों की ही बदौलत ही गुलजार है. यहाँ का जीवन भी अद्भुत रूप से सहकारी है. तकनीकी शब्दावली में इसे जैविक विविधता का नाम दिया जाता है. पशु-पक्षी से लेकर पेड़-पौधे तक सहकार का यह जीवन चलता रहता है. कवि शैलेन्द्र प्रकृति के इस नैकट्य को न केवल महसूस करते हैं बल्कि इसे अपनी संवेदनाओं में शिद्दत से दर्ज करते हैं. इसी क्रम में वे अपनी एक कविता में दर्ज करते हैं कि कवि के साथ-साथ गौरैये, कौवे, चूहे, चींटी, मच्छर, झींगुर, कुत्ते-बिल्ली  जैसे जीव-जंतु भी पडोसी के चले जाने से हत्चकित, हलकान और परेशान हैं. कुछ इसी तरह के अंदाज वाले कवि शैलेन्द्र की कविताएँ अबकी बार पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं.  
  

शैलेंद्र शांत की कविताएँ

उनको कहां पता था

गर्वित थे
सीख कर हुनर
डूब-डूब कर
खूब-खूब
करते हुए भरोसा

हाथों के हुनर से
नहीं बढ़ता है देश आगे
पीछे छूट जाता है
उनको कहां पता था

कि जब आता है विकास
तो बदल जाता है मतलब
हास-परिहास का
उनको कहां पता था

हास को हंस के पंख लग जाते हैं

हाथ पर धरे हाथ
बैठे तकते हैं
सुनी आंखों से आकाश
हुनरमंद हाथ

और उनकी तरफ
ईश्वर भी नहीं देखता
पलट कर
उनको कहां पता था।



कहां चले गए वे भद्र पड़ोसी


गौरेयों ने बदल दिया
अपने अशियाने को
कई दिनों तक चहचह किया
पंख भी फड़फड़ाए थे
पुर जोर
फिर निकल पड़े
नए ठिकाने की तलाश में
न जाने किस ओर

मैने नीम के पेड़ से
बंद खिड़की की ओर
टकटकी लगाए रहे कई रोज
इसी तरह गुजर गए कई भोर
तो मन मसोसते हुए
रोक दी आवाजाही

बेचारे कौवे ने तो जख्मी कर लिए
अपने चोंच
शीशे की खिड़की पर दस्तक देते-देते
नहीं खुली खिड़की
नहीं आई आवाज
अंदर से

चूहे राम भी रहे
परेशान कई दिनों तक
बड़ी मचाई उधम
मैदान साफ का साफ
खालीपन उनको भी खूब खला
ऐसे में कैसे टिकते भला

छिपकलियों ने
खूब मचाई दौड़
इधर से उधर
कई-कई दिन
पर रात के अंधेरे से हो गए परेशान
कीट-पतंगे भी न जाने कहां हो गए गायब
घरवालों की तरह

चींटी, मच्छर, झींगुर...
सब के सब
हुए उदास
छोड़ दी आस
आखिर में

कुत्ते-बिल्ली भी थे हत्चकित

कहां चले गए वे भद्र पड़ोसी।





कि होती है कोई और बात
 


शिखर की होती है कोई धुरी
होनी चाहिए शिखर की कोई धुरी
नजर आता है इन दिनों कोई शिखर
हिमालय की तरह किए हुए ऊंचा माथा
चलिए यह पता किया जाए
कि शिखर जब अपनी धुरी से छिटकता है
अगर सचमुच होती होगी उसकी धुरी
तो क्या वह इसके नतीजे से होता वाकिफ
शिखर जब बहकता है
तो क्या वह शराबियों सा व्यवहार
करने लगता है
या लगता है भौंकने
काट खाने का पालने लगता है इरादा
या इससे भी कुछ ज्यादा
अच्छा धुरी से छिटकना
उसकी कैसे बन जाती है मजबूरी
क्या उसे सालने लगता है डर
शिखर से उतर जाने का
कि होती है कोई और बात।




हँस रहे हैं बेदम


हम और तुम
जाने कब से बैठे हैं
गुमसुम-गुमसुम

चुप-चुप
मौन की आवाज को
रहे हैं सुन।

पर जब से
ऐसे बैठे हैं
वे खुश हैं

हमारे बोलने पर
दबा लिया करते थे दुम
वे खुश हैं
हंस रहे हैं बेदम।



उस दिन से


मारो इतना जोर
कि अंगुलियां उभर आएं
गालों पर
झनझना उठे कान
फिर सहला दो
हल्के-हल्के
पुचकार दो जरा प्यार से
भूल जाएगी
भूल जाएगी
जनता प्यारी-प्यारी
पर जिस दिन समझ जाएगी
तुम्हारी मक्कारी
उस दिन से पड़ने लगेगी
तुम पर भारी।




सेंसेक्स झूमा


झूमा रे झूमा
सेंसेक्स झूमा
ऐसा झूमा
कि झूम उठी मुंबई
कि झूम उठी दिल्ली

दौड़ती-भागती
आएगी विदेशी पूंजी
भरेगी झोली उनकी
भरी है झोली जिनकी

वे जेबें और होंगी खाली
पहले से थीं जो खाली
उछलेगा बाजार
मनेगी उनकी दिवाली
जिनकी मनती रही है अब तक।



और एक हम हैं...


वह तो घूमती रहती है
अनवरत वगैर विश्राम के
धुरी पर अपनी
वह भी उगता
और डूबता रहा है
बिना किए नागा
और वह भी
हौले-हौले उघाड़ता
और ढंकता रहा है
अपना चेहरा
अनगिनत वे सारे
टिमटिमाते बेचारे
हरदम, संग-संग
और एक हम हैं
कि सिंकुड़ते जाते हैं
छिटकते जाते हैं
जब-तबहर पल...



सहेज कर रखें इस उम्मीद को


बचा रहेगा बहुत कुछ
पेड़-पौधे, जंगल-पहाड़
नदी-नाले, समुद्र-तालाब
मेले-ठेले, खेत- खलिहान
हाट-बाजार,सद्व्यवहार
रिश्ते-नाते लोरी गाते
निश्छल बचपन, उन्मत यौवन
धीर बुढ़ापा जीवन को गाता
घर-गिरहस्थी, हंसी व मस्ती
संग-संग जंग जिंदगी की
कोशिशें बेहतरी की
बचा रहेगा बहुत कुछ
तमाम हैवानी हरकतों के बावजूद
बची रहेगी पृथ्वी
दफ्न हो जाएंगे
विध्वंस लीला के
सारे के सारे खिलाड़ी
एक दिन
इस उम्मीद को
सहेज कर रखा जाए सीने में।



सावधान!


वे तर्क नहीं कर सकते
न सुन सकते हैं आलोचना
वे वहीं के वहीं कैद रखना चाहते है
पूरे के पूरे विवेक को
यहां तक कि पाषाणों के नीचे
कर देना चाहते हैं दफ्न
किसी भी नए विचार को
कभी कटार चलाते थे
या फिर बर्छी-तलवार
या फिर ईंट-पत्थर-लाठियां
अब बम-गोलियां
या फिर रसायनिक गैस
सफदरों, सुष्मिताओं-सावधान!



अनवरत


आदत सी हो गई है
उनकी
वादे किया करते हैं
तोड़ देते हैं
आदत सी हो गई है
हमारी भी
खुश हो लेते हैं
लड़-झगड़ लेते हैं
आपस में
उनके वादे पर
इस तमाशे से
वे हमसे ज्यादा खुश हो लेते हैं
फिर वादे करते हैं
फिर तोड़ देते हैं
हम फिर खुश होते हैं
फिर लड़ते- झगढ़ते हैं...
कमबख्त यह सिलसिला
नाम ही नहीं लेता
खत्म होने का।





आलोचना 
  

आ(ओ) लो(खाओ) चना
भीगोया हो, भुना हो, चाहे सख्त सूखा
हड़बड़ी में स्वाद नहीं बताना
हालांकि मुश्किल है तूझे समझाना
करना किसी बात से मना
फिर भी आलोचना को
होनी ही चाहिए आलोचना




हैरान था सैलानी


बर्फ पिघल रही थी
पिघल रही थी
थरथराती जमीन
दम साधे बैठी थी
वनस्पतियां अंगडाई ले रही थीं
दूब तन रही थी आहिस्ता-आहिस्ता
नदियां खिलखिलाने लगी थीं
थिरकने लगी थीं मछलियां
सारस मटकने लगे थे
मांझी मदिरा गटकने थे
प्रेमी बैठने लगे देर तलक
नदिया तीरे
टहलने लगे थे अरमान
बर्फ उतरने लगीं थी
पिघल कर पहाड़ों से
हैरान हो रहा था   सैलानी
एक साथ कई चीजें घटित होते देख।



वह नहीं भूलती


उसके दस्तक के साथ
ठहर जाता है घड़ी का कांटा
धड़कनें ठहर जाती हैं
उड़ान भरना भूल जाते हैं पखेरू
थम जाता है जाने क्या-क्या
अचानक कुछ लोग मुखर हो जाते है
लेखा-जोखा पेश करने लग जाते हैं
पहली बार अवगुणों पर सवार होता है गुण
दुश्मन दोस्त की तरह पेश आते हैं
जीवन की यह गति ही है सबसे सुंदर सत्य
सफेद चादर ताने शख्स को इस आत्मज्ञान से
कहां रह जाता है कुछ लेना-देना
वे भी भूल जाते हैं दर्शन
बस थोड़ी ही देर बाद
पर वह नहीं भूलती दस्तक देना...

खुश हो जाती हैं तिजोरियां...

सरसों के फूल झर जाते हैं
गेहूं की बाली कांपने लगती है
आम के मोजर बिखर जाते हैं
माथे पर लकीरें खिंच जाती हैं
कोई रोने लगता है छुप कर
कोई पीटने लगता है छाती
कोई भाग जाता है गांव छोड़
जब भी होती है बेमौसम बरसात
खुश हो जाती हैं तिजोरियां...



सम्पर्क --

जीवनदीप अपार्टमेंट
तीसरी मंजिल, प्लैट-8
36, सबुजपल्ली, देशप्रियनगर,  
बेलगरिया,कोलकाता
700056

मोबाईल - 09903146990

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

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